संकट में घिरती हुई भारत की खामोश महिला किसान
उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में बैलगाड़ी की सवारी करती हुई कल्ली, एक महिला किसान।
छवि: खबर लहरिया
चित्रकूट (उत्तर प्रदेश) / कोटा (राजस्थान) / मुंबई: नाज़ुक और काली सी, श्यामपती ,उम्र 30, बिना मौसम बारिश से कमजोर होते एक घर से टेक लगाए खड़ी थी और हमसे अपने जीवन के बारे में बात कर रही थी । वह एक किसान है , मज़दूरी करती है , बकरी चराती है और साथ ही चार बच्चों की मां है। साथ ही वह घर की मुख्य कमाने वाली और एक सम्पूर्ण गृहिणी भी है ।
उत्तरी मैदानी इलाकों और दक्षिणी पठार के पार यहां पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले में बारिश में नहाए, इस गरीब से गांव की श्यामपती (वह केवल एक ही नाम का उपयोग करती है) उस एक लुप्त सी भारतीय जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करती है: भारतीय महिला किसान, जिन्हें समाज में कोई मान्यता नही मिली और वे अभी भी अंधविश्वासों और पितृसत्ता की दीवारों के भीतर परेशानियाँ झेल रही हैं ।
इंडिया स्पेंड द्वारा किए गए जनगणना-अभिलेख आंकड़ों के विश्लेषण के अनुसार पिछले एक दशक में लाखों महिलाएं ज़मीन मालिकों और किसानों का पेश छोड़ मजदूरी करने पर विवश हो गई हैं जो बढ़ते कृषि संकट का एक प्रतिबिम्ब है ।
महिला खेतिहर मजदूरों की संख्या में 24% वृद्धि हुई है जो 2001 में 49.5 मिलियन से 2,011 में 61.6 मिलियन तक बढ़ गई ।
महिला कृषि श्रमिक, स्तर अनुसार , 2001-2011 (मिलियन में)
लगभग 98 लाख भारतीय महिलाएँ कृषि करती हैं , लेकिन उनमें से लगभग 58%, या 6 .6 मिलियन महिलाएँ ,2011 जनगणना-अभिलेख आंकड़ों के अनुसार, दूसरों के खेतों पर निर्भर, खेतिहर मजदूर हैं।
"हमारे पास भूमि नहीं है, लेकिन मैं एक छोटी सी, आधा बीघा (0.2 एकड़) भूमि से ले कर ज्यादा से ज्यादा 4 बीघा (1.6 एकड़) तक ज़मीन के टुकड़े पर मजूरी पर काम करती हूँ " श्यामपती कहती है, वह केवल एक ही नाम का उपयोग करती है। "कृषि मौसम में ज़्यादातर मुझे खेत में मजदूरी का काम मिलता है के रूप में काम मिलता है, और इस से मैं एक साल तक का पर्याप्त अनाज और तेल (गेहूं और सरसों का तेल) खरीदने लायक कमा लेती हूँ ।"
श्यामपती की एक बेटी है जो 5 किलोमीटर दूर मिडिल स्कूल तक पैदल पढ़ने जाती है - उसके तीन बेटे हैं और एक बेरोज़गार पति है जिन्हे कभी कभी करवी जिले के मुख्यालय में छुटपुट निर्माण कार्य मिल जाता है।
"जब उसके पास काम नहीं होता है, जैसे की आजकल , तब भी उसे परवाह नहीं रहती कि मैं क्या कर रही हूँ और ना ही वह कभी कोशिश करता है खेत में मजूरी करने के लिए जहां काम आसानी से मिल जाता है ," श्यामपती बिना किसी क्षोभ के कहती है।
श्यामपती जब काम से घर लौटती है तो वह परिवार की भैंस और चार बकरियों को एक घंटे के लिए चराने ले जाती है ,चारा काटती है और घर ले कर आती है। इन कामों को करने से पहले और बाद में, वह परिवार के लिए खाना बनाती है। उसकी बेटी बर्तन और कपड़े धोने में उसकी मदद करती है।
