“भारत में शासन के लिए जो कानून है, वह संकट में ”
मुंबई: हरीश नरसप्पा कहते हैं, भारत में शासन के लिए जो कानून है, वह संकट का सामना कर रहा है।
कागज पर हमारे संस्थानों की भूमिका और वास्तविकता में वे कैसे काम करते हैं, इन दोनों के बीच का अंतर बढ़ रहा है। भ्रष्टाचार के रूप में 'संरचनात्मक हिंसा, पुलिस क्रूरता और गरीबों के शोषण (दूसरों के बीच) सार्वजनिक संवाद में , दिख रहे हैं और हिंसा को ‘शासन के प्राथमिक साधन’ के रूप में स्वीकार कर लिया गया है, जैसा कि उन्होंने अपनी एक नई किताब में लिखा है।
वर्तमान में भ्रष्टाचार को लेकर भारत 113 देशों में से 62 वें स्थान पर है (नेपाल (58), श्रीलंका (59) और ट्यूनीशिया (54), मंगोलिया (51) और घाना (43) जैसे अन्य निम्न मध्यम आय वाले देशों के पीछे है। यह रेंकिंग डब्ल्यूजेपी द्वारा विधि-शासन सूचकांक 2017-18 द्वारा भ्रष्टाचार, खुली सरकार, आदेश और सुरक्षा और उससे संबंधित कई कारकों के अनुसार क्रमबद्ध है। हमारे सार्वजनिक संस्थानों के बीच न्याय में देरी और भ्रष्टाचार के उदाहरण असामान्य नहीं हैं। संवैधानिक मूल्यों के प्रति असंगत दृष्टिकोण नियमित रूप से निर्वाचित राजनेताओं और सार्वजनिक कार्यालय में उन लोगों द्वारा प्रेरित किए जाते हैं। इस महीने, वित्त मंत्री अरुण जेटली ने केरल के सबरीमाला मंदिर में प्रवेश करने वाली महिलाओं पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाते हुए, इसे कुछ चुनिंदा लोगों के लिए और संविधान में भरोसा रखने वाले और भक्तोंके बीच एक गड़बड़ी को बढ़ावा देने की बात कही है। नरसंप्पा ने इंडियास्पेन्ड को बताया, " हम राष्ट्र के अस्तित्व के क्षण का सामना कर रहे हैं। जब आप इसे अपने लक्ष्यों और आवश्यक भूमिका से तुलना करते हैं तो हर संस्थान असफल साबित हो रहा है।" " बुनियादी बहसों में वृद्धि हुई है, बहस की गुणवत्ता में कमी, मानवाधिकारों पर बढ़ते हमलों और कई अंतर्निहित कारक हैं, जिसे शासन का कानून विफल हो रहा है।
संविधान की धारणा है कि संस्थान ऐसे तरीके से काम करेंगे, जो समाज को बदल देगा, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। "
अपनी नई पुस्तक 'रूल ऑफ लॉ इन इंडिया: ए क्वेस्ट फॉर रीजन' में, नारसप्पा बताते हैं कि क्यों भारत कानून के शासन के सिद्धांत और अभ्यास के बीच कठिन मुश्किलों के दौर से गुजर रहा है और यह अपने नागरिकों को कैसे प्रभावित करता है।
नरसप्पा ने हमें बताया, "बेशक, कागज और अभ्यास के बीच की दूरी हर समाज में मौजूद है, लेकिन आपको हर दिन कानून के शासन का पालन करने पर काम करने की जरूरत है।
"न्यायपालिका कैसे काम कर रही है, क्या यह अच्छी तरह से काम कर रही है? क्या हमें इसे सुधारने की ज़रूरत है? हम इन प्रश्नों को नहीं उठाते हैं और यही वह जगह है जहां हम संघर्ष कर रहे हैं। "
एक बेंगलुरु स्थित गैर सरकारी संगठन ‘दक्ष’ के सह-संस्थापक के रूप में, नरसप्पा लंबे समय से संस्थागत उत्तरदायित्व संभाल रहे हैं।
प्रारंभ में चुने गे प्रतिनिधियों पर ध्यान केंद्रित किया और सुनिश्चित किया कि नागरिक उन्हें कैसे जिम्मेदारी का अहसास दिला सकते हैं। अब उनका संगठन न्यायपालिका पर ध्यान केंद्रित कर रहा है।
वह संवादा पार्टनर्स में भी भागीदार हैं, कर्नाटक उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट के समक्ष कई सामाजिक हितों के मुकदमे में शामिल हैं और उनकी दिलचस्पी नेशनल इलेक्शन में है।
