भारत को एनीमिया मुक्त करने का लक्ष्य, जो 70 वर्षों में नहीं हुआ, क्या अब हो पाएगा?
नई दिल्ली में हाल ही संपन्न 11वें वर्ल्ड कांग्रेस ऑन एडोलेसेन्ट हेल्थ में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के सचिव प्रीती सूडान ने घोषणा की कि "भारत को एनीमिया मुक्त बनाने के लिए सरकार समर्पित, निवारक और बढ़ावा देने वाली रणनीतियां बना रही हैं।
भारत को एनीमिया मुक्त बनाना, एक लंबे रास्ते से गुजरने जैसा है।
एनीमिया एक ऐसी स्थिति है जिसमें एक व्यक्ति की सामान्य से कम लाल रक्त कोशिकाएं होती हैं या हीमोग्लोबिन की कम मात्रा होती है। इससे खून के द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों तक ऑक्सीजन ले जाने की क्षमता कम हो जाती है और कई स्वास्थ्य समस्याएं पैदा होती हैं। कई मामलों में मृत्यु तक हो जाती है। जिस देश में 40 फीसदी से अधिक आबादी एनीमिया से ग्रसित हो तोयह एक गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या तो है ही। यहां यह बता देना भी जरूरी है कि महिलाओं और बच्चों में एनीमिया भारत में आधी सदी से एक बड़ी समस्या बनी हुई है।
हीमोग्लोबिन का निम्न स्तर उत्पादकता निम्न कर देता है और बीमारी और मृत्यु का कारण बनता है। इससे जिंदगी पर आर्थिक बोझ बढ़ता है। वर्ष 2016 में, एनीमिया से सकल घरेलू उत्पाद में 22.64 बिलियन डॉलर (1.50 लाख करोड़ रुपए) के नुकसान का अनुमान लगाया गया था, जो वर्ष 2017-18 के लिए जारी स्वास्थ्य बजट से तीन गुना से अधिक है।
महिलाओं और बच्चों में एनीमिया की समस्या को रोकने के लिएएक बड़ा कार्यक्रम वर्ष 1970 में शुरु हुआ था। इसके बावजूद, 2015 में आधे से ज्यादा लक्षित आबादी एनीमिक बनी हुई थी। हालांकि स्वास्थ्य मंत्रालय ने एनीमिया को पूरी तरह से खत्म करने का लक्ष्य रखा है। सरकार के इस लक्ष्य पर इंडियास्पेंड ने मौजूदा रणनीतियों का विश्लेषण किया है, जिससे कुछ ऐसी बातें सामने आईं हैं, लक्ष्य प्राप्ति के लिए जरूरी है।
एनीमिया का प्रसार
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानदंडों के अनुसार, यदि पुरुषों में हीमोग्लोबिन स्तर प्रति डेसिलिटर (डीएल) पर 13.0 ग्राम (जी) से कम है तो उन्हें एनीमिया से ग्रसित माना जाता है। यदि महिलाओं में 12.0 जी / डीएल से स्तर कम है और वे गर्भवती नहीं हैं तो वे एनीमिया से ग्रसित हैं। गर्भवती महिलाओं में, 11.0 ग्रा / डीएल से कम स्तर एनीमिया का संकेत देते हैं।
हाल ही में जारी वैश्विक पोषण रिपोर्ट 2017 के अनुसार प्रजनन उम्र (15 से 49 वर्ष) की महिलाओं में करीब आधी ( 51 फीसदी ) एनीमिया से पीड़ित हैं। वर्ष 2015-16 में चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस -4) में इतनी ही आबादी (53 फीसदी) के एनीमिक होने का अनुमान लगाया गया था।
यह अनुमान 2005-06 में एनएफएचएस-3 में दर्ज किए गए 55 फीसदी से मामूली रुप से कम है और डब्लूएचओ संग्रह में रिकॉर्ड किए गए सबसे पहले शोध, 1958 क्षेत्रीय अध्ययन के 63.7 फीसदी की तुलना में केवल 10 प्रतिशत अंक कम है।
