सुप्रीम कोर्ट के ‘निजता का अधिकार’ नियम से आधार के अलावा पांच और चीजें हो सकती हैं प्रभावित
24 अगस्त, 2017 को एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय संविधान के तहत निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बताया है। इस फैसले से यौन अभिविन्यास का अधिकार, मनचाहा खाने का अधिकार, गर्भावस्था को समाप्त करने का अधिकार, सरकार की आलोचना करने का अधिकार, और भौतिक और आभासी दुनिया में व्यक्तिगत जानकारी के प्रसार को नियंत्रित करने का अधिकार जैसे कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जो प्रभावित हो सकते हैं। ये मुद्दे सरकार की 12 अंकों वाले बॉयोमेट्रिक पहचान कार्यक्रम, आधार संख्या पर पड़ने वाले प्रभाव से अलग हैं।
जस्टिस आर. के. अग्रवाल, डी. वाई. चंद्रचुद और एस अब्दुल नज़ीर के साथ भारत के मुख्य न्यायाधीश जे. एस. खेहर लिखते हैं, “निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के एक आंतरिक हिस्से और संविधान के भाग III द्वारा प्रदत स्वतंत्रता के एक भाग के रूप में संरक्षित है। ”
मुख्य न्यायाधीश खेहर की अध्यक्षता में नौ न्यायाधीशों की एक संविधान पीठ ने इस सवाल का जवाब देते हुए एक सर्वसम्मत फैसले में निर्णय लिया कि 'क्या भारतीय नागरिकों को गोपनीयता का मौलिक अधिकार है?'
पीठ ने न्यायमूर्ति जे. चेलामेश्वर, एस. ए. बॉब, रोहिंटन फली नरीमन, ए. एम. सप्रे, संजय किशन कौल और एस. अब्दुल नाज़र भी शामिल हैं।
अपने फैसले में, संविधान पीठ ने टेलीफोन टेपिंग, एचआईवी की स्थिति, खाद्य वरीयताओं और पशु वध, आपराधिक जांच में वैज्ञानिक परीक्षण, विदेशी बैंक खातों के प्रकटीकरण, और ट्रांसजेंडर अधिकार से संबंधित पिछले मामलों के विभिन्न पहलुओं को संदर्भित किया।
कोर्ट ने माना कि राज्य द्वारा व्यक्तिगत डेटा की टेलीफोन टेपिंग और इंटरनेट हैकिंग गोपनीयता के दायरे में पड़ती है। न्यायमूर्ति चेलामेश्वर लिखते हैं, “भारत के संघ द्वारा देश के सभी निवासियों के जैव-मीट्रिक डेटा एकत्र करने के प्रयास से त्वरित सवाल उठता है। मुझे नहीं लगता है कि इस देश में किसी भी व्यक्ति को बिना इजाजत के अपने घरों या निजी संपत्ति में अफसरों की दखलअंदाजी पसंद होगी। ”
यौन अभिविन्यास
"यौन अभिविन्यास निजता का एक अनिवार्य अंग है। यौन अभिविन्यास के आधार पर किसी व्यक्ति के प्रति भेदभाव, व्यक्ति की गरिमा और आत्म-मूल्य के लिए गंभीर रूप से अपमानजनक है। गोपनीयता और यौन अभिविन्यास की सुरक्षा का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 द्वारा प्रदत मौलिक अधिकारों के मूल में है।"
खाने के अधिकार
"मुझे नहीं लगता है कि किसी को राज्य द्वारा यह बताया जाना चाहिए कि उन्हें क्या खाना चाहिए या वे कैसे कपड़े पहनें या व्यक्तिगत, सामाजिक या राजनीतिक जीवन में उन्हें किसे शामिल करना चाहिए। अनुच्छेद 19 (1) (सी) के तहत नागरिकों की सामाजिक और राजनीतिक संघ की स्वतंत्रता का अधिकार है। "
गर्भावस्था को मेडिकल रुप से समाप्त करने का अधिकार
"निजता की चिंता तब होती है जब राज्य सरकार कुछ मुद्दों में दखलअंदाजी करना चाहती है। एक महिला को यह स्वतंत्रता है कि वह बच्चे को जन्म देना चाहती है या गर्भावस्था को मेडिकल रुप से समाप्त करना। ये वे क्षेत्र हैं जो गोपनीयता के दायरे में आते हैं। "
असहमति का अधिकार
"यह एहसास होना चाहिए कि सवाल करने का अधिकार, जांच करने का अधिकार और असहमति का अधिकार, जागरुक नागरिकों को सरकार के कामों की समीक्षा में सक्षम बनाता है। जो लोग शासित होते हैं वे उन लोगों से सवाल पूछने का हकदार होते हैं, जो सामाजिक-आर्थिक कल्याणकारी लाभों के प्रावधान सहित उनके संवैधानिक कर्तव्यों के निर्वहन के बारे में शासन करते हैं । समाज में हर व्यक्ति अंतरंगता और स्वायत्तता का हकदार है, जो गोपनीयता की सुरक्षा करता है। यह जीवन की एक आंतरिक शर्त और मुख्य विशेषता है ।गोपनीयता एक किस्म से व्यक्तिगत स्वतंत्रता के रूप में है।
व्यक्तिगत जानकारी के प्रसार को नियंत्रित करने का अधिकार
"राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सूचना का प्रयोग उपयोगकर्ताओं की सहमति के बिना नहीं किया जाता है और इसका उपयोग उद्देश्य के लिए और उस हद तक किया गया है, जो इसे प्रकट किया गया था। इस प्रकार, उदाहरण के लिए , यदि सोशल मीडिया वेबसाइटों पर किया गया पोस्ट केवल एक निश्चित ऑडियंस के लिए होती है, जो उपलब्ध उपकरणों के मुताबिक संभव है, तो यह नहीं कहा जा सकता कि सार्वजनिक में, सभी और विविध किसी भी तरह उस जानकारी तक पहुंचने और उपयोग करने का अधिकार है। "
