18 साल में भी आर्सेनिक प्रभावितों तक नहीं पहुंचा साफ़ पानी
पटना/सारण/समस्तीपुर (बिहार): 32 वर्षीया दौलत देवी के दोनों हाथों और पैरों के तलवों में छोटे-छोटे बहुत सारे दाग़ हैं। यह दाग़ दर्द नहीं देते हैं, तो उन्हें बहुत फ़िक्र भी नहीं है। लेकिन, डॉक्टरों की नजर में यह दाग़ गंभीर ख़तरे का संकेत हैं और एहतियाती क़दम नहीं उठाए जाने पर जानलेवा भी हो सकते हैं।
दौलत देवी बिहार के समस्तीपुर ज़िले के मोइउद्दीननगर ब्लॉक के चापर गांव में रहती हैं। उनका मायका चापर गांव से करीब 30 किलोमीटर पीछे ररियाही में है। दौलत देवी जब तक ररियाही में थीं, उनके हाथ-पैर में कभी दाग़ नहीं हुए।
“करीब 18 साल पहले मेरी शादी हुई। तब मैं 14 साल की थी। शादी के बाद अपनी ससुराल चापर आई, तो कुछ साल बाद ही हाथों और पैरों में दाग़ आने लगे, लेकिन इससे किसी तरह की तक़लीफ़ नहीं होती थी तो मैंने इस पर बहुत सोचा भी नहीं कि ऐसा क्यों हो रहा है,” दौलत देवी ने बताया।
पिछले कुछ साल में कुछ एनजीओ और पटना की एक ग़ैर-लाभकारी संस्था द्वारा संचालित, महावीर कैंसर संस्थान की तरफ़ से चापर गांव के पानी की जांच की गई, तो पाया गया कि यहां के ग्राउंड वाटर में आर्सेनिक ख़तरनाक स्तर पर मौजूद है।
चापर गांव गंगा नदी से करीब 10 किलोमीटर दूर स्थित है। पानी को लेकर काम करने वाले संगठन आग़ा खां रूरल सपोर्ट प्रोग्राम ने इस गांव के 700 ट्यूबवेल के पानी की जांच की, जिनमें से 400 ट्यूबवेल के पानी में आर्सेनिक पाया गया।
पानी में आर्सेनिक की मात्रा अधिक की वजह से ट्यूबवेल में लगा लाल दाग़। (Photo: Umesh Kumar Ray)
आर्सेनिक एक ख़तरनाक धातू है जो धरती पर भारी मात्रा में मौजूद है। यह पानी, हवा और मिट्टी में पाई जाती है। आर्सेनिक से त्वचा, नर्वस सिस्टम, सांस, हृदय प्रणाली, लिवर, किडनी, आदि की बीमारियां हो सकती हैं। यह शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) को भी कमज़ोर कर देता है।
बिहार में पहली बार आर्सेनिक की मौजूदगी 2002 में पता चली
केंद्रीय भूमि जल बोर्ड का काम देश के भूजल (ग्राउंड वाटर) संसाधनों की खोज, उनका आंकलन, संरक्षण, संवर्धन (रिचार्ज) और प्रदूषण से सुरक्षा करना है। भूजल (ग्राउंड वाटर) से संबंधित राष्ट्रीय नीतियों की मॉनीटरिंग और उनका कार्यान्वयन भी केंद्रीय भूजल बोर्ड ही करता है।
लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में मिले आंकड़ों के अनुसार देश के 31 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के ग्राउंड वाटर में हानिकारक रसायन पाए गए थे। इन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 21 के ग्राउंड वाटर में 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से ज़्यादा आर्सेनिक मौजूद था। अगर इन राज्यों के 152 ज़िलों के (कुछ हिस्सों में) ग्राउंड वाटर में आर्सेनिक है।
भारत में पहली बार ग्राउंड वाटर में आर्सेनिक की मौजूदगी का पता 1983 में पश्चिम बंगाल में लगा। इसके 19 साल बाद साल 2002 में बिहार के भोजपुर ज़िले के ग्राउंड वाटर में आर्सेनिक की मौजूदगी का पता चला। भोजपुर गंगा नदी से सटा हुआ है। इस ज़िले की सिमरिया ओझापट्टी में सबसे पहले आर्सेनिक पाया गया था।
