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जून महीने से अब तक कर्नाटक में 25 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि ग्रामीण भारत की स्थिति संकटमय है। ग्रामीण भारत पर आई विपत्ती के दो मुख्य कारण है। दीर्घकालीन कारण विकास दर में लगभग शून्य ( 0.2 फीसदी ) की वृद्धि होना है। जबकि बेमौसम बरसात से उनकी फसल तबाह हो जाना किसानों की संकटमय स्थिति का तत्कालीन कारण माना जा रहा है।

फसल नष्ट = किसान आत्महत्या

आज की तारीख में यह जाना पहचाना समीकरण है। लेकिन हाल ही में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जारी ताजा आंकड़े कुछ और ही कहते हैं। रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण इलाकों की स्थिति संकटमय तो है लेकिन पिछले छह सालों से साल 2014 तक किसानों की आत्महत्या दर में 67 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा प्रस्तुत आकंड़ो से यह जाना पहचाना समीकरण उलझ गया है। साथ पांच सवाल भी उठ खड़े हुए जिसका जवाब जानने के लिए कुछ स्पष्टीकरण आवश्यक हैं।

  1. क्या राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े गलत हो सकते हैं?

जब बात किसानों की आत्महत्या की हो तो राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आकंड़ो पर कोई विश्वास नहीं करता। यहां तक कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो स्वंय भी नहीं।

रिपोर्ट के अनुसार किसानों की आत्महत्या की संख्या में 67 फीसदी की गिरावट हुई है। 2009 में यह आंकड़े 17,368 थे वहीं 2014 में यह आंकड़े 5,650 दर्ज किए गए हैं। साल 2014 में देश में हुए कुल हुए आत्महत्याओं में से किसानों की आत्महत्या के आकंड़े 4.3 फीसदी दर्ज किए गए हैं जबकि साल 2013 में यह आंकड़े 9 फीसदी थे। आंकड़ों में इतना अंतर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के डेटा संग्रह की प्रक्रिया में बदलाव करने से आए हैं। इस बार संस्था ने खेत संबधित आत्महत्याओं को दो श्रेणी में बांटा है – किसान एवं खेतिहर ( कृषि मजदूर )।

साल 2014 में 6,710 खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या किया है ( भारत में हुए कुल आत्महत्याओं का 5.4 फीसदी )।

बिज़नेस स्टैंडर्ड में छपे एक रिपोर्ट के मुताबिक, विदर्भ जन आंदोलन समिति ( वीजेएएस ) के अध्यक्ष, किशोर तिवारी ने कहा है कि “राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जारी किए गए आंकड़े मात्र एक धोखा है। कम आत्महत्याओं के आंकड़े केवल इसलिए जारी किए गए हैं क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में संकट की स्थिति में वृद्धि हो रही है”।

तिवारी ने आगे बताया कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो रिपोर्ट में कृषि श्रमिकों के रूप में सभी भूमिहीन आदिवासी किसानों और पट्टे पर उठाए किसानों को सूचीबद्ध किया गया है। साथ ही ग्रामीण आत्महत्या मामलों को ‘अन्य’ श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है। ऐसी स्थिति में रिपोर्ट की विश्वसनियता पर एक प्रश्न चिन्ह ज़रुर लगता है।

किसान आत्महत्या, 2004-14

श्रीजित मिश्रा, विकास अनुसंधान के इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ( आईजीआईडीआर ), मुंबई में एक प्रोफेसर के अनुसार राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जारी किए गए आकंड़े ठीक से प्रस्तुत नहीं किए गए है। विक्रम पटेल, आत्महत्या और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के मनोचिकित्सक, की इस मुद्दे पर टिप्पणी और भी सटीक है।

पटेल ने कहा “राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़े विश्वास करने योग्य नहीं हैं। यह रिपोर्ट एकतरफा लगती है। आत्महत्या की रिपोर्टिंग के लिए उचित जांच की आवश्यकता होती है। रिपोर्ट की आंकड़े क्रमवार की प्रक्रिया अत्यधिक दोषपूर्ण है”।

श्रीजित मिश्रा ने किसानों के आत्महत्या मुद्दे पर काफी काम किया है। मिश्रा का मानना है कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो डेटा के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं। पहली यह किराष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़े वास्तविकता से कम आंके गए हैं। दूसरा, नव निर्मित वर्ग स्वरोजगार (कृषि मजदूर ) बनाने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह श्रेणी पहले भी रिपोर्टिंग में शामिल थी लेकिन खेतिहर मजदूर स्वरोजगार वर्ग में नहीं आते। इसका मतलब हुआ कि यह श्रेणी 2014 के वर्गीकरण के तहत स्वरोजगारमें नहीं होना चाहिए। इससे ‘वे’ कौन हैं, इस पर भी सवाल उठता है।

