नई दिल्ली: एक तरफ भारत में बच्चे कुपोषण से जूझ रहे हैं, तो दूसरी तरफ़ उनमें डायबिटीज़, हायपरटेंशन (हाई बीपी) और किडनी रोग जैसी बीमारियां भी बढ़ती जा रही हैं। जो आमतौर पर जीवनशैली और ग़लत खानपान की वजह होती हैं। बच्चों और किशोरों के बीच हुए पहले नेशनल न्यूट्रीशन सर्वे (राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण) में यह बात सामने आई है कि बच्चों में गैर-संचारी रोगों ( नॉन-कम्यूनकबल डिजीज) का जोखिम बढ़ रहा है। सर्वे के दौरान कई बच्चों में इन बीमारियों के शुरुआती लक्षण भी पाए गए।

इसी साल 8 अक्टूबर को जारी हुए कम्प्रीहेन्सिव नेशनल न्यूट्रीशन सर्वे के दौरान 5 से 9 साल तक की उम्र के बच्चों में 10 में से एक प्री-डायबिटिक पाया गया, जबकि इस उम्र के 1 प्रतिशत बच्चे पहले ही डायबिटीज़ की चपेट में आ चुके थे। इस सर्वे में ये भी पाया गया कि 5 से 9 साल आयु वर्ग के लगभग 5% बच्चे और किशोर अधिक वजन के थे।

आज के बच्चे और किशोर कल के भारत की वर्कफ़ोर्स हैं। ऐसे में इनमें हाई कोलेस्ट्रॉल और ट्राइग्लिसराइड्स के संकेत बेहद चिंतित करने वाले हैं। देश की एक युवा आवादी को विकास के जो अवसर मिलते हैं, उसको इस तरह की बीमारियां अक्सर खतरे में डालती हैं। यहां यह जान लेना जरूरी है कि हाई कोलेस्ट्रॉल और ट्राइग्लिसराइड्स से हृदय रोग, स्ट्रोक और अन्य एनसीडी का जोखिम बढ़ता है।

सीएनएनएसल की रिपोर्ट में भी इस पर चिंता व्यक्त की गई है कि अगर अधिक वजन और मोटापे की समस्या पर तेजी से ध्यान नहीं दिया गया तो गैर-संचारी रोगों का असर सीधे-सीधे देश के विकास को प्रभावित करेगा। यह स्वास्थ्य और आर्थिक रफ़्तार के मामले में दुनियाभर में भारत के योगदान को कम करेगा।

यह सर्वे मिनिस्ट्री ऑफ हेल्थ एंड फेमिली वेलफेयर ने संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) और पॉप्युलेशन कांउसिल ऑफ इंडिया के साथ मिलकर वर्ष 2016 और 2018 के बीच किया था। इस दौरान 30 राज्यों के 1 लाख 12 हज़ार बच्चों के बीच ये सर्वे किया गया।

सीएनएनएस इस तरह का पहला सर्वे है, जिसमें 5 से 14 वर्ष के बच्चों के पोषण पर विस्तार से जानकारी दी गई है । इसमें बच्चों में अधिक वजन और एनसीडी के लक्ष्णों का भी अध्ययन किया गया है। पिछले राष्ट्रीय सर्वेक्षणों में 5 साल से उम्र तक के बच्चों और 15 साल के किशोरों की स्वास्थ्य स्थिति का अध्ययन किया गया था। सीएनएनएस की रिपोर्ट में कहा गया है कि कुपोषण और अतिपोषण को मापने के अलावा,यह सर्वेक्षण विटामिन्स और मिनरल के बारे में दुनिया का पहला सर्वे था।

कुपोषण में कमी और अतिपोषण के बढ़ते मामले

सीएनएनएस रिपोर्ट के अनुसार, 5 साल से कम आयु वर्ग में,हर तीन बच्चों में से एक यानी 35 प्रतिशत बच्चे अविकसित कद के थे। 33% बच्चे कम वजन वाले थे। हर 6 में से 1 बच्चे का वजन उसके कद के मुताबिक कम था, यानी 17% बच्चों का वजन कद के हिसाब से कम था और इसी उम्र वर्ग के 41% बच्चे एनीमिक यानी ख़ून की कमी का शिकार थे।