वर्तमान के तेलंगना में वर्ष 1961 में हुए अध्ययन में एक से छह वर्ष के आयु के बच्चों को शामिल किया गया था। अध्ययन में 52.2 फीसदी बच्चों में एनीमिया का प्रसार पाया गया। वर्ष 2015 में इसी आयु वर्ग के अखिल भारतीय अध्ययन में यह आंकड़ा 58.4 फीसदी था।
पुरुषों में, 20 फीसदी या पांच में से एक एनीमिया से पीड़ित हैं, जो महिलाओं में व्याप्तता के मुकाबले कम जरूर है लेकिन चिंता का विषय तो है ही। तथ्य यह भी है कि पुरुषों में एनीमिया की समस्या पर जरा भी ध्यान नहीं दिया गया गया है और वर्ष 1958 के बाद से इसके प्रसार में बदलाव नहीं हुआ है।
भारत में एनीमिया समस्या, 1958-2017
India's Anaemia Problem, 1958-2017 | |||||
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Segment | Prevalence In % | ||||
1958 | 1961 | 2005-06 | 2015-16 | 2017 | |
Women | 63.7% | NA | 55.2% | 53.1% | 51.0% |
Children | NA | 52.2% | NA | 58.4% | NA |
Men | 22.3% | NA | 24.2% | 22.7% | NA |
Source: World Health Organization (for 1958 and 1961); National Family Health Survey IV (for 2005-06 and 2015-16); Global Nutrition Report 2017. NA: Data not available.
अब तक का प्रयास
दुनिया भर में एनीमिया का सबसे आम कारण पोषक तत्वों की कमी है। भारत में पोषण संबंधी कमी से संबंधित एनीमिया के लगभग आधे मामलों में कारण, कम आयरन अन्तर्ग्रहण करना है। विटामिन बी9 (फोलेट) और बी12 के अपर्याप्त सेवन भी यह समस्या बनी हुई है।
एनीमिया से निपटने के लिए प्रमुख पहल 1970 में शुरु की गई थी। इस योजना का नाम राष्ट्रीय एनीमिया प्रॉफिलैक्सिस प्रोग्राम था, जिसमें दो कमजोर वर्ग, गर्भवती महिलाओं और 1 से 5 वर्ष की आयु के बच्चों के बीच लोहे और फोलिक एसिड गोलियों के वितरण पर केंद्रित किया गया था।
कार्यक्रम के बावजूद, 2005 के बाद से लोहे की कमी से एनीमिया, भारत में विकलांगता का मुख्य कारण है। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने इससे पहले भी अक्टूबर 2016 की रिपोर्ट में बताया है।
इस संदर्भ में विकलांगता का मतलब अच्छे स्वास्थ्य की अनुपस्थिति है। वास्तव में, 1990 की तुलना में, वर्ष 2016 में आयरन की कमी से एनीमिया, विकलांगता का एक बड़ा कारण था, जैसा कि चिकित्सा पत्रिका ‘लैनसेट’ के एक नए अध्ययन में बताया गया है।
भारत में 20 फीसदी मातृ मृत्यु का कारण एनीमिया है और 50 फीसदी मातृत्व मौतों में सहयोगी कारण होता है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने अक्टूर 2016 की रिपोर्ट में बताया है। यह बच्चों में जन्म के समय कम वजन का कारण बनता है और उनमें संज्ञानात्मक विकास और भौतिक विकास से जुड़े मुद्दे आजीवन जोखिम रहते हैं। स्वस्थ साथी के मुकाबले एनीमिया से पीड़ित बच्चे 2.5 फीसदी कम कमाते हैं।
ऐनीमिया क्यों होता है?
