समस्याओं से जूझते हुए कोविड-19 से लड़ रहे हैं यूपी के हेल्थ वर्कर
लखनऊ: "कोरोनावायरस की ड्यूटी के दौरान एक दिन मुझे चक्कर आने लगे। मैं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र गई जहां डॉक्टर ने मुझे बुख़ार और ख़ून की कमी बताई। डॉक्टर ने 1,400 रुपए की दवा लिखी जो मुझे बाहर से लेनी पड़ी। उस वक्त मेरे पास इतने पैसे भी नहीं थे,” आशा बहू चंदा यादव बताती हैं।
चंदा यादव उत्तर प्रदेश की उन 1.63 लाख आशा बहुओं में से एक हैं जिनके कंधों पर राज्य में कोरोनावायरस के संक्रमण को फैलने से रोकने की अहम ज़िम्मेदारी है। कोरोनावायरस महामारी के दौरान, उत्तर प्रदेश में आशा वर्कर्स की भूमिका की तारीफ़ ख़ुद केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय पिछली 30 जून को कर चुका है। लेकिन इनकी सेहत के बारे में सोचने का वक़्त किसी के पास नहीं है। केंद्र सरकार ने कोविड महामारी के दौरान काम कर रहे फ़्रंटलाइन हेल्थ वर्कर्स के लिए 50 लाख का बीमा कवर देने का ऐलान तो किया है लेकिन यह जीवन बीमा है और मृत्यु या फिर किसी दुर्घटना में ही प्रभावी होता है। अगर कोई फ़्रंटलाइन हेल्थ वर्कर इस दौरान बीमार हो जाता है तो उसके लिए सरकार की तरफ़ से कोई व्यवस्था नहीं है।
“हम लोग फ़ील्ड में लगातार काम कर रहे हैं। हमें संक्रमण होने का ख़़तरा भी ज़्यादा है। इसके बाद भी हमें मुफ़्त इलाज़ या स्वास्थ्य बीमा जैसी सुविधाएं नहीं मिली हैं,” चंदा यादव ने बताया। चंदा यादव, आशा बहुओं के संगठन, ऑल इंडिया आशा बहू कार्यकत्री कल्याण सेवा समिति की अध्यक्ष भी हैं।
राज्य में कोरोनावायरस का पहला मामला (4 मार्च) आए 100 दिन से ऊपर बीत चुके हैं। तब से राज्य की आशा वर्कर्स बिना किसी छुट्टी या आराम के लगातार संक्रमण को रोकने के काम में मुस्तैदी से जुटी हैं। इन दिनों जब उत्तर प्रदेश सहित पूरे उत्तर भारत में लू के थपेड़े चल रहे हैं और संक्रमण का भय फैला हुआ है, राज्य की आशा बहुएं बिना इसकी परवाह किए महामारी के ख़िलाफ़ जंग जारी रखे हुए हैं। ऐसे में अगर कोई आशा बहू संक्रमित हो जाए या बीमार पड़ जाए तो उसे अपने इलाज का ख़र्च ख़ुद ही उठाना पड़ता है।
आशा बहुओं के अलावा दूसरे हेल्थ वर्कर्स, जो अस्पतालों या लैबोरेटरीज़ में काम करते हैं, उनपर भी काम का बोझ नज़र आता है। उनके काम के घंटे बढ़ गए हैं, जब से महामारी शुरु हुई है तब से अब तक छुट्टी नहीं मिली है। मनोचिकित्सकों का कहना है कि राज्य के फ़्रंटलाइन हेल्थ वर्कर्स को सबसे ज़्यादा चिंता इस बात की है कि उनकी वजह से उनके परिवार के लोग संक्रमित न हो जाएं। सरकार ने इसके लिए कोई व्यवस्था भी नहीं की है।
सबसे बुरी स्थिति तो आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की है। आंगनबाड़ी कार्यकर्ता उन फ़्रंटलाइन हेल्थ वर्कर्स के दायरे में नहीं आते हैं जिन्हें 50 लाख के बीमे का कवर दिया गया है। हालांकि जिन हेल्थ वर्कर्स की ड्यूटी कोरोनावायरस महामारी के संक्रमण को रोकने में लगाई गई है उसमें इनका ज़िक्र नहीं था मगर फिर भी इनको कोविड रोकने के काम में लगाया गया है, वह भी बिना किसी सुविधा के।
