कोरिया (छत्तीसगढ़), क्योंझर (ओडिशा): 2016 की गर्मियों में एक दिन ( बाबूलाल सलाम को ठीक-ठीक तारीख याद नहीं है ) उत्तर-पश्चिमी छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले के थगगांव नामक गांव में मजदूर इस गोंड आदिवासी के खेत में पहुंचे। उन्होंने उसकी जमीन के चारों ओर चूना पत्थर से सीमाओं को चिह्नित करना शुरू किया। सलाम ने याद करते हुए इंडियास्पेंड को बताया, "मैंने उनसे पूछा कि वे मेरी जमीन पर क्या कर रहे थे,लेकिन उन्होंने ऐसी भाषा में बात की जो स्थानीय भाषा नहीं थी।” गांव के सरपंच अशोक कुमार के अनुसार, मजदूरों ने बिना किसी स्पष्टीकरण के 35-40 लोगों के खेतों को चिह्नित किया।

पास के ही गांव, छोटे सलही में, ग्रामीणों ने इसी तरह की कहानियां सुनाई। पन्नालाल साई ने अपनी जमीन पर आने वाले मजदूरों को याद करते हुए बताया:"वे बोले, पौधा लगेगा।' कैसा पौधा? क्यों लगेगा पौधा? मजदूर राजस्थान की तरफ के लग रहे थे। हमको और कुछ नहीं बताया गया।”‘

सलाम, साई और अन्य ग्रामीणों ने अंततः पता लगाया कि मजदूर जिला वन विभाग के आदेशों पर उनकी जमीनों को चिह्नित कर रहे थे। क्योंकि जिला वन विभाग ने यहां वृक्षारोपण की योजना बनाई है।

अप्रैल के अंत की चिलचिलाती धूप में,सफेद शर्ट और नीली चेक की लुंगी पहने मृदुभाषी साई हमें अपने मिट्टी के घर से अपनी ज़मीन तक(मिश्रित फसल का एक आयताकार भूखंड) तक ले गए, जो कुछ महुआ के पेड़ों से घिरा हुआ है, जिस पर उनका परिवार पूरे वर्ष मकई, धान, तिल, दाल और सब्जियां उगाते हैं। साई कहते हैं, "जमीन हमारे अस्तित्व का आधार है। अगर सरकार इसे वृक्षारोपण के लिए ले लेती है, तो हम कैसे जिंदा रहेंगे?"

पन्नालाल साई और बाबूलाल सलाम उन ग्रामीणों में हैं, जिन्होंने पाया कि परसा कोयला ब्लॉक के लिए जंगलों के बदले में प्रतिपूरक वृक्षारोपण के लिए उनकी जमीन को जबरन चिह्नित किया गया है।

भारत में,ऐसी परियोजनाएं जिनमें गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन क्षेत्रों के इस्तेमाल की आवश्यकता होती हैं, जैसे खनन और निर्माण परियोजनाएं,उनके बदले गैर-वन भूमि के बराबर टुकड़े पर ‘प्रतिपूरक वनीकरण (सीए) शुरू करना या 'निम्नीकृत वन' भूमि का विस्तार दोगुना करना कानूनी रुप से आवश्यक है।अतीत में, प्रतिपूरक वनीकरण परियोजनाओं के तहत वन विभागों ने बड़े पैमाने पर गैर-स्वदेशी, वाणिज्यिक प्रजातियों जैसे कि नीलगिरी, बबूल और सागौन के कृषि वृक्षारोपण किए हैं। सरकार ऐसे वृक्षारोपण को जंगलों के रूप में गिनती है। वृक्षारोपण योजना एक घटक है जिसके द्वारा सरकार यह सुनिश्चित करती है कि वह वनों को बढ़ा रही है, इस प्रकार कार्बन सिंक बनाकर जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए 2015 के पेरिस जलवायु समझौते के तहत एक प्रमुख प्रतिबद्धता को पूरा कर रहा है।

थगगांव, छोटे सलही और उस क्षेत्र के 14 अन्य गांवों में प्रतिपूरक वनीकरण परियोजना लागू की गई है, जो हाल ही में ( इस साल फरवरी में ) भारत के श्रेष्ठ वनों में, सरगुजा जिले के घने हसदेव अरंड जंगलों में स्थित परसा कोयला ब्लॉक को पर्यावरण मंत्रालय द्वारा दी गई मंजूरी से संबंधित है।

कुल मिलाकर, यह परियोजना 16 गांवों में, 4,000 एकड़ से अधिक क्षेत्र में फैला है ( 3,000 फुटबॉल फील्ड से ज्यादा बड़ा क्षेत्र ) और सैकड़ों निवासियों को प्रभावित करता है- मुख्य रूप से आदिवासी, या स्वदेशी समुदाय, जिन्हें अनुसूचित जनजाति भी कहा जाता है।

वन और राजस्व अधिकारियों ने इस परियोजना को इस तथ्य के बावजूद तैयार किया है कि चिह्नित की गई जमीन में अधिकांश जमीन, ग्रामीण समुदायों द्वारा खेती के लिए,पशुओं को चराने के लिए, महुआ इकट्ठा करने के लिए, तेंदू पत्ता (पतली सिगरेट रोल करने के लिए), चार (चिरोंजी, या कडप्पा बादाम) और अन्य वन उपज में उपयोग की जाती है। जमीन में ऐसे इलाके भी शामिल हैं, जो चट्टानी हैं, और ग्रामीणों ने बताया कि वहां पौधे जीवित नहीं बचेंगे।

Table: Compensatory Afforestation Plan For Parsa Coal Block
Village Land Earmarked for Plantations (Acres)
Thaggaon 497
Chhote Salhi 121
Baday Salhi 657
Baday Kalwa 275
Dhanpur 291
Pendri 194
Bodemuda 269
Jilda 237
Majhouli 101
Bari 560
Mugum 639
Chopan 76
Bharda 50
Khadgawa 50
Salka 57.00
Gidmudi 82
Total 4161 acres

Source: Forest clearance documents for the Parsa coal block, Korea District Office

सवालों के घेरे में क्षतिपूर्ति

दो वनों की कहानी: सरगुजा जिले के हसदेव अरंड में, अधिकारियों ने कोयला खनन के लिए 1,600 एकड़ के घने जंगलों की सफाई के लिए प्रारंभिक मंजूरी दे दी है। इस विनाश के लिए कोरिया जिले से सटे वन विभाग द्वारा वृक्षारोपण करके 'प्रतिपूरक वनीकरण' किया जाएगा।

छत्तीसगढ़ में कोरिया जिले में, 22,000 पेड़ों का एक वन विभाग रोपण एक एकाकी विस्तार बनाता है। सरकार ऐसे वृक्षारोपण को जंगलों के रूप में गिनाती है, और उन्हें जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए वन कवर बढ़ाने की अपनी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं का एक प्रमुख घटक बनाया है।

औद्योगिक निर्माण या अन्य गैर-वन परियोजनाओं के लिए मंजूरी दे दिए गए जंगलों के नुकसान को प्रतिपूरक वनीकरण कथित रुप से खत्म कर देता है।

इस योजना ने, प्रभावकारिता और परिणामों के बारे में गंभीर सवालों का सामना करने के बावजूद, 2016 में महत्व प्राप्त किया, जब मोदी सरकार ने इसे एक कानून का रूप दिया: प्रतिपूरक वनीकरण कोष अधिनियम (सीएएएफ एक्ट)। सरकार ने अगस्त 2018 में इसके कार्यान्वयन के लिए नियम जारी किए।