जब शासन कानून कायम रखने में विफल हो जाता है तो यह लोकतंत्र, समानता और मौलिक अधिकारों के लिए खतरे की तरह है, जो संविधान के आधारभूत सिद्धांत हैं। फिर भी भारत में कहीं से कोई असंतोष के स्वर नहीं सुनाई देते, जो कि लोकतंत्र के लिए जरूरी है। अक्सर प्रक्रियाओं, प्रणालियों और प्रभावी लोगों की कमी के कारण कानून अपना काम सही ढंग से नहीं कर पाता है और यह भारत के शासन संरचना के लिएगंभीर समस्या का कारण बनता है।
पूर्व कैबिनेट मंत्री पी चिदंबरम ने कहा था, "हमारे पास खुद को अराजकता या एक निष्क्रिय लोकतंत्र कहने का विकल्प है ... खुद को एक नागरिक समाज कहने से पहले हमें मीलों जाना है" और इसी तरह नारसप्पा ने अपनी पुस्तक समाप्त की है ।
इंडियास्पेंड के साथ एक साक्षात्कार में, नरसप्पा इस बात को प्रतिबिंबित करते हैं कि विधि-शासन क्यों संरक्षित किया जाना चाहिए और उन उदाहरणों पर चर्चा करनी चाहिए जहां संस्थान और सार्वजनिक व्यवस्था हमारे संवैधानिक मूल्यों को कायम रखने में नाकाम रहे हैं। बातचीत के संपादित अंश।
आपने पहले कहा है कि अधिकांश राजनीति पर विधायकों द्वारा तर्कसंगत बहस की कमी देश में नए कानून बनाने को लेकर कोई दिशा तय नहीं हो पाती। आपने कहा है कि आप विशिष्ट मुद्दों पर अधिक विधायकों और सांसदों की भागीदारी देखना चाहते हैं , जिससे उनकी राय और विचार सुनने का मौका मिले। आपको किस प्वाइंट पर लगता है कि सार्वजनिक भाषण से बहस गायब हो गई है?
यह कैसे हुआ और हम इसे वापस कैसे प्राप्त करते हैं? यह एक क्रमिक घटना रही है। अधिकांश राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र खत्म हो गया है। कई नेता ऐसे हैं जो खुद को पार्टी से उपर मानते हैं। चुनावों में लागत की वृद्दि और बेहिसाब भ्रष्टाचार की वृद्धि, ये सभी कारण हैं जो तर्कसंगत बहस को रोकते हैं, क्योंकि उनमें से कोई भी बहस की को सहन नहीं कर पाता है।
बहस को मुख्य राजनीति में वापस लाने के लिए, हमें राजनीतिक दलों में लोकतंत्र को प्रोत्साहित करने और चुनावों में भ्रष्टाचार को कम करने की जरूरत है। हालांकि दोनों कठिन कार्य हैं। अयोग्य करार देने की चेतावनी के बिना संसद में मुद्दों पर मुफ्त बहस की अनुमति एक छोटा कदम हो सकता है। दूसरा यह कि चुनाव आयोग उन पार्टियों को अयोग्य करार दे सकता है, जिस पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है।
“विधि-शासन के सपने पर हम सबसे छोटे किनारों पर हैं। सिविल सोसाइटी की तरफ मील चलने से पहले हमें खुद को उठाना और खड़ा होना है, " इसी तरह से आप वर्तमान स्थिति का वर्णन करते हैं। आपके विचार में, विधि-शासन कैसे संरक्षित किया जा सकता है? उदाहरण के लिए कानूनों को कैसे बनाया जाना चाहिए इस पर कानून होना चाहिए? ”
विधि-शासन की स्थापना और सुरक्षा आसान नहीं है। यह काफी कठिन है और सभी संस्थानों को अपने कार्यों को निर्धारित कानूनों के अनुसार करने की आवश्यकता है। समान रूप से, लोगों को कानूनों का सम्मान करने और कानून संस्कृति का शासन विकसित करने की आवश्यकता है। यदि कोई कानून के लिए खड़ा नहीं है, तो विधि शासन को संरक्षित नहीं किया जा सकता है।
कानून के लिए खड़े होने का अर्थ है सिस्टम द्वारा बनाए गए संयम के भीतर शक्ति का उपयोग करना और कठिनाइयों के सामना में भी कानून का पालन करना। वर्तमान में, यह हर समय नहीं हो रहा है। हमारा ध्यान इस बात पर अधिक है कि इसका उपयोग किस प्रकार किया जा रहा है, बजाए इसके कि शक्ति का प्रयोग कौन कर रहा है?
