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मध्यप्रदेश के सिंघरौली ज़िले में कोयला खनन परियोजना के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में शामिल भारतीय ग्रामीण। पिछले तीन दशकों में भारत के वन का 14,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र साफ कर दिया गया है। सबसे बड़ा क्षेत्र (4947 वर्ग किलोमीटर) खनन को दिया गया है। रक्षा परियोजनाओं को 1,549 वर्ग किलोमीटर और जल विद्युत परियोजनाओं के 1,351 वर्ग किमी क्षेत्र दिया गया है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, पिछले 30 वर्षों में हरियाणा के करीब दो-तिहाई आकार के वन अतिक्रमण (15,000 वर्ग किलोमीटर) और औद्योगिक परियाजनाओं (14,000 वर्ग किमी) की भेंट चढ़ गए हैं और जैसा कि सरकार ने स्वीकार किया है कि कृत्रिम वन इनकी जगह नहीं ले सकते हैं।

सरकार के लेखा परीक्षक ने कहा है कि, स्थिति जिसके तहत इन परियोजनाओं को वन भूमि दिए गए हैं, उनका व्यापक रुप से उल्लंघन हो रहा है और विशेषज्ञों का कहना है कि सरकारी आंकड़े अनुमान के नीचे हैं।

टी वी रामचंद्र, एसोसिएट फैक्लटी सेंटर फॉर इकोलोजिकल साइंस एवं , बंगलौर स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, कहते हैं कि, “सरकारी आंकड़े बहुत कम हैं। हमारे अध्ययन से पता चलता है, पिछले एक दशक में उत्तरी, मध्य और दक्षिणी पश्चिमी घाट में घने वन क्षेत्रों में 2.84 फीसदी, 4.38 फीसदी और 5.77 फीसदी की कमी हुई है।”

हाल ही में संसद ने बताया है कि वर्तमान में 25,000 हेक्टेयर तक जंगल - 250 वर्ग किलोमीटर या चंडीगढ़ के क्षेत्र से दो गुना अधिक - रक्षा परियोजनाओं, बांधों, खनन, बिजली संयंत्र, उद्योगों और सड़कों सहित "गैर वानिकी गतिविधियों" को सौंपा जाता है। "परिवर्तन" की दर, जैसा इस प्रक्रिया को कहा जाता है, राज्यों में भिन्न होता है।

महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु, जिसने 1 फीसदी कम भूमि परिवर्तित की है, वहीं पंजाब 1980 से करीब अपनी आधे वन परिवर्तित कर चुका है।

औद्योगिक परियोजनाओं के लिए परिवर्तित हुए वन भूमि

Source: Lok Sabha

नवीनतम उपलब्ध आंकड़े, भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2015 के अनुसार, अब भारत का वन, देश के 701,673 वर्गकिलोमीटर या 21.34 फीसदी तक फैला है जबकि 29 वर्ष पहले यह 640,819 वर्गकिलोमीटर तक फैला था। यह वृद्धि का स्पष्टीकरण पेड़ों को लगाने, विशेष रुप से मोनोकल्चर के ज़रिए बताया गया है, जो परिवर्तित प्राकृतिक वनों का स्थान नहीं लेते हैं एवं और स्थायी रुप से खत्म हो रहे हैं।

भारत वन स्थिति रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार, पिछले 13 वर्षों में भारत के जंगलों में वृद्धि हुई है। 2012 में इकोनॉमिक टाइम्स में लिखा गया था कि “ यह सांख्यिकीय इंद्रजाल भारत की वन नौकरशाही द्वारा त्रुटिपूर्ण परिभाषा के उपयोग का परिणाम है।”

रक्षा परियोजनाओं और बांधों को मिलता है सबसे अधिक वन भूमि

11 फीसदी भारत के वन के साथ, वन क्षेत्र के तहत सबसे अधिक क्षेत्र मध्यप्रदेश में आता है। इसके बाद 10 फीसदी के साथ अरुणाचल प्रदेश और 8 फीसदी के साथ छत्तीसगढ़ का स्थान है। पूर्वोत्तर राज्यों के क्षेत्रफल का 70 फीसदी से अधिक हिस्से में वन फैला है, सिवाय असम के जहां 35 फीसदी में वन है।

भारत में वन फैलाव

Source: Lok Sabha

वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के अनुसार, वन को काफी हद तक अक्षत रहना चाहिए, और केवल अपवाद के रूप में ही परिवर्तित किया जा सकता है।

