भारत में विशेष जरुरतों के साथ वाले 1.21 करोड़ बच्चे हैं अनपढ़
मध्य मुंबई के परेल इलाके के नगरपालिका विद्यालय में अपनी मां से साथ बैठा एक बच्चा। यह बच्चा शारीरिक रुप से अशक्त है। 6 से 13 वर्ष की आयु के बीच लगभग 600,000 विशेष-जरूरत वाले बच्चे स्कूल नही जाते हैं। वो भी ऐसे समय में जब भारत में सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य है।
दिसंबर 2015 में सरकार की ‘ऐक्सेसबल इंडिया कैंपन’ के शुभारंभ के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुझाव दिया कि शारीरिक रुप से अशक्त लोगों के लिए विकलांग की बजाय ‘दिव्यांग’ शब्द का इस्तामेल करना चाहिए। उन्होंने कहा कि शारीरिक रुप से अशक्त लोगों के पास दिव्य क्षमता होती है।
बाद में कई विकलांग अधिकार समूहों ने प्रधान मंत्री को दलील दी कि केवल शब्दावली बदलने से विकलांग व्यक्तियों के साथ हो रहे भेदभाव समाप्त नहीं हो सकते हैं। साथ ही उन्होंने प्रधानमंत्री को उन समस्याओं पर ध्यान देने का आग्रह किया, जो दिव्यांगों को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन की गतिविधियों में हिस्सा लेने से रोकती हैं।
तीन लेखों की इस श्रृंखला में इंडियास्पेंड ने यह जानने की कोशिश की है कि भारत में विकलांगता का मतलब क्या है? विशेष रुप से यह जानने की कोशिश की गई है कि विकलांग व्यक्तियों (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम के पारित होने के 22 साल बाद उनकी शिक्षा और रोजगार तक पहुंच कितनी है?
इस श्रृंखला के पहले भाग में हम शिक्षा पर नजर डालेंगे, क्या मौजूदा प्रणाली विभिन्न शिक्षा-संबंधित कार्यक्रमों के लिए विशेष जरूरत वाले बच्चों के लिए समान पहुंच की अनुमति देती है। दूसरे भाग में हम अलग-अलग लोगों के माध्यम से "समावेशी शिक्षा मॉडल" को देखेंगे। तीसरे और अंतिम भाग में मुंबई से 80 किलोमीटर पूर्व वांगानी में एक नेत्रहीन के जरिए विकलांग लोगों के लिए रोजगार के अवसरों की की जांच करेंगे।
एक शिक्षा नीति अलग-अलग विशेष जरूरत वालों के लिए अनुरुप नहीं
2011 की जनगणना के मुताबिक, 26 फीसदी भारतीयों की तुलना में देश की 45 फीसदी विकलांग आबादी निरक्षर है। विकलांग व्यक्तियों में जो शिक्षित हैं, उनमें से 59 फीसदी ने कक्षा दसवीं पर पढ़ाई की है, जबकि सामान्य आबादी के लिए यह आंकड़े 67 फीसदी हैं।
विशेष जरुरत के साथ वाले लोगों की आबादी में से 45 फीसदी अनपढ़
Source: Census 2011
सर्व शिक्षा अभियान के माध्यम से शिक्षा तक सार्वभौमिक पहुंच के वादे के बावजूद, स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की सबसे ज्यादा संख्या विशेष जरुरतों वाले बच्चों की है। हम बता दें कि सर्व शिक्षा अभियान 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए नि: शुल्क और अनिवार्य शिक्षा को बढ़ावा देता है। वर्ष 2014 के ‘नेशनल सर्वे ऑफ स्कूल चिल्ड्रेन’ रिपोर्ट के अनुसार, करीब 600,000 (28 फीसदी) 6 से 13 साल की उम्र के विशेष ज़रूरत वाले बच्चे स्कूल से बाहर हैं। वो भी ऐसे समय में जब भारत सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य पर अड़ा है।
विशेष जरुरतों के साथ वाले बच्चों में से एक से अधिक विकलांगता के साथ कम से कम 44 फीसदी बच्चे स्कूल से बाहर हैं, और अन्य प्रकार की विकलांगता के मुकाबले मानसिक रूप से अक्षम बच्चों (36 फीसदी) और बोलने में अक्षम बच्चों (35 फीसदी) के स्कूल छोड़ने की संभावना ज्यादा है।