आशा बहुओं पर बढ़ा काम का बोझ
जब भी ग्रामीण इलाक़ों में स्वास्थ्य से संबंधित कोई अभियान चलाया जाता है आशा बहुओं को उसमें लगा दिया जाता है। उत्तर प्रदेश में आशा बहुओं के ज़िम्मे क़रीब 10 से 11 तरह के काम हैं, इनमें टीकाकरण से लेकर परिवार नियोजन, मातृ स्वास्थ्य, शिशु स्वास्थ्य जैसे काम शामिल हैं। कोरोनावायरस महामारी के शुरु होने के बाद आशा वर्कर्स पर इसके संक्रमण को रोकने का काम भी आ गया। इसमें गांव लौट रहे प्रवासियों की निगरानी, क्वारंटीन केंद्रों की देखरेख और गांव में इस महामारी को लेकर जागरुकता फैलाना शामिल है। लगभग 100 दिन से लगातार काम करते रहने का असर इनके काम पर भी दिखने लगा है।
“हमें एक साथ कई काम दिए जाते हैं, ऐसा पहले भी था, लेकिन कोरोनावायरस की वजह से परेशानी बढ़ गई है। अब संक्रमण का डर भी है और काम को पूरा करने का दबाव भी। इन हालातों में काम करना मुश्किल हो जाता है,” सीतापुर के हरिहरपुर गांव की आशा बहू सरोजनी देवी (36) ने बताया।
आशा बहुओं को इस तरह के मास्क दिए गए हैं। कई को तो यह भी नहीं मिला है। फ़ोटोः रणविजय सिंह
आशा बहुओं को सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि कोरोनावायरस को रोकने के काम के दौरान अगर उन्हें या उनके परिवार को संक्रमण होता है तो सरकार की तरफ़ से उनके इलाज के लिए उन्हें अलग से कोई सुविधा नहीं दी गई है। आशा बहुओं की शिकायत है कि आम दिनों में भी उन्हें इलाज़ से संबंधित कोई सुविधा नहीं मिलती। अगर किसी की तबियत ख़राब होती है तो उन्हें सरकारी अस्पताल से पैरासिटामोल या कैल्शियम और विटामिन की गोलियां मिल जाती हैं।
काम के दवाब के अलावा आशा वर्कर्स की अन्य छोटी-छोटी परेशानियां भी हैं, जैसे मास्क और सेनेटाइज़र का पर्याप्त मात्रा में न मिलना। “सेनेटाइज़र के नाम पर हमें छोटी सी डिबिया दी गई और मास्क ऐसे दिए कि धोने के बाद दोबारा पहन भी न सकें। अब इन सब चीजों का इंतज़ाम हमें अपने ख़र्च पर करना पड़ रहा है। ऐसे में अलग से एक हज़ार रुपए देने का क्या मतलब रह गया?,” लखनऊ के ईशापुर गांव की आशा बहू मोनी (28) ने कहा।
संक्रमण रोकने के जिस काम में उन्हें लगाया गया है उसके लिए उन्हें अलग से 1,000 रुपए प्रति माह मिल रहे हैं, यानी लगभग 33 रुपए प्रति दिन। इसके अलावा उन्हें हर महीने जो मानदेय मिलता है वह भी काफ़ी कम है।
उत्तर प्रदेश में आशा बहुओं को 2,200 रुपए मानदेय मिलता है जबकि आंध्र प्रदेश की आशा बहुओं का मानदेय 10,000 रुपए महीना है। राज्य की आशा बहुओं को अलग से जो काम दिए जाते हैं उसके लिए इन्हें इंसेंटिव मिलता है, जिससे 2,000 रुपए प्रति माह कमाए जा सकते हैं।
“हमारे मानदेय तक में कटौती हो जाती है मेडिक्लेम या अन्य सुविधाएं तो दूर की बात हैं,” चंदा यादव ने कहा।