फैसले के जवाब में, केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के इस बिंदु पर ध्यान दिया कि “ निजता के मूल अधिकार…” को व्यक्तिगत हितों और राज्य की वैध चिंताओं के बीच एक सावधानीपूर्वक और संवेदनशील संतुलन की आवश्यकता है," जैसा कि इस प्रेस विज्ञप्ति से पता चलता है।
कोर्ट के फैसले के अनुसार, इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा को नजर में रखते हुए, अपराध को रोकने / जांच, सामाजिक कल्याणकारी लाभ प्रदान करने, और नवाचार और ज्ञान के प्रसार को प्रोत्साहित करने के लिए जारी किया गया है।
निजता की परिभाषा की आवश्यकता क्यों थी
संवैधानिक रूप से नागरिकों को निजता के अधिकार को परिभाषित करने की आवश्यकता सर्वोच्च न्यायालय में जारी होने वाले मामले से मौलिक अधिकार उत्पन्न हुआ था, जब आधार विधेयक के खिलाफ कई याचिका दायर की गई थीं। आधार विधेयक पहली बार 2011 में संसद में पेश किया गया था। संसद ने 2016 में विधेयक का एक पुनरावृत्त संस्करण पास किया, जिसे अब आधार (वित्तीय और अन्य सब्सिडी, लाभ और सेवाएं लक्षित लक्ष्य) अधिनियम के रूप में जाना जाता है।
याचिकाओं में निजता और स्वायत्तता, लाभार्थियों को बहिष्कृत करने की त्रुटियों और कल्याणकारी लाभों की संभावित अस्वीकृति और राष्ट्रीय सुरक्षा के जोखिमों को संबोधित करने में विफल रहने के लिए अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है।
2015 में, अदालत ने कहा कि संविधान के खंड (पांच न्यायाधीशों या उससे अधिक) को निजता के सवाल को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निर्धारित मौलिक अधिकार के रूप में जांचना चाहिए।
अनुच्छेद 21 में जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता, भारतीय संविधान के भाग III के तहत एक मौलिक अधिकार की सुरक्षा का उल्लेख है।
18 जुलाई, 2017 को, आधार अधिनियम पर सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने 9 न्यायाधीशों के बेंच का विस्तार किया।
छह दिनों के दौरान याचिकाकर्ताओं और उत्तरदाताओं के तर्कों की सुनवाई के बाद 2 अगस्त 2017 को उन्होंने 24 अगस्त 2017 तक के लिए इस मुद्दे पर फैसला सुरक्षित रखा।
निजता का अधिकार ‘उच्छिष्टवर्गवादी’ नहीं
इस निर्णय में एम.पी. शर्मा बनाम सतीश चंद्र (1954 में फैसला) और खड़क सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1962 में फैसला) के मामलों में शीर्ष अदालत के पिछले फैसलों की समीक्षा की गई है और कहा कि उन फैसले में निजता के अधिकार पर संविधान की गलत व्याख्या की गई थी।
दोनों मामलों में, आठ और छह न्यायाधीश खंडपीठ ने रेखांकित किया कि संविधान ने भारतीय नागरिकों को गोपनीयता के अधिकार की रक्षा नहीं की है।
आधार कार्यक्रम का समर्थन और यह दावा करते हुए कि नागरिक ‘निजता के अधिकार’ पसंद करते है, केंद्र सरकार ने इन नियमों को अपने तर्कों में संदर्भित किया है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद इन दोनों मामलों के फैसले विपरीत हैं और गोपनीयता को संवैधानिक रूप से संरक्षित अधिकार के अस्तित्व की पुष्टि कर रहे हैं- जैसा कि अपने फैसले में पीठ ने बताया है।
अटॉर्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल ने केंद्र के लिए बहस करते हुए कहा, निजता के दावे विकसित देशों की बेहतर प्राथमिकताएं हैं, लेकिन भारत जैसे देश में नहीं जहां अधिकांश नागरिकों को बुनियादी जरूरतों तक पहुंच नहीं है", जैसा कि इंडिया टुडे ने 27 जुलाई, 2017 की रिपोर्ट में बताया है।
अटॉर्नी जनरल के तर्क को ‘अरक्षणीय’ रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि निजता का अधिकार ‘उच्छिष्टवर्गवादी’ नहीं है, जैसा कि उन्होंने देखा है: " यह मानते हुए कि गरीबों को नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की जरूरत नहीं है और केवल आर्थिक कल्याण के बारे में चिंतित हैं, इतिहास में मानव अधिकारों का सबसे बड़ा उल्लंघन करने के लिए उपयोग किया गया है।"
बेंच ने कहा, " यह सिद्धांत कि नागरिक और राजनीतिक अधिकार सामाजिक-आर्थिक अधिकारों के अधीन हैं, पिछले समय में उनकी वकालत की गई है, और इस न्यायालय द्वारा संवैधानिक निर्णय के दौरान स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया गया है। "
(सलदनहा सहायक संपादक हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं। )
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 24 अगस्त 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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