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लखनऊ, उत्तर प्रदेश के भड्डी खेड़ा के दलित गांव में अपने घर में सामने बच्चे के साथ खड़ी महिला। 2014-15 में केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा दलितों और आदिवासियों के लिए बने दो फंडों (अनुसूचित जाति उप योजना (एससीएसपी) और जनजातीय उप योजना (टीएसपी)) के लिए आंवटित राशि में से एक-तिहाई से अधिक अव्ययित है। हमारी जांच से पता चलता है कि कुछ हद तक इसका कारण भ्रष्टाचार है।

2014 के आम चुनाव के दौरान, तत्कालिन भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने केरल में दलित और पिछड़े वर्ग की एक सभा को संबोधित करते हुए स्वंय को छुआछूत का शिकार बताया था। उन्होंने कहा कि, “अगला 10 वर्ष आपका होने जा रहा है।” और वहां जमा हुई भीड़ ने इस बात पर जम कर उनकी वाहवाही की थी।

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने जाहिर तौर पर अपना वादा निभाया – 2014-15 के बजट में दलितों और आदिवासियों के लिए बने दो फंड (अनुसूचित जाति उप योजना (एससीएसपी) और जनजातीय उप योजना (टीएसपी)) के आंवटन में 25 फीसदी की वृद्धि की गई है। हालांकि, केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा आंवटित राशि में से एक-तिहाई से अधिक - 32,979 करोड़ रुपए - अव्ययित है।

पिछले वर्ष की तुलना में यह अव्ययित राशि में 250 फीसदी की वृद्धि हुई है। प्रधानमंत्री के रुप में मोदी के कार्यकाल के पहले वर्ष के दौरान अव्ययित राशि सबसे अधिक रही है और पिछले तीन वर्षों में (केवल इसी अवधि के लिए सरकरा के पास आंकड़े मौजूद हैं) अव्ययित राशि का सर्वोच्च प्रतिशत रहा है।

केन्द्रीय मंत्रालयों के लिए धन के प्रवाह (जनजातीय और अनुसूचित जाति उप योजना)

Source: Response to Right to Information requests

15 साल बाद, ' पूरी रिपोर्ट एकत्र की जा रही है'

कैसे सरकारों ने इन विशेष कोष का कम प्रयुक्त किया है, इस पर लेख श्रृंखला के दूसरे भाग में इंडियास्पेंड ने उपेक्षा की कुछ कहानियों का पता लगाने की कोशिश की है। उद्हारण के लिए 1997 और 2002 के बीच बिहार को दलित कल्याण योजनाओं के लिए करोड़ों रुपए आवंटित किए गए थे। डेढ़ दशक बाद जब इंडियास्पेंड ने सूचना का अधिकार के (आरटीआई) अनुरोध माध्यम से जानने की कोशिश की कि इनमें से कितनी राशि दलितों पर खर्च हुई है तो जवाब मिला कि "पूरी रिपोर्ट एकत्र की जा रही है।"

35 वर्ष पहले शुरु किए जाने के बावजूद दोनों फंड सरकारों द्वारा अधिकांश अछूते ही हैं। लेख के पहले भाग में इंडियास्पेंड ने बताया कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों के जीवन में सुधार करने के लिए निर्धारित 2.8 लाख करोड़ रुपए (42.6 बिलियन डॉलर) अव्ययित हैं जबकि संभावित लाभार्थियों का गंभीर रुप से अभावग्रस्त होना जारी है।

पॉल दिवाकर, एससीएसपी - टीएसपी विधान, (एक संगठन जो विशेष योजनाओं पर नजर रखता है) के संयोजक कहते हैं, “लोगों की ज़रुरतों को पूरा करने के लिए सरकारें आंवटित धन ले कर दूर हो जाती हैं लेकिन वास्तव में खर्च नहीं करती हैं।”