आर्सेनिक मिलने के बाद बिहार के जन स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग ने गंगा नदी के किनारे के 10 किलोमीटर क्षेत्रफल के ग्राउंड वाटर के सैंपल जमा किए। इसके लिए 11 ज़िलों के 65 ब्लॉकों से पानी के कुल 8,000 सैंपल इकट्ठे किए गए थे। इन सैंपलों की जांच में 892 मोहल्ले के पानी में आर्सेनिक की मात्रा 50 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से ज़्यादा मिली। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार पीने के पानी में आर्सेनिक की मात्रा 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए। यानी अगर एक लीटर पानी में आर्सेनिक की मात्रा 10 माइक्रोग्राम तक हो, तो ही वह पीने लायक होता है।
जन स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग की तरफ़ से हुए इस शोध के बाद बड़े स्तर पर और कोई शोध नहीं हुआ। अलबत्ता बाद के सालों में एनजीओ और कई संस्थानों की तरफ़ से बिहार के कुछ ज़िलों के ग्राउंड वाटर में आर्सेनिक की जांच की गई। साल-दर-साल हुई जांच से आर्सेनिक प्रभावित ज़िलों की संख्या बढ़ती चली गई।
बिज़नेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भोजपुर, पटना, सारण, वैशाली, समस्तीपुर, दरभंगा, मुंगेर, भागलपुर, पूर्णिया, सुपौल समेत बिहार के 18 ज़़िले आर्सेनिक से प्रभावित हैं। साल 2018 के शीतकालीन सत्र में राज्यसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में मिले आंकड़े बताते हैं कि बिहार के 815 गांवों की 1,223,387 आबादी आर्सेनिक वाला पानी पी रही है।
28 नवंबर 2019 को लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में जल संसाधन मंत्रालय ने बताया कि बिहार के 22 ज़िलों के ग्राउंड वाटर में आर्सेनिक है। उत्तर प्रदेश (28 ज़िलों में आर्सेनिक) के बाद बिहार देश का दूसरा राज्य है जहां सबसे ज़्यादा ज़िलों के ग्राउंड वाटर में आर्सेनिक मौजूद है।
हथेली और तलवे में पानी की बूंदनुमा काले धब्बे, दस्त, तनाव, सिर दर्द, सांस की तकलीफ़, हाई ब्लड प्रेशर, लो ब्लड प्रेशर पीने के पानी में आर्सेनिक की मौजूदगी के लक्षण होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़, लंबे समय तक आर्सेनिक वाला पानी पीने से त्वचा कैंसर के साथ ही ब्लाडर और फेफड़े का कैंसर हो सकता है।
व्यापक शोध की ज़रूरत
आर्सेनिक को लेकर काम करने वाले जानकारों का कहना है कि बिहार में आर्सेनिक की मौजूदगी को लेकर व्यापक स्तर पर शोध करने की ज़रूरत है क्योंकि बहुत सारे प्रभावित क्षेत्रों की पहचान अब तक नहीं हुई है। दो साल पहले महावीर कैंसर संस्थान और कुछ अन्य संस्थाओं ने मिल कर पहली बार बेगूसराय के एक गांव ज्ञानटोली में शोध किया था। मई 2018 की द टेलीग्राफ़ की रिपोर्ट के अनुसार इस शोध में पाया गया कि गांव के ग्राउंड वाटर में आर्सेनिक की मात्रा सामान्य से कई गुना ज़्यादा थी और इस पानी को पीने से कई लोग बीमार भी हो चुके हैं। इस गांव के चांपाकलों में आर्सेनिक की मात्रा 500 माइक्रोग्राम प्रति लीटर थी।
बिहार की राजधानी पटना से महज़ 50 किलोमीटर दूर स्थित सारण ज़िले के नवरसिया मोहल्ले में आर्सेनिक वाला पानी पीने से पिछले डेढ़ दशक में एक ही परिवार के 6 लोगों की मौत हो चुकी है। 22 वर्षीय गोलू कुमार इस परिवार के सदस्य हैं। उनके पिता और मां की मौत आर्सेनिक के कारण हो चुकी है। आर्सेनिक का असर उनके शरीर पर भी देखा जा सकता है। गोलू के पैर में ज़ख्म के निशान हैं, जो आर्सेनिक का लक्षण है।
