बेंगलुरु: छह साल पहले की तुलना में भारत की महिला कार्यबल की संख्या में कमी हुई है: ग्रामीण क्षेत्रों में 18 फीसदी से ज्यादा महिलाएं कार्यबल में शामिल नहीं हैं, जबकि 2011-12 में यह आंकड़े 25 फीसदी थे। वहीं इसी मामले में शहरी क्षेत्रों के आंकड़े 15 फीसदी से 14 फीसदी हुए हैं। हालांकि, शहरी क्षेत्रों में, वेतनभोगी नौकरियों में महिलाओं के प्रतिशत में वृद्धि हुई है। ये आंकड़े 2004 में 35.6 फीसदी से बढ़कर 2017 में 52.1 फीसदी हुआ है। लेकिन स्वरोजगार या ‘कैजुअल वर्क’ में उनकी उपस्थिति की तुलना में उनका प्रतिनिधित्व अब भी कम है। यह जानकारी ‘अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय’ के शोधकर्ताओं द्वारा नवीनतम सरकारी रोजगार आंकड़ों के विश्लेषण में सामने आई है।

ग्रामीण और शहरी भारत में पुरुष और महिलाएं दोनों, काम के लिए बाहर जाते हैं, लेकिन कार्यबल में महिलाओं की संख्या में गिरावट जारी है,जैसा कि पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) 2017-18 द्वारा इक्टठा किए गए नवीनतम सरकारी डेटा से पता चलता है।

भारत की मौजूदा बेरोजगारी दर 45 साल के उच्च स्तर पर थी, राष्ट्रीय रोजगार के इन आंकड़ों के लीक होने के चार महीने बाद सरकार ने 31 मई, 2019 को आधिकारिक पीएलएफएस रिपोर्ट जारी की।

सर्वेक्षण को समझना जरूरी

विवादों के बाद जारी की गई पीएलएफएस रिपोर्ट में लिंग, शिक्षा और जाति द्वारा श्रम बाजार संकेतकों पर त्रैमासिक अनुमान प्रदान किया गया है। 2017 में, पीएलएफएस ने राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय के रोजगार बेरोजगारी सर्वेक्षण (एनएसएस ईयूएस) को प्रतिस्थापित किया था जो 1972-73 के बाद से हर पांच साल में आयोजित किया गया था।

पीएलएफएस रिपोर्ट एनएसएस ईयूएस के साथ वर्तमान आंकड़ों की तुलना करती है, लेकिन दोनों की कार्यप्रणाली के साथ-साथ ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में सर्वेक्षण किए गए 433,339 व्यक्तियों से पूछे गए प्रश्न अलग-अलग हैं। कुछ लोगों का तर्क है कि दोनों सर्वेक्षण सामान्य तौर पर तुलनीय हैं, जबकि अन्य सोचते हैं कि यह सेब की तुलना संतरे से करने जैसा है।

हालांकि दो सर्वेक्षणों के बीच नमूना रणनीति बदल गई है, सांख्यिकीय तकनीक यह सुनिश्चित करती है कि एनएसएस ईयूएस और पीएलएफएस का अनुमान तुलनीय है। इसके अलावा, श्रम बल की स्थिति को देखने के लिए उपयोग किए जाने वाले व्यापक प्रश्न सर्वेक्षणों के बीच अपरिवर्तित रहते हैं।

नौकरी में महिलाएं

1993 में, लगभग 33 फीसदी ग्रामीण महिलाओं को रोजगार मिला था। 2011-12 तक, जब एनएसएस ईयूएस का अंतिम बार संचालन किया गया था, यह आठ प्रतिशत अंक गिरकर लगभग 25 फीसदी हो गया था। शहरी महिलाओं का अनुपात दो दशकों से 2011-12 में एक प्रतिशत घटकर 15 फीसदी रह गया।

2017-18 पीएलएफएसFS के अनुमानों में और गिरावट का संकेत मिलता है। ग्रामीण महिलाओं की कार्यबल भागीदारी 18 फीसदी तक गिर गई है, और कार्यबल में शहरी महिलाओं की भागीदारी 14 फीसदी तक कम हो गई है।

