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छह महीने पहले, मेनका गांधी की अध्यक्षता में, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा अपनाए गए गोद लेने के नए नियम में कुछ अच्छी खबर है, कुछ बुरी खबर है तो कुछ बेचैन करने वाले आंकड़े भी हैं।

राहत की खबर यह है कि अब गोद लेने कि प्रक्रिया जल्द पूरी हो सकेगी - ऑनलाइन और पहले से कहीं अधिक पारदर्शी होगी।

बुरी खबर है कि गोद देने वाली एजेंसियां परेशान हैं – अदालत में सरकार के नए नियम को चुनौती दी है।

बेचैन करने वाले आंकड़े यह हैं कि, देश में 50,000 ग्रहणीय अनाथ बच्चों में से 1,600 बच्चों से अधिक गोद के लिए तैयार नहीं हैं। इनमें से आधे बच्चों के लिए करीब 7,500 परिवार कतार में हैं। और अन्य आधे बच्चों को या तो किसी प्रकार की चिकित्सा समस्या है या फिर उनकी उम्र दो वर्ष से अधिक है - भावी भारतीय माता-पिता के लिए अवांछनीय लक्षण लेकिन कई विदेशियों के लिए नहीं है।

भारत में गोद लेना, 2010-2015

नए नियमों के हिस्से के रुप में, सभी दत्तक अभिभावक एवं बच्चों को गांधी की मंत्रालय द्वारा एक साथ, एक डेटाबेस में लाया गया है, जो केन्द्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण या कारा द्वारा प्रबंधित किया जाएगा। इस कदम से कई सकारात्मक बाते हो सकती हैं: गोद लेने वाले अभिभावक, बिना गोद देने वाली एजेंसियों के हस्तक्षेप के, देश के किसी भी हिस्से से बच्चा चुन सकते हैं। यह गोद लेने की इच्छा वाले अभिभावकों को लंबी प्रतीक्षा पर रखने के बजाए एक वरिष्ठता नंबर से साथ वाला एक पारदर्शी प्रणाली है; और इससे मनमानेपन में भी कटौती होगी क्योंकि अब गोद देने वाली एजेंसियां के पास यह निर्णय लेने का अधिकार नहीं रह जाता है कि किस अभिभावक के लिए कौन से बच्चे का मेल सही रहेगा।

जिन दत्तक ग्रहण एजेंसियों से इंडियास्पेंड ने बातचीत की उनका इस निर्णय से बाहर किए जाने पर दुख और गुस्सा साफ दिखा। कई एजेंसियों का कहना था कि वे यहां काम करने के लिए हैं ‘न कि केवल कंप्यूटर पर बैठने के लिए है’। सीएआरए अधिकारियों का तर्क है कि गोद देने वाली ऐजेंसियों के पास अब भी परामर्श में प्रमुख भूमिका है, जिससे माता-पिता को कागज़ी कार्यवाही पूरी करने में मदद मिलेगी। ऑनलाइन प्रणाली से गोद देने वाली एजेंसियों का किसी विशेष अभिभावक के पक्ष में निर्णय लेने पर भी रोक लगेगी।

फ्लाविया एग्नेस, मुंबई के एक वकील, जिन्होंने महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार एवं बच्चों की तस्करी से जुड़े मद्दों पर काम किया हैं, कहते हैं कि कई गोद देने वाली एजेंसियों का अधिक पैसे देने वालों (अक्सर जो अभिभावक विदेश में रहते हैं) को बच्चा देने के साथ गोद देना एक “रैकेट” बन गया है।

हर कोई इससे सहमत नहीं है। एजेंसी प्रतिनिधियों का कहना है कि तस्वीरों के आधार पर, ऑनलाइन बच्चों का चयन करना “बच्चों की खरीददारी” की तरह है। नए दिशा निर्देशों के खिलाफ, महाराष्ट्र में दत्तक ग्रहण एजेंसियों ने अदालत में चुनौती दी है।