गांवों में विरोध का सामना
आर्थिक मोर्चे पर संघर्ष कर रहीं आशा बहुएं इन दिनों सामाजिक मोर्चे पर भी संघर्ष कर रही हैं। “कोरोनावायरस के काम की वजह से मुझे विरोध का सामना करना पड़ा है। गांव में अगर कोई प्रवासी आता है और हम उनके घर के बाहर पोस्टर चिपकाने जाते हैं तो लोग हमसे झगड़ा करने लगते हैं। हमें गालियां तक सुननी पड़ी है,” आशा बहू मोनी ने बताया।
होम क्वारंटीन हुए लोगों के घर पर इस तरह के पोस्टर लगाए जाते हैं। फ़ोटोः रणविजय सिंह
यूपी में गांव लौट रहे प्रवासियों को होम क्वारंटीन रहने को कहा जाता है। गांव की आशा बहू की ज़िम्मेदारी होती है कि वह होम क्वारंटीन हुए शख़्स के घर पर एक पोस्टर चिपकाएं।
अस्पतालों और लेबोरेटरीज़ में काम करने वाले
“जबसे कोरोनावायरस महामारी की शुरुआत हुई है, मैंने छुट्टी नहीं ली। काम के घंटे भी बढ़ गए हैं। मैं सुबह आठ बजे आता हूं और रात के 9-10 बजे तक जाना होता है। इससे मानसिक और शारीरिक थकान बढ़ती जा रही है,” लखनऊ के सिविल अस्पताल में सीनियर लैब टेक्नीशियन गिरीश विश्वकर्मा (48) ने इंडियास्पेंड को बताया।
लखनऊ के सिविल अस्पताल के सीनियर लैब टेक्नीशियन गिरीश विश्वकर्मा। फ़ोटोः रणविजय सिंह
गिरीश, कोरोनावायरस के टेस्ट के लिए हर रोज़ क़रीब 100 से 150 मरीज़ों के सैंपल ले रहे हैं। “जैसे-जैसे मरीज़ों की संख्या बढ़ रही है हम पर काम का दबाव बढ़ता जा रहा है। हम पर्सनल लाइफ तो भूल ही चुके हैं। इस महामारी से पहले सुबह आठ बजे आते थे और शाम को 5 से 6 बजे तक घर चले जाते थे। अब तो यह सोचना भी असंभव है,” गिरीश ने कहा।
गिरीश जब यह बात कह रहे थे तो उनके चेहरे पर थकान साफ़ नजर आ रही थी। इन दिनों ऐसी थकान कोरोनावायरस से लड़ाई लड़ रहे हर हेल्थ वर्कर्स के चेहरे पर देखने को मिल रही है। बिना रुके लगातार काम करने और महामारी का कोई अंत न दिखने की वजह से इनपर शारीरिक और मानसिक दबाव बढ़ता जा रहा है।
लखनऊ के लोकबंधु अस्पताल के कोरोना वॉर्ड में तैनात डॉ. रूपेंद्र कुमार। फ़ोटोः रणविजय सिंह
ऐसा ही दबाव लखनऊ के लोकबंधु अस्पताल के कोरोना वॉर्ड में काम करने वाले डॉ. रूपेंद्र कुमार (40) पर भी देखने को मिलता है।
“इस वक़्त इतनी गर्मी है कि कोई 15-20 मिनट पीपीई किट पहन ले तो पसीने से भीग जाए। शरीर से इतना पानी गिरता है कि इंसान आसानी से डिहाइड्रेट हो जाएगा। पीपीई किट पहनकर ज़्यादा देर तक काम हो ही नहीं सकता। ऊपर से काम के घंटे इतने बढ़ गए हैं कि शरीर को आराम ही नहीं मिल पा रहा। ऐसे में किसी की भी शारीरिक और मानसिक परेशानी बढ़ सकती है,” डॉ. रूपेंद्र ने इंडियास्पेंड से कहा।
50 लाख का बीमा
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण योजना के तहत 50 लाख रुपए के बीमे की घोषणा की थी। इसमें सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े देश के कुल 22.12 लाख फ़्रंटलाइन वर्कर्स को शामिल किया गया है। इसमें डॉक्टर, वार्डबॉय, नर्स, आशा वर्कर्स, सफाई कर्मचारी जैसे वर्ग शामिल हैं।
