हॉस्पिटल बेड, प्रशिक्षित स्टाफ़ और आंकड़ों की कमी से जूझ रहा है भारत का बर्न केयर मैनेजमेंट
उज्जैनः साधना करकरे (63) 14 अप्रैल, 2019 को बैसाखी के दिन उज्जैन में अपने घर के पास के शिव मंदिर में सुबह की आरती कर रही थी। अचानक, एक दीये की लौ से उनकी साड़ी ने आग पकड़ ली और कुछ ही सेकेंड में वह आग से घिर गईं।
साधना के पति प्रमोद उन्हें तुरंत ज़िला अस्पताल लेकर पहुंचे, लेकिन वहां उन्हें बताया गया कि यहां आग में झुलसे लोगों का इलाज नहीं हो सकता। प्राथमिक चिकित्सा दिए बिना, उन्हें 38 किलोमीटर दूर एक अस्पताल में जाने की सलाह दी गई। जब ये इंदौर में चोइथाराम हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर पहुंचे तो डॉक्टरों ने बताया कि साधना सेकेंड डिग्री तक झुलस गई हैं यानी उनका शरीर 70% झुलस चुका था। साधना को इलाज मिलने में तीन घंटे से ज़्यादा का वक़्त लगा। साधना, अगले 48 घंटे तक संघर्ष करती रहीं, लेकिन 1 जून, 2019 को उन्होंने दम तोड़ दिया।
इंदौर के चोइथाराम हॉस्पिटल के बर्न सर्जन राजपाल सिंह ने इंडियास्पेंड को बताया कि अगर समय पर उपयुक्त इलाज मिल जाए तो जलने की वजह से होने वाली मौतों और विकलांगता को काफ़ी हद तक रोका जा सकता है। उन्होंने कहा कि आग से झुलसे लोगों का इलाज और देखभाल मेडिकल सुपर-स्पेशियलिटी की एक शाखा है। आमतौर पर शहरों में प्रशिक्षित कर्मचारी और आग से झुलसे मरीज़़ों के इलाज के लिए अलग यूनिट होती है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में ये सुविधा नहीं है। भारत में हर साल आग से झुलसने वाले लाखों लोगों के लिए, इस सुविधा की कमी का एक ही मतलब है, एक धीमी मौत।
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने 2017-18 की अपनी वार्षिक रिपोर्ट में बताया था कि देश में हर साल 10 लाख से ज़्यादा लोग आग में जलने की वजह से मामूली या गंभीर रूप से झुलस जाते हैं। यह संख्या मार्च 2009 में मेडिकल जर्नल द लांसेट में प्रकाशित कैम्ब्रिज, हार्वर्ड और जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के रिसर्चर्स की स्टडी में बताए गए 70 लाख के अनुमान से काफ़ी कम है।
साल 2001 में भारत में आग से जुड़ी मौतों के बारे में कई आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद, उन्होंने अनुमान लगाया था कि 2001 में देश में 70 लाख लोग आग लगने की वजह से झुलस गए थे जबकि 1,63,000 लोगों की मौत हो गई थी। इस स्टडी में कहा गया था कि भारत में 2001 में हुई सभी मौतों के 2% मामलों में मौत की वजह आग थी।
स्वास्थ्य मंत्रालय मानता है कि भारत में जलने से होने वाली मौतों की संख्या मलेरिया और टीबी की वजह से हुई मौतों से ज़्यादा है। दिल्ली में तीन सरकारी अस्पतालों से मिले आंकड़ों से पता चलता है कि एक साल में लगभग 1,40,000 लोगों की मौत आग में झुलसने की वजह से होती है। यानी आग में झुलसने की वजह से हर चार मिनट में एक मौत होती है।
चिकित्सा कर्मियों का सही प्रशिक्षण नहीं, इलाज की सुविधाओं की कमी