आदिवासी और अन्य वन-निवास समुदायों, वन अधिकार समूहों और विपक्षी राजनीतिक दलों की ओर से बार-बार किए गए अपील को सरकार ने नकार दिया कि नए कानून को भूमि सुधारों और विकेंद्रीकृत वन प्रशासन संरचनाओं के अनुरूप बनाया जाना चाहिए, जो 2006 के लैंडमार्क वन अधिकार अधिनियम द्वारा निर्धारित किया गया था और यह सुनिश्चित किया जाए कि जिन गांवों के सीएएफ फंड तैनात किए जाएंगे, उन समुदायों को सहमति का अधिकार होगा।

आने वाले हफ्तों में, राज्य सरकारों के वन विभागों को सीएएफ अधिनियम के तहत 56,000 करोड़ रुपये ($ 8 अरब) का फंड निर्धारित है। यह उन वर्षों में जमा हुआ धन है, जो फॉरेस्ट क्लीयरेंस परमिट में दिए गए फंड में भुगतान किए गए दो घटकों पर आधारित है: नेट पर्जेंट वेल्यू या वन विभाग द्वारा विमुद्रीकृत वन में रखा गया एक मौद्रिक मूल्य, और वैकल्पिक भूमि पर वृक्षारोपण की लागत। इस तरह के भुगतान वन अधिकारियों द्वारा निर्धारित किए जाते हैं,और साफ हो रहे जंगल के प्रकार और स्थिति को ध्यान में रखते हुए, 5,00,000-11,00,000 रुपये प्रति हेक्टेयर तक हो सकता है।

नाम न बताने का अनुरोध करते हुए, एक वरिष्ठ भारतीय वन सेवा अधिकारी ने इंडियास्पेंड को बताया, "पैसे की ये बड़ी रकम खुशी की बात नहीं है। मैं इसे एक प्रकार का ब्लड मनी कहूंगा, क्योंकि यह बताता है कि हमने कितने जंगल खो दिए हैं। और जो नष्ट हो गए हैं, उन्हें हम दोबारा नहीं लगा सकते हैं।"

हालांकि, यह चुनौती केवल वन कवर के नुकसान की पर्याप्त भरपाई नहीं है। जमीन पर, सीएएफ अधिनियम भूमि संघर्षों को उजागर करेगा और कमजोर ग्रामीण समुदायों, विशेष रूप से आदिवासियों के संसाधन अधिकारों और खाद्य सुरक्षा को कमजोर करेगा,जैसा कि कोरिया, छत्तीसगढ़ और क्योंझर, ओडिशा परियोजनाओं पर हमारी रिपोर्टिंग से पता चलता है। ये दो राज्य उनमें से हैं जिन्हें सीएएफ से आवंटन का सबसे बड़ा अनुपात प्राप्त होगा।

जमीन की तलाश

‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवार्यनमेंट’ के विश्लेषण के अनुसार, 2014-18 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने 1.24 लाख हेक्टेयर जंगलों को खाली करने के लिए परमिट जारी किए। कागज पर, उस क्षेत्र के बराबर या अधिक भूमि, प्रतिपूरक वनीकरण के लिए निर्धारित की गई है। वन नीति और ग्रामीण समुदायों की विशेषज्ञ और योजनाकार, मधु सरीन कहती हैं, इतने बड़े पैमाने पर जमीन शायद ही खाली पड़ी हो। इसका कुछ न कुछ उपयोग हो रहा होता है।"

भूमि विवादवाले इस देश में, वृक्षारोपण करने के लिए वन विभाग हजारों हेक्टेयर जमीन कैसे खोज रहे हैं? वन और जनजातीय अधिकार जमीनी स्तर के समूहों का तर्क है कि जमीन को सीमांत ग्रामीण समुदायों से अलग किया जा रहा है, जिनका जीवन ऐसे जमीन पर ही निर्भर करता है।

नवंबर 2017 में, पर्यावरण मंत्रालय ने राज्यों को "वन मंजूरी प्रस्तावों को शीघ्र निपटान के लिए प्रतिपूरक वनीकरण परियोजनाओं के लिए लैंडबैंक बनाने" के लिए एक निर्देश जारी किया। 22 मई, 2019 को, मंत्रालय ने कहा कि 70 फीसदी से अधिक वन कवर वाले राज्यों में, वन परमिट के खिलाफ प्रतिपूरक वनीकरण परियोजनाओं को एक ही राज्य में लागू करने की आवश्यकता नहीं है, भूमि बैंकों का उपयोग कर इन्हें देश में कहीं भी लागू किया जा सकता है।

ग्रामीण समुदायों का कहना है कि वे राज्य के भूमि बैंकों को, जमीन हड़पने जैसा मानते हैं, जैसा कि इंडियास्पेंड ने19 सितंबर, 2017 को पर्यावरण मंत्रालय द्वारा 2017 के निर्देश जारी करने से पहले हफ्तों में बताया था।

भूमि बैंकों और वन अधिकारों पर लिखने वाले आदिवासी लेखक, ग्लैडसन डुंगडुंग ने इंडियास्पेंड को बताया, "भूमि बैंक आदिवासी समुदायों को गायब करते जा रहे हैं। झारखंड में, 20 लाख एकड़ से अधिक ज़मीन, भूमि बैंकों में सूचीबद्ध की गई है, जिसमें सामान्य भूमि, पवित्र बगीचे और वन भूमि शामिल हैं। लोगों के पास कोई खबर नहीं होती और अचानक उन्हें अपनी जमीन और जंगलों से निकाल दिया जाता हैं, जिससे उनके और उनके पशुओं के लिए जीवन-यापन का रास्ता बंद हो जाता है।"

झारखंड के खूंटी में भूमि और वन नीतियों पर एक गांव की बैठक के दौरान ग्लैडसन डुंडुंग (बाएं)

सरीन ने कहा, परिणाम ‘एक दोहरा विस्थापन’ है - पहले वन मंजूरी के लिए, और फिर प्रतिपूरक वनीकरण के लिए।

परसा कोयला ब्लॉक की प्रतिपूरक वनीकरण परियोजना 2016-18 के दौरान लागू की गई थी, ठीक उसी समय जब सीएएफ अधिनियम और उसके नियमों का गठन हुआ था।

“माहौल गरम था...हंगामा हो गया... ”

जनवरी 2019 में, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने विवादित रूप से परसा कोयला ब्लॉक को स्टेज-I (प्रारंभिक या सैद्धांतिक रूप से) वन मंजूरी या परमिट दिया और कोयला खनन के लिए 1,600 एकड़ हरे-भरे जंगलों को साफ करनेकी तैयारी की। खदान को राजस्थान राज्य विद्युत निगम को आवंटित किया गया है, जो एक राज्य द्वारा संचालित बिजली आपूर्ति है,बदले में, जिसने अडानी एंटरप्राइजेज लिमिटेड को माइन डेवलपर और ऑपरेटर नियुक्त किया है,जिसकी कुछ टिप्पणीकारों ने अस्पष्ट मानते हुए आलोचना की है।

मंजूरी इसलिए दी गई थी, क्योंकि राज्य सरकार ने दिखाया कि अनिवार्य शर्तें पूरी की गई हैं। कोरिया के निकटवर्ती जिले के 16 गांवों में प्रतिपूरक वनीकरण के लिए 4,000 एकड़ से अधिक गैर-वन भूमि की पहचान की गई थी। इससे यह धारणा बनी कि एक इलाके की वन हानि दूसरे साइट में पेड़ लगाने से पूरी होगी।