यदि मान लीजिए ए शक्ति का उपयोग करता है या कुछ करता है, तो यह ठीक है, क्योंकि हम ए पसंद करते हैं या भरोसा करते हैं; अगर बी करता है, तो हम इसका विरोध करते हैं, क्योंकि हमें बी पसंद नहीं है। यह एक समस्या है। यह तभी होता है जब लोग लगातार कानून के लिए खड़े हो जाते हैं, कि कानून का नियम सुरक्षित रखा जाए। मुझे नहीं लगता कि कानून कैसे बनना चाहिए इस पर कानून होना चाहिए। कानून बनाने के बारे में पर्याप्त नियम हैं; यह असुरक्षित और अनियंत्रित अभ्यास में वृद्धि है, जो समस्या है।
भारतीय अदालतों में वर्तमान में 27 मिलियन मामले लंबित हैं। केंद्र ने हाल ही में 'न्याय घड़ियां' स्थापित करने का प्रस्ताव रखा है, जो अदालतों में निर्णयों के बीच प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करने के लिए डिस्पोजेड मामलों, लंबित मामलों और प्रत्येक अदालत के रैंक की संख्या प्रदर्शित करता है। आपका इस बारे में क्या कहना है और आप दर में सुधार का सुझाव कैसे देंगे?
न्याय घड़ियां खुद कुछ हासिल करने नहीं जा रही हैं! जब तक हम अदालतों के दिन-प्रतिदिन कार्यवाही को विस्तार से नहीं देखते हैं और हर अदालत की सुनवाई में निश्चितता नहीं लाते हैं, तो हमारे पास गड़बड़ी से बचने का कोई रास्ता नहीं है। अदालतों के बीच परिणाम पर प्रतिस्पर्धा, जिनमें से सभी बुरी तरह से काम कर रहे हैं, आगे बढ़ने का तरीका नहीं है। सबसे अच्छा यह है कि घड़ियां न्यायिक देरी को मुख्यधारा की राजनीतिक चेतना में लाएंगे। जिस दर पर न्याय मिल रहा है, उसमें तभी सुधार होगा, जब प्रत्येक मामले को कुशलता से सुना जाए।
हाल ही में एक धारणा सर्वेक्षण में, अपनी शीर्ष चिंताओं के रुप में 23 फीसदी भारतीयों ने भ्रष्टाचार का हवाला दिया (बेरोजगारी (48 फीसदी) के बाद), जो सर्वेक्षण किए गए 15 देशों में सबसे ज्यादा है। हमारे निर्वाचित नेताओं में भ्रष्टाचार की कहानियां असामान्य नहीं हैं और यह एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बन गई है। विधि शासन और भारत में इसके संबंधित संस्थानों पर इसका क्या असर पड़ता है, और हम इसे कैसे प्रबंधित कर सकते हैं?