वर्ष 2014 में ‘यूनाइटेड नेशन एजुकेशनल, साइंटिफिक एंड कल्चरल ऑर्गेनाइजेशन’ की रिपोर्ट के मुताबिक, सुनने की विकलांगता, हड्डी / लोकोमोटिव विकलांगता और दृश्य विकलांगता वाले ज्यादातर बच्चे स्कूल जाते हैं। ऐसे बच्चों के स्कूल न जाने की संख्या केवल 20 से 30 फीसदी ही है।
स्पष्ट है कि विकलांग लोगों तक शिक्षा की पहुंच बढ़ाने के लिए नीतियों को बेहतर रूप से तैयार करना होगा। केवल भौतिक पहुंच प्रदान करने से परे जाने की आवश्यकता पर भी विशेषज्ञ जोर देते हैं।
उदाहरण के लिए ‘एक्सेसबल इंडिया कैंपन’ का उद्देश्य जुलाई 2018 तक राष्ट्रीय राजधानी और राज्य की राजधानियों में सभी सरकारी भवनों को 50 फीसदी तक बनाना है। बड़ा लक्ष्य है सार्वभौमिक पहुंच बनाने, विकास के लिए समान अवसर और स्वतंत्र रहने और विकलांग लोगों के लिए जीवन के सभी पहलुओं में भागीदारी की दिशा में आगे बढ़ना। हालांकि, जमीनी अनुभव वाले लोग एक अलग वास्तविकता की बात करते हैं।
मुंबई के ‘टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस’ में ‘सेंटर फॉर डिसएब्लिटी स्टडी एंड एक्शन’ की प्रोफेसर श्रीलाता जुवेवा कहती हैं, “एक्सेसबल इंडिया कैंपन के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम सिर्फ भौतिक पहुंच पर ध्यान देते हैं न कि सोच की पहुंच तक। यदि आप बदलाव चाहते हैं तो दोनों की आवश्यकता है।”
स्कूल तक विशेष-जरूरत वाले बच्चों को पहुंचाना तो केवल शुरुआत भर है। एक बार स्कूल पहुंचने पर, इन बच्चों को उपयोगकर्ता के अनुकूल निर्देश और शिक्षण उपकरण की आवश्यकता होती है। जुवेवा कहती हैं, “हालांकि, नीति निर्माता इसे अतिरिक्त निवेश के रूप में देखते हैं। क्या हम सॉफ्टवेयर खरीदने के लिए तैयार हैं, जो दृश्य विकलांग या मानसिक विकलांग वाले बच्चे की मदद कर सकते है?” वह आगे कहती हैं, नीतियों और कार्यक्रमों के लिए नई मानसिकता की जरुरत है, जो मुख्य धारा के साथ विशेष जरूरत वाले बच्चों को जोड़ने के लिए पूर्ण रुप से काम कर सके।
विशेष जरूरत वाले बच्चे, जिन्होंने स्कूलों में दाखिला लिया हैं, उनकी संख्या उच्च कक्षाओं में लगातार रुप से गिरती है।
डिस्ट्रिक्ट इंफार्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन की ओर से वर्ष 2015-16 के डेटा के अनुसार,कक्षा आठ में ऐसे बच्चों की स्कूल छोड़ने के आंकड़े 48 फीसदी है, जबकि अन्य बच्चों के लिए यह आंकड़े 2.6 फीसदी है। वहीं कक्षा नौ के लिए आंकड़े 21 फीसदी हैं, जबकि अन्य बच्चों के लिए आंकड़े 6.8 फीसदी हैं। नतीजतन, प्राथमिक स्कूल ( कक्षा 1 से 8) में विशेष जरूरत वाले बच्चों की संख्या 89 फीसदी, माध्यमिक विद्यालय (कक्षा 9 से 10) में 8.5 फीसदी और उच्च माध्यमिक ( कक्षा 11 और 12 ) में 2.3 फीसदी है।
विशेष जरूरतों के साथ स्कूल जाने वाले 89 फीसदी बच्चे प्राथमिक स्कूल में हैं, उच्च माध्यमिक में 2 फीसदी
Source: District Information System for Education, 2015-16
विशेष जरूरतों वाले बच्चों को संभालने का कौशल
क्या विशेष जरूरत वाले बच्चों के लिए विशेष विद्यालय होना चाहिए, या क्या उन्हें नियमित स्कूलों में ही दूसरे बच्चों के साथ बेजा जाना चाहिए, इस पर भारत की नीतियां स्पष्ट नहीं हैं।
हालांकि, सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय (एमएसजेई) विशेष जरूरत वाले बच्चों के लिए अलग स्कूल चलाते हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) एक समावेशी शिक्षा मॉडल को बढ़ावा देता है, जहां ऐसे बच्चे नियमित कक्षाओं में पढ़ते हैं। विशेष जरूरत वाले बच्चों के माता-पिता थोड़े मार्गदर्शन के बाद अक्सर विशेष स्कूलों और नियमित स्कूलों के बीच एक को चुन पाते हैं कि उनके बच्चे के लिए क्या बेहतर है?