वन मंजूरी आवेदन के हिस्से के रूप में प्रस्तुत किए गए कोरिया जिला कलेक्टर द्वारा फरवरी 2017 के पत्र के अनुसार, 1,684 हेक्टेयर (या 4161 एकड़) भूमि जो ‘अतिक्रमण मुक्त’ थी, कोरिया के 16 गांवों में पहचान की गई थी। पत्र में आगे कहा गया है कि, विभाग को परसा कोयला ब्लॉक के लिए नष्ट किए जा रहे जंगल के बदले प्रतिपूरक वनीकरण वृक्षारोपण के लिए वन विभाग को दी जा रही जमीन के लिए ‘कहीं कोई आपत्ति’ नहीं थी।

इंडियास्पेंड ने 16 में से आठ गांवों की यात्रा की, और हर जगह एक ही कहानी सुनने के मिली: ग्रामीणों ने कहा कि अधिकारियों ने वनीकरण परियोजना के बारे में न तो औपचारिक रूप से सूचित किया और न ही उनसे कोई सलाह ली। वे इस तरह की परियोजना के विरोध में थे,क्योंकि वृक्षारोपण के लिए चिह्नित भूमि निजी जमीन थी, जो उनके अस्तित्व के लिए जरूरी और खाद्य सुरक्षा के इकलौते साधन थे।

2016-18 के दौरान ग्रामीणों के विरोध के बावजूद,अधिकारियों ने योजना को जारी रखा, जिसके आधार पर परसा कोयला ब्लॉक ने अंततः वन मंजूरी हासिल कर ली।

छोटे सलही से आधे घंटे की ड्राइव पर बदाय गांव है,जहां अधिकारियों ने प्रतिपूरक वनीकरण के लिए 657 एकड़ भूमि चिन्हित की है। सरपंच रूपलता सिंह के घर पर इकट्ठा हुए निवासियों ने याद करते हुए इंडियास्पेंड को बताया कि, पिछले साल गांव के खेतों पर खंभे लगाने के लिए वन विभाग द्वारा कैसे प्रयास किया गया था। सरपंच ने बताया, "माहौल गरम था .. हंगामा हो गया। हमने आखिरकार उन्हें बाहर भगा दिया।”

बदाय सलही में ग्रामीणों ने कहा कि वृक्षारोपण परियोजना के लिए उनकी जमीन पर खंभे लगाने की कोशिश करने वाले मजदूरों और अधिकारियों को उन्होंने भगा दिया

एक ग्रामीण ने अमर सिंह से कहा, "वे हमारी जमीन पर खंभे लगाते हैं, जहां हम अपनी खेती करते हैं, हमें बिना कोई जानकारी दिए। क्या हम उन्हें नहीं रोकेंगे? हमने पूछा कि यहां क्यों, कहीं और क्यों नहीं, तो उन्होंने कहा कि उनके पास आदेश हैं और इसे वहां लगाना होगा, जहां लगाने कहा गया है।"

कुछ दिनों के अंदर, ग्रामीणों ने खंभे उखाड़ दिए, उन्हें फेंक दिया, और जमीन पर खेती शुरू कर दी।

आधिकारिक दस्तावेज, भूमि मानचित्र और जीआईएस चित्रण,प्रतिपूरक वनीकरण के लिए निर्धारित भूमि को बड़े करीने से प्लॉट करते हैं और इन जमीनी संघर्ष या वर्तमान में भूमि का उपयोग कैसे किया जा रहा है, इसका कोई संकेत नहीं देते है।

कोरिया एक 'अनुसूचित क्षेत्र', यानी संवैधानिक सुरक्षा और विशेष कानून जैसे कि पंचायतें (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम का लाभ उठाने वाली एक आदिवासी बहुल क्षेत्र है। कानून में कहा गया है कि ग्राम सभाओं को अपने प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन करने की शक्ति है और इन पर किसी भी योजना पर इनसे विचार-विमर्श किया जाना चाहिए।हालांकि, प्रत्येक गांव जिनका इंडियास्पेंड ने दौरा किया, वहां के निवासियों ने बताया कि अधिकारियों ने ग्राम सभाओं के प्रतिपूरक वनीकरण प्रस्ताव का कोई विवरण उनकी मंजूरी या सलाह के लिए प्रस्तुत नहीं किया था। थगगांव के सरपंच अशोक कुमार ने अपने गांव में कहा, "सब मनमानी से किया (अधिकारियों ने मनमानी की)।"

बोदमुडा और धानपुर गांवों में, जहां वन विभाग ने प्रतिपूरक वनीकरण के लिए 558 एकड़ जमीन चिन्हित की है,वहां के सरपंच, शिव कुमार सिंह ने कहा कि ग्रामीणों को पता नहीं कि क्या चल रहा है। उन्होंने कहा, "स्थानीय वनपाल और पटवारी ने कहा सरगुजा की ओर हसदेव [अरंड] में अडानी की परसा खदान से नष्ट हो जाने वाले जंगल की भरपाई के लिए हमारे गांव की जमीन पर पेड़ लगाए जाएंगे।”

कुमार ने कहा कि उन्होंने वन अधिकारियों को बताया कि गांव में बहुत कम परती जमीन उपलब्ध थी। जो भी परती थी, उसमें से अधिकांश चट्टानी थी, और वृक्षारोपण के लिए उपयुक्त नहीं थी। उन्होंने बताया, “मैंने अधिकारियों से कहा कि पेड़ लगाना अच्छी बात है। लेकिन यह हमारे ग्राम सभा के साथ उचित बैठकों के बाद होना चाहिए, ताकि हम उन्हें बता सकें कि उपयुक्त भूमि कहां उपलब्ध है, और पेड़ों की कौन सी प्रजातियां उपयुक्त होंगी।”

कई गांवों की बात करते हुए, धनपुर के सरपंच शिव कुमार सिंह कहते हैं, “अधिकारियों ने निवासियों को सूचित किए बिना परसा कोयला ब्लॉक के लिए प्रतिपूरक वृक्षारोपण के लिए ग्रामीणों की कृषि भूमि को निर्धारित किया है।”

गिदमुड़ी गांव में, पूर्व सरपंच और वर्तमान जिला पंचायत सदस्य गुरजलाल नेति ने कहा कि स्थानीय पटवारी और वन बीट गार्ड उनके पास यह कहते हुए आए थे कि वे वनीकरण के लिए गांव में विशिष्ट भूमि चाहते हैं। नेती ने बताया, "मैंने उनसे कहा कि गांव के लोग लंबे समय से इन जमीनों पर खेती कर रहे हैं, और उनकी अनुमति के बिना, अधिकारी इसे वन लगाने के लिए कैसे ले सकते हैं?उन्हें ग्रामीणों से औपचारिक रूप से संपर्क करने की आवश्यकता थी।" नेति ने आगे बताया कि अधिकारी चले गए और उन्हें लगा कि मामला अब समाप्त हो गया।

नेति और अन्य ग्रामीण इस बात से अनजान थे कि उनके विरोध के बावजूद, अधिकारी प्रतिपूरक वनीकरण योजनाओं पर आगे बढ़ रहे थे।