“जब मैं 10 साल का था, उसी वक़्त पैर में ज़ख्म के निशान दिखने लगे थे। मेरी मां और पिता, चाचा-चाची के शरीर पर भी ऐसे ही ज़ख्म थे,” गोलू ने बताया।
सारण के नवरसिया निवासी 22 वर्षीय गोलू कुमार भी आर्सेनिक की चपेट में हैं। उनके परिवार के 6 लोगों की मौत आर्सेनिक की वजह से हुए कैंसर से हो चुकी है। (Photo: Umesh Kumar Ray)
“इस परिवार के आधा दर्जन लोगों की मौत कैंसर से हुई और हमने पाया कि उनके शरीर में आर्सेनिक जमा था,” महावीर कैंसर संस्थान के चिकित्सक डॉ अरुण कुमार ने बताया। महावीर कैंसर संस्थान के डॉक्टर गोलू के परिवार के लोगों का इलाज करते रहे हैं।
परंपरागत जल स्रोतों की अनदेखी
पहले पानी का स्रोत कुएं व तालाब हुआ करते थे। सतही पानी में आर्सेनिक नहीं होता। लेकिन, एक दूसरी दिक्कत यह थी कि सतही स्रोत खुले हुए थे, जिस कारण बाहर की गंदगी पानी को दूषित कर देती थी। अस्सी के दशक में जब ट्यूबवेल का चलन बढ़ा, तो लोगों ने कुओं व तालाबों से मुंह मोड़ लिया। चूंकि, गंगा नदी के डेल्टा क्षेत्र में ग्राउंड वाटर में प्राकृतिक तौर पर आर्सेनिक मौजूद रहता है, इसलिए जब इन क्षेत्रों में ट्यूबवेल लगे और पानी का दोहन बढ़ा, तो आर्सेनिक पीने के पानी के ज़रिए लोगों के शरीर में जाने लगा।
आर्सेनिक के कारण तलवे में आए ज़ख्म दिखाते बिजेंद्र। (Photo: Umesh Kumar Ray)
महावीर कैंसर संस्थान ने चापर गांव के बिजेंद्र राम के सिर के बालों की जांच की तो पता चला कि उनके बालों में 761.85 माइक्रोग्राम आर्सेनिक है । “20-25 साल पहले तक हम लोग कुएं से पानी पीते थे। उस वक़्त इस तरह की कोई बीमारी नहीं हुई थी। जब से ट्यूबवेल का पानी पीना शुरू किया, तब से हाथ-पैर में ऐसे निशान होने लगे,” बिजेंद्र के पिता उपेंद्र राम ने कहा।
391 करोड़ मंज़ूर हुए, पर कोई काम नहीं हुआ
बिहार के 12 लाख से ज़्यादा लोग आर्सेनिक वाला पानी पीने को मजबूर हैं, लेकिन इस बड़ी आबादी को राहत देने के लिए आज तक सरकार की तरफ़ से कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए।
साल 2016 में बिहार सरकार की कैबिनेट ने आर्सेनिक प्रभावित ज़िलों के लिए 391 करोड़ रुपए की मंज़ूरी दी थी। इसके अंतर्गत जन स्वास्थ्य अभियांत्रण विभाग की तरफ़ से आर्सेनिक प्रभावित 961 क्षेत्रों में नल से साफ़ पानी पहुंचाने की योजना थी।
दरअसल, नल के ज़रिए घरों तक साफ़ पानी की सप्लाई बिहार सरकार के सात निश्चयों का हिस्सा है। इसमें बिहार के सभी घरों तक नल से जल पहुंचाया जाना है। जिन क्षेत्रों में पानी में किसी तरह का प्रदूषक तत्व नहीं है, वहां ग्राउंड वाटर ही सीधे लोगों के घरों तक जाएगा जबकि आर्सेनिक और फ़्लोराइड जैसे तत्वों से प्रदूषित पानी वाले क्षेत्रों में फ़िल्टर्ड पानी की सप्लाई की जाएगी।
अगस्त 2018 की बिज़नेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट में बिहार के जन स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग के मंत्री विनोद नारायण झा के हवाले से बताया गया था कि मार्च 2020 तक आर्सेनिक प्रभावित बिहार के सभी 5,246 वार्डों में पीने के साफ़ पानी की सप्लाई शुरू हो जाएगी। उन्होंने मार्च 2020 के लक्ष्य से पहले वित्त वर्ष 2018-2019 तक 2,556 वार्डों में पीने का साफ़ पानी पहुंचा देने का भी आश्वासन दिया था। लेकिन, इस योजना के तहत अब तक एक भी फ़िल्टर स्थापित नहीं हुआ है।