2016-18 के दौरान जब ये सर्वे किया गया तो पाया गया कि कुपोषण से संबंधित बीमारियों का प्रकोप, 2015-16 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की तुलना में कम था। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के आंकड़ों के अनुसार, 38.3% बच्चे अविकसित कद के थे, 35.8% कम वजन के थे, और 21% का वजन उनके कद के हिसाब से कम था।

नीति आयोग के सलाहकार आलोक कुमार ने ट्वीट किया, "यह पोषण अभियान के लिए अच्छी खबर है।" उन्होंने राष्ट्रीय पोषण मिशन का जिक्र करते हुए कहा कि इसका उद्देश्य 2022 तक 5 साल से कम उम्र के बच्चों में अविकसित कद के प्रसार में 25% और 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों और महिलाओं में एनीमिया के प्रसार में सालाना 3% तक गिरावट लाना है।

दिल्ली में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ (IIPH) में पब्लिक हेल्थ एंड न्यूट्रिशन की एडिशनल प्रोफेसर सुपर्णा घोष जेरथ कहती हैं, "हम सामाजिक तौर पर बदल रहे हैं।" उन्होंने सर्वेक्षण के निष्कर्षों को ‘ख़तरे की घंटी’ बताया। इसका मतलब है कि कुपोषण में तो कमी आई है लेकिन गैर-संचारी रोगों और अतिपोषण का खतरा बढ़ रहा है, "जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।"

5 से 9 साल के 3% बच्चों और 10-19 साल के 4% किशोरों में कोलेस्ट्रॉल का स्तर काफ़ी ज़्यादा था। 5 से 9 साल के लगभग 26% बच्चों और 28% किशोरों में उच्च घनत्व वाले लिपोप्रोटीन का स्तर काफ़ी कम था, जो अच्छे कोलेस्ट्रॉल के रूप में जाना जाता है। यह ख़ून से कोलेस्ट्रॉल के नुकसानदायक तत्वों को हटा देता है। शरीर में कोलेस्ट्रॉल के उच्च स्तर, और अच्छे कोलेस्ट्रॉल के कम स्तर का मतलब दिल बीमारियों को बुलावा देना है।

सीएनएनएस की रिपोर्ट के मुताबिक, 5 से 9 साल के बच्चों में से एक तिहाई यानी करीब 34% और 16% किशोरों में उच्च ट्राइग्लिसराइड्स थे। ट्राइग्लिसराइड्स ख़ून में पाई जाने वाली एक प्रकार की चिकनाई है, जिसका सीधा सम्बंध दिल की बीमारियों और स्ट्रोक से है। इसके अलावा, लगभग 7% बच्चों और किशोरों को किडनी के गम्भीर रोग होने का खतरा था । 5% किशोरों में हाई ब्लड प्रेशर पाया गया।

हैदराबाद के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रीशन (एनआईएन) की निदेशक आर. हेमलता भी मानती हैं कि ये परिणाम सामान्य नहीं हैं।उन्हो्ने कहा "हम जानते हैं कि यह खतरनाक है।"

इंटरनेशनल फूड फॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (IFPRI) में सीनियर रिसर्च फ़ैलो पूर्णिमा मेनन कहती हैं, " बच्चों को लेकर आये सर्वे के इन आंकड़ों से सबको डरना चाहिए। न केवल सरकार में बैठे लोगोे को बल्कि माता-पिता को भी। सार्वजनिक संस्थानों में, स्कूलों में, घर पर बच्चों की ख़ुराक को बेहतर बनाने की तत्काल आवश्यकता है।”

मेनन इस दिशा में किए जा रहे कामों से कुछ हद तक संतुष्ट दिखीं। उन्होने कहा कि "भारत निश्चित रूप से दूसरे देशों के साथ चल रहा है। ब्राजील, मैक्सिको और दूसरे कई देशों मेंइसका स्तर बहुत अधिक हैं।"