इंडियास्पेंड ने जब राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के प्रवक्ता से बात की तो उन्होंने भी माना कि आत्महत्या संबधी आंकड़े संदिग्ध हो सकते हैं।

अखिलेश कुमार, राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुख्य सांख्यिकीय अधिकारी ने बताया कि “आत्महत्या संबंधी आंकड़े एकत्रित करने में हमारी कुछ सीमाएं हैं। ऐसे आंकड़ों के लिए हम पूरी तरह राज्य के पुलिस स्टेश्नों में दर्ज रिपोर्ट पर निर्भर हैं। ऐसे में हम ज़्यादा कुछ कर नहीं सकते हैं। 2014 के आंकड़ो के लिए हमने अपने प्रोफार्मा को संशोधित करने की कोशिश की है और आत्महत्याओं पर विस्तृत विश्लेषण भी शामिल किया है”।

मई में हमारे संवाददाता साक्ष्य रहें हैं कि किस प्रकार आत्महत्या – कारण- मुआवजा की रिपोर्टिंग चक्र की जटिलता आकंड़ों को उपर-नीचे कर सकती है।

उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके के बंदा ज़िले से हमने आपको बताया था कि कैसे एक किसान ने दो साल से फसल नष्ट हो जाने के एवज में मुआवज़ा न मिलने के कारण आत्महत्या करने की कोशिश की थी। ज़िला अधिकारियों द्वारा न उसे केवल बचाया गया ब्लकि तीन दिन के भीतर मुआवज़े की राशि भी देने का वादा किया गया। किसान को फसल नष्ट के मुआवज़े का चेक दो दिनों के अंदर ही दे दिया गया था।

ज़िला मजिस्ट्रेट, जिन्होने मुआवजा चेक बनाया, के मुताबिक इस मामले में सबसे बड़ी समस्या थी कि वह शख्स जिसने आत्महत्या की कोशिश की थी वह किसान नहीं लगता था। जब उस शख्स ने आत्महत्या की कोशिश की थी उस वक्त उसने बहुत शराब पी रखी थी। लेकिन इस तरह की घटनाओं से होते प्रचार और राजनीतिक संवेदनशीलता को देखते हुए प्रशासन ने जल्दबाजी में पैसे उसके हवाले कर दिया । सरकारी आंकड़ों में इस मामले पर मुआवजे का भुगतान के साथ साथ आत्महत्या का प्रयास भी दर्ज किया गया है।

  1. क्या वास्तव में कृषि संकट के परिणाम में होने वाले आत्महत्या दर में गिरावट हो रही है?

ऐसा होने की संभावना नहीं है। आम तौर पर कई राज्य इस तरह की घटनाएं न होने का दावा करती हैं। ज़ाहिर है कि किसान आत्महत्या के मामले कम ही रिपोर्ट किए जाते हैं और शायद इसे ही कहा जाता है शून्य रिपोर्टिंग संक्रमण।

अंग्रेज़ी अखबार, द टाइम्स ऑफ इंडिया में छपे इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी ) की रिपोर्ट, राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जारी किए गए आंकड़ों का खंडन करती है। 2014 के इंटेलिजेंस ब्यूरो रिपोर्ट के मुताबिक “गुजरात, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में कुछ उदाहरणों के अलावा, हाल ही में महाराष्ट्र, तेलंगाना , कर्नाटक और पंजाब में किसानों की आत्महत्या के मामलों में वृद्धि देखी गई है”।

किसान आत्महत्या का अधिकतर मामाले कम रिपोर्ट होने के तीन मुख्य कारण हैं :

मैइत्रिश घटक, लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में प्रोफेसर, के अनुसार पहला कराण है कि किसान के नाम पर ही भूमि का होना किसान आत्महत्या में वर्गीकृत किया गया है। ऐसे में वे किसान इस श्रेणी में आते ही नहीं जिनकी ज़मीन उनके पिता के नाम पर है।

दूसरा कारण यह कि महिला किसान को ‘किसान की पत्नी’ के रुप में देखा गया है ( जिनके नाम पर ज़मीन शायद ही हो सकती है ) पी साईनाथ, मैगसेसे पुरुस्कार विजेता एवं भारत में कृषि आत्महत्या रिपोर्टिंग की शुरुआत की, के मुताबिक“इस तरह के वर्गीकरण की प्रक्रिया सरकार को अनगिनत महिला किसानों को शामिल न करने का मौका देती है”। जैसा की इंडियास्पेंड एवं खबर लहेरिया ने आपको पहले ही बताया है कि भारत में 36 मिलियन महिला किसान है एवं इन किसानों की स्थिति खस्ता है।