श्यामपती का काम बदलता रहता है और भारत की इस ग्रामीण बहुकामी महिला का जीवन उसके काम के अनुसार और मुश्किल हो जाता है।
वे किसान जिनके बारे में भारत को कभी पता नही चलता
भारतीय गांवों के दृश्यों में, ग्रामीण भारत के बारे में कहानियों में, किसानों की आत्महत्या की खबरों में या अपने अधिकारों की मांग करने के लिए जुटे किसानों में महिलाएँ शायद ही कभी शामिल होती हैं।
जैसा कि खबर लहरिया संवाददाताओं को अक्सर मिलता है, महिलाएँ खेतों में हल चलाती हैं , बीज बोती और फसल काटती हैं और पुरुषों से मदद के बगैर अपने घर भी चलाती हैं हालाँकि राष्ट्रीय महिला आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार,महिलाओं के पास कृषि भूमि पर स्वामित्त्व बहुत छोटी मात्रा में ही है।
फिर भी, कृषि और खेती के विचार विमर्श में, महिलाओं की शायद ही कभी गिनती की जाती है।
उत्तर भारत में एक पुराना और स्पष्ट रूप से पुरूषों का विश्वास है कि महिलाओं द्वारा खेत में हल चलाने से गांव में सूखा पड़ेगा । उत्तर प्रदेश और बिहार में एक और विश्वास यह भी है कि यदि सूखा पड़ता है तो महिलाओं को खेत में हल चलने में मदद करनी चाहिए वह भी रात में नग्न अवस्था में उन्हें खेत में हल चलाना चाहिए।
महिला किसान विशेष रूप से कृषि में गिरावट झेलने पर मज़बूर हैं। 2001 से, मुख्य और सीमांत खेतिहर मजदूर के रूप में महिला किसान की संख्या में क्रमश: 38% और 13% की वृद्धि हुई है।
खेतिहर मजदूर खेत के पास स्वयं भूमि का स्वामित्त्व नहीं होता अपितु वे किसी और व्यक्ति की जमीन पर काम करके मजदूरी कमाते हैं। सीमांत खेतिहर मजदूर-श्यामपती एक ऐसी ही किसान है - जो किसी भी खेत पर साले में छह महीने से कम तक काम करती है और इनके लिए खेती आधिकारिक तौर पर आय का एक माध्यमिक स्रोत है। मुख्य कृषि मजदूर साल में छह महीने से ज्यादा खेती का काम करता है और उनके लिए खेती एक प्रमुख व्यवसाय है और उनकी आय का मुख्य स्रोत है।
कृषि क्षेत्र में बढ़ती अनिश्चितता ने उनकी अपनी ज़मीन पर हक़ रखने में मुश्किलें बढ़ा दी हैं यह भी एक कारण है कि वे किसान से मज़दूर बनने पर मजबूर हो गए हैं।
2011 जनगणना अभिलेख के अनुसार, कृषि क्षेत्र में शामिल लोगों की कुल संख्या में 12 % वृद्धि हुई है यह 2001 में 234.1 मिलियन से 2011 में 263.1 मिलियन तक हो गई है जबकि इसी अवधि में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा 22% से गिर कर 14% हो गया।
कृषि में श्रमिक, 2001-2011 (मिलियन में)
कृषि रोजगार में महिलाओं की संख्या 39% से गिर कर 37 % हो गई है।
जनगणना अभिलेख 2011 के आंकड़ों के अनुसार इसका कारण यह भी हो सकता है कि महिलाओं की कुल जनसंख्या में 2001 (496.5 मिलियन ) से 2011 तक (587.4 मिलियन ) 18% की वृद्धि हुई है।