सुनील अरोड़ा, संघ के प्रमुख जिसमें 22 संबद्ध गोद देने की एजेंसियां हैं, कहते हैं कि, “माता-पिता के साथ बच्चे के मिलान की प्रक्रिया पेशेवर काम है। हम विचार विमर्श के बाद ही माता-पिता को किसी बच्चे का प्रस्ताव देते हैं। हम घर का अध्ययन भी करते हैं जिससे उनके परिवार को समझने का मौका मिलता है।”

पालना, दिल्ली में एक गोद देने वाली एजेंसी है जो करीब 38 वर्षों से इस काम में हैं, की लोरेन कैम्पोस के विचार संतुलित हैं। उनका कहना है कि कुछ एजेंसियों नई प्रणाली को सिर्फ परिवर्तन के डर से अपनाने से कतरा रही हैं। उन्होंने यह भी कहा कि, बच्चे के प्रोफाइल ऑनलाइन जाने से पहले बच्चे और अभिभावक के बीच सही मेल ढ़ूंढ़ने के लिए एजेंसियों को कम से कम 1 महीने का समय दिया जाना चाहिए। इस बीच के रास्ते से एजेंसियां इस प्रक्रिया में खुद को जुड़ा हुआ महसूस करेंगी।

मदर टेरेसा द्वारा प्रसिद्ध हुए मिशनरीज ऑफ चैरिटी के साथ कुछ एजेंसियों ने बच्चा गोद देना पूरी तरह से बंद कर दिया है, जैसा कि पिछले साल वाशिंटन पोस्ट की रिपोर्ट में बताया गया है।

नई प्रणाली है तेज, कम अपारदर्शी, लेकिन भारतीयों काफी हद तक अंतिम उपाय के रूप में अपनाते हैं

इसमें कोई शक नहीं है कि नई प्रणाली तेज और कम अपारदर्शी है है।

स्रोबना दास और स्वर्ण वेंकटरमण, दो माताएं जिंहोंने पुराने नियम के तहत बच्चे गोद लिए एवं फेसबुक पर एक ग्रूप संचालित करती हैं एवं दत्तक माता पिता को शिक्षित एवं सलाह देते हैं, कहती हैं कि नए नियम लागू होने के बाद से गोद लेने की संख्या में वृद्धि देखी गई है।

वेंकटरमन कहती हैं कि, "नई प्रणाली साफ, स्वच्छ और कुशल है। बच्चे घर तक पहुंच रहे हैं। हम जानते हैं कि पुराने प्रणाली में लोगों को कितनी प्रतिक्षा करनी पड़ती है। एजेंसी हमसे कहेंगें कि आपका नंबर अभी तक नहीं आया है।"

वेंकटरमन आगे बताती हैं कि 500 सदस्यों का क्लोजड फेसबुक ग्रूप रोजाना एक बच्चे के गोद लेने की रिपोर्ट देता है। वरिष्ठता नंबर अभिभावकों को सुनिश्चित कराता है कि बच्चे कब तक उन तक पहुंचेंगे। एक हेल्पलाइन भी है। पुरानी प्रणाली से गोद देने वाली एजेंसियों से अभिभावकों के जुड़ने से उनके पास विकल्प कम हो जाते थे एवं प्रतीक्षा का समय भी लंबा होता था, कभी-कभी यह समय दो वर्ष का भी हो जाता था।

वीरेन्द्र मिश्रा, कारा के सचिव कहते हैं कि, "पिछले कुछ महीनों में, 6000 घरों का अध्ययन रिपोर्ट किया गया है।" दिशा-निर्देशों में यह अनिवार्य किया गया है कि एजेंसियों द्वारा गोद लेने की इच्छुक अभिभावकों के घर का अध्ययन किया जाए। यदि अभिभावकों द्वारा ऑनलाइन चुने बच्चे को एजेंसी देने से मना करती है तो उसके लिए मजबूत कारण दिए जाने चाहिए।

सरकार के लिए प्रमुख बाधा नाराज़ एजेंसियां नहीं बल्कि लोगों की मानसिकता है – जो कि अब भी गोद लेने को अंतिम उपाय मानते हैं। अधिकांश भारतीयों जैविक बच्चे पसंद करते हैं। यदि गोद लेने की सोचते हैं तो छोटे बच्चे को गोद लेना पसंद करते हैं। विशेष जरूरतों के साथ या चिकित्सा समस्याओं के साथ बच्चे को गोद लेने के लिए उच्च भावनात्मक और शारीरिक लागत को देखते हुए अनदेखी की जाती है।

