लखनऊ: सुल्तानपुर के रहने वाले महेश (32) अपने परिवार के साथ लखनऊ मे रहते हैं और दिहाड़ी के मज़दूर हैं। इनकी एक दिन की दिहाड़ी 300 रुपये है। इनके परिवार में इनकी पत्नी और एक बेटा है। यह रोज़ काम करके एक दिन में 300 रुपए कमा लेते थे जिससे इनका गुज़ारा हो जाता था। महेश ने बताया कि वह पिछले एक महीने से कोरोनावायरस महामारी के चलते घर पर बैठे हैं। जो रुपए अपने भविष्य के लिए इन्होंने इकट्ठा करके रखे थे आजकल उसी से घर का राशन और सब्ज़ी लाते हैं और घर का किराया देते हैं।

"घर से निकलने में डर लगता है, काम मिलता भी है तो डर की वजह से नहीं जाता हूं, अगर इस महामारी की चपेट में आ गया तो इलाज के लिए इतना रुपया कहां से आएगा और बीवी-बच्चों का ध्यान कौन रखेगा?” महेश ने कहा।

यह रिपोर्ट लिखे जाने के वक़्त केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने ग़रीबों के लिए कई ऐलान किए जिसमें 80 करोड़ लोगों को तीन महीने के लिए हर महीने प्रति व्यक्ति 5 किलो चावल या गेंहू, प्रति परिवार एक किलो दाल मुफ़्त देने की बात कही गई है। यह उनको मिलने वाले मासिक राशन से अलग होगा। जिन महिलाओं के जनधन अकाउंट हैं, उन्हें तीन महीने तक 500 रुपए महीना दिए जाएंगे। इसके अलावा उज्जवला योजना के तहत तीन महीने तक, हर महीने गैस का एक सिलैंडर मुफ़्त दिया जाएगा।

केंद्र और राज्य सरकारों ने कई क़दम उठाए हैं लेकिन उन मज़दूरों के लिए भी सोचा जाना चाहिए जिनके पास ना बीपीएल राशन कार्ड है और ना ही उनका नाम किसी सरकारी रजिस्टर में दर्ज है।

इससे पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी कोरोनावायरस और लॉकडाउन की वजह से बेरोज़गार हो चुके दिहाड़ी मज़दूरों और निर्माण कार्यों में लगे मज़दूरों के अकाउंट में हर महीने एक-एक हज़ार रुपए जमा करने का ऐलान कर चुके हैं। मुख्यमंत्री के अनुसार, उत्तर प्रदेश में कुल 15 लाख दिहाड़ी मज़दूर पंजीकृत हैं। इनमें रिक्शा चलाने वाले, फेरी, रेहड़ी और खोमचे लगाने वाले शामिल हैं। सरकार के मुताबिक़ राज्य में निर्माण कार्यों में लगे पंजीकृत मज़दूरों की संख्या 20.37 लाख है। मज़दूर संगठनों से जुड़े लोगों का मानना है कि उत्तर प्रदेश में दिहाड़ी और निर्माण कार्यों में लगे मज़दूरों की संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं ज़्यादा है। अधिकतर मज़दूर पंजीकृत नहीं हैं। शिक्षा और जागरुकता की कमी की वजह से इन्हें ना तो सरकारी योजनाओं की जानकारी होती है और ना पंजीकरण की प्रक्रिया का पता होता है।

“अकेले लखनऊ में ही हर रोज़ लगभग 400,000 दिहाड़ी मज़दूर काम मांगने के लिए आते हैं,” सामाजिक कार्यकर्ता अभिषेक अवस्थी ने बताया।

कोरोनावायरस और 21 दिन के लॉकडाउन की वजह से ना यह ना केवल बेरोज़गार हो गए हैं बल्कि इनमें से ज़्यादातर दिहाड़ी मज़दूर सरकार की घोषणाओं का लाभ भी नहीं ले पाएंगे। लगभग 80% दिहाड़ी मज़दूरों के बैंक अकाउंट ही नहीं हैं। जिनके अकाउंट जनधन योजना में बनाए गए थे वह अभी डॉर्मेंट हैं, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हमें बताया। सबसे ख़राब हालत उन प्रवासी मज़दूरों की है जो दूसरे ज़िलों या प्रदेशों में जाकर काम करते हैं। इनके पास ना तो बैंक अकाउंट हैं और ना ही राशन कार्ड। यातायात का कोई साधन ना होने की वजह से गांव लौट नहीं सकते, शहर में किराया देने और खाने के लिए पैसे नहीं हैं।

दिहाड़ी मज़दूर

दिहाड़ी मज़दूर वह होते हैं जो हर रोज़ मज़दूरी करके कमाते हैं और अपने परिवार का पेट पालते हैं। कभी काम मिलता है, कभी नहीं। इन मज़दूरों की भी दो श्रेणी होती हैं -- कुशल और अकुशल। कुशल वह श्रेणी है जिनमें किसी काम को करने का हुनर हो। बढ़ई, राज मिस्त्री, पेंटर, प्लम्बर आदि इसी श्रेणी में आते हैं। अकुशल वह श्रेणी है जिसमें माल की ढुलाई करने वाले, रिक्शा चलाने वाले, बोझा ढोने वाले, आदि शामिल हैं।

