झारखंड की 77% विधानसभा सीटों के नतीजों पर असर डाल सकता है एफ़आरए
नई दिल्लीः आने वाले झारखंड विधानसभा चुनाव में वन अधिकार अधिनियम यानी फ़ोरेस्ट राइट एक्ट (एफ़आरए) अहम भूमिका निभा सकता है। इस एक्ट को लागू करने की धीमी रफ़्तार, राज्य की 81 में से 62 सीटों (क़रीब 77%) पर किसी का खेल बना या बिगाड़ सकती है। कुछ रिसर्चर्स के विश्लेषण में ये बात सामने आई है। एफ़आरए, जंगल में रहने वालों के जंगल पर उनके अधिकार को औपचारिक मान्यता देता है।
ये विश्लेषण इस बात पर आधारित है कि एफ़आरए के तहत ज़मीन के हक़दार, अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के वोटरों की संख्या इन 62 में से 58 सीटों पर पिछले चुनाव में हार-जीत के अंतर से ज़्यादा है। पूरे झारखंड में फैले चक्रधरपुर, गुमला, लातेहर और सिमडेगा विधानसभा क्षेत्रों में तो एससी-एसटी की जनसंख्या लगभग 70% है।
इन 62 सीटों पर 2014 के विधानसभा चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करने पर रिसर्चर्स का निष्कर्ष था कि एफ़आरए और आदिवासियों के ज़मीन के हक़ से जुड़े दूसरे क़ानूनों को अमली तौर पर लागू करने का वादा करने वाला कोई भी राजनैतिक दल, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को हरा सकता है।
2006 में लागू हुआ एफ़आरए, झारखंड के एससी और एसटी के वोटरों की ज़िंदगी पर सीधे-सीधे असर डालता है। 2014 के आंकड़ों के मुताबिक़, राज्य में कुल 73 लाख वोटर हैं जिनमें से 52% यानी 38 लाख वोटर एससी और एसटी से आते हैं। विश्लेषण करने वाले तुषार शाह और अर्चना सोरेंग नेटवर्क कम्युनिटी फॉरेस्ट रिसोर्स – लर्निंग एंड एडवोकेसी (सीएफआर-एलए) एनजीओ के सदस्य हैं। लेकिन इन दोनों ने यह विश्लेषण सीएफआर-एलए से अलग किया है।
झारखंड का विधानसभा चुनाव पांच चरणों में होगा। पहले चरण की वोटिंग 30 नवंबर और आख़िरी चरण की वोटिंग 20 दिसंबर, 2019 को होगी। वोटों की गिनती 23 दिसंबर को होगी।
पिछले एक साल में हुए चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को एफ़आरए के असर वाले इलाक़ों में कई सीटों पर हार का सामना करना पड़ा है। हाल ही में हुए महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को ऐसी लगभग 22% सीटों पर हार का मुंह देखना पड़ा था और वो सरकार बनाने लायक बहुमत हासिल नहीं कर पाई।
इसी तरह, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव में बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा। सीएफआर-एलए के विधानसभा चुनाव विश्लेषण के मुताबिक़, एफ़आरए इसकी एक बड़ी वजह था।
लाइवमिंट की 16 नवंबर, 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक़, बीजेपी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने इसके बाद इंडियन फ़ोरेस्ट एक्ट. 1947 में किए गए एक विवादास्पद संशोधन वापस ले लिया। इस संशोधन में फ़ोरेस्ट ऑफ़िसर्स को हथियारों के इस्तेमाल के लिए अधिक पावर और क़ानूनी दांवपेचों से उनके बचाव का प्रस्ताव शामिल था, जिसकी वजह से इस संशोधन की आलोचना हो रही थी।
21 नवंबर, 2019 को, झारखंड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, ओडिशा, बिहार, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल समेत तमाम राज्यों के सैंकड़ों आदिवासी दिल्ली के जंतर-मंतर पर इकट्ठा हुए। ये सभी एफ़आरए को सही तरीक़े से लागू न किये जाने का विरोध कर रहे थे।
