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बंगलुरु – लड़कों की चाह रखने वाले इस समाज में इन दिनों अधिक से अधिक निःसंतान भारतीय युगल एवं एकल अभिभावक ( सिंगल पेरेंट ) बच्चों को गोद लेते वक्त लड़कियों को चुन रहे हैं।

हालांकि पूरे देश में ही यह प्रवृति देखी जा रही है लेकिन सबसे अधिक लड़कियों को गोद लेने वाले परिवार महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु में देखे गए है। यहां तक कि पितृसत्ता के गढ़ माने जाने वाले राज्य उत्तर प्रदेश एंव हरियाणा में भी इस तरह की प्रवृति देखने मिल रही है।

अप्रैल से जून 2015 के बीच, देश भर से बच्चा गोद लेने वाले केंद्रों ने 1,241 अनुरोध लड़कियों को गोद लेने के संबंध में प्राप्त किए हैं। वहीं लड़कों के संबंध में 718 अनुरोध प्राप्त किए गए हैं।

गोद लेने की प्रतीक्षा में बच्चे, अप्रैल से जून 2015

पिछले तीन साल के आंकड़ों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि औसतन 60 फीसदी दंपतियों ने लड़कियों को गोद लिया है जबकि 40 फीसदी ने लड़कों को चुना है।

लिंग अनुसार तीन वर्षों में गोद लिए बच्चे

जैसा कि हमने पहले भी बताया है महाराष्ट्र में लड़कियों को गोद लेने वाले परिवारों की संख्या सबसे अधिक है। इस संबंध में दूसरे स्थान पर आंध्र प्रदेश एवं तीसरे पर तमिलनाडु है। बंगलुरु की OnlineRTI.com द्वारा महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय से सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार इन तीन राज्यों में करीब 40 फीसदी बच्चियों को गोद लिया गया है।

तीन सालों में गोद लिए गए कुल बच्चों की संख्या

*Data for 2014-15 & 2015-16 is for first quarter of the year.

एक ओर जहां बाल हत्या एंव कन्या भ्रूण हत्या के मामले पूरे भारत में पाए हैं वहीं यह आंकड़े निश्चित तौर पर एक सामाजिक बदलाव का संकेत है। यहां तक कि देश के सबसे कम लिंग अनुपात वाले राज्य जैसे कि हरियाणा, बिहार एवं उत्तर प्रदेश में भी कई दंपत्ति ऐसे हैं जिन्होंने लड़कियों को गोद लेने का फैसला किया है।

विशेषज्ञों के अनुसार इस बदलाव के पीछे की कारण हैं।

श्री देवी, अधीक्षक, महिला विकास एवं बाल कल्याण विभाग के निदेशालय, आंध्रप्रदेश, के अनुसार, “कई दंपत्ति समझते हैं कि लड़कों के मुकाबले लड़कियां प्राकृतिक रुप से स्नेहशील स्वभाव की एवं माता-पिता के प्रति भावुक होती हैं। लड़कों की उपलब्धता न होना भी लड़कियां गोद लेने का एक प्रमुख कारण हो सकता है। ”

यदि आंकड़ों पर ठीक प्रकार से नज़र डालें तो पता चलता है कि 2009 के बाद से बच्चों को गोद लेने की संख्या में अचानक वृद्धि हुई है। 2009 में 2,500 बच्चों को गोद लिया गया है। इन आंकड़ों में 2010 के बाद से 6,000 से अधिक वृद्धि हुई है। इन आंकड़ों में वृद्धि का एक कारण राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में अधिक गोद लेने के मामलों का दर्ज होना हो सकता है। गौरतलब है कि 2009 से पहले इन राज्यों में ऐसे मामले कम ही दर्ज किए जाते थे।

हालांकि पिछले दो वर्षों में इन आंकड़ों में करीब 2,000 की गिरावट देखी गई है।

भारत में गोद लिए बच्चों की कुल संख्या, 2014-15

वर्तमान में भारत के पास 409 बच्चे गोद देने वाले केंद्र हैं। केंद्रों में बच्चों की उपलब्धता के आधार पर आवेदन प्रक्रिया के लिए औसतन छह से आठ महीने का वक्त लगता है।

भाग्य लक्ष्मी , बेंगलूर स्थित परस्पर दत्तक ( गोद देने वाले ) ग्रहण केंद्र के कार्यकारी निदेशक के अनुसार, “बच्चि को गोद लेने के लिए एकल अभिभावकों की संख्या में भी वृद्धि हुई है जोकि बच्चियों को अधिक गोद लेने के आंकड़ों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।”

एक ऐसी ही एकल अभिभावक, सौम्या रे ने केन्द्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण ( सीएआरए ) की वेबसाइट पर अपना अनुभव साझा किया है। सौम्या क अनुसार उन्होंने भारत में घरेलू गोद लेने को बढ़ावा देने के लिए एक लड़की को गोद लिया कहा। सौम्या कहती हैं कि " मेरा मानना ​​है कि हर परिवार में एक बच्चे को अपनाना चाहिए और इस संदेश को चारो ओर फैलाना चाहिए। "

भाग्यलक्ष्मी ने बताया कि बच्चा गोद लेने आए दंपत्ति लिंग पर बहुत अधिक विचार नहीं करते हैं। जब उन्हें बताया जाता है कि लड़के उपलब्ध नहीं हैं तो बह बच्ची को अपनाने के लिए सहमत हो जाते हैं।

कई दंपत्ति लड़के के लिए बहुत लंबा इंतज़ार नहीं करना चाहते हैं।

नाम न बताने की शर्त पर बैंगलुरु स्थित एक दंपत्ति ने बताया कि " हमने बंगलौर में कुछ दत्तक केन्द्रों का दौरा किया और उनमें से ज्यादातर ने हमें यह बताया कि किसी लड़के को गोद लेने के लिए हमें कम से कम एक साल का वक्त लगेगा। इसलिए हमने एक बच्ची को गोद लेने का फैसला किया है। "

ऐसे मामलों में आतुरता एक सद्गुण साबित हो रही है।

( पाटिल www.101reporters.com के संस्थापक हैं जो जमीनी पत्रकारों का नेटवर्क है। पाटिल ने इकोनोमिक टाइम्स, डीएनए और न्यू इंडियन एक्सप्रेस के साथ काम किया है। पाटिल से gangadharpb@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। )

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 13 नवम्बर 2015 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।


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