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इस बीमे की ज़िम्मेदारी सरकारी क्षेत्र की न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी की है। “इस बीमे के तहत कोविड ड्यूटी कर रहे हेल्थ वर्कर्स को कवर किया जाता है। इसमें फैमिली कवर नहीं है। अगर किसी हेल्थ वर्कर की ड्यूटी करते हुए या फिर किसी दुर्घटना में मौत होती है तो उनके परिवार को बीमे की राशि मिलेगी। यह केवल 'जीवन बीमा' है। अगर कोई स्वास्थ्य कर्मी बीमार पड़ता है तो उसके इलाज़ में इसका लाभ नहीं लिया जा सकता,” नेशनल एश्योरेंस के लखनऊ ऑफ़िस के असिस्टेंट मैनेजर अजय सिंह ने इंडियास्पेंड को बताया।
हालांकि पहले यह योजना तीन महीने के लिए थी, लेकिन अब इसकी अवधि को तीन महीने (सितंबर तक) के लिए और बढ़ा दिया गया है।
कोविड में लगे आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को कोई सुविधा नहीं
उत्तर प्रदेश में आशा बहुओं के अलावा आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को भी कोरोनावायरस की ड्यूटी में लगाया गया है। इनपर भी निगरानी से लेकर लोगों को जागरूक करने की ज़िम्मेदारी है। इसके अलावा बच्चों को पुष्ट आहार बांटना भी इन्हीं के जिम्मे है।
राज्य में करीब 1.71 लाख आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं। इन्हें मानदेय के तौर पर 5,500 रुपए हर महीने मिलते हैं। फिलहाल कोविड की ड्यूटी में इन्हें लगाया गया है, लेकिन इन्हें आशा कार्यकर्ताओं जितनी सुविधाएं भी नहीं मिल रही हैं।
यूपी के गोरखपुर की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता। फ़ोटोः रणविजय सिंह
“आशाओं को मास्क, सेनेटाइज़र और 50 लाख का बीमा दिया गया है, लेकिन हमें इसमें से कुछ नहीं मिला। ऐसा कोई आदेश नहीं था कि हमें कोरोनावायरस की ड्यूटी करनी है। हमें सिर्फ़ सहयोग करना था, लेकिन हमारी ड्यूटी लगा दी गई है और हम बिना सुविधाओं के इसे कर रहे हैं,” आंगनबाड़ी कर्मचारी एवं सहायिका एसोसिएशन की महामंत्री प्रभावती देवी ने बताया।
“हमें 5,500 रुपए के अलावा कुछ नहीं दिया गया है। हमारी कई बहनें कोरोना की ड्यूटी करते हुए संक्रमित हो चुकी हैं। गोरखपुर क्षेत्र में तीन बहनों को संक्रमण हो गया। यह बीमारी ऐसी है कि परिवार के लोग भी हमारे काम से नाराज़ रहते हैं। उन्हें डर लगा रहता है कि हम संक्रमित न हो जाएं और हमें यह डर रहता है कि हमारी वजह से परिवार में कोई संक्रमित न हो जाए,” आंगनबाड़ी कर्मचारी एवं सहायिका एसोसिएशन की प्रदेश अध्यक्ष गीता पांडेय ने इंडियास्पेंड से कहा।
मनोवैज्ञानिक दबाव
अभी तक राज्य में फ़्रंटलाइन हेल्थ वर्कर्स में कोरोनावायरस के संक्रमण के मामले कम ही आए हैं। “प्रदेश के 75 ज़िलों में दवा दुकानदारों और फ्रंट लाइन स्वास्थ्य कर्मियों के 12,299 रैंडम सैंपल लिए गए, जिसमें से 26 ज़िलों के 72 सैंपल पॉज़िटिव पाए गए हैं। यह कुल लिए गए सैंपल का 0.58 प्रतिशत है,” राज्य के चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग के अपर मुख्य सचिव, अमित मोहन प्रसाद ने 4 जुलाई को बताया।