भारत के पोषण मिशन में अतिपोषण की अनदेखी

ग्लोबल मैग्ज़ीन, न्यूट्रिंएंट्स में छपी एक स्टडी में कहा गया है कि वर्ष 1999 से 2016 के बीच अत्यधिक वजन वाली लड़कियों (15-19 वर्ष) और महिलाओं ( 20-49 वर्ष) का अनुपात दोगुने से भी ज्यादा हुआ है। लड़कियों में ये 1.6% से बढ़कर 4.9% और महिलाओं में 11.4% से बढ़कर 24% हो गया है। इंडियास्पेंड ने अगस्त 2019 की रिपोर्ट में भी इस बारे में बताया था।

इस स्टडी में पाया गया कि दुनियाभर में किशोरों में मोटापे के बढ़ते मामले, बच्चों में कम वजन के प्रसार में गिरावट से ज्यादा है। इस स्टडी के दौरान रिसर्चर्स ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि, “यह अनुमान लगाया गया है कि अगर साल 2000 के बाद के रुझान इसी तरह से जारी रहते हैं तो साल 2022 तक बच्चों और किशोरों में मोटापे का फैलाव, कम वज़न के मामलों को पार कर जाएगा।”

इसमें कोई दो राय नहीं है कि एक ही देश, समुदाय और यहां तक कि एक ही परिवार में कुपोषण और अतिपोषण के मामले मौजूद हैं।

लेकिन कुपोषण को कम करने के लिए भारत का एक प्रमुख कार्यक्रम, पोषण अभियान, केवल कुपोषण और एनीमिया यानी ख़ून की कमी पर केंद्रित है और इसमें अतिपोषण का उल्लेख नहीं है। एनआईएन की आर. हेमलता कहती हैं, “ पोषण अभियान में हमें अतिपोषण पर भी ध्यान देना होगा।”

आईएफपीआरआई के मेनन के मुताबिक, “अधिक वजन वाले बच्चों की संख्या न बढ़े, इसके लिए कई तरह के कार्यक्रम और नीतियों की जरूरत होगी।” वह इस दिशा में किए जा सकने वाले प्रयासों को विस्तार से समझाते हैं,

" इसके लिए अस्वास्थ्यकर खाद्य पदार्थों की लेबलिंग और उस पर टैक्स लगाना, सार्वजनिक संस्थानों में भोजन की गुणवत्ता में सुधार करना,हर जगह, हर किसी के लिए व्यायाम का इंतेज़ाम करना जरूरी हैं। ”

बच्चों के खान-पान में विविधताओं की कमी

आर. हेमलता कहती हैं कि बच्चों में बढ़ते हुए मोटापे, उनका ज़्यादा वज़न और उनमें उच्च कुपोषण के लिए खाने में विविधताओं की कमी को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। खाने में विविधता में कमी का मतलब है कि अधिकांश पोषण खाद्य पदार्थों के समान समूहों से आता है, जिनमें आमतौर पर ज्यादा कैलोरी होती है। और इन खाद्य पदार्थों में माइक्रो-न्यूट्रिएंट्स और अमीनो एसिड, फैटी एसिड जैसे विभिन्न प्रकार के पोषक तत्वों की कमी होती है, जो कि बच्चों के विकास के लिए ज़रूरी हैं।"

खान-पान में बदलाव और हाई कार्बोहाइड्रेट और ज़्यादा चीनी वाली चीज़ों की खपत का असर सेहत पर पड़ता है। 5 से 9 साल की उम्र वाले हर तीन में करीब एक बच्चा (31.4%) और 10 से 19 साल के 36% किशोर सप्ताह में एक बार तला हुआ खाना खाते हैं। 5- 9 साल के बच्चों में लगभग 7.6% और 10 से 19 साल के किशोरों में से 10 में से एक (10.4%) सप्ताह में एक बार गैस वाली चीज़ पीते हैं।

बच्चों और किशोरों में से ज्यादातर एक हफ़्ते में कम से कम एक बार हरी पत्तेदार सब्जियों ( 90%) और दालों या बीन्स (85%) खाते है। डेयरी उत्पादों की खपत कम थी। दो-तिहाई बच्चे ( 65%) और किशोर हफ़्ते में कम से कम एक बार दूध या दही लेते हैं।

