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मुंबई: 136, 985 रेलवे जैव-शौचालयों पर करीब 1,370 करोड़ रुपये खर्च करने और मार्च 2019 तक शेष ट्रेनों पर जैव-शौचालय स्थापित करने के लिए 250 करोड़ रुपये निर्धारित करने के बाद, रेल मंत्रालय अब 6,250 करोड़ रुपये की लागत से ‘अपग्रेड वैक्यूम जैव-शौचालयों’ पर विचार कर रहा है। इससे पहले जानकारों ने जैव-शौचालयों को सेप्टिक टैंक वाले शौचालयों से बेहतर नहीं माना था और इसकी आलोचना की थी।

रेल मंत्री पीयूष गोयल ने पीटीआई को बताया, "हमने हवाई जहाज की तरह वैक्यूम जैव-शौचालयों के साथ प्रयोग करना शुरू कर दिया है। करीब 500 वैक्यूम जैव-शौचालयों का आदेश दिया गया है और एक बार प्रयोग सफल होने के बाद, सभी ट्रेनों में सभी 2.5 लाख शौचालयों को बदलने के लिए पैसे खर्च करने के लिए तैयार हूं।"

उन्होंने कहा, “वैक्यूम शौचालय, जिसमें प्रति यूनिट 2.5 लाख रुपये खर्च आते हैं, उसमें दुर्गंध नहीं होगा। पानी का खर्च में बेहद कमी होगी और ऐसे शौचालयों के अवरुद्ध होने की आशंका कम होगी।”

इसमें लागत 6,250 करोड़ रुपये आएगी। इसके अलावा, वैक्यूम शौचालयों को रेल गज में खाली और साफ करने की आवश्यकता होगी।

पीटीआई द्वारा उद्धृत रेल मंत्रालय के अधिकारियों के मुताबिक, प्रति शौचालय प्रति लाख रुपये की लागत पर, 31 मई तक, 37,411 जैव-शौचालय 37,411 कोच में लगाए गए हैं। इसमें व्यय करीब 1,370 करोड़ रुपये आया है।

पीटीआई की एक विज्ञप्ति में कहा गया है कि मार्च 2019 तक लगभग और 18,750 कोच में जैव-शौचालय स्थापित करने की योजना है, जिसमें 250 करोड़ रुपये खर्च होंगे।

प्रौद्योगिकी और आलोचना

भारतीय रेलवे को अक्सर विश्व के सबसे बड़े शौचालय के रूप में वर्णित किया जाता है। वर्ष 2013 में नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक रेलवे हर दिन रेल ट्रैक पर लगभग 3,980 टन मल पदार्थ बिखरते हैं, जो 497 ट्रक लोड के बराबर (8 टन प्रति ट्रक पर) हैं।

इन जैव शौचालयों को शौचालय के नीचे लगाया गया है और इनमें गिरने वाला मानव अपशिष्‍ट को बैक्‍टीरिया पानी और बायो गैस में बदल देता है। गैस पर्यावरण में चली जाती है और बचे हुए पानी के क्‍लोरीनेशन के बाद उसे पटरी पर छोड़ दिया जाता है। इससे मानव अपशिष्‍ट पटरी पर नहीं गिरता और प्‍लेटफॉर्म पर सफाई बनी रहती है तथा पटरी और डिब्‍बों का रख-रखाव करने वाले कर्मचारी अपना काम और बेहतर तरीके से करते हैं।

लेकिन, इस प्रणाली में विफलता के संकेत जल्दी ही आ गए।

2007 में, कानपुर के ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ के प्रोफेसर विनोद तेरे की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति ने निष्कर्ष निकाला था कि ‘रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन’ (डीआरडीओ) द्वारा विकसित जैव-शौचालय काम करने योग्य नहीं थे। तारे ने 7 जनवरी, 2018 को एक साक्षात्कार में इंडियास्पेंड को बताया कि "फिर भी, भारतीय रेलवे ने इस मॉडल को आगे बढ़ाने का फैसला लिया।"