बारी में, सरपंच जयपाल सिंह ने कहा कि स्थानीय वनपाल निर्मल नेताम उनके पास आए थे और कहा कि परसा कोयला ब्लॉक से जुड़ी एक परियोजना के तहत गांव में पेड़ लगाए जाएंगे। उन्होंने कहा, '' उन्होंने मुझे अंग्रेजी में कुछ दस्तावेज दिए, और मुझे हस्ताक्षर करने के लिए कहा। उन पर भरोसा करते हुए मैंने ऐसा कर दिया।” सिंह ने सोचा कि पेड़ गांव को हरियाली देंगे। बाद में जब मजदूरों ने आकर ग्रामीणों के खेतों पर खंभे गाड़ना शुरू किया, तब सटीक रूप से योजना का पता चला। सिंह ने आगे कहा, "ग्रामीणों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया और सभी खंभों को दूर फेंक दिया।"

हालांकि, कागज पर जिला अधिकारियों ने प्रतिपूरक वनीकरण के लिए बारी में 560 एकड़ भूमि को अंतिम रूप दिया है। सिंह इस बात से अनजान थे कि विरोध के बावजूद ऐसा कैसे हुआ? वह कहते हैं, " जब अधिकारी हमें कुछ बताते हैं तो हम लोग उन पर भरोसा करते हैं। वास्तव में उन्हें ग्राम सभा के साथ उचित बैठकें करनी चाहिए, और हमारे साथ किसी भी प्रस्ताव के सभी विवरणों को औपचारिक रूप से साझा करना चाहिए, और ऐसी भाषा में जो हम समझ पाएं।"

सिंह ने कहा कि जब तक ग्रामीण सहयोग नहीं करेंगे, योजना को सुचारू रूप से लागू करने की संभावना नहीं है- “अधिकारियों ने हमें तब शामिल नहीं किया जब उन्हें करना चाहिए था,और ग्रामीण शायद ही अपनी कृषि भूमि को वृक्षारोपण के लिए इस तरह छोड़ेंगे। जम के विरोध होगा!"

दरअसल, धानपुर सरपंच सिंह के अनुसार, निवासी अपनी जमीन पर खंभों से इतने परेशान थे कि दिसंबर 2016 में तत्कालीन विधायक श्याम बिहारी जायसवाल से मिलने के लिए 16 में से कई गांवों के सरपंचों ने एक साथ धरना दिया। यह धरना स्थानीय मीडिया द्वारा कवर की गई थी।फिर भी, 2017-18 के दौरान, स्थानीय समुदाय जो कह रहे थे, उसकी अनदेखी करते हुए, परसा कोयला ब्लॉक के लिए वन मंजूरी फाइल कोरिया, रायपुर और दिल्ली में राज्य सरकार और मंत्रालय के कार्यालयों में आगे बढ़ती रही।

एक स्थानीय हिंदी अखबार में छपे दिसंबर 2016 के समाचार में, स्थानीय विधायक श्याम बिहारी जायसवाल के साथ ग्रामीणों की बैठक में उनकी भूमि पर प्रतिपूरक वनीकरण परियोजना के खिलाफ विरोध करने की रिपोर्ट है।

ऐतिहासिक अन्याय का नवीनीकरण

"ऐतिहासिक अन्याय" के निवारण के लिए एफआरए अधिनियम लाया गया था - व्यक्तिगत और सामुदायिक शीर्षकों के माध्यम से पहचान पारंपरिक रूप से वनभूमि पर निर्भर समुदायों के प्रथागत अधिकार लेकिन जिनके संबंधों को औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक नीतियों द्वारा नकारा गया था, और अपराधीकरण भी किया गया था।

कार्यकर्ताओं का कहना है कि, सीएएफ अधिनियम के पत्र और डिजाइन ने इसे वन अधिकार अधिनियम के साथ सीधे संघर्ष में डाल दिया है, समुदायों को बंद कर दिया और लोकतंत्र को फिर से खत्म कर दिया।

हालांकि एक दशक से अधिक समय पहले अधिनियमित किए गए एफआरए को उस हद तक कम करके लागू किया गया है,यूएस-आधारित अधिकार और संसाधन पहल द्वारा 2017 का आकलन दिखाया गया है कि न्यूनतम संभावित सामुदायिक वन अधिकार क्षेत्र का केवल 3 फीसदी औपचारिक खिताब के माध्यम से बसाया गया था। अधिकारियो ने आदिवासियों और अन्य वन-निवासियों द्वारा दायर व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकारों (सीएफआर) के 50 फीसदी से अधिक दावों को खारिज कर दिया है। कार्यकर्ताओं ने बार-बार इन अस्वीकारों का विरोध किया और उन्हें अदालत में चुनौती भी दी।

आरआरआई अध्ययन पर काम करने वाले भुवनेश्वर स्थित शोधकर्ता तुषार दास कहते हैं, "यह देखते हुए कि वन अधिकार अधिनियम के तहत आने वाली अधिकांश भूमि का निपटारा होना बाकी है, सीएएफ जैसा कानून लोगों के अधिकारों की लंबित मान्यता के लिए गंभीर खतरा है।"

परसा मामला इसी को दर्शाता करता है। उदाहरण के लिए,कोरिया जिला कलेक्टर के फरवरी 2017 के 'अनापत्ति' पत्र के अनुसार,परसा की प्रतिपूरक वनीकरण परियोजना के लिए चिन्हित 4,000 एकड़ से अधिक भूमि राजस्व वन भूमि है।

विरोधाभासी नामकरण यानी, भूमि को 'राजस्व' (या राजस्व विभाग के अधिकार क्षेत्र में) के साथ-साथ 'वन' (वन विभाग के दायरे में) के रूप में वर्गीकृत करना राज्य के राजस्व और वन विभागों, साथ ही पुरानी भूमि सर्वेक्षण बस्तियों के भूमि रिकॉर्ड में एक गहरी गड़बड़ी को दर्शाता है। छत्तीसगढ़ में अधिकारियों ने इंडियास्पेंड को बताया, “हालांकि, वन अधिकार अधिनियम राजस्व वन भूमि’ के रूप में वर्गीकृत सभी भूमि पर लागू होता है और ऐसे समुदाय एफआरए दस्तावेज के हकदार हैं जो इससे अपनी आजीविका अर्जित करते हैं।

थगगांव के जंगलों से पत्ते इकट्ठा करके घर लौटते ठगगांव गांव के निवासी समुदरीबाई सलाम, सोनमती ओरकेरा, संपतिया सलाम और इंदुकुंवर ओरकेरा (बाएं से दाएं)। हालांकि, ठगगांव को ऐसे सामुदायिक वन अधिकारों के लिए वन अधिकार अधिनियम के तहत मान्यता प्राप्त करना बाकी है, अधिकारियों ने प्रतिपूरक वृक्षारोपण के लिए गांव में 500 एकड़ ज़मीन को चिन्हित किया है।

जिन सभी आठ गांवों का इंडियास्पेंड ने दौरा किया, वहां के ग्रामीणों ने वन अधिकार अधिनियम के खराब क्रियान्वयन और दावों को दाखिल करने की कठिन प्रक्रिया की निंदा की। धानपुर के सरपंच सिंह ने कहा, “हम अपना दावा प्रस्तुत करते हैं, लेकिन यह अधिकारियों के पास जाता है और वे बस उसे दबा कर बैठ जाते हैं। दायर किए गए अधिकांश दावे लंबित हैं या अस्वीकार कर दिए गए हैं।"

गिदमुडी में, जिला पंचायत सदस्य नेति ने भी सहमति जताई और कहा, "अधिकांश ग्रामीण अभी भी अपने अधिकारों के बारे में पूरी तरह से जागरूक नहीं हैं और अगर वे किसी मुखर के साथ नहीं हैं,तो पटवारियों और वनवासियों के लिए उन्हें बरगलाना आसान होता है और वे कहते हैं कि यह भूमि सरकार की है और उन्हें एफआरए खिताब नहीं मिल सकता है।

