नई दिल्ली: पिछले एक दशक में, स्वास्थ्य सेवा पर सार्वजनिक खर्च भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 1.28 फीसदी नहीं पार कर सका है। रोग संक्रमण में बढ़ोतरी के साथ ( जहां संचारी रोगों की तुलना में अधिक भारतीय जीवन शैली के रोगों से पीड़ित हैं ) मानव संसाधन की कमी और निरंतर फंड की कमी भारत के स्वास्थ्य लक्ष्यों को प्रभावित करती है।

यह डेटा, स्वास्थ्य सेवा और सार्वजनिक नीति पर इंडियास्पेंड-ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के चार-रिपोर्ट की श्रृंखला में से अंतिम रिपोर्ट है। नरेंद्र मोदी की सरकार एक बार फिर सत्ता में लौटी है और उन्हें नए सिरे से भारत की स्वास्थ्य सेवा में संबोधित करना है। ऐसे में हम स्वास्थ्य को लेकर संसाधन बाधाओं पर बात करेंगे।

ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन द्वारा हाल के शोध से पता चलता है, एक महाद्वीप जैसी विविधता को देखते हुए बहुत बड़े राज्य-स्तरीय भिन्नताओं के साथ, भारत महामारी, पोषण और जनसांख्यिकीय संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। गैर-संचारी रोगों द्वारा उत्पन्न नई चुनौतियां स्वास्थ्य सेवा वितरण प्रणाली पर एक अतिरिक्त बोझ डाल रही हैं।तेजी से बदलती बीमारी के संक्रमण के कारण स्वास्थ्य क्षेत्र में महत्वपूर्ण अतिरिक्त वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता होती है।

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अपने चुनावी घोषणापत्र के स्वास्थ्य खंड में सबके लिए स्वास्थ्य और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ( आईएनसी ) के घोषणा पत्र के अपने स्वास्थ्य अध्याय की शुरुआत करते हुए स्वास्थ्य सेवा सार्वजनिक चीज है की घोषणा की थी। बावजूद इसके पिछले एक दशक में कोई भी पार्टी जीडीपी के 2.5 फीसदी खर्च करने के करीब भी नहीं आई है।

स्वास्थ्य प्रणाली पर अपर्याप्त धन का प्रभाव अपर्याप्त मानव संसाधनों के संदर्भ में सबसे अधिक प्रकट होता है। यह देखते हुए कि भारत में स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च का दो-तिहाई हिस्सा राज्य और स्थानीय सरकारों का है।

नीति आयोग ने 2018 में केंद्र और राज्यों के बीच सहकारी और सकारात्मक प्रतिस्पर्धी माहोल पैदा करने के लिए एक स्वास्थ्य सूचकांक विकसित किया। श्रृंखला के पिछले आलेखों (यहां, यहां और यहां) में चर्चा की गई परिणामों और शासन के मुद्दों के साथ, जांचे गए सूचकांक में मुख्य इनपुट और प्रक्रियाएं तीसरा उप-डोमेन थीं। अन्य बातों के अलावा, इस उप-डोमेन ने कर्मचारियों की कमी और धन हस्तांतरण में देरी के मुद्दों का पता लगाया।

इस विषय के तहत पता लगाया गया कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में रिक्त स्वास्थ्य सेवा प्रदाता पदों का अनुपात एक महत्वपूर्ण संकेतक है। नीति अयोग की रिपोर्ट के अनुसार, स्वास्थ्य कर्मचारियों की रिक्तियों को स्वास्थ्य सेवाओं के साथ-साथ उनकी गुणवत्ता तक पहुंच से जोड़ा जाता है।

सूचकांक के हिस्से के रूप में पता चला कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में प्रमुख पदों के लिए नियमित और संविदात्मक स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं दोनों के लिए कुल स्वीकृत पदों पर रिक्ति की स्थिति आमने-सामने है। इन पदों में उप-केंद्रों (एससी) में सहायक नर्स / दाइयों (एएनएम), प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) में स्टाफ नर्सों, पीएचसी में चिकित्सा अधिकारियों (एमओ) और जिला अस्पतालों (डीएचएस) के विशेषज्ञ शामिल हैं।