हर तरह का भ्रष्टाचार विधि-शासन के लिए एक चुनौती है! एक देश जितना भ्रष्ट होगा, विधि-शासन कम मजबूत होगा। भ्रष्टाचार कानून और कारण का विरोधाभास है। हम भ्रष्टाचार का प्रबंधन नहीं कर सकते हैं। अगर हमें कानून के नियम की रक्षा करनी है, तो हमें भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध शुरू करना होगा।
भ्रष्टाचार सिर्फ पैसे के बारे में नहीं है। यह आपकी जरूरतों के लिए कानून को अनुचित और झुकाव और अनुचित और मनमानी फैशन में शक्ति का प्रयोग है। हमें भ्रष्टाचार के लिए शून्य सहनशीलता दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। यह तब किया जा सकता है जब प्रणाली आंख बंद करने की बजाय भ्रष्टाचार को हल करती है और संबोधित करती है। ऐसा होने के लिए, हमें भ्रष्टाचार पर संयुक्त हमला करने और उनके प्रयासों में लगातार बने रहने के लिए राज्य की सभी शाखाओं की आवश्यकता है। वर्तमान में, भ्रष्टाचार से निपटने को लेकर व्यवस्थित और लगातार प्रयास नहीं हो रहे हैं।
वित्त विधेयक 2017 ने वर्तमान [चुनावी] प्रणाली पर पारदर्शिता में पर्याप्त सुधार के लिए इलेक्टरल बॉंड पेश किए ", फिर भी दाता अभी भी अज्ञात रह सकते हैं। आप इसे पारदर्शी बनाने के लिए राजनीतिक दलों के निरंतर इनकार का हवाला देते हैं, जो लोकतंत्र के लिए मौलिक खतरा है । नागरिक अधिक पारदर्शिता की मांग कैसेकर सकते हैं, जब पार्टियों खुद को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं?
यह एक बड़ी समस्या है और यह राजनीतिक भ्रष्टाचार की जड़ है। इस मुद्दे पर नागरिकों को लगातार सतर्क रहने की जरूरत है। इस पर बहुपक्षीय दृष्टिकोण हमें चाहिए।
सबसे पहले, हमें अपर्याप्तता के ज्ञात मुद्दों को उजागर करने, सुधार कानून के लिए प्रचार जारी रखने की आवश्यकता है। उन उम्मीदवारों के लिए वोट दें जो वित्त पोषण के स्रोतों को प्रकट करते हैं । आखिरकार, चुनाव आयोग और अदालतों में जाकर नियमित रूप से राजनीतिक दलों के उत्तरदायित्व की जांच भी जरूरी है।
समस्या के पैमाने और प्रमुख राजनीतिक दलों के नकारात्मक दृष्टिकोण को देखते हुए, यह एक कठिन काम है । लेकिन इससे आसान कोई तरीका भी नहीं है। हमें सबसे कम स्तर पर सुधार शुरू करना है - पंचायत और शहरी स्थानीय निकाय चुनावों में, ऐसा करना थोड़ा आसान है।
आपने लिखा है, "पुलिस और राजनेता नियमित रूप से नागरिक स्वतंत्रताओं का उल्लंघन करते हैं और एक काल्पनिक थ्योरी के आधार पर उसे न्यायसंगत साबित करने की कोशिश भी करते हैं।"क्या आप हमें इसका एक हालिया उदाहरण दे सकते हैं और खतरे को समझा सकते हैं?
ऐसी घटनाएं हर दिन हो रहा है। उनमें से कुछ लोगों तक पहुंच पाते हैं और कुछ नहीं। हाल ही में, बेंगलुरू में एक नाटक बंद कर दिया गया था, क्योंकि एक समूह के सदस्यों ने शिकायत की थी कि नाटक की सामग्री उनकी भावनाओं के खिलाफ थी। पुलिस ने कहा कि पहले वे स्क्रिप्ट की जांच करेंगे! मुद्दा यह है कि पुलिस और राजनेता सार्वजनिक हित और नैतिकता की बात करते हैं – लेकिन ऐसा वे करते नहीं हैं। इसके लिए सभी पार्टियां समान रूप से दोषी हैं।
(संघेरा लेखक और शोधकर्ता हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं।)
यह साक्षात्कार मूलत: अंग्रेजी में 11 नवंबर 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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