इंडियास्पेंड के साथ बात करते हुए, सार्वजनिक स्वास्थ्य पोषण विशेषज्ञ शीला वीर कहती हैं, "कम राजनीतिक प्रतिबद्धता बड़ा कारण है।” इस क्षेत्र में शीर के पास 30 वर्षों का अनुभव है। वह आगे कहती हैं, "हमने कभी भी एनीमिया की समस्या को गंभीरता से नहीं लिया जैसा कि हमारे पास होना चाहिए, और इसलिए हमने प्रभावी ढंग से हस्तक्षेप को लागू नहीं किया और न ही हमने हस्तक्षेपों को डिजाइन किया ताकि आयरन युक्त आहार सेवन को बढ़ाने के लिए हर संभव कोशिश की जाए।“
एनीमिया समस्या को हल करने के लिए सरकार की सबसे बड़ी पहल, राष्ट्रीय एनीमिया प्रोफिलैक्सिस प्रोग्राम, के नाम पर मुद्दा उठाते हुए, वीर ने बताया कि ‘प्रोफिलैक्सिस’ का मतलब निवारक उपचार है, और यह कार्यक्रम ‘सतही’ है, क्योंकि भारत में कुपोषण के उच्च दर और मातृ मृत्यु दर को केवल निवारक हस्तक्षेप के रूप में माना जाता है। वह कहती हैं, "इसे रोकने और प्रबंधित करने के लिए हमें एनीमिया के खिलाफ प्रयासों की जरुरत है और यह जरुरत आने वाले कई सालों तक बनी रहेगी। "
निरंतर समस्या को उठाने से एनीमिया पर स्वास्थ्य मंत्रालय के ध्यान को तेज करने में मदद मिली है। वर्ष 1991 में, प्रमुख कार्यक्रम का नाम बदलकर राष्ट्रीय पोषण संबंधी एनीमिया नियंत्रण कार्यक्रम रखा गया और राष्ट्रीय बाल जीवन रक्षा और सुरक्षित मातृत्व कार्यक्रम का हिस्सा बन गया, जो स्वास्थ्य और बीमारी से संबंधित माताओं और बच्चों की समग्र आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयास करता है। लोहे-फोलिक एसिड की खुराक की मात्रा में भी वृद्धि हुई।
फिर भी, एनीमिया लगातार बना बना हुआ है। इसका कारण अपेक्षित लाभार्थी तक पर्याप्त मात्रा में पूरक आहार पहुंचा पाने में असफल रहना और लाभार्थियों द्वारा प्राप्त खुराक का सेवन न करना रहा है।
आयरन-फोलिक एसिड की खुराक राष्ट्रीय पोषण एनीमिया नियंत्रण कार्यक्रम के तहत वितरित करने के लिए बनाया गया है और किशोरावस्था के एनीमिया को कम करने के लिए वर्ष 2013 में पेश की गई एक पहल साप्ताहिक आयरन और फोलिक एसिड सप्लीमेंटेशन (वाईफैस) प्रोग्राम में अनुमान लगाया गया है कि सभी किशोर लड़कियों में से आधी से ज्यादा प्रभावित हैं और जबकि तीन किशोर लड़कों में से 1 लड़का प्रभावित है।
फिर भी, एनएफएचएस-3 के दौरान 6- 59 माह की आयु के बच्चों में, 95.4 फीसदी बच्चे लौह अनुपूरक प्राप्त नहीं करते पाए गए हैं। ग्रामीण बच्चों के अनुपात की तुलना में परिशिष्ट प्राप्त करने वाले शहरी बच्चों का अनुपात दोगुना रहा है। शहरी बच्चों के लिए यह अनुपात 7 फीसदी रहा है। ग्रामीण बच्चों के लिए यह आंकड़े 3.7 फीसदी रहे हैं।
एनएफएचएस -4 के अनुसार, तीन गर्भवती महिलाओं में से एक से कम में लोहा और फोलिक एसिड युक्त खुराक तक पहुंच होती है, यहां तक कि वर्ष 2005-06 और 2015-16 के बीच गर्भावस्था के दौरान इन पूरक आहार लेने वाली महिलाओं का प्रतिशत 15 फीसदी से 30 फीसदी तक यानी दोगुना हो गया है।