इस उपेक्षा के दो बड़े कारण हैं : सबसे पहला, योजना के समर्थन के लिए कोई कानून नहीं है। दूसरा, राज्य सरकार द्वारा स्थापित समीतियां, कई स्तरों पर राशि के इष्टतम उपयोग सुनिश्चित करने के लिए अप्रभावी साबित हो रही हैं। यह पैनलें स्थानीय स्तर पर मुद्दों की पहचान, उन्हों संबोधित करने के लिए उपयुक्त योजनाएं और तंत्र खामियों को ठीक करने के लिए प्रतिक्रिया के लिए बने थे।

क्या होता है राशि के साथ : तेलंगाना की कहानी

हमारी जांच के दौरान,हम आदिवासी धन से बनाए गए तेलंगाना में एक स्कूल पहुंचे। वहां हमने पाया कि गरीबों तक पहुंचने वाली राशि भ्रष्टाचार के बलि चढ़ रही है।

नलगोंडा जिले के गुडूर गांव में सरकारी आवासीय स्कूल की दीवारों में दरारें पड़ रही थी। गौर हो कि स्कूल का निर्माण केवल तीन साल पहले ही हुआ है। स्कूल के प्रिंसिपल ने स्कूल के प्रिंसिपल ने केवल आयोग का ही नाम लिया।

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केवल तीन साल के भीतर ही नलगोंडा जिले के गुडूर गांव में सरकारी आवासीय स्कूल की दीवारों में दरारें पड़ने लगी हैं। इमारत का निर्माण जनजातीय उप योजना के तहत आवंटित 47 लाख रुपए का उपयोग कर किया गया है।

इमारत का निर्माण टीएसपी धन का 47 लाख रुपए का उपयोग कर बनाया गया था लेकिन ऐसा दिखता नहीं है। वट्टम उपेंद्र, टूड्डम देब्बा , आदिवासी संगठन के प्रदेश अध्यक्ष, कहते हैं, “काम की गुणवत्ता दयनीय है। आदिवासियों के लिए तैयार की गई योजनाओं का लाभ अक्सर दूसरे लेते हैं।”

हाशिए पर रह रहे लोगों के लिए बनाई गई योजनाओं के तहत मध्यान्ह भोजन से लेकर स्कूल बैग तक भ्रष्टाचार की बली चढ़ रहा है। एससीएसपी और टीएसपी के प्रभाव पर किए गए एक अध्ययन में पूर्व योजना आयोग (अब नाम बदलकर नीति आयोग) कहती है कि, “लाभार्थियों के साथ बातचीत में जो सबसे प्रमुख बात उभरी है वह भ्रष्टाचार है।”

समस्या ठीक करने के लिए विधान की आवश्यकता

योजनाओं के शुरु होने के तीन दशक बाद भी इनके समर्थन के लिए कोई भी केंद्रीय कानून नहीं है – मांग जो लंबे समय से लंबित है।

बीना जे. पाल्लीकल, दलित मानवाधिकार राष्ट्रीय अभियान (NCDHR) के राष्ट्रीय समन्वयक कहते हैं,“नौकरशाहों का कहना है कि यह सिर्फ एक दिशानिर्देश है न कि कानून है। और यह इसका इस्तेमाल दलितों और आदिवासियों को उनका उचित हिस्सा देने में इंकार करते हैं।”

यह योजनाएं नीति आयोग द्वारा समय -समय पर जारी दिशा-निर्देशों पर चलाए जा रही हैं । लेकिन आयोग के पास उन्हें लागू करने की शक्ति का आभाव है इसलिए दिशा-निर्देशों की अनदेखी की जाती है।

दिवाकर का मानना ​​ है कि कानून बनने से धन की उपक्षा करने के संबंध में अधिकारियों की जबावदेही बनेगी। वह कहते हैं, "यह तो उन पर बाध्यकारी होगा।"

लेकिन इस संबंध में अब तक कोई प्रयास शुरु नहीं हुआ है। पल्लीकल याद करते हैं कि तीन वर्ष पहले एनसीडीएचआर एवं पी एस कृष्णन, 83, एक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी और भारत सरकार के पूर्व सचिव जिनके योगदान से 1980 में एससीएसपी की शुरुआत हुई, उनके सहयोग से एक विधेयक मसौदा तैयार किया गया था। पल्लीकल कहते हैं, “यह बिल अब भी ठंडे बस्ते में है।”