रेलवे द्वारा शुरू किए गए स्वच्छता विशेषज्ञों और विभिन्न अध्ययनों ने इंगित किया है कि भारतीय रेलगाड़ियों पर नए "बायो-शौचालय" अप्रभावी या बद्तर देखरेख में हैं और छोड़ा गया पानी अउपचारित सीवेज की तरह है। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने 23 नवंबर, 2017 की रिपोर्ट में बताया है।

‘रक्षा अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान’ (डीआरडीई) के पूर्व निदेशक लोकेंद्र सिंह, अंटार्कटिका के अभियान के बाद, अपने घर बैक्टीरिया ले कर आए, जो बेहद कम तापमान में जीवित रह सकते थे। बैक्टीरिया गाय गोबर और सामान्य मिट्टी के साथ मिश्रित होते थे। इनमें मेथोजेन बैक्टीरिया भी था, जो जो मीथेन गैस उत्पन्न करते हैं और मानव उत्सर्जन को तोड़ने में सक्षम होते हैं। इसी के आधार पर "बायो-शौचालय" की परिकल्पना साकार हुई।

लेकिन सिंह के वैज्ञानिक सफलता के दावों पर सवाल उठाए गए। रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) के पास जैव-शौचालयों के डिजाइन और निर्माण के लिए पेटेंट नहीं था, और एक बार टैंक भरने के बाद, मानव मल पटरियों पर जाता था।

इन जैव-शौचालयों पर नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की एक दिसंबर 2017 की रिपोर्ट ने हमारी नवंबर 2017 की जांच के निष्कर्षों को उनके व्यापक खराब प्रदर्शन में प्रतिबिंबित किया।

कैग ने 25,000 शौचालयों में 199,689 दोष पाए। कुछ प्रमुख ये थे-

    • बेंगलुरु कोचिंग डिपो 41,111 त्रुटियां मिलीं,जो सबसे ज्यादा थी। इसके बाद गोरखपुर में 24,495 और वादी बंदर में 22,521 त्रुटियां पाई गईं।

    • बेंगलुरु कोचिंग डिपोर्ट जैव-शौचालयों के प्रति शिकायतें सबसे अधिक थीं, 98। इसके बाद वाडी बंदर में 32, रामेश्वरम में 28 और ग्वालियर में 17 शिकायतें थीं।

    • चोकिंग के 102,792 मामलों में से 10,098 (10 फीसदी) मामलों की सूचना मार्च 2017 में दी गई है।

    • 25,080 जैव-शौचालयों में चोकिंग के 102,792 मामलों में से , उच्चतम मामले बेंगलुरू से (34 फीसदी) मिली थी। इसने निहित किया कि एक जैव-शौचालय साल में 83 बार चोक हुआ है।

    • 2015-16 से चॉकिंग घटनाएं बढ़ी । 2016-17 के दौरान एक जैव-शौचालय साल में चार बार चोक हुआ है।

कैग निष्कर्षों का जवाब देते हुए, रेल मंत्रालय ने कहा कि ‘इसकी आलोचना सही नहीं है और ‘यात्रियों द्वारा शौचालयों के दुरुपयोग के कारण चोकिंग की कुछ समस्याएं हो रही थीं।’ 20 दिसंबर, 2017 की एक आधिकारिक नोट में कहा गया कि ‘इन मुद्दों का तुरंत समाधान किया जा रहा है।’

इनकार

रेलवे मंत्रालय ने हमारी नवंबर 2017 की जांच का यह बताते हुए जवाब दिया, कि यह ‘तथ्यात्मक त्रुटियों’ और ‘तकनीकी समझ’ की कमी है। हमने प्रतिक्रिया के साथ ‘रिजॉन्डर वर्बेटिम’ प्रकाशित किया था-