बच्चे जो अपनी शारीरिक अक्षमताओं के बावजूद दसवीं कक्षा तक पढ़ लते हैं, उन्हें अन्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है। एक तो विकलांग व्यक्ति के बारे में व्यापक पूर्वाग्रह मौजूद है और उनके सामने उच्च शिक्षा के लिए बेहतर पाठ्यक्रम चुनने की समस्या बनी रहती है।
नतीजतन, विकलांग छात्रों को अक्सर अपनी पसंद के पाठ्यक्रमों का अध्ययन करने के लिए अपने अधिकार का दावा करने के लिए लड़ना पड़ता है। हाल ही में अपने अधिकार का दावा करने वाले दो नेत्रहीन छात्रा खबरों में थे। कृतिका पुरोहित ने बॉम्बे हाईकोर्ट में फिजियोथेरेपी का अध्ययन करने के लिए अनुमति मांगी है, जबकि रेशमा दिलिप ने माध्यमिक विद्यालय के बाद विज्ञान का अध्ययन करने के लिए केरल उच्च न्यायालय से संपर्क किया है।
जेवियर के ‘रिसोर्स सेंटर फॉर विज़ुअली चैलेंजड’ की प्रोजेक्ट कंसल्टेंट नेहा त्रिवेदी ने नेत्रहीन छात्रों को उनकी कानूनी लड़ाई में सहायता प्रदान की है। नेहा कहती हैं, “ अगर मानव संसाधन विकास मंत्रालय एक सर्कुलर जारी करता है कि सभी विश्वविद्यालयों में नेत्रहीन छात्रों को विज्ञान का अध्ययन करने की अनुमति है, तो प्रत्येक विश्वविद्यालय और कॉलेज को निर्देश को स्वीकार करना होगा और इसे अपने संचालन संबंधी दिशा-निर्देशों के जरिए नेत्रहीन छात्रों के लिए सक्षम करना होगा।”
विकलांगता प्रमाण पत्र के बिना, आधे विकलांग आबादी तक राज्य सहायता नहीं
एक कागज, जो विकलांग व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण अंतर बना सकता है, वह है विकलांगता प्रमाण पत्र। यह पत्र उन्हें दिया जाता है जो 40 फीसदी से अधिक विकलांगता के लिए प्रमाणित होते हैं। प्रमाण पत्र उसके धारक को विभिन्न राज्य और केंद्र सरकार की योजनाओं, छात्रवृत्ति, मुफ्त यात्रा, ऋण, कृत्रिम अंग सहायता और उपकरणों और यहां तक कि बेरोजगारी भत्ता के लिए योग्य बनाता है।
लोकसभा में एमएसजेई द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, जिला सिविल अस्पतालों के मेडिकल बोर्ड विकलांगता प्रमाण पत्र जारी करने के लिए जिम्मेदार होते हैं। हालंकि, करीब आधी विकलांग आबादी ( 51 फीसदी ) के पास जुलाई 2015 तक विकलांगता प्रमाण पत्र नहीं थे।
एमएसजेई ने दावा किया है कि विकलांगता प्रमाण पत्र जारी करने की प्रक्रिया को सरल बनाया गया है। यह विकलांगों, अंधापन और पूर्ण पक्षाघात जैसे विकलांगता के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के किसी भी डॉक्टर द्वारा जारी किया जा सकता है और इसे आवेदन प्राप्त करने के एक महीने के भीतर हर हाल में जारी करना ही होगा।
हालांकि, वास्तविकता में इसे जारी करने में तीन से छह गुना तक अधिक समय लगता है।
सर्व शिक्षा अभियान के विशेष शिक्षक सुनील भदाणे ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए बताया कि मुंबई में सरकारी योजनाओं के लिए प्रमाणिक विकलांगता प्रमाण पत्र जारी करने वाले केवल तीन केंद्र हैं – ‘जेज ग्रुप ऑफ हॉस्पिटल्स’, ‘अली यवर जंग नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्पीच एंड हेअरिंग डिसएबिलिटीज’ और ‘ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ फिजिकल मेडिसीन एंड रिहैबिलिटेशन’। उनका कहना है कि मिलने का समय निश्चत करने के लिए लंबे इंतजार की वजह से आम तौर पर प्रमाण पत्र प्राप्त करने में 3-6 महीने का समय लगता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले विकलांग लोगों के लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत नौकरियों में आरक्षण का लाभ लेने के लिए विकलांगता प्रमाण पत्र अनिवार्य है।