दत्तक माता-पिता, क्षेत्रीय और रंग पूर्वाग्रहों को छोड़ रहे हैं लेकिन लेकिन एजेंसियां आपत्ति कर सकती हैं, जैसे कि सिक्किम के एक अभिभावक को इसलिए बच्चा देने से मना किया गया क्योंकि उनके चेहरे की विशेषता मेल नहीं खाती है, समायोजन मुद्दे बाद में उभर सकते है।

दो विशेष समस्याएं जिसे कारा को पार करना है वह हैं, गोद लेने को बढ़ावा देने और गोद लेने की प्रणाली में और अधिक बच्चों को लाना। ग्रहणीय बच्चों की संख्या 1600 से अधिक करना है, जैसा कि मंत्री ने वादा किया है। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष के अनुसार, सभी अनाथ बच्चे ग्रहणिय नहीं हैं क्योंकि हो सकता है वे अपने विस्तृत परिवारों के साथ रह रहे हों।

इसे पूरा करने का एक तरीका है कि यह सुनिश्चित करना कि भारत के 341 जिला बाल संरक्षण इकाइयां, लाइसेंस वाली गोद देने की एजेंसियों को ग्रहणीय अनाथ बच्चों या परित्यक्त बच्चों को लाने के प्रति संवेदनशील हो एवं अधिक ग्रहणीय बच्चों की पहचान करे। सरकार को बच्चे गोद लेने के प्रक्रिया में "कानूनी तौर पर मुक्त" घोषित करने में, नौकरशाही प्रक्रिया को कम करने की कोशिश करनी चाहिए, जिसमें पुलिस क्लिएरेंस शामिल है, एक प्रक्रिया जो लंबी हो सकती है।

शेफाली सीमन्स और रतन सुवर्णा: "मैं वहाँ (गोद लेने वाली एजेंसी) गई और मेरे आंसू फूट पड़े। मेरी बेटी सोच रही होगी...कैसी मां हूं मैं।

पुरानी प्रणाली के दौरान सेफाली सीमन्स को झटका तब लगा जब जिस गोद देने वाली एजेंसी में इन्होंने रजिस्टर कराया था, वह इनके विदेश में होने के कारण इनसे संपर्क नहीं कर सकीं एवं इनका नाम ही गोद लेने वालों की लिस्ट से हटा दिया।

पिछले साल जून में, जब कारा के नए दिशा-निर्देश ने आकार लेना शुरु किया था तब सीम्नस को केंद्रीकृत डेटाबेस के बारे में बताया गया था। इनकी शादी को आठ वर्ष हो गए थे और गोद लेने के संबंध में वे उलझन में थे।

33 वर्षिय, एक ऑनलाइन ट्रैवल कंपनी की राष्ट्रीय बिक्री प्रमुख सीमन्स कहती हैं कि “मैंने इसे भाग्य का मान लिया था।"

बाद में जब बच्चा गोद लेने का मन बनाया तो उन्होंने एजेंसी में रजिस्टर कराया। उन्हें तीन बच्चों के प्रोफाइल भेजे गए। उसमें से एक बच्चे को उन्होंने चुना और एजेंसी से संपर्क किया और जवाब सुन कर उनका दिल भर आया।

जिस बच्चे को सिमन्स ने चुना था उसे दक्षिण अफ्रिका के एक दत्तक माता-पिता के लिए भेजा जा चुका था और बिहार की उस एजेंसी ने बच्चे का प्रोफाइल तब भी डेटाबेस में रखा हुआ था। सीमन्स बहुत नाराज़ हुई

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बंग्लुरु में रहने वाले शेफाली सीमन्स और रतन सुवर्णा ने नए नियमों के तहत सफलतापूर्वक बच्चे को गोद लिया है।

सीमन्स ने फिर से कोशिश की। इस बार डेटाबेस कुशल था। इस बीच सीमन्स बच्चों को गोद लेने वाली सूची में जगह बनाए रखने के लिए लगातार कारा हेल्पलाइन की संपर्क में थीं।