राज्यों का किसानों के आत्महत्या न करने का दावा करना तीसरा मुख्या कारण है।

राज्यों में सर्वाधिक किसान आत्महत्या के मामले, 2014

राज्यों में सबसे कम किसान आत्महत्या के मामले, 2009- 2014

साल 2011 में छत्तीसगढ़ में एक भी किसान आत्महत्या का मामला दर्ज नहीं किया गया है। 2012 में चार मामले दर्ज किए गए लेकिन 2013 में फिर एक भी मामले रिपोर्ट नहीं किया गया है। 2011 से पहले तीन सालों में छत्तीसगढ़ में 4,701 मामले दर्ज किए गए थे। पश्चिम बंगाल में भी साल 2012 , 2013, 2014 में एक भी किसान आत्महत्या के मामले दर्ज नहीं किए गए हैं। हालांकि साल 2012 से पहले तीन सालों में 2,854 किसान आत्महत्या के मामले दर्ज किए गए थे।

साल 2014 में 443 किसान आत्महत्या की संख्या के साथ छत्तीसगढ़ सर्वाधिक किसान आत्महत्या वाले टॉप चार राज्यों में रहा।

हालांकि, छत्तीसगढ़ के कृषि मंत्री बृजमोहन अग्रवालने राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों को "एक गलत विश्लेषण के आधार पर भटकानेवाला” बताया है।

अग्रवाल ने कहा कि अंग्रेज़ी अखबार हिंदु में छपे एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि“यह आंकड़े गलत हैं। छत्तीसगढ़ में इस प्रकार की कोई घटना नहीं हुई है”।

पिछले हफ्ते के जारी रिपोर्ट से लगता है कि शून्य रिपोर्टिंग संक्रमण हर जगह फैल चुका है।

उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार , राजस्थान, झारखंड और गोवा ; अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को छोड़कर सभी संघ राज्य क्षेत्रों ; और पूर्वोत्तर राज्यों में असम को छोड़कर , 2014 में किसानों की आत्महत्या की संख्या शून्य बताई गई है।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 2012 में किसान आत्महत्या के मामले को राजनीतिक रंग देते हुए कहा कि “किसान आत्महत्या रिपोर्ट दूर्भावनापूर्ण राजनीतिक कैंपेन है”। गौतलब है कि साल 2012 में पश्चिम बंगाल में एक भी किसान आत्महत्या का मामला दर्ज नहीं किया गया था।

साल 2014 में उत्तर प्रदेश में 63 किसान आत्महत्या के मामले रिपोर्ट किए गए थे। लेकिन इंडियास्पेंड ने पहले ही बताया है कि किसान आत्महत्या मामले के आधिकारिक आकंड़े स्पष्ट नहीं है।

  1. किसान आत्महत्या के असली कारण क्या हैं?

यदि आईबी की रिपोर्ट को देखा जाए तो पता चलता है कि किसान आत्महत्या की प्रवृति में वृद्धि हुई है औऱ कुछ विशेषज्ञ किसानों की ऋणग्रस्ता को इसका कारण मानते हैं। लेकिन किसान खुद की जान क्यों लेते हैं ?

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसारसाल 2014 में दिवालियापन या ऋणग्रस्तता ( 20.6 फीसदी ), पारिवारिक समस्याएं (20.1 फीसदी ) और फसलों का नष्ट होना ( 16.8 फीसदी ), किसानों की आत्महत्या का मुख्य कारण रही हैं।

आत्महत्या मामले में टॉप राज्य, 2014

हालांकि आत्महत्या के लिए एक ही कारण को महत्व देना शायद ठीक नहीं होगा।पटेल के अनुसार, “आत्महत्या एक जटिल प्रक्रिया है। यह बहुत से कारकों के मिलने से उत्पन्न होता है इसलिए किसी एक कारण को इसका ज़िम्मेदार ठहराना ठीक नहीं होगा”।

ऋणग्रस्ता एक मुद्दा हो सकती है लेकिनजैसा कि मिडिया रिपोर्ट एवं राजनीतिक प्रतिक्रिया हमें विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि फसलों के नष्ट हो जाने से किसान आत्महत्या करते है यह एकमात्र कारण नहीं हो सकता। स्वास्थ्य और शिक्षा में होने वाला खर्च एवं निजी व्यय (ज्यादातर शादी में होने वाला खर्च ) एक किसान की ऋणग्रस्तता के लिए काफी ज़िम्मेदार होता है।