जनगणना अभिलेख में कृषि कार्य बल को कृषक और मज़दूर के रूप में विभाजित किया गया है । कृषक या किसान, के पास या तो स्वयं अपनी या फिर पट्टे पर / किराए पर / अनुबंध पर, कृषि भूमि होती है और वे निगरानी और खेती प्रक्रिया के निर्देशन में शामिल रहते हैं। (इसमें वे लोग जो अपनी भूमि पट्टे पर दे देते हैं वे शामिल नहीं हैं।)
बाधाओं के बावजूद महिलाएँ दृढ़ रहती हैं
महिला किसानों की कुल संख्या में 2001 (41.9 मिलियन ) से 2011 तक (36 मिलियन ) 14% की गिरावट आई है। इसमें मुख्य कृषकों की संख्या में आई 10% की गिरावट भी शामिल है।
सीमांत महिला कृषकों की संख्या में भी 20% की गिरावट आई है।
महिला कृषि कृषक, स्तर अनुसार , 2001-2011 (मिलियन में)
हालाँकि हमने उल्लेख किया है, कि कुछ महिलाओं के पास अपने नाम पर भूमि है, लेकिन लाखों ऎसी भी हैं जो अपने पति की भूमि पर या अन्य भूमि मालिकों के लिए अनुबंध के अंतर्गत उनकी भूमि पर काम करती हैं ।
कुछ ने अपनी सफलता के लिए संघर्ष किया ।
राजस्थान के कोटा जिले की रिप्पी और करमवीर (दोनों एक ही नाम का उपयोग करती हैं ) अपने गाँव के जाने माने चेहरे हैं को अक्सर उनकी 80 बीघा (32 एकड़) भूमि पर ट्रैक्टर पर घुमते देखा जा सकता है।
जब फसल तैयार हो जाती है तो दोनों बहने फसल काटती हैं और यह मंडी (बाजार) ले जाती हैं ।
रिप्पी , 30, (बाएँ ) और करमवीर, 24, (एकदम दाएँ ) राजस्थान के कोटा जिले में अपने पिता से विरासत में मिले खेतों में अपने
ट्रैक्टर पर सवारी करती हुई ।उन्होंने सफल किसान बनने के लिए काफी प्रतिरोध का सामना किया है ।
छवि: खबर लहरिया
"हमने अपने पिता का निधन होने के बाद खेतों में काम शुरू किया । हमारे पास इतनी साड़ी ज़मीन थी लेकिन इस पर काम करने के लिए कोई भी नहीं था ।"30 वर्षीय रिप्पी कहती हैं।
करमवीर, 24 ने कहा कि गाँव वालों को पहले पहल उनका ट्रैक्टर चलाना बहुत बुरा लगा था।
"बहुत तूफ़ान खड़ा कर दिया था ," उसने बताया । "हमने भी झुकने से इंकार कर दिया फिर धीरे-धीरे लोगों को भी खेतों में काम कर रहे दो युवा महिलाओं की आदत सी पड़ गई।"
मंडियों में उन्हें कई बार काफी विरोध का सामना करना पड़ता है ; नशे में डूबे आदमी अभी भी समस्या बने हुए हैं
“आखिरकार हमे जिला प्रशासन और स्थानीय पुलिस की मदद लेनी पड़ी "रिप्पी कहती है । "उसके बाद से हमने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा ।"
(यह आलेख , ग्रामीण, साप्ताहिक समाचार पत्र, खबर लहरिया,के साथ साझेदारी में लिखा गया है जो उत्तर प्रदेश में पांच जिलों और बिहार के एक जिले में महिला पत्रकारों द्वारा सामूहिक रूप से प्रकाशित किया जाता है । प्रत्येक जिले के लिए इसका अपना एक अलग संस्करण है और यह हर जिले की स्थानीय भाषा में प्रकाशित किया जाता है। अभीत सिंह सेठी इंडिया स्पेंड के साथ एक नीति विश्लेषक के रूप में कार्यरत हैं। )
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