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“यदि बहुमत शासन करने का पैमाना है तो फिर हमारा राष्ट्रीय पक्षी कौवा होना चाहिए मोर नहीं।” यह बात तमिल नेता सी.एन अन्नादुरै ने देश में आपातकालिन यानि इमरजेंसी लगने से तेरह साल पूर्व, 1962 में दिए अपने भाषण में कही थी। अन्नादुरै हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने के विरोध में भाषण दे रहे थे। बाद में इसी हिंदी विरोधी आंदोलन के ज़रिए अन्नादुरै पहली बार, 1967 में कांग्रेस को हरा कर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री भी बने।

1967 से अब तक तमिलनाडु में फिर कभी कांग्रेस पार्टी नहीं जीत पाई। यह विडंबना ही है कि इस घटना के एक दशक बाद, इमरजेंसी सामाप्त होने के उपरांत, 1977 के चुनाव में ‘हिंदी वोटरों ’के कारण ही कांग्रेस पार्टी की हार हुई।

तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में आपातकाल लगाए जाने के नाटकीय घटनाक्रम को सावधानी से लिपिबद्ध किया था। हर किसी के लिए यह चौंकाने वाली खबर थी जब 1977 में इंदिरा गांधी ने अचानक आपातकालिन बंद कर राष्ट्रीय चुनावों की घोषणा की।

1977 में 12 राज्यों में चुनाव हुए जिसमें 90 फीसदी मतदाताओं ने वोट डाला। मोटे तौर पर ‘हिंदी’ और ‘अहिंदी’ राज्यों में हुए चुनावों को देखा जाए तो छह ‘हिंदी’ राज्यों में 65 फीसदी वोट डाले गए जबकि अन्य छह ‘अहिंदी’ राज्यों में 35 फीसदी वोट डाले गए थे।उत्तर प्रदेश, बिहार , मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान ‘हिंदी’ राज्यों में शामिल किए जाते हैं जबकि आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु , कर्नाटक, केरल , पश्चिम बंगाल और उड़ीसा ‘अहिंदी’ राज्यों के भीतर आते हैं।

इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव के दौरान इन बारह राज्यों की 120 मिलियन जनता को आपातकालिन एवं कांग्रेस के खिलाफ अपने गुस्से का इज़हार करने का मौका मिला। 74 मिलियन, लगभग 63 फीसदी जनता मतदान के ज़रिए फैसला किया।लेकिन 90 फीसदी नाराज़ मतदाता इन छह ‘हिंदी’ राज्यों तक ही सीमित थे। इसके अलावा, 1971 और 1977 के चुनाव के दौरान 376 निर्वाचन क्षेत्रों में इंदिरा गांधी केनेतृत्व में उम्मीदवार खड़े किए गए थे।

Source: Election Commission

Hindi States: UP, Maharashtra, Bihar, Madhya Pradesh, Gujarat, Rajasthan

Non-Hindi states: Andhra Pradesh, West Bengal, Tamil Nadu, Karnataka, Orissa, Kerala

1971 के चुनाव के दौरान 52 फीसदी मतदाता के कांग्रेस उम्मीदवार को चुना था जबकि 1977 के चुनाव में मतदाताओ के आकंड़े गिरकर 38 फीसदी हो गए। आपातकाल के बाद 1971 और 1977 के चुनाव के बीच 4.3 मिलियन मतदाताओं का नुकसान दर्ज किया गया। हालांकि छह ‘हिंदी’ राज्यों में कांग्रेस विरोधी मतदाताओं की संख्या में 6.3 मिलियन की वृद्धि देखी गई जबकि ‘अहिंदी’ राज्यों में कांग्रेस के लिए 2 मिलियन मतदाताओं की वृद्धि दर्ज की गई।

कुल मिला कर ‘अहिंदी’ राज्यों में 1977 के चुनाव में उतने ही प्रतिशत लोगों ने कांग्रेस के लिए वोट किया जितने 1971 में किया था। उत्तर प्रदेश के 73 फीसदी नाराज़ मतदाताओं ने कांग्रेस के प्रति अपने गुस्से का इज़हार उन्हें वोट न दे कर किया जबकि तमिलनाडु के मतदाताओं में कोई खास फर्क देखने को नहीं मिला। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान जैसे ‘हिंदी’ राज्यों में 90 फीसदी नाराज़ मतदाता देखे गए।

1971-77 Election Viz[2]

Source: Election Commission; Graphic designed and visualised by pykih.com

1977 के चुनाव में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। 1971 के मुकाबले 1977 के चुनाव में कांग्रेस बारह राज्यों में 167 सीटें हार गई। इनमें से 168 सीट,‘हिंदी’ राज्यों में कांग्रेस की हाथों से निकल गए थे जबकि ‘अहिंदी’ राज्यों में एक सीट की वृद्धि मिली थी। गौरतलब है कि छह ‘अहिंदी’ राज्यों की 40 मिलियन मतदाताओं ने आपातकाल के लिए इंदिरा गांधी को ज़िम्मेदार नहीं माना।

इस बात पर बहस क जा सकती है कि गुजरात और महाराष्ट्र को ‘हिंदी’ राज्य के अंतर्गत परिभाषित किया जाए की नहींलेकिन इस विश्लेषण का मुख्य बिंदु मतदाताओं की प्रतिक्रिया में आए नए मोड़ को देखना है। भारतीय समाज के पर्यवेक्षक और भारतीय इतिहास के लिए यह कोई रहस्य की बात नही है। हालांकि इस बात की चर्चा होनी अब भी बाकि है कि ‘अहिंदी’ राज्यों में अपातकाल स्थिति से मतदाताओं की प्रतिक्रिया में अंतर क्यों नहीं आया।

क्या यह कथित " बीस सूत्रिय" कार्यक्रम का सकारात्मक प्रभाव था? क्या आपातकाल के खिलाफ समर्थन कलई करने के लिए‘अहिंदी’ राज्यों में मजबूत विपक्ष की अनुपस्थिति कारण बना? क्या लोगों के साथ उनके गुस्से को बाहर निकलने के लिए एक विश्वसनीय विकल्प की कमी थी ?क्या यह धारणा कारण बनी कि नागरिक अधिकारों के निलंबनकी तुलना में स्थानीय शासन लोगों के लिए ज़्यादा महत्व रखती हैं ?

अन्नादुरई ने हिंदी न थोपे जाने की मांग तो मनवा ली थी, लेकिन क्या अनजाने में हीं इससे हिंदी भाषी राज्य और अहिंदी भाषी राज्यों के वोटिंग ढ़र्रे की दरार और कड़वी और बड़ी बन गई है, जैसा हाल ही में 2014 के चुनाव में भी नज़र आया था ?

( चक्रवर्ती आईडीएफसी संस्थान में राजनीतिक अर्थव्यवस्था विषय के विजिटिंग फेलो है। साथ ही इंडियास्पेंड के ट्रस्टी संस्थापक भी हैं। लेख में अतिरिक्त मदद रितिका कुमार एवं स्वप्निल भंडारी ने की है )

Image Credit: Indian National Congress


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