यहां तक कि तीन दशक पहले भी, पोषण और स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने इस खराब कवरेज को चिन्हित किया और संभावित लाभार्थियों की पहचान करने के लिए पूरक और स्वास्थ्य कर्मचारी की अक्षमता की उपलब्धता में अंतराल पर दोष लगाया है।
अपर्याप्त और अनियमित आपूर्ति 487 गर्भवती महिलाओं में से 81 फीसदी के लिए कारण था और 5,754 सर्वेक्षण वाले परिवारों के 99 फीसदी बच्चों को लोहा और फोलिक एसिड की खुराक नहीं मिली, जैसा कि 1990 को आंध्र प्रदेश में किए गए अध्ययन से पता चलता है। यह अध्ययन ‘इंडियन जर्नल ऑफ पेडियाट्रिक्स’ में प्रकाशित हुआ था।
अध्ययन कहता है, "स्वास्थ्य अधिकारी कार्यक्रम के लिए ठीक से उन्मुख नहीं थे, क्योंकि उनमें से कई कार्यक्रम के तहत सभी लाभार्थियों से अवगत नहीं थे।"
वर्ष 2011 तक स्थिति में शायद ही कुछ सुधार हुआ है, जब कर्नाटक में बीएमसी पब्लिक हेल्थ के अध्ययन में खराब कवरेज और वितरण में असमानता पाई गई थी। यह पाया गया कि गरीब परिवारों के बच्चों को खुराक लेने की संभावना कम है और इस स्थिति की एनएफएचएस-3 द्वारा पुष्टि की गई थी।
बिहार में, 2014 के एक अध्ययन में पाया गया कि आपूर्ति जिलों में व्यापक रूप से भिन्न थी, जबकि 2016 में, खाद्य और पोषण बुलेटिन में गर्भवती महिलाओं के चंडीगढ़ स्थित अध्ययन में कहा गया कि स्टॉक की कमी के कारण महिलाओं से आयरन और फोलिक एसिड की गोलियां केमिस्ट की दुकानों से खरीदने के लिए जोर दिया गया।
एक नई योजना
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय में किशोर स्वास्थ्य के डिप्टी कमिश्नर अजय खेड़ा ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए कहा, "एनीमिया सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है। हम वर्ष 2025 तक एनीमिया के प्रसार को आधा कम करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, जो 5 फीसदी की वार्षिक गिरावट पर जोर देता है।"
एनीमिया की रोकथाम और उपचार के बेहतर लक्ष्य के लिए मंत्रालय 100,000 बच्चों और किशोरों के विटामिन बी 12 की कमी और कीड़े के शिकार की जांच के लिए अखिल भारतीय सर्वेक्षण का आयोजन कर रहा है। एक परजीवी संक्रमण के कारण आवश्यक पोषक तत्वों का ह्रास हो सकता है जिस कारण, एनीमिया हो सकता है यही कारण है कि ‘डी-वर्मिंग टैबलेट्स’ को मौजूदा लोहा और फोलिक एसिड अनुपूरक कार्यक्रमों के तहत वितरित किया जाता है।
किशोरों के लिए डब्लूआईएफएस कार्यक्रम की कवरेज में सुधार करने के लिए मंत्रालय मध्याह्न भोजन कार्यक्रम प्रोग्राम का उपयोग करने की योजना बना रहा है जिसमें हर हफ्ते स्कूलों को लाभार्थियों की संख्या को अद्यतन करने की आवश्यकता होती है। खेड़ा कहते हैं, "हम स्कूलों को लौह और फोलिक एसिड की खुराक वितरित किए जाने वाले छात्रों की संख्या पर भी रिपोर्ट करने का प्रस्ताव देते हैं। इसके माध्यम से हमारा लक्ष्य कवरेज को 70-80 फीसदी तक सुधारने का है। "
महिलाओं के आपूर्ति में सुधार करने के प्रयास वर्ष 2013 में राष्ट्रीय आयरन प्लस कार्यक्रम के शुभारंभ के बाद से किया जा रहा है, जिसके तहत सरकार पहले ही पहल के विपरीत हीमोग्लोबिन स्तर और गर्भावस्था की स्थिति के सभी प्रजनन उम्र की सभी महिलाओं को पूरक प्रदान करती है।