सीमन्स ने यह भी महसूस किया कि बच्चे को गोद लेने के लिए उन्हें सारे पूर्वाग्रह त्याग कर, बच्चे के ‘देश के किसी भी कोने’ से अपनाने के लिए तैयार होना। कारा, अभिभावकों को तीन राज्ये से बच्चे चुनने का विकल्प प्रदान करता है।

दिसंबर 2015 में रांची की एक गोद देने वाली एजेंसी के ज़रिए सीमन्स की बेटी उनके घर तक पहुंची। गोद लेने की पूरी प्रक्रिया में सीमन्स के लिए कारा काफी मददगार साबित हुई है।

गोद लेने की पूरी प्रक्रिया में सीमन्स के लिए कारा काफी मददगार साबित हुई है।

सीमन्स कहती हैं कि हर अभिभावक शिक्षित और टेक्नोलोजी के साथ उतना सहज नहीं हो सकता है जितनी कि वह हैं। वह सुझाव देती हैं कि गोद देने वाली एजेंसियों को अपने ऑनलाइन बुनियादी ढांचे बनाने के अलावा ऑनलाइन प्रक्रिया में माता पिता की मदद भी करनी चाहिए।

प्रतीक और पूनम शर्मा: दो असफल आईवीएफ प्रयासों के बाद, उन्हें एक बच्चा मिला जो हेपेटाइटिस सी से ग्रसित था… ‘हमारी ज़िंदगी ठहर सी गई...’

गुड़गांव में रहने वाले 39 वर्षिय प्रतीक और पूनम धीरे-धीरे अपने दुख की गठरी खोलते हैं। इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) के बाद, वर्ष 2011 में पूनम ने बेटी को जन्म दिया। लेकिन जन्म के दो महीने बाद ही, हिर्स्चस्प्रुंग रोग, आंतों की समस्या एवं कई अन्य गंभीर जटिलताओं के कारण उनकी बेटी जीवित नहीं रह सकी। बेटी को याद करते हुए प्रतीक कहते हैं, “आपके गोद में बच्चा है और वो चला जाता है...यही हमारे साथ हुआ है।”

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गुड़गांव में रहने वाले पूनम एवं प्रतीक शर्मा, कारा के नए ऑनलाइन डेटाबेस में बच्चों के मेडिकल रिकॉर्ड में पारदर्शिता के लिए जोर दे रहे हैं।

शर्मा दंपत्ति ने आईवीएफ का एक और प्रयास किया, लेकिन सफल नहीं हो पाए। फिर इन्होंने बच्चा गोद लेने का मन बनाया है।

नई ऑनलाइन प्रणाली का इस्तेमाल कर, पूनम को दिसंबर में तीन बच्चों के विकल्प दिए गए। शर्मा दंपत्ति पंजाब के लुधियाना शहर तक इनमें एक बच्ची को मिलने गए, जिसे इन्होंने बेटी बना कर घर लाने का मन बनाया था।

उन्होंने बच्ची से मुलाकात की। जल्द ही बच्ची प्रतीक और पूनम के साथ घुल-मिल गई थी। घर ले जाने से पहले उन्होंने बच्ची की मेडिकल जांच कराने की बात की। एजेंसी के एक प्रतिनीधि के साथ अस्पताल गए जहां एचआईवी, थायराइड और हेपेटाइटिस के लिए खून का नमूना लिया गया। मोबाइल फोन में शर्मा दंपति बच्ची की तस्वीर लिए दिल्ली लौट आए। कुछ दिन बाद, ई-मेल के ज़रिए उन्हें रिपोर्ट भेजा गया। बच्ची हेपेटाइटिस सी स पीड़ित थी। शर्मा के पारिवारिक डॉक्टर के मुताबिक बच्ची की ठीक होने की उम्मीद बहुत कम थी।

प्रतीक और पूनम दोनों गोद देने वाली एजेंसियों और कारा से अधिक चिकित्सा पारदर्शिता चाहते हैं।

(कालरा दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स की पूर्व छात्रा एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं। रायटर, मिंट और बिजनेस स्टैंडर्ड जैसे कई पत्रिकाओं से जुड़ी हुई हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 5 मार्च 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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