राशि किधर जाती है, इस पर आंकड़े मौजूद नहीं

नीति आयोग से प्राप्त दस्तावेजों के साथ इंडियास्पेंड ने बिहार के व्यय की जाच की है। आयोग के अनुसार, 1998-99 और 2001-02 में 628 करोड़ रुपये और 2,393 करोड़ रुपये रुपये आवंटित होने के बावजूद बिहार में शून्य पैसे खर्च किए गए हैं।

इंडियास्पेंड बिहार के कल्याण विभाग को एक विस्तृत प्रश्नावली भेजी है लेकिन अब तक वहां से जवाब नहीं मिला है।

लेकिन ऐसी स्थिति केवल बिहार की ही नहीं है। एक आरटीआई प्रतिक्रिया से पता चला है कि नीति आयोग के यह जानकारी नहीं है कि इन वर्षों में 3.1 लाख करोड़ रुपये किस प्रकार खर्च हुए हैं। इसका मुख्य कारण राज्यों का रिपोर्ट न करना है।

अनुसूचित जाति व जनजातीय उप योजना के तहत राशि जिनका व्यय विवरण उपलब्ध नहीं है

Source: Response to RTI requests

राज्यों के लिए अलग सूचना के अधिकार से पता चला है कि कुछ को छोड़ कर, किसी के पास भी व्यय की पूरी जानकारी नहीं है। उदाहरण के लि , केरल के पास र टीएसपी धन के आवंटन और व्यय पर 1976-2015 से डेटा मौजूद है।लेकिन असम के पास 2009-10 से पहले का कोई भी डेटा नहीं है।

इसके अलावा, एक ही वर्ष के लिए नीति आयोग के व्यय के आंकड़ों और राज्यों के बीच विसंगतियों थी।

निधियों के जारी होने में देरी

हालांकि, निधियां बजट में आवंटित होते हैं, वे वित्तीय वर्ष में बहुत देर से जारी होती हैं, जिससे राज्यों के लिए खर्च करने के लिए बहुत कम गुंजाइश रहती है। उदाहरण के लिए, 2014-15 में कर्नाटक सरकार ने फरवरी में राज्य के बजट में टीएसपी और एससीएसपी के लिए बजटीय आवंटन किया था।

लेकिन धन जारी करने के लिए बैठक, अक्टूबर तक (छह महीने की देरी) मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में नहीं किया गया था। इससे पूरी निधि खर्च करने के लिए मंत्रालय के पास केवल पांच महीनों का समय बचता है। कर्नाटक के सामाजिक न्याय मंत्रालय के एक अधिकारी ने इस बात की पुष्टि की है और कम खर्च पर स्थिति को दोषी ठहराया।

ढीले प्रवर्तन के साथ राज्य होते हैं दूर

जब योजना आयोग, योजनाओं की निगरानी कर रहे थे, जब राज्यों अनुमोदन के लिए अपनी योजनाओं को भेजना पड़ता था। आयोग ने इस प्रक्रिया को हटा दिया है। आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, “अब राज्यों हमारे पूर्व मंजूरी की जरूरत नहीं है, और वे व्यय रिपोर्ट की परवाह नहीं करते है। हम पत्र और अनुस्मारक भेजते हैं लेकिन कोई फायदा नहीं होता है।”

कृष्णन का मानना ​​है कि आयोग की निगरानी और इन विशेष धन के उपयोग को लागू करने की क्षमता गंभीर रूप से प्रभावित हुआ है। वह कहते हैं, "नीति आयोग के पास कोई शक्ति नहीं है, कम से कम योजना आयोग के पास कुछ तो था।"

सरकार अब रणनीतियों के लिए निगरानी एजेंसी के रूप में नीति आयोग की भूमिका पर अपने फैसले पर पुनर्विचार कर रही है।