दिल्ली के ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क में विकलांगता अधिकार के निदेशक राजीव रतिरी ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए कहा कि “ग्रामीण क्षेत्रों में विकलांग लोगों के लिए प्रमाणपत्र जारी करनेके लिए विशेषज्ञों की कमी है। जैसे सेरेब्रल पाल्सी, आत्मकेंद्रित और डाउन सिंड्रोम के लिए विशेषज्ञों बहुत कम हैं। इससे विकलांग लोगों को अपने प्रमाण पत्र प्राप्त करने और सुविधाओं का लाभ लेने में मुश्किल हो जाता है।”
मंत्री थापर चंद गहलोत ने जुलाई 2015 में लोकसभा को बताया कि एमएसजेई सेवाओं की डिलीवरी सुधारने के लिए ‘विकलांग लोगों के लिए यूनिवर्सल आईडी’ जारी करने की भी योजना बना रहा है। मंत्रालय ने कहा कि यह प्राप्तकर्ताओं की पहचान के लिए राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को वित्तीय सहायता प्रदान करेगा। मंत्रालय की वेबसाइट कहती है कि पंजीकरण शुरू हो गया है और अब तक कोई आईडी कार्ड जारी नहीं किया गया है।
दिसंबर 2016 में संसद ने विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम- 2016 को मंजूरी दे दी है। नया अधिनियम विकलांग व्यक्तियों के अधिकार को नए सिरे से देखता है और यह एसिड हमले, हीमोफिलिया, सिकल सेल रोग और बौनावाद के कारणों सहित 21 प्रकार की विकलांगता की पहचान करता है।
पिछला कानून केवल सात विकलांगता, अंधापन, कम दृष्टि, कुष्ठ रोग, सुनवाई हानि, गतिरोध विकलांगता, मानसिक मंदता और मानसिक बीमारी की पहचान करता था। नए अधिनियम में शारीरिक रुप से अशक्त लोगों को वित्तीय सहायता के लिए राष्ट्रीय और राज्य निधि उपलब्ध कराने के लिए एक प्रावधान भी है।
हालांकि, 2016-17 के बजट में इस फंड का कोई जिक्र नहीं है। केंद्रीय क्षेत्र की योजनाओं के लिए बजट में वृद्धि हुई और स्वायत्त निकायों के लिए बजट में 3.4 फीसदी की वृद्धि हुई। ‘सेंटर फॉर बजट एंड गवरनेंस अकाउनबिलिटी’ द्वारा किए गए केंद्रीय बजट 2017-18 के विश्लेषण से पता चलता है कि विकलांग व्यक्तियों के सशक्तिकरण के लिए विभागों को कुल आवंटन कम हुआ है। विकलांग व्यक्तियों के लिए आवंटन का हिस्सा 2016-17 में 1.08 फीसदी से गिरकर 2017-18 में 0.98 फीसदी हुआ है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि सामाजिक समूहों के तहत विकलांग व्यक्तियों के लिए कोई विशिष्ट संदर्भ नहीं है और न ही विकलांगों के द्वारा अनुभव किए जा रहे भेदभाव के मुद्दों को हल करने के लिए किसी किस्म की प्रतिबद्धता दिखती है।
नोट: इस आलेख में सभी आंकड़े ‘राउंड ऑफ’ किए गए हैं।
यह भारत में विकलांग व्यक्तियों की स्थिति पर तीन आलेखों की श्रृंखला का पहला लेख है। दूसरा लेख सोमवार को प्रकाशित किया जाएगा।
(सालवे विश्लेषक हैं और यदवार प्रमुख संवाददाता हैं। दोनों इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं।)
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 05 अप्रैल 2017 को indiaspend.com में प्रकाशित हुआ है।
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