मुंबई: अगर पंजाब और हरियाणा के चावल उगाने वाले क्षेत्रों में स्थायी सिंचाई के माध्यम से गेहूं की खेती को प्रोत्साहित किया जाए और चावल उत्पादन को भारत के केंद्रीय और पूर्वी राज्यों जैसे छत्तीसगढ़ और झारखंड में स्थानांतरित किया जाए तो 2030 तक भारत में आसन्न जल संकट को रोकने में मदद मिल सकती है।

यह जानकारी नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (नबार्ड) और इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनैशनल इकोनॉमिक रिलेशंस (आईआईएमआईईआर) द्वारा 2018 के एक अध्ययन में सामने आई है। वाटर एड की रिपोर्ट के अनुसार, मार्च 2019 से 2030 तक पानी की मांग, उपलब्ध आपूर्ति से दोगुनी हो जाएगी।

अव्यवहारिक क्रॉपिंग पैटर्न ने भूजल भंडार को प्रभावित किया है, जो पिछले चार दशकों में सिंचित क्षेत्र का लगभग 84 फीसदी प्रदान करता है, जैसा कि नाबार्ड और आईसीआरआईईआर की ‘वॉटर प्रोडक्सटिविटी मैपिंग ऑफ मेजर इंडियन क्रॉप्स’ नामक अध्ययन में बताया गया है।

चावल और गेहूं, भारत की दो सबसे महत्वपूर्ण खाद्य फसलें हैं, जिनको सबसे अधिक पानी की जरूरत होती है। एक किलोग्राम चावल का उत्पादन करने के लिए औसतन 2,800 लीटर पानी की आवश्यकता होती है, जबकि एक किलोग्राम गेहूं में 1,654 लीटर पानी लगता है, जैसा कि वॉटर इंडिया कि, बिनीद द सर्फेस: द स्टेट ऑफ वर्ल्ड वॉटर 2019 नामक रिपोर्ट में कहा गया है।

उत्तर पश्चिम में भारत के प्रमुख चावल और गेहूं उत्पादक पंजाब, हरियाणा ( नाबार्ड और आईसीआरआईईआर की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के संपूर्ण चावल उत्पादन में लगभग 15 फीसदी का योगदान है ) और गंगा के मैदान में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, कृषि उत्पादन के लिए दुनिया के शीर्ष जल-जोखिम वाले क्षेत्रों में से हैं। अन्य शीर्ष जल-जोखिम वाले क्षेत्र हैं पूर्वोत्तर चीन और दक्षिण-पश्चिम यू.एस.ए., जैसा कि वॉटर एड की रिपोर्ट में बताया गया है।

‘जर्नल ऑफ हायड्रॉलोजी’ में प्रकाशित 2018 के अध्ययन से पता चलता है कि भारत का 42 फीसदी भूभाग वर्तमान में सूखे का सामना कर रहा है, पंजाब के 88.11 फीसदी जिले और 76.02 फीसदी हरियाणा सूखे के लिए संवेदनशील हैं।

हालांकि, सिंचाई और बिजली के बुनियादी ढांचे में व्यापक निवेश और पानी और बिजली की खपत पर सरकारी सब्सिडी ने इस तथ्य को खत्म कर दिया है कि पंजाब कभी रेगिस्तान था।

अर्थशास्त्री और सार्वजनिक नीति विशेषज्ञ, और गुजरात के आनंद में ग्रामीण प्रबंधन संस्थान के पूर्व निदेशक तुषार शाह ने इंडियास्पेंड को बताया,“पंजाब... जैसा कि हम जानते हैं कि केवल 100-150 साल पुराना है। यह 1800 तक एक रेगिस्तान था, खानाबदोशों द्वारा बसाया गया था। अब लोगों के पास निजी नलकूप हैं, जो भूजल का उपयोग करते हैं, जो नहर के पानी से रिचार्ज होते हैं। राजस्थान के विपरीत, पंजाब और हरियाणा में भी 100 फीसदी सिंचाई होती है, जो उन्हें सूखे के लिए संवेदनशील बनाता है।"

एक समय में रेगिस्तान था, अब पंजाब पानी का निर्यात कर रहा है। वाटरएड इंडिया की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत कृषि निर्यात के लिए भारी मात्रा में भूजल का उपयोग करता है और इस तरह से भूजल का तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक है।