दो साल पहले, एक एनसीडीएचआर अध्ययन में पाया गया है कि सरकारों ने दलित और आदिवासियों के उनकी आबादी के अनुपात में धन आवंटन नहीं करके दलितों और आदिवासियों के लिए 5 लाख करोड़ रुपयों की मनाही की है। लेकिन, योजनाओं के लिए कम धन का आवंटन में भी मिलावट जारी है।

उदाहरण के लिए, 2014-15 के लिए , टीएसपी के लिए तेलंगाना के बजट 4,404.59 करोड़ रुपये था, लेकिन इसे संशोधित कर 1,950.29 करोड़ रुपए किया गया है जोकि 55.7 फीसदी की गिरावट है।

योजना राशि होती है दूसरे कामों में इस्तेमाल

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) शासन के दौरान सरकार ने राष्ट्रमंडल खेलों के लिए इस राशि का इस्तेमाल किया था। बाद में, यह पता चला था कि वह राशि दिल्ली सरकार द्वारा दीवाई की मिठाई खरीदने में इस्तेमाल किया गया था।

वास्तव में, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्य जहां एससीएसपी और टीएसपी के उचित कार्यान्वयन के लिए कानूनों को पारित किया गया है, वहां भी धन का पर्याप्त इस्तेमाल नहीं किया जाता है।

2014-15 में, कानून होने के बावजूद तेलंगाना में दलितों के लिए आवंटित राशि में से 61.26 फीसदी से अधिक खर्च नहीं किया गया है और आदिवासियों के लिए 64.3 फीसदी आवंटित किया गया था और दोनों मिला कर 7,475.1 करोड़ रुपये होते हैं।

कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में स्थिति कुछ खास अलग नहीं है। अंजनायुलु, सेंटर फॉर दलित स्टडीज, हैदराबाद, के पूर्व निदेशक कहते हैं, “हालांकि विधेयक पारित किया गया था , लेकिन इस पर कोई कानून नहीं बनाया गया है और सरकार इसका उपयोग ढ़ाल के रुप में कर रही है।” अंजनायुलु ने रणनीतों पर काफी अध्ययन किया है। वह कहते हैं कि, सजा खंड का अभाव और कमियां जो राशि का सामान्य उद्देश्यों के इस्तेमाल की अनुमति देती हैं, वह भी योजनाओं में बाधा बनती हैं।

रणनीतियों पर फिर से विचार करने की जरूरत

हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि केवल नकदी का उपयोग योजनाओं की समस्या नहीं है। कृष्णन कहते हैं, “हमें आवंटित धन राशि की बजाय जमीनी स्तर पर रणनीतियों पर परिवर्तन के संबंध में सोचना चाहिए।”

इसके अलावा, योजनाओं को विशिष्ट जरूरतों के हिसाब से बदलाव किया जाना चाहिए। कृष्णन ने बताया है कि केवल मोबाइल स्वास्थ्य सुविधाओं से ही दूरदराज के क्षेत्रों को फायदा होगा। वह कहते हैं, “स्वास्थ्य सुविधाएं दूर होने से वहां तक पहुंच की उम्मीद नहीं की जा सकती है।”

कृष्णन कहते हैं कि समस्या की जड़ें इतनी गहरी हैं जो सरलीकृत कारकों से समझाया नहीं जा सकता है। “लोग अस्पृश्यता समझते हैं, लोगों अत्याचारो भी समझते हैं लेकिन एससीएसपी और टीएसपी को समझने के लिए उन्हें करीब एक दशक लगा है। जब तक वे धन के लिए राजनीतिक दलों पर दबाव नहीं डालेंगे तब तक स्थिति में सुधार नहीं होगा।”

यह लेख के दूसरा और अंतिम भाग है। पहला भाग आप यहां पढ़ सकते हैं।

(बाबू दिल्ली स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101Reporters के सदस्य हैं। 101Reporters जमीनी स्तर पर पत्रकारों के एक अखिल भारतीय नेटवर्क है।)

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 20 सितंबर 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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