थगगांव गांव में, गांव वन अधिकार समिति के सदस्य, रामेश्वर दास ने कहा, “मैं बहुत से आदिवासी ग्रामीणों को फॉर्म भरने में मदद करता हूं और आवश्यक दस्तावेज प्रदान करता हूं। उनके दावे इस आधार पर खारिज हो जाते हैं कि कुछ दस्तावेज या अन्य चीजें गायब हैं।”

16 गांवों में से किसी को भी सामुदायिक वन अधिकार या खिताब नहीं मिला है।

ग्रामीणों के खातों के विपरीत, प्रतिपूरक वनीकरण के लिए 16 गांवों में भूमि के आधिकारिक दस्तावेज कहते हैं कि भूमि पर एफआरए के कोई भी लंबित दावे का प्रश्न नहीं है। दस्तावेज में लिखा है कि एफआरए खिताब 44 एकड़ जमीन पर दिया गया था, प्रत्येक गांव में औसतन तीन एकड़ जमीन थी। इसके विपरीत, खदान के लिए निकासी की सुविधा के लिए प्रतिपूरक वनीकरण के लिए 4,000 एकड़ से अधिक आवंटित किए गए हैं।

वन अधिकार अधिनियम को लागू करने के वादे के साथ कांग्रेस पार्टी दिसंबर 2018 में छत्तीसगढ़ में सत्ता में आई थी। इससे सीएएफ-एफआरए भूमि संघर्ष को तेज होने की संभावना है। वनवासियों को बेदखल करने के सुप्रीम कोर्ट के एक विवादास्पद फरवरी 2018 के आदेश ( जो वर्तमान में होल्ड पर है ) के मद्देनजर, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से कहा कि यह सुनिश्चित करें कि कानून को ठीक से लागू किया जाए। उन्होंने लिखा है कि, लाखों आदिवासियों और अन्य वनवासियों के जीवन के लिए भूमि, जल और जंगल के अधिकार महत्वपूर्ण हैं।

एफआरए के कार्यान्वयन की मांग करते हुए फरवरी 2019 में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को पत्र

कुछ दिनों पहले, बघेल ने ट्वीट किया कि उन्होंने वन अधिकारियों से यह सुनिश्चित करने के लिए कहा है कि आदिवासियों और वनवासियों को एफआरए के तहत वनभूमि पर उनके अधिकार प्राप्त हों। बघेल ने लिखा, '' इस तरह के समुदाय वनों की रक्षा बेहतर कर सकते हैं,न कि वन विभाग कर सकता है। पिछले 13 वर्षों में वन अधिकार कानून को सही तरीके से लागू नहीं किया गया। हम करेंगें।''

हाल के महीनों में, छत्तीसगढ़ सरकार ने एफआरए के कार्यान्वयन की राज्यव्यापी समीक्षा शुरू की है। उदाहरण के लिए, कोरिया जिले में, आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि 11,691 या 44 फीसदी वन अधिकारों के दावों को खारिज कर दिया गया है। जहां खिलाब दिए गए हैं, वे छोटे क्षेत्र के लिए हैं।

जब इंडियास्पेंड ने अप्रैल 2019 के अंत में कोरिया के तत्कालीन जिला कलेक्टर विलास संदीपन भोसकर से मुलाकात की, तो उन्होंने कहा कि पारस खदान के लिए प्रतिपूरक वनीकरण के लिए भूमि 2017 में उनके कलेक्टर के रूप में पदभार ग्रहण से पहले, आवंटित की गई थी । हालांकि, उन्होंने पुष्टि की, कि वन विभाग ने उन्हें कुछ दिन पहले जमीन के हस्तांतरण के लिए लिखा था। उन्होंने केस का अध्ययन करने के बाद हमे मुलाकात के लिए बुलाया।

भोसकर ने कहा, “एफआरए के दावों की अस्वीकृति की उच्च दर चिंताजनक है।” उन्होंने आगे बताया कि प्रशासन सभी खारिज किए गए दावों की समीक्षा कर रहा था और कमजोर समुदायों को यह दावा करने में मदद कर रहा था कि यह सुनिश्चित किया जाए कि कोई भी अपने अधिकारों से वंचित न रहे।

उन्होंने कहा, "अक्सर दावे तकनीकी आधार कुछ दस्तावेज़ या सबूत की कमी या क्योंकि लोग जागरूक नहीं होते हैं, इस कारण खारिज कर दिए जाते हैं। लेकिन आदिवासी और वनवासी सदियों से इन जमीनों पर हैं। यह हम जानते हैं। वन विभाग जानता है। ऐसे लोग एफआरए पट्टा (खिताब) पाने के हकदार हैं।”

हाल के चुनावों के दौरान कांग्रेस पार्टी के एक विज्ञापन ने आदिवासी और वनवासी समुदायों के लिए वन अधिकारों का वादा किया था।

जब इंडियास्पेंड ने कुछ दिनों बाद उनसे बात की, तो भोसकर ने कहा कि उन्होंने राज्य के राजस्व विभाग को 9 मई, 2019 को मार्गदर्शन के लिए लिखा था, जैसा कि उनके पास वन विभाग को वृक्षारोपण के लिए निर्धारित भूमि को हस्तांतरित करने के लिए ‘एक कलेक्टर के रूप में सीमित शक्ति’ थी। भोसकर कहते हैं, "यह भूमि का एक बहुत बड़ा क्षेत्र है ... 4,000 एकड़ से अधिक। यदि यह वन विभाग के पास जाता है, तो वन मंजूरी की शर्तों के अनुसार, इसकी स्थिति ‘आरक्षित वनों’ या ‘ संरक्षित वनों’में बदल जाएगी।” वह वन मंजूरी (अनुमति) दस्तावेजों में मानक शर्तों का उल्लेख कर रहे थे, जो प्रतिपूरक वनीकरण परियोजनाओं के लिए निर्धारित भूमि के स्वामित्व और नियंत्रण को वन विभाग को हस्तांतरित किया जाना चाहिए,और उनकी स्थिति ‘आरक्षित वनों’ या‘ संरक्षित वनों’ में बदलना चाहिए।

भोसकर कहते हैं, “ग्राम सीमाएं, ग्राम पंचायत क्षेत्र… यह सब बदल जाएगा। एफआरएएके दावे उस पर भी लंबित हो सकते हैं, क्योंकि हम सभी खारिज किए गए दावों की समीक्षा कर रहे हैं। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए, मैंने मार्गदर्शन के लिए लिखा है।”

जून की शुरुआत में, पोस्ट के सिर्फ चार महीने के बाद, भोसकर को जिले से बाहर स्थानांतरित कर दिया गया था।

एक संघर्ष की आहट

परसा जैसे मामलों में चल रहे जमीन संघर्ष, जुलाई 2016 में सीएएफ बिल को कानून में मंजूरी देने से पहले सार्वजनिक और संसदीय बहसों में साथ ही नियमों के बाद के प्रारूपण के दौरान जिसके द्वारा कानून लागू किया जाएगा, 2015-18 के माध्यम से पूर्वाभास किया गया था। आदिवासी समूहों ने मसौदा कानून के प्रभाव के बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से आशंका व्यक्त की। सरकार के भीतर भी इन मुद्दों को उठाया गया।