साल 2016 में नेशनल एकेडमी ऑफ बर्न्स-इंडिया (एनएबीआई) ने जो आंकड़े इकट्ठा किए उनके अनुसार, आग से झुलसने वाले लाखों लोगों के लिए, 67 सेंटर्स (बर्न-केयर यूनिट वाले अस्पताल) में 1,339 बेड हैं। 1,200 बर्न-केयर प्रोफेशनल इस एकेडमी के सदस्य हैं। 1,339 बेड में से, 297 इंटेन्सिव केयर यूनिट (आईसीयू) में हैं, जो केवल गंभीर रूप से झुलसे मरीज़़ों के लिए हैं। 67 सेंटर में से 37 (आधे से ज़्यादा) प्राइवेट हैं।
एनएबीआई का ख़ुद मानना है कि उसके आंकड़े पूरी तरह सटीक नहीं है -- यही वजह है कि उपचार केंद्रों या मरीज़़ों की सही संख्या पता नहीं है। इंडियास्पेंड ने बेहतर आंकड़ों और टिप्पणियों के लिए डायरेक्टोरेट जनरल ऑफ हेल्थ सर्विसेज़, संजय त्यागी से सम्पर्क किया लेकिन उनकी तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया। हमने नेशनल हेल्थ मिशन की छत्तीसगढ़ की प्रमुख प्रियंका शुक्ला और छत्तीसगढ़ के नोडल अधिकारी राजेश शर्मा से भी संपर्क किया, लेकिन उन्होंने भी कोई जवाब नहीं दिया। अगर हमें उनसे कोई जवाब मिलता है तो हम इस रिपोर्ट को अपडेट करेंगे।
आंकड़ों से ये भी पता चलता है कि हो सकता है, आग से झुलसे मरीज़़ों में से कई का इलाज अस्पतालों में स्पेशल बर्न-केयर यूनिट की बजाय सामान्य वॉर्ड में होता हो। इंदौर के चोइथाराम हॉस्पिटल में एक रिसर्चर और बर्न सर्जन, शोभा चमानिया ने 2010 में एक रिसर्च पेपर में बताया था, “अस्पतालों में मरीज़़ों के इलाज के लिए ज़रूरी सुविधाएं होने के बावजूद, वास्तव में झुलसे हुए लोगों के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं में काफ़ी ख़ामियां हैं, क्योंकि वे किसी सर्जन की प्राथमिकता नहीं होते। मरीज़़ों को अस्पताल में भर्ती होने के दौरान विकृतियां हो सकती हैं और देखभाल करने वाले इसके लिए ज़िम्मेदार या जवाबदेह नहीं हैं।”
आग से झुलसे लोगों को उपयुक्त और प्रभावी इलाज उपलब्ध कराने की भारत की स्वास्थ्य क्षमता को स्टडी करने वाले रिसर्चर्स के एक पेपर (2018) के मुताबिक़, इलाज में रुकावट के अन्य कारणों में, झुलसे लोगों के प्राथमिक उपचार (फ़र्स्ट-ऐड) के बारे में जागरूकता की कमी, आग से झुलसे लोगों का इलाज करने वाले कर्मियों की कमी, मेडिकल कर्मियों की ट्रेनिंग में ख़ामियां और इलाज के तरीकों में अंतर शामिल हैं।
इलाज पर अपनी जेब से ख़र्च
पॉलिसी रिसर्च संगठन, पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के मुताबिक़, देश के 65% से ज़्यादा लोग सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं का इस्तेमाल नहीं करते क्योंकि वे बहुत दूर हैं, वहां स्टाफ़ की कमी है और अच्छी सर्विस नहीं मिलती है।
आग से झुलसे मरीज़़ों के मामले में, प्राइवेट अस्पतालों पर निर्भर रहने से ख़र्च बढ़ जाता है। झुलसे लोगों को अस्पताल में ज़्यादा रहना पड़ता है -- औसतन आठ हफ़्ते। ट्रॉमा के अन्य मामलों में एक बेड का प्रति दिन का औसत ख़र्च 700 रुपये है। जबकि आग से झुलसे मरीज़़ के लिए यह 10 गुना ज़्यादा है।
इलाज का ख़र्च भी बहुत ज़्यादा है। 2018 के एक रिसर्च पेपर के मुताबिक़, मामूली झुलसने या सेकेंड डिग्री तक झुलसे मरीज़़ों के इलाज का औसत ख़र्च, 2,000 रुपये पर परसेंटेज बर्न एरिया ऑफ़ टोटल बॉडी सरफ़ेस एरिया (टीबीएसए) है। गंभीर रूप से झुलसे मरीज़़ पर औसत ख़र्च, पर परसेंटेज बर्न एरिया ऑफ़ टीबीएसए 6,000 रुपये तक हो जाता है।