    • मंत्रालय ने कहा कि आईआईटी मद्रास का अध्ययन “चयनित 15 फील्ड स्थापित इकाइयों के स्थिर शौचालयों पर और डीआईडीओ प्रौद्योगिकी के आधार पर जैव-पाचन के साथ आईआईटी मद्रास कैंपस में 6 इकाइयों पर केंद्रित थे न कि न कि रेलवे कोच पर।” आईआईटी मद्रास के प्रोफेसर लिगी फिलिप ने हमें बताया था, " इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।" "एक ही तकनीक और एक ही बैक्टीरिया का उपयोग जमीन आधारित और ट्रेन जैव-पाचन दोनों के लिए किया जा रहा है।"

    • मंत्रालय ने कहा, "यह कहना सही नहीं है कि कोच में जैव-शौचालय अप्रभावी या बद्तर देखरेख में हैं।" यह भी सुनिश्चित करने के लिए आवधिक परीक्षण आयोजित किए जाते हैं कि छोड़ा गया पानी विशिष्ट मानदंडों को पूरा करता है। हालांकि, अक्टूबर 2017 में रेलवे बोर्ड की बैठक के एजेंडा पत्रों से पता चला कि बायो-शौचालयों ने प्रदर्शन परीक्षण पास नहीं किए हैं।

    • मंत्रालय ने कहा, "डीआरडीई में न केवल बुनियादी तकनीक पर एक दर्जन से अधिक राष्ट्रीय और विदेशी पेटेंट हैं, बल्कि रेलवे कोच में लगे बायो-डायजेस्टर पर भी हैं।" हालांकि, पेटेंट इंजीनियरिंग और सेप्टिक टैंक डिजाइन के लिए है। जैव-पाचन प्रक्रिया की सहायता के लिए अंटार्कटिका बैक्टीरिया के उपयोग का कोई उल्लेख नहीं है।

    • मंत्रालय ने कहा कि मार्च 2010 में डीआरडीओ के साथ समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए गए थे। हालांकि, जैव-शौचालयों की आपूर्ति के लिए समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद पांच साल बाद इंजीनियरिंग और सेप्टिक टैंक डिजाइन के पेटेंट पर निर्णय लिया गया था।

पॉलिसी में यू-टर्न

एक संभावित समाधान के रूप में, इंडियास्पेंड ने आईआईटी कानपुर द्वारा विकसित ' जीरो डिस्चार्ड टॉयलेट ' की पेशकश की थी।

प्रोफेसर तारे ने हमें बताया, "आईआईटी कानपुर ने ' जीरो डिस्चार्ड टॉयलेट ' विकसित किया, जिसमें तरल हिस्से से मानव उत्सर्जन के ठोस पदार्थ को अलग करने के लिए एक विभाजक है। उपचार के बाद तरल भाग का उपयोग फ्लशिंग के लिए किया जा सकता है, जबकि ठोस कचरे को असेंबली सक्शन पंप की सहायता से जंक्शनों पर निकाला जा सकता है। गाय के गोबर के साथ मिश्रित मानव उत्सर्जन-बाद में वर्मी-कंपोस्टिंग के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। "

रेल मंत्रालय ने इस समाधान को यह कहत हुए खारिज कर दिया कि सिस्टम में "टर्मिनल पर प्रतिधारण टैंक निकालने के लिए ग्राउंड हैंडलिंग सुविधा की जरूरत होगी।"

मंत्रालय ने कहा, "इसमें बड़ा बुनियादी ढांचा, लागत और मानव श्रम की जरूरत होगी। टर्मिनल भूमिगत हैं, इंटर-ट्रैक डिस्टेंस हर जगह समान नहीं है।" हालांकि, आईआर-डीआरडीओ प्रणाली में, अपशिष्ट को बोर्ड पर ही उपचारित किया जाता है और इस प्रकार कोई आधारभूत संरचना की आवश्यकता नहीं होती है। "

जैसा कि हमने कहा था , वैक्यूम शौचालयों को (जिस तरह विमानों में उपयोग किए जा रहे हैं) उनको निकासी सुविधाओं और उपचार संयंत्रों की आवश्यकता होगी और जैव-शौचालयों को वैक्यूम शौचालयों में बदलने पर 6,250 करोड़ रुपये की संभावित अतिरिक्त लागत आएगी।

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 18 जून, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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