उदाहरण के लिए, सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत इंडियास्पेंड द्वारा देखे गए दस्तावेज़ों से पता चलता है कि पर्यावरण मंत्रालय को जनजातीय मामलों के मंत्रालय से बार-बार पत्र प्राप्त होते हैं, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि नए सीएएफ कानून को वन अधिकार अधिनियम को कमजोर नहीं करना चाहिए और यह कि वन-निवास समुदायों के लिए एक उचित सौदा प्रदान करना चाहिए।

मार्च 2015 में, सीएएफ बिल के मसौदे पर पर्यावरण मंत्रालय को भेजी गई टिप्पणियों में, जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने बताया था कि इस बिल में वन अधिकार अधिनियम और ग्राम सभा की ओर से वनीकरण और धन के उपयोग के लिए सहमति का कोई जिक्र नहीं किया गया है, और सीएएफ फंडों को वन विविधता से प्रभावित लोगों को मुआवजा देने के लिए कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई गई है। आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने कहा कि इन फंडों को प्रभावित ग्राम सभाओं के साथ साझा किया जाना चाहिए। और सीएएफ फंड के घटक का शुद्ध वर्तमान मूल्य (वन विभाग द्वारा निर्धारित वन का मौद्रिक मूल्य) का कम से कम 50 फीसदी आदिवासी और वन-निवास समुदायों पर खर्च किया जाना चाहिए। आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने कहा, एक बड़ी समस्या, ‘प्रतिपूरक वनीकरण के लिए भूमि की गैर-उपलब्धता’ थी।

हालांकि, उपरोक्त चिंताओं को ध्यान में रखे बिना विधेयक को पारित कर दिया गया था। संसद में, तत्कालीन पर्यावरण मंत्री अनिल दवे ने आलोचना की कि इस अधिनियम से आदिवासी और ग्रामीण समुदायों के अधिकारों पर खतरा पैदा हुआ है। उन्होंने इसके बजाय सभा को आश्वासन दिया कि "सीएएफ नियम ग्राम सभा के साथ पर्याप्त परामर्श प्रदान करेगा"।

इसके बाद, नवंबर2017 में, पर्यावरण मंत्रालय ने आदेश पारित कर राज्य सरकारों से आवास क्षतिपूरक वनीकरण परियोजनाओं के लिए भूमि बैंक स्थापित करने के लिए कहा, जिससे वन मंजूरी तेजी से जारी की जा सके। जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने फिर से विरोध किया कि इससे नुकसान आदिवासी समुदायों को होगा, क्योंकि पर्यावरण मंत्रालय ने कहा कि भूमि बैंकों में शामिल की जाने वाली भूमि वास्तव में एफआरए के तहत समुदायों के पक्ष में बसने के योग्य थी।

पर्यावरण मंत्रालय को पत्र लिखकर (पत्र यहां पढ़ें: पीडीएफ), कहा था कि यह आदेश “बिना किसी परामर्श के [आदिवासी मामलों के मंत्रालय] के साथ जारी किया गया था।” और कहा कि उसने “वन अधिकार अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों का उल्लंघन किया है।” विशेष रूप से, पत्र में कहा गया है, "ग्राम सभा की भूमिका को कोई विचार नहीं दिया गया है।"

जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने आदेश को संशोधित करने के लिए कहा कि भूमि बैंकों को केवल ग्राम सभाओं की सूचित सहमति से बनाया जाना चाहिए। इसने दोनों मंत्रालयों के वरिष्ठ अधिकारियों की एक संयुक्त बैठक की भी बात कहा, जिससे ‘यह सुनिश्चित किया जा सके कि आदिवासियों के अधिकार प्रभावित नहीं हैं।”

बैठक में, जनजातीय मामलों के मंत्रालय के अधिकारियों ने अपने पर्यावरण मंत्रालय के सहयोगियों को संसद में दवे के आश्वासन, मिनट्स की याद दिलाई। मिनट्स में आगे कहा गया है, " एमओइएफसीसी [पर्यावरण मंत्रालय] के अधिकारियों ने आश्वासन दिया कि प्रतिबद्धता अभी भी कायम है। उपरोक्त चिंता को शामिल करने के लिए, सीएएफ नियमों में प्रावधान किया जाएगा, जो तैयारी के तहत है।” (बैठक के मिनट यहां देखें: पीडीएफ)।

हालांकि, फरवरी 2018 में जब सीएएफ अधिनियम के मसौदा नियम पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी किए गए थे, तो उनके पास ऐसे प्रावधानों का अभाव था, जो उन्हें वन अधिकार अधिनियम के अनुरूप बनाते हैं, जैसे कि योजना में ग्राम सभाओं की सूचित सहमति लेना और वनीकरण परियोजनाओं को क्रियान्वित करना और एफआरए के तहत प्रदान किए गए व्यक्तिगत और सामुदायिक भूमि अधिकारों की शुरुआत करके ऐसी परियोजनाओं को शुरू नहीं करना।

“सीएएफ के नियम यदि उनके मौजूदा स्वरूप में संचालित होते हैं, तो आदिवासियों और वनवासियों के खिलाफ उत्पीड़न, अत्याचार और अपराध होंगे,और इस तरह मुकदमेबाजी, विरोध और वन क्षेत्रों में संघर्ष होंगे,”जैसा कि कैंपेन फॉर सर्वाइवल एंड डिगनिटी के शंकर गोपालकृष्णन ने आदिवासी मामलों के मंत्रालय को लिखा है। कैंपेन फॉर सर्वाइवल एंड डिगनिटी पूरे भारत में वन-निवास समुदायों के साथ काम करने वाले जमीनी समूहों का एक नेटवर्क है।

गोपालकृष्णन और अन्य लोगों की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए, जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने मार्च 2018 में सीए परियोजनाओं के लिए ग्राम सभा की मंजूरी और वन अधिकार अधिनियम का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए मसौदा नियमों में कई बदलाव करने के लिए कहा। हालांकि, अगस्त 2018 में पारित किए गए नियमों ने इन मूल संशोधनों को छोड़ दिया।

आदिवासी अधिकार समूहों ने सरकार के इस कदम की सख्ती से आलोचना की। पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने तत्कालीन पर्यावरण मंत्री हर्षवर्धन को लिखे पत्र में नियमों को ‘वन अधिकार कानून और ग्राम सभा के अधिकार का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए दवे द्वारा दिए गए आश्वासनों का एक निंदनीय उल्लंघन’ करार दिया। मंत्री वर्धन ने हालांकि कहा कि नियमों में ऐसी सभी चिंताओं को संबोधित किया गया है, लेकिन जैसा कि हमारी रिपोर्टिंग से पता चलता है, ऐसा नहीं है। (दो पूर्व मंत्रियों के बीच पत्राचार देखें: पीडीएफ)

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के फुलवारीपारा गांव में बैगा आदिवासियों ने अक्टूबर 2018 में अपने गांव में वृक्षारोपण का विरोध किया। स्थानीय वन विभाग द्वारा उन्हें बुक करने के बाद उन्होंने 17 दिन जेल में बिताए, और वर्तमान में जमानत पर बाहर हैं।

मई के मध्य में, इंडियास्पेंड ने, एक वरिष्ठ पर्यावरण मंत्रालय के अधिकारी और राष्ट्रीय सीएएफ प्राधिकरण के संयुक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी दीपक कुमार सिन्हा के साथ मुलाकात की, जिससे उनसे अधिनियम के आगामी कार्यान्वयन और इससे क्या संघर्ष हो सकता है, इसके बारे में पूछा जा सके। सिन्हा ने इस दृष्टिकोण पर जोर दिया कि सीएएफ अधिनियम ने आदिवासी अधिकारों का उल्लंघन किया या भूमि पर कब्जा करने की सुविधा दी।