इन आंकड़ों के बावजूद हेल्थ वर्कर्स के दिलों में डर बैठा हुआ है। “हमारे दिमाग़ में हमेशा चलता रहता है कि कहीं हमारी वजह से घर के लोगों को कुछ न हो जाए। हम तमाम सावधानियां बरत रहे हैं, फिर भी यह डर नहीं जाता,” डॉ. रूपेंद्र कहते हैं।
“रैंडम सैंपलिंग में हमारे अस्पताल की सफ़ाई कर्मी संक्रमित पाई गई। इसकी वजह से स्टाफ़ में डर बैठ गया। यह ऐसी बीमारी है कि सबको डर लगा रहता है। इसे फ़िलहाल दूर भी नहीं किया जा सकता, अब इसके साथ ही जीना है,” लखनऊ के पास मलिहाबाद सीएचसी के अधीक्षक डॉ. अवधेश कुमार ने कहा।
“मैंने फ़्रंटलाइन हेल्थ वर्कर्स से बात करते हुए पाया कि वह कई चीज़ों को लेकर डरे हुए हैं। उन्हें सबसे ज़्यादा डर इस बात का है कि उनकी वजह से उनके परिवार के लोग संक्रमित न हो जाएं। अब अगर कोई हमेशा डरा रहेगा तो उसकी सारी ताकत उसमें चली जाएगी, वह जल्दी थकान महसूस करने लगेगा। इस थकान की वजह से उसका डर और गहरा हो सकता है, फिर वह बीमार भी पड़ सकता है। मुझे लगता है फ़्रंटलाइन हेल्थ वर्कर्स को आराम की बहुत ज़रूरत है,” लखनऊ में साइको थैरेपिस्ट डॉ. उषा वर्मा श्रीवास्तव ने कई फ़्रंटलाइन हेल्थ वर्कर्स से हुई उनकी बातचीत के आधार पर कहा।
डॉ. उषा फ़्रंटलाइन वर्कर्स को सेल्फ़ केयर प्रोसीज़र फ़ॉर कोरोनावायरस प्रोटोकॉल आज़माने की सलाह देती हैं। उनके मुताबिक इस प्रोटोकॉल से फ़्रंटलाइन वर्कर्स को कुछ आराम मिल सकता है। इसमें ख़ुद को मोटिवेट करने से लेकर गहरी सांसे लेना और योग करना शामिल है।
“काउंसलिंग की व्यवस्था है। हमारे हेल्पलाइन नंबर पर मेंटल हेल्थ के काउंसलर उपलब्ध रहते हैं, जिन्हें भी काउंसलिंग की ज़रूरत है वह ले सकते हैं,” हेल्थ वर्कर्स के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर पूछे गए एक सवाल के जवाब में राज्य के चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग के अपर मुख्य सचिव, अमित मोहन प्रसाद ने इंडियास्पेंड से कहा।
लेकिन मनोचिकित्सकों की राय है कि काउंसलिंग की व्यवस्था स्वैच्छिक ना होकर सबसे लिए आवश्यक होनी चाहिए। “यह लड़ाई लंबी चलने वाली है। ऐसी स्थिति में सरकार को ऐसा पैटर्न बनाना चाहिए जिससे फ़्रंटलाइन हेल्थ वर्कर्स को थोड़ा आराम मिल सके, क्योंकि उनके लिए अभी आराम बहुत ज़रूरी है। हमारे पास वर्क फ़ोर्स कम है, अगर लोगों को वक्त पर छुट्टियां मिलने लगे, घर पर थोड़ा ज़्यादा वक्त बिता सकें तो उनके लिए बेहतर होगा। इसके अलावा वक़्त-वक़्त पर उनकी काउंसलिंग भी होती रहनी चाहिए” डॉ. उषा ने कहा।
(रणविजय, लखनऊ में स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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