‘सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड’ (उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र) की एक मसौदा रिपोर्ट ने चेतावनी दी है कि भूजल के वर्तमान निरंतर उपयोग के साथ, पंजाब और हरियाणा 25 वर्षों में फिर से रेगिस्तान बन सकते हैं, जैसा कि द ट्रिब्यून ने 13 मई 2019 की रिपोर्ट में बताया है।

2014-15 में, भारतीय खेतों से निर्यात के लिए पैदा किए गए 3.7 मिलियन टन बासमती चावल का उत्पादन करने के लिए 10 ट्रिलियन लीटर पानी की खपत हुई। दूसरे शब्दों में कहें तो खपत पानी का निर्यात किया गया।

यह एक ऐसे देश में चिंता का कारण है जहां लगभग 1 अरब लोग पानी की कमी की स्थिति में रहते हैं और 60 फीसदी से अत्यधिक पानी के तनाव का सामना करते हैं, जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है।

उत्तर-पश्चिम में गेहूं और मध्य और पूर्वी राज्यों में चावल

नाबार्ड और आईसीआरआईईआर ने एक अध्ययन किया कि कैसे 10 प्रमुख फसलों ( जो भारत के सकल फसली क्षेत्र के 60 फीसदी से अधिक पर कब्जा करता है ) के लिए फसल के पैटर्न पारंपरिक रूप से मानी जाने वाली भूमि उत्पादकता के अलावा, सिंचाई की प्रति यूनिट फसल उत्पादकता को अधिकतम कर सकती है।

अध्ययन में भारत के 640 जिलों (2011 की जनगणना के अनुसार जिलों को बाद में 718 में उप-विभाजित किया गया था) के उत्पादन, जलवायु और पानी के आंकड़ों के माध्यम से जल उत्पादकता को देखा गया। इसका विश्लेषण तीन अलग-अलग मेट्रिक्स के माध्यम से किया गया है: भौतिक जल उत्पादकता (पीडब्ल्यूपी), जो कि प्रति यूनिट पानी की खपत का उत्पादन है; सिंचाई जल उत्पादकता (आईडब्ल्यूपी), जो किसान द्वारा उपयोग किए जाने वाले सिंचाई पानी की प्रति यूनिट फसल उत्पादन है; और आर्थिक जल उत्पादकता (इडब्ल्यूपी), जो फसल के प्रति यूनिट पानी के उत्पादन का मूल्य है, जो कि बारिश या सिंचाई के माध्यम से फसल द्वारा खपत होती है। इनमें से प्रत्येक की तुलना भूमि उत्पादकता के साथ की गई, जिससे यह निर्धारित किया जा सके कि मौजूदा फसल का पैटर्न विभिन्न क्षेत्रों के प्राकृतिक रूप से उपलब्ध जल संसाधनों के अनुरूप था और क्या ये जलविद्युत रूप से टिकाऊ थे।

जबकि पंजाब और हरियाणा चावल के लिए उच्चतम भूमि उत्पादकता (4 टन प्रति हेक्टेयर) की रिपोर्ट करते हैं, इन राज्यों के लिए आईडब्ल्यूपी 0.22 किग्रा / एम 3 पर अपेक्षाकृत कम है, भले ही उनके पास लगभग 100 फीसदी सिंचाई कवरेज है, जो अक्षम सिंचाई पानी के उपयोग को दर्शाता है,पंजाब की मुफ्त बिजली नीति द्वारा प्रोत्साहित किया गया जो किसानों को बोरवेल के माध्यम से भूजल पंप करने में सक्षम बनाता है।

इसके विपरीत, बारिश पर निर्भर छत्तीसगढ़ और झारखंड, 0.68 किग्रा / एम 3 और 0.75 किग्रा / एम 3 पर आईडब्ल्यूपी का उच्च स्तर प्रदर्शित करता है, हालांकि, उनके पास क्रमशः 32 फीसदी और 3 फीसदी पर सिंचाई का काफी कम साधन था। सिंचाई के निम्न स्तर के कारण यहां भूमि उत्पादकता भी कम है, हालांकि यह क्षेत्र चावल की खेती के लिए अनुकूल है।