कोरोनावायरस के डर की वजह से काम रुक गया है और इससे दिहाड़ी मज़दूर प्रभावित हो रहे हैं। दिहाड़ी मज़दूरों को जो थोड़ा-बहुत काम मिल भी रहा था, देश भर में लॉकडाउन की घोषणा होने के बाद वह भी बंद हो गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च रात 8 बजे राष्ट्र के नाम अपने संदेश में देश भर में 21 दिन के लिए लॉकडाउन का ऐलान किया। “मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप इस समय देश में जहां भी हैं, वहीं रहें।अभी के हालात को देखते हुए, देश में यह लॉकडाउन 21 दिन का होगा”, प्रधानमंत्री ने अपने ट्वीट में लोगों से अपील की।

केंद्रीय गृह मंत्रालय के दिशा-निर्देशों के अनुसार, लॉक़डाउन के दौरान सिर्फ़ ज़रूरी सेवाओं में काम कर रहे लोगों को ही काम के लिए बाहर जाने की इजाज़त है।

अकुशल मज़ूदर

सबसे ज़्यादा बुरे हालात अकुशल मज़दूरों के हैं। इनकी मज़दूरी कुशल मज़दूरों की तुलना में काफ़ी कम है। दिन भर की मज़दूरी के बाद जो कमाई होती है उसी से बमुश्किल इनका घर चल पाता है।

लखनऊ से लगभग 90 किलोमीटर दूर सीतापुर निवासी सुनील, पिछले एक महीने से कोरोनावायरस के कारण काम पर नहीं जा रहे हैं। यह लखनऊ में सीतापुर से काम करने आते हैं और काम करके 20-25 दिन बाद वापस घर चले जाते हैं। इनके एक बेटा और एक बेटी है। सुनील 16 फरवरी को लखनऊ में मज़दूरी करने के लिए आए थे लेकिन तब से यह सिर्फ़ 3 दिन ही काम पर गए हैं। गांव में इनके परिवार का ख़र्च इनके कमाए हुए पैसों पर ही निर्भर है। इनके परिवार की आर्थिक स्थिति काफ़ी खराब है। सुनील को सरकार की कोरोनावायरस समिति के बारे में कोई जनकारी नहीं है। सुनील के पास मास्क ख़रीदने के पैसे भी नही हैं।

स्थिति की गंभीरता को देखते हुए हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने दिहाड़ी और निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों के लिए एक राहत पैकेज का ऐलान किया जिससे इन्हें मदद मिल सके। सरकार के फ़ैसले के मुताबिक़ 'लेबर सेस फ़ंड' से सभी 20.37 लाख श्रमिकों को हर महीने 1,000 रुपए डायरेक्ट बेनेफ़िट ट्रांसफ़र (डीबीटी) के माध्यम से सीधे उनके एकाउंट में भेजे जाएंगे। जिन श्रमिकों के खाते नहीं हैं, उनके खाते जल्द से जल्द खुलवाए जाएंगे। इसके अलावा 15 लाख दिहाड़ी मज़दूरों को भी एक-एक हज़ार रूपए हर महीने दिए जाएंगे।

"सरकार ने मुआवज़ा देने के लिए जो क़दम उठाया है वह काफ़ी सकारात्मक है लेकिन इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि यह राशि दिहाड़ी मज़दूरों को समय रहते ही मिल जाए क्योंकि यह वर्ग समाज के हाशिए पर रहता है। इस महामारी की वजह से यह वर्ग काफ़ी प्रभावित हुआ है। ग़रीब तबक़ा इससे ज़्यादा नहीं डरा है बल्कि जो काम देने वाले लोग हैं वह ज़्यादा डरे हैं और इसीलिए दिहाड़ी मज़दूरों को काम नहीं मिल रहा है", समाजसेवी शरद पटेल ने हमें टेलीफ़ोन पर बताया।

बैंक अकाउंट में पैसे देने का प्रावधान उतना कारगर नहीं हो सकता है क्योंकि लगभग 80% मज़दूरों के बैंक अकाउंट ही नहीं हैं। जिनके अकाउंट जनधन योजना में बनाए गए थे वह अभी डॉर्मेंट हैं। सरकार को मज़दूरों के ठिकानों की पहचान करनी चाहिए और वहां पर मज़दूरों को चेक दिए जाने चाहिए। साथ ही बैंकों को भी निर्देश हो कि वह ऐसे चेक तुरंत कैश करें।"