प्रतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन एवं पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा चलाए जा रहे योजना प्राधिकरण (सीएएमपीए) के आंकड़ों के अनुसार, तीन दशकों में, 14,000 वर्ग किलोमीटर वन साफ किए गए हैं। सबसे बड़ा क्षेत्र (4947 वर्ग किमी) खनन को दिया गया है। रक्षा परियोजनाएं (1,549 वर्ग किलोमीटर) और जल विद्युत परियोजनाएं (1,351 वर्ग किमी) दूसरे एवं तीसरे स्थान पर हैं।

अद्योगिक अनुसार, परिवर्तित वन भूमि

Source: Ministry of Environment & Forests

अतिक्रमण की भेंट चढ़े 15,000 वर्ग किलोमीटर की वन भूमि का सबसे अधिक नुकसान मध्यप्रदेश में हुआ है। इस संबंध में दूसरा एवं तीसरा स्थान असम एवं कर्नाटक का है। केरला, आंध्र प्रदेश और बिहार जैसे कुछ राज्यों में अतिक्रमण पर रोक लगाई गई है।

अतिक्रमण की भेंट चढ़े वन भूमि

Source: Lok Sabha

'प्रतिपूरक वनीकरण' पेड़ की जगह ले सकते हैं पारिस्थितिक तंत्र की नहीं

"प्रतिपूरक वनीकरण" शब्द है जो उन पेड़ लगाने के बदले इस्तेमाल किया जाता है जिन्हें वन काटे जाने के बदले लगाए जाते हैं और जिसे लगाने के लिए पर्यावरण और वन मंत्रालय से विशेष अनुमति की आवश्यकता होती है।

विशेषज्ञ प्रतिपूरक वनीकरण का "अवैज्ञानिक" और "त्रुटिपूर्ण अवधारणा" के रुप में आलोचना करते हैं। समर्पिता रॉय, पीएचडी स्कॉलर, इन्वाइरन्मेनल साइंस पुणे विश्वविद्यालय, कहती हैं, “वनों का नुकसान अकेले पेड़ों का नुकसान नहीं है बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र का नुकसान है।”

रॉय कहती हैं कि सरकार यह दावा कर सकती है कि पेड़ लगाने से वन री क्षतिपूर्ति होती है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं हुआ कि नष्ट हुए जटिल वनस्पतियों और जीव को वापस पाया जा सकता है।

सरकार के ताज़ा आंकड़ों के अनुसार, 1980 से साफ हुए 14,000 वर्ग किलोमीटर वन में से 6770 वर्ग किलोमीटर में नए सिरे से लगाए गए हैं या वनरोपण किया गया है। जैसा कि इस लेख के दूसरे श्रृंखला में हम बताएंगे कि वनरोपण की प्रक्रिया डगमगाती हुई है। इस पर 6 फीसदी से अधिक राशि खर्च नहीं की जाती है।

अप्रैल 2016 में, सरकार ने संसद में स्वीकार किया है कि प्रतिपूरक वनीकरण प्राकृतिक वनों के लिए विकल्प नहीं हो सकता । सरकारी बयान में कहा गया है कि “यथासमय में प्रतिपूरक वनीकरण का इस्तेमाल वन परिवर्तन के प्रभाव का नुकसान को कम करने के लिए किया जाता है।”

अजय कुमार सक्सेना, दिल्ली के सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वाइरन्मन्ट के कार्यक्रम प्रबंधक (वानिकी), कहते हैं कि, “प्राकृतिक वन की हानि की क्षतिपूर्ति संभव नहीं है, कम से कम एक सदी तक तो नहीं।”

सक्सेना आगे कहते हैं कि एक वन में प्राकृतिक पोषक तत्व प्रक्रियाओं के साथ हज़ारों वनस्पतियों और जीव एक जटिल "पारिस्थितिकी मिश्रण" में रहती हैं जो कि "मोनोकल्चर वृक्षारोपण द्वारा दोबारा पाया नहीं जा सकता है”।

क्यों उतराखंड में अक्सर करते हैं तेंदुए हमला

पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, अरुणाचल प्रदेश ने पिछले 30 वर्षों में सबसे अधिक वन (3338 वर्ग किलोमीटर) का सफाया किया है। वहीं मध्य प्रदेश ने 2,477 वर्ग किलोमीटर और आंध्र प्रदेश ने 1,079 वर्ग किमी वन साफ कर दिया है। जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल गैर वन उपयोगों के लिए कम से कम वन भूमि जारी किया है।