जिस पर अधिक जोर देने की जरुरत है वो खपत में सुधार है - इन पूरक उपायों को प्राप्त करने वाले सभी लाभार्थी इसका उपयोग नहीं करते हैं। कई बार उन्हें इसकी आवश्कता के संबंध में जानकारी नहीं होती है। कई बार वे दुष्प्रभावों के कारण इसे लेना बंद कर देती हैं।
वर्ष 1996 तक, सूक्ष्म पोषक तत्वों (विशेष रूप से लोहा और विटामिन ए) पर एक कार्य बल ने खुराक के उपभोग में सुधार के लिए जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता पर बल दिया था। वीर, जो टास्क फोर्स के सदस्य थे, कहते हैं, "हमने आयरन और फोलिक एसिड की मांग बनाने के लिए महत्वपूर्ण जानकारी, शिक्षा और संचार पर जोर दिया और सामूहिक संचार योजना के कार्यान्वयन का प्रस्ताव दिया।"
वीर कहते हैं, "अगर गर्भवती माता अपने बच्चे पर एनीमिया के प्रभाव के बारे में जानेंगी, तो वे निश्चित रूप से पूरक लेना नहीं भूलेंगी।" एनीमिया नवजात शिशुओं के आयरन के भंडारण के स्तर को कम करते हुए भ्रूण के मस्तिष्क के विकास को रोक देता है, जिससे बच्चे का विकास प्रभावित होता है। फोलिक एसिड के निम्न स्तर के कारण न्यूरल ट्यूब दोष हो सकता है, जो शिशु के मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी को प्रभावित कर सकता है।
इन खुराक के संभावित दुष्प्रभाव, जैसे कि काले मल और मतली के बारे में महिलाओं को सूचित करने से अनुपालन में सुधार हो सकता है।
जागरूकता विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि जब तक मामला गंभीर न हो, ऐनीमिया का पता नहीं चल सकता है। एनीमिया के हल्के रूप में कोई लक्षण नहीं होता है, हालांकि, गंभीर एनीमिया के कारण अत्यधिक थकान हो सकती है, कमजोरी लग सकती है, चक्कर आ सकता है और उनींदापन हो सकता है।
समुदाय जागरूकता को बढ़ावा दे सकता है। पूरक के लिए व्यापक मांग, मजबूर व्यापक वितरण, जैसा कि असम के अनुभव से पता चलता है। राज्य बच्चों में 2005-06 और 2015-16 के बीच एनीमिया आधा कम करने में सक्षम था और महिलाओं और पुरुषों में एनीमिया को एक तिहाई कम करने में सक्षम था।
खेरा कहते हैं, "असम की सफलता बड़े पैमाने पर शिक्षा अभियानों पर स्थापित की गई है, जिसने एनीमिया को एक समस्या के रुप में दिखाया और समुदाय को इससे होने वाली समस्याओं के संबंध में सूचित किया। लोगों को समझाया गया कि एनीमिया क्या है, और यह कैसे ठीक हो सकता है। "इसके बावजूद, 2015-16 में असम में तीन में से एक बच्चा और करीब आधी महिलाओं में अब भी एनीमिया है, जो यह दर्शाता है कि असम में अब भी कवर करने के लिए काफी कुछ है।
जैसा कि बाकी के भारत में भी है। वीर कहते हैं, “टास्क फोर्स का गठन होने के दो दशकों से, युवा महिलाओं में एनीमिया के बारे में सामान्य जागरूकता और इसे रोकने के प्रयास कम रहे हैं।”
चंडीगढ़ के सर्वेक्षण में करीब चार में से एक महिला ने कहा कि वे दूध या चाय के साथ आयरन-फोलिक एसिड की खुराक लेती हैं, जो सूक्ष्म पोषक तत्वों के अवशोषण को रोक देता है, जो आदर्श रूप से विटामिन सी में समृद्ध पदार्थ के साथ उपभोग किया जाता है।