एफ़आरए को लागू करने में ‘फ़िसड्डी’ है झारखंड
एफ़आरए में पीढ़ियों से जंगलों में रहने वाले समुदायों को जंगलों की देखभाल करने और उनके इस्तेमाल की इजाज़त दी गई है। अमेरिका के एक गैर लाभकारी संगठन, राइट्स एंड रिसोर्सेज़ इनिशिएटिव के 2015 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़, झारखंड अगर चाहे तो 19 लाख हेक्टेयर से ज़्यादा क्षेत्र में फैले जंगलों में इन समुदायों को अधिकार दे सकता है।
लेकिन सरकारी आंकड़े बताते हैं कि झारखंड ने अप्रैल 2018 तक, 40,380 हेक्टेयर के इलाक़े में समुदायों के क़रीब 2% दावों को ही मंज़ूरी दी थी। व्यक्तिगत दावों के मामले में सरकार ने आधे से कुछ ज़्यादा दावों को ही माना है।
सुप्रीम कोर्ट में हाल ही में दाखिल एक एफ़िडेविट में, राज्य सरकार ने माना है कि उसने एफ़आरए के तहत दावों को ग़लत तरीके से ख़ारिज किया था। सरकार ने ख़ारिज किए गए सभी दावों की समीक्षा करने और ग़लत तरीके से ख़ारिज किए गए दावों की संख्या तय करने के लिए सुप्रीम कोर्ट से जुलाई 2020 तक का वक़्त मांगा है।
दावों के निपटारे की इतनी कम संख्या की वजह से ही, एफ़आरए लागू करने के मामले में झारखंड का सबसे बुरा प्रदर्शन है। इसी वजह से, ग़ैर-लाभकारी संगठन, ऑक्सफ़ैम ने 2018 की अपनी एक रिपोर्ट में झारखंड को “फ़िसड्डी राज्य” बताया था। रिपोर्ट में कहा गया था, “जिस राज्य में 26% आदिवासी हों और 31% लोग ग्रामीण इलाक़ों में रहते हों, उसके लिए ये चिंता की बात है।”
एफ़आरए, आर्थिक रूप से पिछड़े एसटी समुदाय की माली हालत सुधारने का एक बड़ा ज़रिया है। सरकारी थिंक-टैंक, नीति आयोग ने 2017 की एक रिपोर्ट में कहा था की झारखंड में अनुसूचित जनजातियों (एसटी) में हर दूसरा व्यक्ति (49%) और अनुसूचित जातियों (एससी) में हर पांच में से दो व्यक्ति (40%) ग़रीबी की रेखा (बीपीएल) से नीचे हैं। झारखंड में कुल आबादी के 39.1% लोग बीपीएल में आते हैं, जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 29.8% है।
FRA Implementation In Jharkhand, As Of April 2018 | |||||
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Types of Forest Rights | Gram Sabha Claims Received | Approved | Rejected | Approved Forest Area (hectares) | Claims Disposed off (% of Claims Received) |
Individual Rights | 105363 | 58053 | NA | 41649.4 | NA |
Community Forest Rights | 3667 | 2090 | NA | 40380.34 | NA |
Total Jharkhand | 109030 | 60143 | 29521 | 82029.77 | 89664 (82.24%) |
Source: Ministry of Tribal Affairs, India
वोटिंग पैटर्न
एफ़आरए प्रभावित विधानसभा क्षेत्रों पर चुनाव नतीजों का असर जानने के लिए रिसर्चर्स ने इन सीटों को तीन हिस्सों में बांटा: महत्वपूर्ण, गंभीर, और अनुकूल। ‘महत्वपूर्ण’ श्रेणी वाली सीटें वो हैं जहां एफ़आरए से प्रभावित वोटर सबसे ज़्यादा हैं, यहां आदिवासियों की संख्या सबसे ज़्यादा हैं, और एक बड़े इलाक़े में जंगल है। ‘अनुकूल’ श्रेणी में वो सीट रखी गई हैं, जहां आदिवासियों की संख्या भी कम है और जंगल का इलाक़ा भी कम है।
How Important Was FRA In The 2014 Jharkhand Assembly Elections? | |||||||