वन भूमि के भीतर कई परियोजनाओं की अनुमति दी जाती है एवं यह प्रक्रिया मानव और पशुओं, दोनों के जीवन के विघटनकारी है।

रॉय कहती हैं कि, “जब भी कोई विकास परियोजना जंगल के अंदर जाता है, इसका परिणाम विखंडन होता है, एक बड़े वन ब्लॉक को छोटे-छोटे खंड में बांटने से कई प्रजातियों के लिए निवास स्थान स्थायी रुप से नष्ट हो जाता है।”

पूर्व वन्य जीव के राष्ट्रीय बोर्ड के सदस्य प्रवीण भार्गव और शेखर दत्तात्री ने द हिंदू में लिखा है कि विखंडन भारतीय जैव विविधता संरक्षण के लिए सबसे गंभीर खतरों में से एक है। भारत भर में यह मानव - पशु के बीच बढ़ते संघर्ष का प्रमुख कारण है।

वन्यजीव संरक्षण सोसायटी के आंकड़ों के अनुसार 2001 से 2010 के बीच, उत्तराखंड में तेंदुए ने करीब 550 लोगों पर हमला किया है एवं इसमें से 198 लोगों की जान गई है।

उत्तराखंड वन भूमि पर सबसे अधिक परियोजनाओं की संख्या (4330) है। पंजाब (3,250) और हरियाणा (2,561) दूसरे एवं तीसरे स्थान पर है।

जंगल साफ होने की परिस्थिति को व्यापक रुप से किया जाता है नज़रअंदाज़, मिलने वाला दंड भी त्रुटिपूर्ण

वन भूमि का कानूनी परिवर्तन, अवैध कार्यों से बढ़ रहा है, मतलब कि कई लोग जिन्हें वन काटने की अनुमति मिल रही है, वह उन पर लगाए गए शर्तों का उल्लंघन करते हैं।

2013 की यह नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट कहती है कि परिवर्तन से संबंधित वन मंजूरी के कानूनों की निगरानी करने में पर्यावरण और वन मंत्रालय अपनी जिम्मेदारियों का "उचित रूप से निर्वहन" करने में विफल रहा है।

कैग रिपोर्ट कहती है, “हमारी राय में वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 में निर्धारित दण्डात्मक खंड, अवैध और अनधिकृत प्रथाओं की ओर निवारण डालने में काफी हद तक अपर्याप्त और अप्रभावी रहा है। पट्टों के अनधिकृत नवीकरण, अवैध खनन, खनन पट्टों निगरानी रिपोर्ट में प्रतिकूल टिप्पणी के बावजूद के बने रहना, परियोजनाओं के पर्यावरण मंजूरी के बिना काम करना, वन भूमि की स्थिति के अनधिकृत परिवर्तन एवं वानिकी मंजूरी के फैसले में मनमानेपन के कई उद्हारण देखे गए हैं।”

रामचंद्र का कहना है कि, “ठेकेदारों, राजनेताओं और कुछ भ्रष्ट वन विभाग के अधिकारियों की मिलीभगत इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं। कई ज़िले जहां गैर जिम्मेदार वन विचलन के साथ बड़े पैमाने पर वनों की कटाई हुई है, वहां पानी की कमी और खाद्य असुरक्षा देखे गए हैं।”

विशेषज्ञों ने कहना है कि वन परियोजनाओं के लोगों के साथ लाभ का हिस्सा होना चाहिए और स्थानीय आजीविका में प्रतिपूरक वनीकरण कारक होना चाहिए। सक्सेना कहते हैं कि, “लघुचोरी को सभी स्तरों पर उचित जवाबदेही के साथ रोकना चाहिए एवं प्रतिपूरक वनीकरण में पारिस्थितिकी तंत्र के दृष्टिकोण और सतत निगरानी पारिस्थितिक को अपनाना चाहिए।”

ज्यादातर विशेषज्ञों ने कहा है कि जहां तक ​​संभव हो, घने जंगलों विकास परियोजनाओं के लिए परिवर्तित नहीं किया जाना चाहिए; और यदि वन को परिवर्तित किया जाता है तो वन नुकसान के प्रभाव को कम करने के लिए, उस भूमि को देशी वनस्पतियों के साथ बदला जाना चाहिए।

(घोष 101reporters.com के साथ जुड़े हैं। 101reporters.com जमीनी पत्रकारों का भारतीय नेटवर्क है। घोष राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर लेख लिखते हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 03 जून 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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