उन्होंने कहा कि पिछले अगस्त में जारी किए गए नियम में ‘सभी हितधारकों को शामिल किया था।’ उन्होंने इस तथ्य की ओर इशारा किया कि अपनी वार्षिक कार्य योजनाओं में सीए परियोजनाओं को शामिल करते हुए ग्राम सभाओं से परामर्श करना नियम अब वन विभाग प्रदान करते हैं - औपनिवेशिक समय के दौरान तैयार किया गया एक वार्षिक दस्तावेज, जिसके द्वारा वन विभाग वर्ष के लिए अपनी गतिविधियों की योजना बनाते हैं।

लेकिन जैसा कि परसा मामले से पता चलता है, यह प्रावधान आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा करने में विफल रहता है - प्रभावित ग्रामीणों के परामर्श के बिना वन मंजूरी के हिस्से के रूप में सीए योजनाओं को अंतिम रूप दिया जाता है।

सरीन ने कहा, "सीएएफ अधिनियम में आवश्यक है कि जब पहली बार एक सीए प्रस्ताव लाया जाता है तो इस पर विचार और सहमति के लिए ग्राम सभा में जाने का एक स्पष्ट प्रावधान है, न कि इसे अंतिम रूप दिए जाने के बाद।”

उत्तर ओडिशा के खनिज संपन्न कीनझार जिले में पिछले दो दशकों से आदिवासी समुदायों के साथ काम कर रहे हैं, जमीन अधिकार कार्यकर्ता ने नाम न बताने की शर्त पर बताया, “एफआरए द्वारा अपेक्षित रूप में उनकी सहमति के बिना अधिकारियों ने इस क्षेत्र में खनन और अन्य परियोजनाओं के लिए आदिवासियों की भूमि को नियमित रूप से जब्त कर लिया है। यह कल्पना करना मूर्खता है कि एक ही अधिकारी ग्राम सभाओं में ग्रामीणों के साथ बैठेंगे, और वृक्षारोपण परियोजनाओं पर लोकतांत्रिक तरीके से चर्चा करेंगे। औपनिवेशिक रवैया है कि वनभूमि वन विभाग की संपत्ति है और सरकार अभी भी कामयाब है।”

हालांकि, सिन्हा ने तर्क दिया, प्रतिपूरक वनीकरण के लिए भूमि की तलाश निकासी प्रक्रिया का एक हिस्सा है,जबकि सीएएफ अधिनियम मुख्य रूप से वनीकरण के लिए तंत्र है। उन्होंने कहा, "राज्य से वन मंजूरी का प्रस्ताव हमारे पास आता है ... (मंत्रालय) को भरोसा करना होगा कि राज्य सरकारें जब मुआवजे के लिए उपयुक्त मुआवजे के रूप में एक निश्चित क्षेत्र की पहचान करती हैं।"

सिन्हा ने कहा, “दिन के अंत में, राज्यों को यह तय करना होगा कि वे वन कवर के तहत कितनी जमीन चाहते हैं। यदि उनके पास वनीकरण के लिए जमीन नहीं है, तो उन्हें वन मंजूरी परियोजनाओं का प्रस्ताव नहीं करना चाहिए।”

फिर भी विशिष्ट सीए योजनाओं के लिए राज्य सरकार के दस्तावेज़ों से संकेत मिलता है कि अधिकारी अक्सर वृक्षारोपण के लिए भूमि का आवंटन तब भी करते हैं जब पूरी तरह से जानते हैं कि स्थानीय समुदायों ने ऐतिहासिक रूप से इन जमीनों को अपने अस्तित्व के लिए इस्तेमाल किया है।

"हम पहाड़ के लोग हैं ..."

स्थानांतरण खेती की भूमि पर वृक्षारोपण को लेकर ओडिशा के क्योंझर के बेनेडी गांव में आदिवासी निवासी वन विभाग के साथ संघर्ष कर रहे हैं। ओडिशा देश में सीएएफ राशि का सबसे बड़ा हिस्सा प्राप्त करने के लिए तैयार है।

ऐसे आवंटन का एक उदाहरण क्योंझर में ओडिशा खनन निगम की दैतारी खदान को दी गई वन मंजूरी को बराबर करने के लिए ओडिशा वन विभाग द्वारा एक प्रतिपूरक वनीकरण प्रस्ताव का तैयार किया गया मसौदा है। प्रस्ताव में कहा गया है कि प्रतिपूरक वृक्षारोपण के लिए प्रति एकड़ 1,700 एकड़ भूमि का उपयोग स्थानीय जनजातियों द्वारा पोदु (शिफ्टिंग) की खेती और चराई के लिए किया जा रहा है। इसमें कहा गया है कि जो भूमि वृक्षारोपण के लिए ले जाएगी, उसे " चराई और अन्य जैविक हस्तक्षेपों से बचाने के लिए मजबूत कांटेदार तार बाड़ से घेरा जाएगा।"

आदिवासियों की जमीन का जबरन भूमि-उपयोग परिवर्तन और विघटन का खतरा ओडिशा में विशेष रूप से ज्यादा है, जो प्रतिपूरक वनीकरण कोष का सबसे बड़ा हिस्सा प्राप्त करने के लिए तैयार है - 6,000 करोड़ रुपये से अधिक ($ 8,000,000),यह राष्ट्रीय निधि के10 फीसदीसे अधिक की राशि, और वन विभाग के वार्षिक बजट के10 गुना से अधिक है। इससे पता चलता है कि सरकार ने किन क्षेत्रों में जंगलों को छीनने की अनुमति दी है।

क्योंझर जिले में सबसे बड़ी संख्या में मंजूरी जारी की गई है, घने जंगलों का एक विशाल परिदृश्य, विशाल लौह-अयस्क जमा और 50 से अधिक विभिन्न स्वदेशी समुदाय जो अपने अस्तित्व के लिए स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र पर निर्भर हैं,अभी तक इन पैतृक भूमि के लिए औपचारिक खिताब का अभाव है।

उदाहरण के लिए, आदिवासी समुदायों द्वारा ऐतिहासिक रूप से शिफ्टिंग खेती के तहत भूमि को सरकारी भूमि के रूप में घोषित किया गया था, जैसा कि डेवलप्मेंट प्लानर मधु सरीन के एक 2005 के अध्ययन से पता चलता है। सरीन की रिपोर्ट में कहा गया है कि उड़ीसा की 44 फीसदी वन भूमि वास्तव में आदिवासी समुदायों द्वारा उपयोग की जाने वाली खेती की जमीन है, जिनके पैतृक अधिकारों को मान्यता नहीं दी गई है।

ऐसी भूमि अब भूमि बैंकों में डाली जा रही है, और क्षतिपूरक वनीकरण के लिए वहां से आवंटित किया गया है।

क्योंझर के जंगलों में बसे भुइयन आदिवासियों के एक गांव बेनेडीह में पता चलता है कि स्थानीय लोग प्रतिपूरक वनीकरण के नाम पर हो रही नीतियों का खामियाजा भुगत रहे हैं। राज्य सरकार द्वारा गांव में 330 एकड़ जमीन को जिला भूमि बैंक में शामिल किया गया था और मई 2016 में लौह-अयस्क खदान के लिए टाटा स्टील लिमिटेड को दिए गए वनभूमि के खिलाफ 1,700 एकड़ की क्षतिपूरक वनीकरण योजना के हिस्से के रूप में वन विभाग को सौंप दिया गया था।