वेतनभोगी कार्यबल में कुछ ही महिलाएं करती हैं काम

Source: Periodic Labour Force Survey (PLFS) 2017-18

नियमित, वेतनभोगी रोजगार में अधिक महिलाएं

गिरती महिला कार्यबल भागीदारी पर विशाल सामग्री इस गिरावट के लिए कुछ कारण प्रदान करता है। एक व्याख्या यह है कि महिलाएं ‘आय प्रभाव’ के कारण कार्यबल से पीछे हट जाती हैं, यानी पति की आय में वृद्धि है, जो घरेलू आय को बढ़ाती है (कप्सोस एट अल..., 2014)। एक और कारण यह है कि महिलाओं की घरेलू और बाल-देखभाल जिम्मेदारियां उन्हें श्रम बाजार (चौधरी और वेरिक, 2014) में भाग लेने से रोकती हैं।

कुछ लोगों का तर्क है कि महिलाएं उच्च शिक्षा (किंग्डन और उन्नी, 2001) को आगे बढ़ाने के लिए कार्यबल से पीछे हट रही हैं, जबकि अन्य का तर्क है कि महिलाओं के लिए अच्छी नौकरियों की कमी है (चटर्जी एट ए, 2015)।

हालांकि, कुछ सबूत हैं जो बताते हैं कि उच्च कौशल वाली शिक्षित महिलाएं शहरों में बेहतर नौकरियों की मांग कर रही हैं: कुछ महिलाएं जो शहरी कार्यबल में भाग लेती हैं, वे नियमित रूप से वेतनभोगी नौकरियों में तेजी से कार्यरत हैं।

2004 में कार्यबल की सभी महिलाओं में से, 35.6 फीसदी शहरी क्षेत्रों में नियमित वेतनभोगी श्रेणी में थीं। 2017 तक, उनका प्रतिनिधित्व बढ़कर 52.1 फीसदी हो गया। इस प्रकार, पीएलएफएस रिपोर्ट बताती है कि बजाय कि स्व रोजगार या कैजुअल श्रमिकों के महिलाओं की बढ़ती हिस्सेदारी को अब नियमित वेतनभोगी श्रमिकों के रूप में नियुक्त किया जा रहा है। स्व-नियोजित श्रमिकों के लिए, 2004 से 2017 के बीच शहरी क्षेत्रों में कार्यबल में उनकी हिस्सेदारी 47.7 फीसदी से घटकर 34.7 फीसदी रह गई है। इसी अवधि में, कैजुअल श्रम में महिला श्रमिकों की हिस्सेदारी भी 16.7 फीसदी से घटकर 13.1 फीसदी रह गई है।

महिलाओं की नियमित, वेतनभोगी श्रेणी में वृद्धि और आकस्मिक श्रम और स्व-नियोजित कार्यों में गिरावट के साथ इस अवधि के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में समान पैटर्न देखा गया है। इस वृद्धि के बावजूद, महिलाओं का नियमित, वेतनभोगी रोजगार में कम प्रतिनिधित्व जारी है।

जब महिलाएं भाग लेती हैं, तो वे नियमित रूप से वेतनभोगी श्रमिकों के रूप में काम कर रही हैं

Source: Periodic Labour Force Survey (PLFS) 2017-18

रोजगार श्रेणियों में पुरुषों और महिलाओं के प्रतिनिधित्व का अनुमान लगाने के लिए हम प्रतिनिधित्व सूचकांक (आरआई) का उपयोग करते हैं ( पूरे कार्यबल में उस लिंग के हिस्से से विभाजित एक रोजगार प्रकार में पुरुषों या महिलाओं के हिस्से का अनुपात )।

यदि अनुपात एक से कम है, तो इसका मतलब है कि समूह का प्रतिनिधित्व कम है यदि अनुपात एक से कम है, तो इसका मतलब है कि समूह का प्रतिनिधित्व है। हम पाते हैं कि 2.23 और 1.61 के आरआई के साथ स्व-नियोजित और आकस्मिक कार्य श्रेणियों में महिलाओं को अधिक प्रतिनिधित्व दिया जाता है। हालांकि, नियमित रोजगार प्रकार में, महिलाओं को 0.9 के आरआई के साथ कम-प्रतिनिधित्व किया जाता है।