अन्य 40 फीसदी महिलाओं ने कहा कि उन्हें नहीं पता था कि उन्हें गोलियां लेने के लिए क्यों कहा गया है। आधे से ज्यादा महिलाओं ने सरकारी क्लीनिकों में अनुपलब्धता की वजह से मल्टीविटामिन या कैल्शियम की खुराक दवा की दुकानों से खरीदी, खरीदा, खराब आपूर्ति व्यवस्था के साथ-साथ अपर्याप्त जागरूकता के खतरों पर प्रकाश डालता है।
जिस करह से पल्स पोलियो कार्यक्रम में अभिनेता अमिताभ बच्चन को ब्रांड एंबेसडर के रूप में रखा गया था, वैसे ही एक उच्च प्रोफ़ाइल जागरूकता अभियान की जरूरत है। हालांकि सबसे बड़ी जरूरत समग्र पोषण में सुधार लाने और भूख को दूर करने में है, जो एनीमिया के खिलाफ लड़ाई में सबसे मुश्किल काम है। मणिपाल विश्वविद्यालय के कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज के सहयोगी प्रोफेसर प्रसन्ना मिथरा पी. ने इंडियास्पेंड को बताया कि, “चूंकि, सामान्य तौर पर, महत्वपूर्ण सूक्ष्म पोषक तत्व पौष्टिक भोजन में पाए जाते हैं। अगर आहार में फल, सब्जी, फलियां और दूध जैसे खाद्य प्रदार्थ बहुत कम मात्रा में शामिल हैं तो तो यह एनीमिया का कारण बन सकता है। ”.
हाल ही में जारी वर्ष 2017 ग्लोबल हंगर इंडेक्स ‘ऑफ द इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट’ में भारत की भूख की स्थिति को ‘गंभीर’ बताया गया है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 12 अक्टूबर, 2017 की रिपोर्ट में बताया है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के तहत सतत विकास लक्ष्य के साथ 2030 तक भूख को खत्म करने के लिए नौकरियों और कौशल लोगों को एक ओर नौकरियों के लिए उपयुक्त बनाने के साथ कल्याणकारी सहायता प्रदान करने के लिए विस्तृत और व्यापक हस्तक्षेपों की आवश्यकता होगी, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 14 अक्टूबर, 2017 की रिपोर्ट में बताया है।
एक और मुश्किल क्षेत्र सामाजिक व्यवहार का है। अक्सर घरों में महिलाओं की पोषण संबंधी आवश्यकताओं को सबसे कम प्राथमिकता दी जाती है। जुलाई, 2017 में इंडियास्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार, पारंपरिक परिवारों में महिलाओं के खाने को आखिरी स्थान दिया जाता रहा है। अब भी यही स्थिति है।
पहले जिक्र किए गए चंडीगढ़ के अध्ययन के लिए आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों की गर्भवती महिलाओं से लिए गए साक्षात्कार में कुछ इस तरह की बातें सामने आईं, “पहले मेरे पति और सास-ससुर खाते हैं और फिर बच्चे। और अंत में मैं। कभी-कभी ऐसा होता है कि जब तक मेरी खाने की बारी आती है तब तक भोजन समाप्त हो जाता है।”
एनीमिया सामाप्त करने के लिए जागरुकता अभियान में परिवार के खाने की परंपरा में बदलाव पर भी जोर देना चाहिए।
(बाहरी एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और राजस्थान के माउंट आबू में रहती हैं।)
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 21 नवंबर 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुई है।
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