दूसरी तरफ, आर्सेनिक और फ़्लोराइड प्रभावित आबादी तक साफ़ पानी पहुंचाने के लिए मार्च 2017 में नेशनल रूरल ड्रिंकिंग वाटर प्रोग्राम के अंतर्गत नेशनल वाटर क्वालिटी सब-मिशन शुरू किया था। इसके तहत तीन साल में केंद्र सरकार ने बिहार में साफ़ पानी मुहैया कराने के लिए 835.54 करोड़ रुपए खर्च किए, लेकिन ज़मीन पर इसका कोई असर दिखाई नहीं देता है।
इसके बनिस्बत पश्चिम बंगाल के महज़ 9 ज़िले आर्सेनिक से ग्रस्त हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल सरकार का कहना है कि वह 90% से ज़्यादा आर्सेनिक प्रभावित आबादी को साफ़ पानी मुहैया करा रही है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पश्चिम बंगाल के जन स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग के मंत्री सौमेन महापात्र ने दावा किया है कि 94% प्रभावित लोगों को साफ़ पानी मिल रहा है और 2022 तक बाकी लोगों तक भी साफ़ पानी पहुंचा दिया जाएगा।
"कुछ जगहों पर आर्सेनिक रिमूवल प्लांट लगाए गए, लेकिन सामुदायिक स्तर पर देखभाल के अभाव में ये प्लांट ख़राब हो गए," बिहार के जन स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम ज़ाहिर ना करने की शर्त पर बताया।
बिहार प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के चेयरमैन व आर्सेनिक पर लंबे समय तक काम करनेवाले डॉ अशोक घोष भी इस अधिकारी की बातों से सहमत हैं। “प्लांट का मालिकाना हक़ समुदायों को नहीं देने से उनकी देखभाल बहुत मुश्किल है। बक्सर के तिलक राय का हाता क्षेत्र में पीएचईडी विभाग की तरफ़ से वाटर एटीएम लगाया गया था, ताकि लोगों को साफ़ पानी मिल सके, लेकिन रखरखाव के अभाव में यह एटीएम काम नहीं कर रहा है,” डॉ अशोक घोष ने बताया।
“आर्सेनिक प्रभावित क्षेत्रों में लोगों को साफ़ पानी मुहैया कराना सरकार की प्राथमिकता है। सरकार जल्द ही आर्सेनिक से ग्रस्त इलाकों में नल-जल योजना के तहत साफ़ पानी पहुंचाना शुरू करेगी। इसके लिए टंकियां लगाई जा चुकी हैं,” बिहार के जन स्वास्थ्य अभियंत्रण मंत्री विनोद नारायण झा ने दावा किया।
सारण व बक्सर में सेरामिक फ़िल्टर
इस बीच, बिहार प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और एनजीओ वाटरएड की तरफ़ से संयुक्त रूप से सारण और बक्सर के एक–एक गांव में सेरामिक फ़िल्टर लगाए जा रहे हैं। यह सेरामिक फ़िल्टर कोलकाता के सेंट्रल ग्लास एंड सेरामिक रिसर्च इंस्टीट्यूट की तरफ़ से मुहैया कराए जा रहे हैं।
“इस फ़िल्टर का निर्माण मिट्टी से किया गया है और इसमें पानी का परशोधन (फ़िल्टर) किफ़ायती है। सेरामिक फ़िल्टर के ज़रिए पानी को साफ़ करने में प्रति लीटर ख़र्च महज़ 10 से 20 पैसे का आता है,” सेंट्रल ग्लास एंड सेरामिक रिसर्च इंस्टीट्यूट के प्रो. स्वच्छ मजूमदार ने बताया।
जानकारों का कहना है कि प्लांट के ज़रिए तात्कालिक उपाय किए जा सकते हैं, लेकिन बेहतर होगा कि हम लोग परंपरागत जल स्रोतों की तरफ़ वापस लौटें।
“कुएं और तालाब जैसे सतही जल स्रोतों का दोबारा इस्तेमाल शुरू करना होगा। साथ ही हमें वर्षा जल संचयन करने की ज़रूरत है। अगर हम भूगर्भ जल (ग्राउंड वाटर) का प्रयोग कर रहे हैं, तो हमें उन स्रोतों का ही इस्तेमाल करना चाहिए, जिनमें आर्सेनिक का संक्रमण नहीं है,” डॉ अरुण कुमार ने कहा।
(उमेश, पटना में स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101Reporters.com के सदस्य हैं।)
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