स्टाफ नर्स की रिक्तियों के कम से कम प्रतिशत के साथ पांच सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले ( विधानसभा के साथ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के बीच ) पुडुचेरी (जहां आईएनसी और अन्य सत्ता में हैं), उत्तर प्रदेश (भाजपा और अन्य), त्रिपुरा (भाजपा और अन्य), ओडिशा (बीजू जनता दल) और नागालैंड (भाजपा और अन्य) हैं।

पीएचसी और सीएचसी में स्टाफ नर्सों की रिक्ति झारखंड में सबसे अधिक थी -75 फीसदी। उसके बाद सिक्किम -62 फीसदी, बिहार -50 फीसदी, राजस्थान -47 फीसदी और हरियाणा -43 फीसदी हैं। लेकिन वर्तमान में एक राजस्थान में कांग्रेस का शासन है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (एनसीटी दिल्ली), वर्तमान में आम आदमी पार्टी द्वारा शासित है और 41 फीसदी रिक्ति के आंकड़ों के साथ दिल्ली का छठा सबसे खराब प्रदर्शन रहा है।

प्राथमिक स्तर की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के अंतराल ने तृतीयक अस्पतालों पर दबाव डाला है, और अक्सर मरीजों को निजी सुविधाओं में जाने के लिए मजबूर करते हैं, जैसा कि ऑक्सफैम इंडिया द्वारा मई 2015 के इस पेपर में कहा गया है।

Source: Niti Aayog Note: Data as of March 31, 2016

इसी तरह, विधानसभाओं के साथ राज्यों और संघ शासित प्रदेशों में पीएचसी में चिकित्सा अधिकारियों की रिक्ति बिहार में सबसे अधिक (64 फीसदी) थी, इसके बाद मध्य प्रदेश (58 फीसदी), झारखंड (49 फीसदी), छत्तीसगढ़ (45 फीसदी) और मणिपुर (43 फीसदी) का स्थान है। सिक्किम में कोई रिक्तियां नहीं थीं, जबकि त्रिपुरा में 2 फीसदी रिक्तियां थीं - दोनों वर्तमान में भाजपा और उसके सहयोगियों द्वारा शासित थीं। इसके बाद केरल (6 फीसदी), तमिलनाडु (8 फीसदी) और पंजाब (8 फीसदी) का स्थान रहा है।

Source: Niti Aayog Note: Data as of March 31, 2016

कई राज्यों ने जिला अस्पतालों में रिक्त विशेषज्ञ पदों का अनुपात बहुत अधिक दिखाया: अरुणाचल प्रदेश (89 फीसदी) में सबसे अधिक था, इसके बाद छत्तीसगढ़ (78 फीसदी), बिहार (61 फीसदी), उत्तराखंड (60 फीसदी) और गुजरात (56 फीसदी) का स्थान रहा है।

एक विधानसभा के साथ तेरह राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 40फीसदी से अधिक विशेषज्ञ पदों की कुल रिक्ति थी। इनमें से सात पर वर्तमान में भाजपा और उसके सहयोगियों, चार में आईएनसी और उसके सहयोगी और एक पर आप और एक पर तेलंगाना राष्ट्र समिति का शालन है।

Source: Niti Aayog Note: Data as of March 31, 2016

हेल्थकेयर स्टाफ की प्राथमिक स्तर पर कमी है और प्रतिकूल वित्तीय निहितार्थ के साथ आबादी का एक बड़े हिस्से के लिए, विशेष देखभाल के लिए निजी क्षेत्र में जाना मजबूरी है। आउट-ऑफ-पॉकेट (ओओपी) स्वास्थ्य खर्च ने 5.5 करोड़ भारतीयों को ( दक्षिण कोरिया, स्पेन या केन्या की आबादी से अधिक ) गरीबी में धकेला है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 19 जुलाई, 2018 की रिपोर्ट में बताया था।

उन राज्यों में फंड का सबसे कम इस्तेमाल, जहां सबसे ज्यादा जरूरत है

फंड की अपर्याप्तता के अलावा, केंद्र द्वारा राज्य सरकारों को जारी किए गए धन के समय में असंगति ने देश भर में सेवा वितरण के संदर्भ में असमानता का योगदान दिया है, जैसा कि ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के विश्लेषण से पता चला है।