फल, अंडे, मछली, चिकन और मांस का कम से कम बार खाया गया। बच्चों में, 40% ने फल खाया, 35% ने अंडे खाए, और 36% ने मछली या चिकन या मांस खाया। इसी तरह, किशोरों में, केवल 41% ने फल खाया, 35% ने अंडे और 36% ने मछली या चिकन या मांस खाया।

जिन घरों में माएं पढ़ी-लिखी थीं, उन घरों या परिवारों में दूध या दही, फल, अंडे ,मछली, चिकन या मांस की खपत बढ़ गई। ऐसा उन परिवारों में भी देखा गया, जो परिवार समृद्ध थे।

शहरी हो या ग्रामीण, अमीर हो या गरीब, खान-पान में अलग-अलग तरह का भोजन नहीं मिलता। आईआईपीएच की सुपर्णा घोष जेरथ मानती हैंं कि ऐसा जागरुकता ना होने के कारण हो सकता है। वह इस बात पर जोर देती हैं कि में खाने पीने की चीज़ों में पौष्टिकता को लेकर समाज में और ज़्यादा जागरुकता फैलाने की ज़रूरत है कि उनके लिए कैसा भोजन जरूरी है, साथ ही वो आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायक नर्सों दाइयों में अधिक जागरूकता लाने की जरूरत पर ज़ोर देती हैं।

पोषण पर प्रभाव डालती है सामाजिक-आर्थिक स्थिति

सर्वे में पाया गया कि, भारत में, 5 से 9 वर्ष के बीच के 4% बच्चे अधिक वजन वाले थे ( इनका बॉडी मास इंडेक्स जितना होना चाहिए उससे एक स्टेंडर्ड ज़्यादा था) और 1% मोटे थे ( इनका बॉडी मास इंडेक्स जितना होना चाहिए उससे दो स्टेंडर्ड ज़्यादा था )।

5 से 9 वर्ष के बच्चों में ज़्यादा वजन के सबसे ज़्यादा बच्चे गोवा और नागालैंड में थे। गोवा में 14.5% और नागालैंड में 14.7%। जबकि सबसे कम मामले झारखंड और बिहार में देखे गए, जहां 1% से भी कम बच्चे ज़्यादा वजन वाले थे।

बच्चों का ज़्यादा वजन होना घर की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर भी निर्भर करता है। सबसे ग़रीब परिवारों के केवल 1% बच्चे अधिक वजन वाले थे। वहीं अमीर परिवारों में अधिक वजन वाले बच्चों की संख्या 9% थी।

Source: Comprehensive National Nutrition Survey (2016-18)

Source: Comprehensive National Nutrition Survey (2016-18)

ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में अधिक बच्चे मोटापे से पीड़ित थे। शहरी क्षेत्रों में, 5 से 9 आयु वर्ष के 7.5% बच्चे ज़्यादा वजन वाले थे, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह आंकड़ा 2.6% था। इसी तरह शहरी क्षेत्रों के 10 से 19 साल के 9.7% किशोर ज़्यादा वजन वाले थे, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में ये आंकड़ा 3.2% था।

विभिन्न सामाजिक समूहों में अधिक वजन और मोटापे को सबसे कम मामले अनुसूचित जनजातियों (एसटी) से जुड़े बच्चों के थे। अनुसूचित जनजातियों में लगभग 2.8% स्कूल जाने वाले बच्चे, 2.1% किशोर अधिक वजन वाले और मोटे थे, जबकि उच्च जाति के बच्चों और किशोरों के बीच यह आंकड़े क्रमश: 5.1% और 7.1% पाए गए हैं।

इसके अलावा, उमर के हिसाब से कमर की परिधि के माप में 2% बच्चों और किशोरों में बढ़ा हुआ पेट पाया गया। भारतीयों में पेट के आसपास चर्बी जमा होने की संभावना अधिक होती है, और ये कईं बीमारियों को दावत देता है।

यह आलेख हेल्थचेक पर पहली बार यहां प्रकाशित हुआ था।

(यदवार इंडियास्पेंड में विशेष संवाददाता हैं।)

यह आलेख अंग्रेजी में 12 अक्टूबर 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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