सरकार द्वारा तैयार किया गया एक नक्शा बेनेडीह में तीन भूखंडों को चिन्हित करता है जहां पेड़ लगेंगे। जमीन पर, ये भूमि एक जटिल वन पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा हैं, और खेती को बदलने के तरीकों के माध्यम से, गांव इन भूमि का उपयोग बाजरा, दालें, साग, कंद और जड़ों की विविध खाद्य के लिए उपयोग कर रहा है। सरकार ने सितंबर 2015 में गांव द्वारा दायर सीएफआर दावों का निपटान नहीं किया है।

बेनेडीह गांव में एक अछूता हुआ वनाच्छादित पैच वन विभाग द्वारा प्रतिपूरक वनीकरण के लिए चिह्नित किया गया है ताकि टाटा स्टील लिमिटेड खदान को दी गई वन मंजूरी को ऑफसेट किया जा सके

एक अछूते हुए वनों के पैच में खड़े प्रतिपूरक वनीकरण बोर्ड को दिखाते हुए, तुलाई दनिका ने कहा, "वन अधिकारी अपनी जीपों में आते है,अपने कम्पास के साथ चलते हैं, अंग्रेजी में इन बोर्डों डालते हैं और चले जाते हैं। वे हमें कभी कुछ नहीं बताते हैं, या हमसे नहीं पूछते हैं कि हम क्या सोचते हैं। ऐसा अब तक तीन बार हुआ है।”

गांव सांप्रदायिक रूप से चक्रीय योजना बनाकर खेती को स्थानांतरित करने का अभ्यास करता है, जिसके द्वारा कुछ भूमि गिरती रहेगी, और अन्य में खेती की जाएगी। पूर्व वन सरपंच लखमन प्रधान ने कहा, "जब वन विभाग आता है और एकतरफा रूप से वृक्षारोपण के लिए गांव में भूमि की बाड़ लगाता है, तो हमारी योजना बाधित हो जाती है।"

वन उपज और स्वदेशी फसलों को दिखाते ग्रामीण।

एक महिला निवासी हाली देहुरी कहती हैं, “हम पहाड़ के लोग हैं। ये हमारी देसी फसलें हैं जो पोडू के माध्यम से उगाई जाती हैं। ये हमारे जंगल हैं। ये वे संसाधन हैं जिन पर हम रहते हैं। अगर वे इसे वृक्षारोपण के लिए ले जाते हैं, तो हम भूखे रहेंगे। ”आधे घंटे की पैदल दूरी पर, गांव की महिलाओं के एक समूह ने भूमि पर कई औषधीय पौधों को दिखाया और वर्ष में होने वाली गांव की फसलों की श्रेणी सूचीबद्ध की।

"हमारे समृद्ध वन तल को देखो-" कुछ अधिक मुखर दानिका ने कहा- "जहां वन विभाग वृक्षारोपण करता है,आप यह नहीं देखेंगे। क्योंकि वे इसकी लकड़ी की कटाई के लिए बबूल और सागवान लगाते हैं, जो कस्बों और शहरों में जाएंगे। लेकिन ऐसी प्रजातियां हमारे लिए बेकार हैं। वे न तो कोई फल देते हैं, न ही पक्षी उनमें रहते हैं, न ही बंदर उन्हें खाते हैं। हमारा पशु इसके चारों ओर चर नहीं सकता, यहां तक कि इसके नीचे मशरूम भी नहीं उगते! "

अपने कृषि और वन खाद्य प्रणालियों पर वृक्षारोपण के हानिकारक प्रभावों को बताती बेनेडीह की महिलाएं ।

क्योंझर भूमि अधिकार कार्यकर्ता ने कहा,“कोनझार और (निकटवर्ती) सुंदरगढ़ जिलों का अनुभव है कि वन भूमि के विशाल क्षेत्र, जिनका उपयोग पीढ़ियों से जुआंग और भुइयां जैसे सीमांत समुदायों द्वारा खेती में बदलाव के लिए किया जाता रहा है, वृक्षारोपण के नाम पर वन विभाग द्वारा बंद किया जा रहा है।” ओडिशा के कई आदिवासी जिलों में कंधमाल, रायगडा और कालाहांडी सहित ऐसी भूमि पर कब्जा कर लिया गया है। यहां तक कि ग्रामीणों के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का रुख करने के भी कई मामले हैं, जैसा कि ओडिशा स्थित वन अधिकार शोधकर्ता संघमित्रा दुबे ने इंडियास्पेंड को बताया।

दास ने बताया कि कोरिया, केओन्झार और भारत भर में अनगिनत अन्य साइटों में सामने आई सीएएफ-एफआरए भूमि संघर्षों को तत्काल निवारण की आवश्यकता है। उन्होंने तर्क दिया कि प्रतिपूरक वनीकरण के लिए भूमि का सीमांकन वन बदलाव के समान था। दास ने कहा, "वन विविधता में स्थापित कानूनी सिद्धांत यह है कि इसे ग्राम सभा की सूचित सहमति, और सभी वन अधिकारों के पूर्व निपटान की आवश्यकता है। हमने तर्क दिया कि सीएएफ अधिनियम, वन बदलाव की तरह ही वृक्षारोपण के लिए समान कानूनी मानकों का पालन करता है लेकिन सरकार ने पूरी तरह से इसकी अवहेलना की।"

जब इंडियास्पेंड ने सिन्हा का ध्यान इस तरह के संघर्षों की ओर आकर्षित किया, तो उन्होंने कहा कि सीएएफ अधिनियम स्थायी रुप से नहीं बनाया गया था और इसी हमेशा कार्यान्वयन के अनुभव के प्रकाश में समीक्षा की जा सकती है। वह पूर्व मंत्री दवे के कथन को दोहरा रहे थे, जिन्होंने 2016 में अधिनियम पारित करने के दौरान कहा था, "मैं सदन को विश्वास दिलाता हूं कि यदि मामले (आदिवासी समुदायों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं) को संबोधित करने में नियम पर्याप्त नहीं पाए जाते हैं, तो हम उन्हें एक वर्ष के अंतराल के बाद फिर से जारी करेंगे।"

इस बीच, सीएएफ अधिनियम राज्य के वन विभागों के लिए बहने वाले हजारों करोड़ रुपये के साथ जमीन पर उतरने के लिए तैयार है,वृक्षारोपण के लिए अधिक से अधिक भूमि चिन्हित की गई है, जैसा कि सरकार एक निकट-सार्वभौमिक वन मंजूरी दर के माध्यम से आगे बढ़ रही है।

डूंगडुंग ने कहा, "आदिवासियों के लिए जमीन की मांग, और झड़पें अधिक तीव्र होंगी।"

भूमि अधिकार समूह एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक रमेश शर्मा ने इसका समर्थन किया। शर्मा ने कहा, "दोनों कानून आनुवांशिक रूप से भिन्न हैं। सीएएफ [अधिनियम] नौकरशाही-केंद्रित है और वन अधिकार अधिनियम जनता-केंद्रित है। यह संघर्ष का एक नुस्खा है।”

(चौधुरी एक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। चौधुरी आदिवासी और ग्रामीण समुदायों, भूमि और वन अधिकारों, और संसाधन न्याय से जुड़े मुद्दों पर काम करती हैं।) - Email:suarukh@gmail.com

यह रिपोर्ट के लिए पुलित्जर सेंटर का सहयोग मिला था और इसे यहां भी देखा जा सकता है।

यह लेख अंग्रेजी में 25 जून 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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