नाबार्ड और आईसीआरआईईआर की रिपोर्ट के अनुसार, इन राज्यों में कृषि के लिए कम बिजली की आपूर्ति के साथ-साथ धान के लिए अविकसित खरीद नीति का मतलब चावल की खेती से कम लाभप्रदता है। इस क्षेत्र में भूजल की लागत भी बहुत अधिक है और किसानों को पानी को पंप करने के लिए डीजल पर निर्भर रहना होगा, जो बिजली की लागत से दो से तीन गुना ज्यादा है।

शाह ने समझाया, '' पश्चिमी भारत में भूजल संकट लगभग पूरी तरह से सब्सिडी के कारण है। पूर्वी भारत में आपको शायद ही कोई ऐसा ब्लॉक मिलेगा, जहां पर भूजल को प्रतिस्थापित नहीं किया गया हो... क्योंकि बिजली या सिंचाई के लिए शायद ही कोई सब्सिडी दी गई हो और वहां किसान पानी के उपयोग में बहुत किफायती होने के लिए मजबूर हैं।” उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे राज्य अब वर्षा जल संचयन, सिंचाई सिंचाई टैंक, वाटरशेड योजना और भूजल स्तर को फिर से भरने के लिए खेत तालाब स्थापित करने जैसे उपायों में निवेश कर रहे हैं।

जब गेहूं की बात आती है, तो पंजाब में 1.22 किलोग्राम / मी 3 का उच्चतम स्तर आईडब्ल्यूपी है, इसके बाद हरियाणा 1.05 किलोग्राम / मी 3 है और इस क्षेत्र में खेती के लिए उपयुक्त है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के शुष्क क्षेत्रों में कम आईडब्ल्यूपी (0.53 किग्रा / एम 3, 0.63 किग्रा / एम 3 और 0.71 किग्रा / एम 3, क्रमशः) है और इन राज्यों में गेहूं की खेती पानी के संकट को बढ़ाएगी।

खरीद नीति और बेहतर एमएसपी में बदलाव

नाबार्ड और आईसीआरआईआर रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि खरीद नीति में एक रणनीतिक परिवर्तन से अत्यधिक भूजल का उपयोग करने वाली अकुशल फसल पद्धति से निपटा जा सकता है। उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र के किसान भूजल के स्तर में गिरावट के बारे में जानते थे और मक्का या दलहन जैसी अधिक जल-कुशल फसलों को स्थानांतरित करने के लिए तैयार थे, बशर्ते कि चावल और गेहूं के लिए चालू बाजार नीति के जरिये उनके बाजार जोखिम को कवर किया जाए।

आश्वस्त खरीद किसानों को जल-गहन फसलों की खेती जारी रखने के लिए प्रेरित करती है, भले ही 2017 में दालों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) वास्तव में अधिक था। सामान्य और ग्रेड ए के लिए एमएसपी 2017-18 में धान की एक किस्म क्रमशः 1,550 रुपये प्रति क्विंटल और 1,590 रुपये प्रति क्विंटल थी।

दलहन फसलों में अरहर के लिए यह 5,250 रुपये प्रति क्विंटल, मूंग (हरा चना) के लिए 5,375 रुपये प्रति क्विंटल और उड़द (काला चना) के लिए 5,200 रुपये प्रति क्विंटल था। पूर्वी राज्यों में, धान की कीमतें अक्सर एमएसपी से 10 फीसदी से 25 फीसदी कम हो जाती हैं, जो किसानों को पंजाब-हरियाणा में अपने समकक्षों के मुकाबले मुनाफे से वंचित करती हैं।

पानी और बिजली पर मूल्य आधारित सब्सिडी ( जिसके परिणामस्वरूप भूजल की अधिकता हो गई है ) के बजाय उनकी क्रय शक्ति में सुधार के लिए किसानों के बैंक खातों में प्रत्यक्ष लाभ अंतरण में शिफ्ट किसानों को प्रभावी फसल पद्धति और टिकाऊ सिंचाई पद्धतियों की ओर आकर्षित कर सकता है। इसके लिए समय पर, पानी और बिजली की नियमित आपूर्ति जरुरी है, जैसा कि नाबार्ड और आईसीआरआईआर रिपोर्ट में निषकर्ष निकाला गया है।

(नेहा लेखक और शोधकर्ता हैं, दिल्ली में रहती हैं। वह ‘इडियन इंस्टिटूट ऑफ ह्यूमन सेटेलमेंट’ में अर्बन फेलो रह चुकी हैं और इंडियास्पेंड में इंटर्न हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 27 जून 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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