इस प्रकार, भले ही समय के साथ वेतनभोगी श्रमिकों के रूप में महिलाओं की भागीदारी बढ़ गई हो, फिर भी उनका प्रतिनिधित्व कम ही होता है। और, जब महिलाएं काम करती हैं, तो उन्हें स्व-नियोजित या कैजुअल श्रमिकों के रूप में काम करने की अधिक संभावना होती है।

पुरुषों की तुलना में महिलाओं की आय

पीएलएफएस ने स्वरोजगार से कमाई पर डेटा को देखने के लिए एक सवाल पेश किया। जैसा कि भारत में अधिकांश श्रमिक स्व-नियोजित हैं, यह एक महत्वपूर्ण सवाल था जिसे पिछले सर्वेक्षणों ने अनदेखा किया था। आय पर ये डेटा अब रोजगार श्रेणियों में पुरुषों और महिलाओं के बीच तुलना करने की अनुमति देता है।

नियमित, वेतन श्रेणी में पुरुषों और महिलाओं की औसत कमाई में अंतर लिंग का अंतर भी दर्शाता है कि ग्रामीण बस्तियों में पुरुष 4,594.5 रुपये और शहरी बस्तियों में 3,429.75 रुपये अधिक कमाते हैं। यानी महिलाएं शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों द्वारा कमाए गए प्रत्येक 100 रुपये पर क्रमश: 70 रुपये और 80 रुपये कमाती हैं।

हमने पाया कि स्व-नियोजित श्रमिकों के बीच, पुरुष ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में महिलाओं की तुलना में दो गुना से अधिक कमाते हैं। हालांकि, स्वरोजगार से होने वाली कमाई की जानकारी रिपोर्टिंग त्रुटियों से ग्रस्त है और सावधानी के साथ संपर्क किया जाना है। वैकल्पिक डेटा स्रोतों के साथ तुलना करने के बाद ही अनुमानों की विश्वसनीयता का पता लगाया जा सकता है।

पुरुषों और महिलाओं द्वारा काम करने वाले घंटे

काम किए गए घंटों की जानकारी पीएलएफएस प्रश्नावली के अलग से जोड़े गए हैं। यह जुलाई 2017 से जून 2018 तक सर्वेक्षण अवधि के चार तिमाहियों के दौरान एक सप्ताह में काम करने वाले घंटों की औसत संख्या के रूप में मापा गया है।

ग्रामीण क्षेत्रों में अतिरिक्त काम के लिए उपलब्ध पुरुषों और महिलाओं के प्रतिशत के बीच कोई महत्वपूर्ण अंतर नहीं हैं। शहरी बस्तियों में, हालांकि, स्वरोजगार और नियमित कार्य श्रेणियों में महिला श्रमिक पुरुषों की तुलना में काम के लिए अधिक घंटे उपलब्ध होने की रिपोर्ट करती हैं।

जब स्व-नियोजित होते हैं, तो पुरुष प्रति सप्ताह महिलाओं की तुलना में 12 घंटे अधिक काम करते हैं। और नियमित और कैजुअल रोजगार में,पुरुष एक सप्ताह में महिलाओं की तुलना में सात घंटे अधिक काम करते हैं। हालांकि, यह जरूरी नहीं है कि महिलाएं कम घंटों तक काम करती हैं जैसा कि महिलाओं के अवैतनिक काम को सही तरीके से रिकार्ड नहीं किया जाता है। घर के अंदर और बाहर महिलाओं के अवैतनिक योगदान को समझने के बाद काम किए गए घंटों की संख्या का डेटा बेहतर उपयोग किया जा सकता है।

अब हम एनएसएस टाइम यूज सर्वे के आंकड़ों का इंतजार कर रहे हैं। एक बार जारी होने के बाद, यह पुरुषों और महिलाओं के आर्थिक गतिविधियों पर बिताए गए समय को व्यावहारिक दृष्टिकोण से परखने में मदद करेगा।

भारतीय कार्यबल में महिलाओं की विकसित भूमिका को समझाने का प्रयास करते हुए यह दो आलेखों की श्रृंखला का पहला आलेख है।

(शिबू और अब्राहम अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में शोधकर्ता हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 02 जुलाई 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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