न्यूनतम आत्महत्या की संख्या वाले राज्य, 2014

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय ( एनएसएसओ) द्वारा इस महीने के शुरुआत में जारी किए गए अखिल भारतीय ऋण और निवेश सर्वेक्षण 2013 से आंकड़ों के अनुसार स्वास्थ्य कारणों के लिए बकाया ऋण दस सालों में दोगुना हो गया है। साल 2002 में यह आंकड़े 3 फीसदी थे जबकि साल 2012 में यह आंकड़े 6 फीसदी दर्ज किए गए हैं। आंकड़ों अनुसार पिछले दस सालों में खेती व्यवसाय के लिए ऋण में गिरावट देखी गई है। साल 2002 में यह आंकड़े 58 फीसदी थे जबकि साल 2012 में यह गिरकर आधे यनि कि 29 फीसदी देखे गए हैं।

बचत एवं बेहतर सरकारी स्वास्थ्य सेवा के अभावमें स्वास्थ्य संबंधी ऋण लेना किसानों के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। ज्यादातर किसानों को प्राइवेट अस्पतालों के बिल चुकाने के लिए ऋण लेना पड़ता है। ग्रामीण भारत की आधे से अधिक जनता बीमारी के इलाज के लिए प्रइवेट अस्पताल जाना पसंद करती है। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के मुकाबले प्राइवेट अस्पतालों का खर्च चार गुना अधिक होता है। एनएसएसओ के ताजा आंकड़ों के अनुसार प्रइवेट अस्पतालों का खर्च गरीबों पर 20 फीसदी एवं उनके महीने में होने वाले खर्चे से 15 गुना अधिक होता है।

भारत स्वास्थ्य सेवा पर ​​अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.3% खर्च करता है। देश में विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य संकट गहराती जा रही है। इंडियास्पेंड ने पहले ही बताया है कि स्वास्थ्य बजट में कटौती के कारण संकट और गहरा सकता है।

साइनाथ, सीनियर पत्रकार के अनुसार, “जितने भी परिवार का मैंने दौरा किया, जहां किसानों ने आत्महत्या कर अपनी जान दी, अधिकतर परिवारों में लिया गया कर्ज स्वास्थय संबंधी था”।

आईबी की रिपोर्ट सभी स्वास्थ्य सेवा को नहीं मानती है । रिपोर्ट के अनुसार “अनियमित मॉनसून ( प्रारंभिक स्तर पर ), बकाया ऋण, बढ़ता कर्ज, फसल की कम उपज, फसलों की कम खरीद दर, और लगातार फसलों का नष्ट होना किसानों के आत्महत्या करने के मुख्य कारण हैं”।

  1. क्या ऋण माफी, नष्ट हुए फसलों के बदले मुआवज़े से किसानों की मदद होती है?

ऋण माफी का उन किसानों के लिए कोई मतलब नहीं है जो निजी साहूकारों से उधार लेते हैं। यह बात आईबी की रिपोर्ट के साथ उन सभी शोधकर्ताओं ने माना जिनसे इंडियास्पेंड ने बात की है।

खेती का रोज़गार के रुप में गिरावट होना सबसे बड़ा मुद्दा है। आईजीआडीआर के मिश्रा का कहना है कि “विकास प्रवचन एवं सरकारी नीति, जिससे आय या उपज कम हो गई है, चर्चा से अलग हो गए हैं। उनके पास जीने के लिए रोज़गार एवं गुणवत्ता केंद्रित जीवन होना चाहिए”।

मिश्रा ने आगे कहा कि “राज्य विशिष्ट मतभेदों के बावजूद, आत्महत्या की कहानी जो देश भर में चल रही है, आजीविका, किसानों के जीवन एवं उनके परिवार की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है”।

नई एनएसएसओ डाटा में इस बात की पुष्टी की गई है। साल 2012-13 में एक कृषि घर की औसत अधिशेष आय 2,436 रुपए सालाना ( 203 रुपए महीना ) दर्ज की गई थी। इसका मतलब बचत के नाम पर कुछ नहीं होता है।

कृषि परिवार की सालाना आय (रु)

शामिका रवि , फेलो , ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया द्वारा हाल ही में एक शोध संक्षिप्त संपन्न हुआ, के अनुसार, कर्ज से छूट की सरकार की नीति प्रतिक्रियावादी है और लंबी अवधि की नीति के लिए विकल्प नहीं हो सकता।

यदि रोज़गार का खतरा बढ़ेगा तो साथ ही आत्महत्या का जोखिम भी बढ़ेगा। लेकिन जितने भी कारण हमने अब तक गिनाए हैं उन सब के अलावा एक और जटिल कारण है : मिडिया द्वारा आत्महत्या की रिपोर्टिंग करना।

  1. क्या मिडिया द्वारा आत्महत्या की रिपोर्टिंग दूसरे किसानों को आत्महत्या करने का बढ़ावा देती है?