करकरे परिवार को इस ख़र्च का, साधना के अस्पताल में इलाज के दौरान पता चला। परिवार ने अस्पताल के ख़र्चों पर औसतन 23,000 रुपये रोज़ चुकाए थे, जिसमें मेडिकल और डायग्नोस्टिक टेस्ट, दवाओं का ख़र्च, अस्पताल का सर्विस चार्ज और दूसरे ख़र्च शामिल थे। एक मिडिल क्लास परिवार के लिए अचानक जेब से इतना बड़ा ख़र्च किसी झटके से कम नहीं था।
ज़्यादातर हेल्थ इंश्योरेंस स्कीम आग से झुलसने के मामलों को कवर नहीं करतीं, यह “दुर्घटना में मौत और विकलांगता” में कवर होता है। केंद्र सरकार की प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना में भी इसका कोई प्रावधान नहीं है, जिसका एक लाभार्थी करकरे परिवार भी था।
स्वास्थ्य के मामले में जेब से ख़र्च यानी आउट ऑफ़ पॉकेट एक्सपेंसेज़ (ओओपीई) 2004-05 में 69.4% से घटकर 2015-16 में 60.6% हो गया है, लेकिन भारत में आग से झुलसने के मामलों में ओओपीई पर अलग से आंकड़े नहीं हैं। इंदौर के चोइथाराम हॉस्पिटल की चमानिया ने कहा कि आग से झुलसे लोगों के ओओपीई पर पूरे देश में एक स्टडी करने की ज़रूरत है।
सरकार का रवैया
स्वास्थ्य मंत्रालय आग से झुलसे लोगों की अधिक संख्या के लिए अशिक्षा, ग़रीबी और लोगों में सुरक्षा को लेकर सतर्कता की कमी को कारण बताता है। नेशनल एकेडमी ऑफ बर्न्स-इंडिया के प्रमुख अरुण कुमार सिंह का कहना है कि इससे निपटने का एक अच्छा तरीक़ा आग से झुलसने को लेकर जागरूकता बढ़ाना है। उन्होंने कहा, “हमें आग से झुलसे लोगों को हेल्थ कवरेज भी देनी होगी।”
मंत्रालय ने 2010 में आग से झुलसने की घटनाओं को रोकने और समय पर इलाज उपलब्ध कराने के लिए हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और असम के तीन मेडिकल कॉलेजों और छह ज़िला अस्पतालों में एक पायलेट प्रोग्राम शुरू किया था। 2014 में इस पायलेट प्रोजेक्ट को, नेशनल प्रोग्राम फ़ॉर प्रिवेंशन एंड मैनेजमेंट ऑफ ट्रॉमा एंड बर्न इंजरीज़ (एनपीपीएमटीबीआई) में बदल दिया गया। इसमें 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) के दौरान राज्यों के 67 सरकारी मेडिकल कॉलेजों और 19 ज़िला अस्पतालों में बर्न यूनिट खोलने की योजना थी।
कार्यक्रम को मार्च 2020 तक बढ़ा दिया गया है। 67 बर्न यूनिट में से 47 मेडिकल कॉलेजों को मंज़ूरी मिल गई है और 17 ज़िला अस्पतालों की पहचान वित्तीय सहायता के लिए की गई है। एक बर्न डेटा रजिस्ट्री बनाने पर भी विचार किया गया है और आग से झुलसने से संबंधित आंकड़े इकट्ठा करने, जमा करने और उसका विश्लेषण करने के लिए इसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जाएगा।
यह रिपोर्ट 26 नवंबर को Healthcheck पर प्रकाशित हुई थी।
(मारकंड एक सीनियर कंटेंट डवेलेपर, रिसर्चर और डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर हैं। वह छत्तीसगढ़ के भिलाई में रहते हैं और स्वास्थ्य, पानी और पर्यावरण से संबंधित मुद्दों पर लिखते हैं।)
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