124 वर्षों के दौरान मुंबई के औसत तापमान में 2.4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि
भारत के शहरों के तापमान में वृद्धि हो रही है। अमेरिका के नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) के आंकड़ों के अनुसार 135 वर्ष पूर्व से, जबसे आंकड़ों का रिकॉर्ड रखा जाना शुरु हुआ है तब से लेकर वर्ष 2015 तक दिल्ली, मुंबई और अन्य भारतीय शहरों के तापमान में वृद्धि हुई है।
वर्ष 1891 से मुबंई के औसत तापमान में 2.5 सेल्सियस की वृद्धि हुई है एवं दिल्ली के औसत तापमान में वर्ष 1830 से 0.3 सेल्सियस की वृद्धि हुई है। नीचे दिए गए चार्ट से यह और स्पष्ट होता है:
भारत के प्रमुख शहरों का औसत तापमान, 1882-2015
Source: NASA
Berkeleyearth.org, एक अमेरिकी गैर लाभकारी संस्था जो जलवायु विज्ञान का विश्लेषण करती है, द्वारा की गई एक वैकल्पिक अध्ययन भारत में तापमान वृद्धि की प्रवृति की पुष्टि करता प्रतीत होता है: 200 वर्षों में 2.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है।
भारत के लिए अनुमानित वर्षिक औसत तापमान, 1796-2012
Source: BerkeleyEarth.org
स्पेन, फिनलैंड में सबसे अधिक गर्मी का अनुभव
नासा ने दुनिया भर से 6,300 मौसम स्टेशनों से आंकड़े लिए हैं एवं बेसलाइन से तुलना की है जो कि 1951-1980 तक से औसत तापमान है (और मोटे तौर पर 14 डिग्री सेल्सियस के रूप में लिया जा सकता है)। 2015 में, पिछले साल से सबसे गर्म साल बनाते हुए, बेसलाइन से तापमान विसामान्यता 0.87 डिग्री सेल्सियस थी जब वैश्विक तापमान बेसलाइन के उपर 0.74 डिग्री सेल्सियस था।
वैश्विक औसत तापमान, 1880-2015
Source: NASA
रिकॉर्ड में दर्ज किए गए सबसे गर्म वर्ष, 2000 के बाद के ही रहे हैं एवं 2000 से 2015 तक प्रत्येक वर्ष बेसलाइन से विसामान्यता में 0.03 डिग्री सेल्सियस की दर से वृद्धि हुई है, जो ग्लोबल वार्मिंग की प्रवृत्ति का बड़ा संकेत है।
फिनलैंड एवं स्पेन में अब तक का सबसे गर्म साल दर्ज किया गया है जबकि अर्जेंटीना में अब तक का दूसरा सबसे गर्म साल दर्ज हुआ है। PBS.org पर इस रिपोर्ट के अनुसार, लंबे समय में, तापमान में सबसे अधिक वृद्धि ध्रुव के आसपास हुई है जबकि भूमध्य रेखा के आसपास तापमान में ज्यादा बदलाव नहीं आया है।
भूमि और समुद्र तापमान प्रतिशतक, जनवरी-दिसंबर, 2016
Source: National Oceanic and Atmospheric Administration, USA
यदि नक्शे पर ठीक तरह से नज़र डाली जाए तो पता चलता है कि वार्मिंग से अछूता कोई क्षेत्र नहीं है। नासा ने एक बयान में कहा है कि, “वार्मिंग की वास्तविकता का आगे प्रतिज्ञान इसका स्थानिक वितरण है जिसका वैसे स्थानों पर, जोकि स्थानीय मानव प्रभाव से दूर है उसका बड़ा मूल्य है।”
दुनिया भर के अधिकांश मौसम स्टेशन उत्तरी गोलार्द्ध में हैं जहां बड़े पैमाने पर पृथ्वी की भूमि स्थित है । इसका मतलब यह है कि हमें वास्तव में यह नहीं पता है कि दक्षिणी गोलार्द्ध, जो ज़्यादातर सागर में है, किस प्रकार गर्म हो रहा है। तो, जलवायु विज्ञान पर एक कंमेंट्री साइट, realclimate.org से इस रिपोर्ट के अनुसार, हो सकता है कि ग्लोबल वार्मिंग को कम आंका जा रहा है।
क्या अल नीनो ग्लोबल वार्मिंग में भूमिका निभा सकते हैं?
वार्मिंग के लिए मानव गतिविधि और ग्रीन हाउस गैसों को दोष देना काफी आसान होगा लेकिन कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार ऐसी स्थिति एक ही वर्ष में होना संभव नहीं है। यह लंबे समय में हुए बदलाव को दर्शाता है।
गेविन श्मिट , 2015 में अंतरिक्ष अध्ययन के नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट के निदेशक कहते हैं कि, “[ए] विशिष्ट साल [ सबसे गरम वर्ष ] ग्रीन हाउस गैसों से प्रति के कारण नहीं ... लेकिन लंबी अवधि के प्रवृति... कारण है।”
दुनिया एवं भारत के कुछ हिस्से को गर्म करने की भूमिका, 2015 में एक जटिल घटना के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जिसे एल नीनो कहा जाता है - ऊष्ण कटिबंधीय प्रशांत के भूमध्यीय क्षेत्र के समुद्र के तापमान और वायुमंडलीय परिस्थितियों में आये बदलाव के लिए उत्तरदायी समुद्री घटना । इंडियास्पेंड ने पहले भी अपनी रिपोर्ट में बताया है कि किस प्रकार एल-नीनो के कारण 2015 में उत्तरी भारत में अधिक तीव्र गर्म लहरें और कमजोर मानसून का प्रभाव रहा है।
सत्य यह है कि 2014 में जब अल-नीनो नहीं आया था तब भी यहां बहुत गर्मी दर्ज किया गया था जो कि ग्लोबल वार्मिंग का दूसरा बड़ा सबूत है।
क्या होगा वार्मिंग का प्रभाव?
यूरोप में अधिक बाढ़, अफ्रीका में पानी की कमी, एशिया में सूखा और, उत्तरी अमेरिका में जंगल की आग।
यह कुछ प्रभाव हैं जो दुनिया को वार्मिंग जारी रहने की स्थिति में भुगतना पड़ सकता है। यह प्रभाव जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल, ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव की जांच के लिए जिम्मेदार संयुक्त राष्ट्र की एक एजेंसी द्वारा 2014 की रिपोर्ट में बताए गए हैं।
दुनिया भर के देशों ने COP21 , पेरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में अब तक उनकी सबसे महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। ( इंडियास्पेंड ने पहले ही अपने रिपोर्ट में शिखर सम्मेलन में भारत की स्थिति के संबंध में विस्तार से बताया है। ) जलवायु परिवर्तन से निपटने के क्रम में वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए भी सहमति बनी है।
यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 22 जनवरी 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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