औसतन, उन राज्यों में वर्ष के अंत में अधिक अप्रयुक्त धन थे, जिनकी उन्हें सबसे अधिक आवश्यकता थी। अध्ययनों से पता चला है कि धनराशि जारी करने के अनुरोध के साथ एक फाइल को प्रशासनिक पदानुक्रम में जाने के दौरान न्यूनतम 32 डेस्क को पार करना पड़ता है, और नीचे की तरफ 25 डेस्क से गुजरना पड़ता है।

नीति हेल्थ इंडेक्स ने वित्तीय वर्ष 2015-16 के सभी चरणों के आधार पर राज्य के खजाने से कार्यान्वयन एजेंसी (विभाग / समाज) के लिए केंद्रीय राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) फंड के हस्तांतरण के लिए लिए गए औसत समय का विश्लेषण किया और राज्यों के बीच भारी बदलाव पाया।

कार्यान्वयन एजेंसियों तक पहुंचने के लिए धन का समय, दमन और दीव और लक्षद्वीप में शून्य दिनों और तेलंगाना में 287 दिनों से भिन्न है। लगभग सभी भारतीय राज्यों ने राज्य के कोष से राज्य स्वास्थ्य समितियों को धन हस्तांतरित करने में, लंबे समय तक देरी की रिपोर्ट की है ( कई मामलों में 100 से अधिक दिन ) जिससे विभिन्न स्वास्थ्य क्षेत्र की पहलों के समय पर कार्यान्वयन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

Source: Niti Aayog Note: Data for the financial year 2015-16

शासन और सूचना उप-सूचकांक के विपरीत ( जो राज्यों के भीतर शासन संरचनाओं और सूचना प्रणालियों की स्थिति से संबंधित है ) राज्यों के समग्र प्रदर्शन ज्यादातर "विशेष इनपुट और प्रक्रियाओं" थीम के भीतर डोमेन-विशिष्ट प्रदर्शन के अनुरूप थे-जो मानव संसाधन, और स्वास्थ्य देखभाल और प्रक्रियाओं के स्तर और गुणवत्ता से संबंधित हैं।

नीति इंडेक्स रैंकिंग के अनुसार, हालांकि, ओडिशा और राजस्थान ने समग्र सूचकांक की तुलना में "प्रमुख इनपुट और प्रक्रियाओं" उप-डोमेन पर बेहतर प्रदर्शन किया। उसी समय, सभी छोटे राज्यों ने स्वास्थ्य परिणामों पर बेहतर प्रदर्शन किया - जैसे कि गोवा और मणिपुर - "प्रमुख इनपुट और प्रक्रियाओं" की तुलना में। इस पहलू पर और अध्ययन की जरूरत है।

Source: Niti Aayog

यदि भारत को सभी के लिए स्वास्थ्य सेवा का उचित स्तर प्राप्त करना है, भारत में सभी मुख्यधारा के दलों को राज्य स्तर पर स्वास्थ्य पर एक सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम पर सहमत होना चाहिए,- जैसे कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार द्वारा 2008 में शुरू की गई - और पिछली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार द्वारा 2018 में प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना शुरू की गई, जिसमें केंद्र-राज्य समन्वय प्रमुख है।

चूंकि स्वास्थ्य एक राज्य का विषय है, और राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में स्वास्थ्य सेवा के विनियमन के लिए एक तार्किक मामला बनाया गया है, जो स्पष्ट रूप से ‘अधिकार-आधारित दृष्टिकोण की दिशा में आगे बढ़ने की आवश्यकता’ का समर्थन कर रहा है, भारत को नौकरशाही को कम करने के लिए तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता है, विशेष रूप से फंड संवितरण में देरी पर और बहुदलीय संघीय लोकतांत्रिक सेटअप के भीतर केंद्र-राज्य संबंधों को बेहतर बनाने को लेकर।

यह आलेख पहली बार यहां HealthCheck पर प्रकाशित हुई है।

(कुरियन ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के हेल्थ इनिशिएटिव में फेलो हैं।)

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