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Value of FRA as an electoral factor | Seats | BJP | JMM | Others | |||
Won | 2nd | Won | 2nd | Won | 2nd | ||
Critical Value | 10 | 555 | 4 | 1 | 2 | 4 | 4 |
High Value | 26 | 99 | 2 | 11 | 0 | 6 | 4 |
Good Value | 26 | 1212 | 2 | 7 | 2 | 7 | 3 |
Source: Independent analysis by Tushar Shah and Archana Soreng, FRA researchers
2014 के विधानसभा चुनाव में, बीजेपी ने इन 62 सीटों में से लगभग 42% पर जीत हासिल की थी। राज्य के मुख्य विपक्षी दल झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) ने लगभग 30% सीटें हासिल की थी। 2001 में राज्य बनने के बाद से कभी विधानसभा चुनाव नहीं जीत पाने वाली कांग्रेस को केवल 5% सीटों पर ही जीत हासिल हो पाई थी, बाकी की 23% सीटें दूसरे दलों के हिस्से में आई थी।
जेएमएम और दूसरे दलों के उम्मीदवार 62 सीटों में से 37% पर दूसरे नम्बर पर रहे थे। विश्लेषकों की राय है कि अगर उन्होंने एफ़आरए को लागू करने को अपने चुनावी वादों में ज़ोर-शोर से शामिल किया होता तो वे और सीटें जीत सकते थे। राज्य की सत्ता पर क़ाबिज़ बीजेपी, अगर इस विधानसभा चुनाव में एफ़आरए के मुद्दे पर ज़ोर देने में नाकाम रहती है तो उसे 2014 के मुक़ाबले कम सीटें मिल सकती हैं।
चुनाव नतीजों पर एफ़आरए का असर
पिछले एक साल में बीजेपी ने कम से कम चार विधानसभा चुनावों में एफ़आरए के असर वाली सीटों पर हार का मुंह देखा है। अक्टूबर 2019 में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजों का विश्लेषण बताता है कि राज्य में, एफ़आरए के असर वाली महत्वपूर्ण, गंभीर और अनुकूल तीनों श्रेणियों की 22% सीटों पर बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा। 2014 में बीजेपी ने महत्वपूर्ण श्रेणी की सात में से तीन सीटें जीती थी लेकिन इस बार उसने ये सभी तीनों सीटें गंवा दी।
इंडियास्पेंड ने 18 अक्टूबर, 2019 की अपनी रिपोर्ट में बताया था कि अगर एफ़आरए को एक चुनावी मुद्दा बनाया जाता है तो महाराष्ट्र की कुल 288 विधानसभा सीटों में से कम से कम 70% पर नतीजे बदल सकते हैं।
जैसा कि हमने बताया था कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में सत्तारूढ़ बीजेपी की हार में, एफ़आरए ने एक अहम भूमिका अदा की थी।
कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव के अपने मेनिफ़ेस्टो में एफ़आरए को लागू करने का वादा किया था और पार्टी को इसका फ़ायदा भी मिला। कांग्रेस ने एससी और एसटी के लिए रिज़र्व कुल 39 सीटों में से ज़्यादातर पर जीत हासिल की। 2013 के चुनाव के मुक़ाबले पार्टी को ऐसी 68% ज़्यादा सीटों पर जीत हासिल हुई। सीएफआर-एलए के विश्लेषण के मुताबिक़, बीजेपी ने पिछले चुनाव में जीती 75% सीटें गंवा दी।
मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस की जीत का अंतर छत्तीसगढ़ की तुलना में कम था। विश्लेषकों का मानना है कि इसकी वजह ये रही कि पार्टी ने इन राज्यों में ज़मीन के अधिकार के मुद्दे पर ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया था।
(भास्कर, इंडियास्पेंड के साथ रिपोर्टिंग फ़ेलो हैं।)
ये रिपोर्ट मूलत: अंग्रेज़ी में 23 नवंबर 2019 को IndiaSpend पर प्रकाशित हुई है।
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