मनोरोग इंडियन जर्नल के 2012 के शोध पत्र में कहा गया है कि“गैर ज़िम्मेदार” मिडिया रिपोर्ट ज़्यादा आत्महत्याओं को बढ़ावा देती है। अध्ययन कहता है कि रिपोर्टिंग के दो दिनों तक दूसरे किसानों द्वारा आत्महत्या का अनुकरण करने की अधिक संभावना बनी रहती है। दो हफ्ते के बाद यह खतरा कम हो जाता है। साक्षर लोग, जिनकी मिडिया तक ज़्यादा पहुंच है, उनके लिए खतरा सबसे अधिक देखा गया है।

पटेल, मनोचिकित्सक के अनुसार “हाँ, गैर जिम्मेदार मीडिया रिपोर्टिंग से अधिक आत्महत्या होने का खतरा बढ़ता है, और भारत के मीडिया हाउस के लिए आत्महत्या रिपोर्टिंग के दिशा निर्देश जारी करने की आवश्यकता है”।

भारत के कई क्षेत्र जैसे कि विदर्भ और बुंदेलखंड, किसानों की आत्महत्या की खबरों के कारण चर्चा में आए। रवि, ब्रूकिंकस इंडिया फेलो द्वारा लिखे गए पेपर के अनुसार ऐसे कई प्रमाण है जो यह साबित करते हैं कि किसानों की आत्महत्या की खबर देश में संक्रमण की तरह फैलती है, जिससे कई और किसान आत्महत्या का अनुकरण करते हैं।

इस मुद्दे पर पटेल ने कहा कि, “ऐसे कई प्रमाण मौजूद हैं जिसमें हम देखते हैं कि एक विद्यार्थी सोशल मिडिया से प्राभावित हो कर आत्महत्या करता है लेकिन इस प्रकार का कोई अध्ययन किसानों पर नहीं किया गया है।हालांकि, हम जनसांख्यिकी रुप से में सामान्यकरण कर इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि मिडिया रिपोर्टींग का आत्महत्या को बढ़ावा देने में योगदान होता है ( सिर्फ मिडिया को दोष नहीं दे सकते )।”

वर्तमान में राष्ट्रीय स्तर पर मिडिया हाउस के लिए आत्महत्या की रिपोर्टिंग के लिए कोई दिश-निर्देश जारी नहीं किए गए है। यही कारण है कि अक्सर रेटिंग और पाठकों के दबाव में आकर मिडिया गैर जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग की ओर बढ़ता है। विश्व स्तर पर भी कुछ ही ऐसे मिडिया हाउस हैं जहां आत्महत्या जैसे गंभीर मुद्दे पर रिपोर्टिंग के लिए ट्रेनिंग दी जाती है।

जेन अरिगेहो, हेडलाइन के मिडिया प्रॉजेक्ट कोर्डिनेटर, के कहा हम दो मिडिया निगरानी एजेंसियों द्वारा सालाना 35,000 लेखों की निगरानी करते हैं। सारी जानकारी डेटाबेस में रखी जाती है फिर उसका जारी दिशानिर्देश क तुलना में विशलेषण किया जाता है। हमने अपने भी मिडिया दिशानिर्देश बनाए हैं एवं मिडियाकर्मी और छात्रों की सहायता के लिए मल्टीमिडिया रिसोर्स में रखा गया है।

The Vienna subway-suicide reporting case

Ever since the subway opened in Vienna, Austria, in 1978, people started killing themselves--or trying to--on its tracks, the numbers rising between 1984 and mid-1987. Experts made a connection between drama-filled reporting in the Austrian media, and the suicides and suicide attempts.

The Austrian Association for Suicide Prevention (AASP) developed media guidelines (revised regularly) and discussions with the media culminated with the media agreeing not to report suicides.

In the second half of 1987, suicides and suicide attempts fell by 80%. The increase of passenger numbers of the Viennese subway, which have nearly doubled, and the decrease of the overall suicide numbers in Vienna (-40%) and Austria (-33%) since mid-1987 increase the plausibility of the hypothesis, that the Austrian media guidelines have had an impact on suicidal behaviour.

( साहा नई दिल्ली में स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं ।)

Image Credit: Flickr/Michael Foley

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 21 जुलाई 15 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।


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