प्रवासी मज़दूरों का बुरा हाल

सबसे ख़राब हालत उन प्रवासी मज़दूरों की है जो दूसरे ज़िलों या प्रदेशों में जाकर काम करते हैं। 30 वर्षीय अली ऐसे ही लोगों में से एक हैं। वह ओडिशा के रहने वाले हैं और मज़दूरी की तलाश में लखनऊ चले आए। पहले कोरोनावायरस के चलते मज़दूरी करने नहीं जा पा रहे थे और अब लॉकडाउन की वजह से काम मिलने के आसार ही नहीं बचे। अली के परिवार में 5 लोग हैं, वह पिछले 7 महीने से लखनऊ की एक बिल्डिंग में मज़दूरी कर रहे हैं। “पिछले एक महीने से काम नहीं मिला है, हम परदेस में पैसा कमाने आए थे,” अली ने बताया। अली को दिन भर की मज़दूरी के 300 रुपए मिलते हैं जिससे यह अपना और अपने परिवार का गुज़ारा करते हैं। गांव में पत्नी से फ़ोन पर बातचीत होती है तो वह इनको बताती है कि किसी दिन घर में चूल्हा जलता है किसी दिन भूखे ही सो जाते हैं। अली के पास बी.पी.एल कार्ड भी नहीं है जिससे उन्हें सस्ता राशन मिल सके।

“अगर हालत कुछ दिन और ऐसे ही रहे तो मेरी बीवी और बच्चे भूखे मर जायेंगे, कोरोना के चलते बाहर निकलने से डर लगता है। अगर कहीं मुझे कोरोना हो गया तो परदेस में कौन इलाज करवाएगा और कौन मेरे बीवी बच्चों की ज़िम्मेदारी संभालेगा,” अली ने कहा।

अली जैसे प्रवासी मज़ूदरों की एक समस्या और है। कमाई नहीं है तो किराया देने और खाने के पैसे नहीं हैं, राशन कार्ड और बैंक अकाउंट ना होने या फिर सरकारी विभागों में पंजीकृत ना होने की वजह से सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित हैं। वापस गांव जाना चाहें तो भी नहीं जा सकते। लॉकडाउन की वजह से यातायात के सभी साधन बंद हैं। कई प्रवासी मज़दूर तो पैदल ही अपने गांव के लिए निकल पड़े हैं। इनमें से कुछ को तो सौ किलोमीटर से भी ज़्यादा की यात्रा पैदल ही करनी पड़ रही है।

"वैसे तो राज्य सरकार की यह योजना बहुत ही बेहतरीन है मगर जितने भी लेबर अड्डे हैं उनमें मौजूद सारे लेबर पंजीकृत नहीं हैं। सरकार को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि ऐसे लोगों को कैसे मदद दी जाए," विज्ञान फ़ाउंडेशन के संदीप खरे ने कहा।

"बैंकों में भी लाइन लगेगी इस कारण वहां संक्रमण फैल सकता है। सरकार को कोशिश करनी चाहिए कि ज़रूरत की चीजें वह लेबर अड्डों पर या फिर राशन की दुकानों पर उपलब्ध कराए, जिससे एक जगह पर भीड़ इकट्ठी ना हो। सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी को किसी भी प्रकार का (राशन) कार्ड (एपीएल या बीपीएल) दिखाने की फ़िलहाल ज़रूरत ना पड़े," संदीप खरे ने आगे कहा।

भारत में काम करने वाले लगभग 92% लोग असंगठित क्षेत्रों से जुड़े हैं, अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार। यह सभी क्षेत्र फ़िलहाल कोरोनावायरस की मार से बेहाल हैं। लखनऊ में हर रोज़ काम मांगने आते वाले लगभग 4,00,000 मज़दूरों में से केवल 40% को ही काम मिल पाता है। इन मज़दूरों में कई तो ग्रेजुएट तक हैं, सामाजिक कार्यकर्ता अभिषेक अवस्थी ने बताया।

बाराबंकी निवासी राजेश (35) काम को लेकर काफ़ी चिंतित हैं। उनके परिवार मे 5 लोग हैं, 3 बच्चे हैं जो गांव के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ते हैं। राजेश अपने गांव से 30 किलोमीटर दूर लखनऊ में मज़दूरी करने आते हैं। दो महीने तक काम करते हैं और फिर कमाए हुए पैसे लेकर घर लौट जाते हैं। उसी से घर का राशन आता है दूसरे ख़र्च पूरे होते हैं। लेकिन इन दिनों उनको काम नहीं मिल रहा है। लॉकडाउन के चलते हर जगह काम बन्द करवा दिया गया है। काम न मिल पाने के कारण राजेश की आर्थिक स्थिति काफ़ी खराब हो गई है।

ग़ौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 24 मार्च को 5,97,000 निर्माण श्रमिकों के बैंक खातों में 1000 रूपए की धनराशि आरटीजीएस के माध्यम से हस्तांतरित की। इसी मौके पर एक लाभार्थी को प्रतीकात्मक चेक भी प्रदान किया। अधिकारियों को यह भी निर्देशित किया गया है कि रोज़ कमा कर परिवार पालने वालों को एक महीने का अनाज उपलब्ध कराया जाए। इसके तहत 20 किलो गेहूं और 15 किलो चावल दिया जाना है। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि जो लोग किसी भी योजना के पात्र नहीं हैं ऐसे लोगों की पहचान कर ज़िलाधिकारी की संस्तुति पर उनके भरण-पोषण की व्यवस्था की जाएगी।

(आदित्य और सौरभ, लखनऊ में स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101Reporters.com के सदस्य हैं।)

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