नासिक, महाराष्ट्र: पुष्पा कदले नौ महीने की गर्भवती थीं और उनकी ढाई साल की बेटी थी, जब एक रात 4 बजे, उनके पति ने उन्हें घर छोड़ने के लिए कहा। उसके पास न ही पैसे थे और ही रहने के लिए कोई और जगह थी। महाराष्ट्र में नासिक जिले के थानापाड़ा गांव की रहने वाली 20 वर्षीय पुष्पा ने पड़ोसी से पैसा लिया और 18 किमी दूर के एक गांव में रहने वाले अपने माता-पिता के घर के लिए एक टैक्सी ली। पुष्पा एक किसान थी जो अपने पति के स्वामित्व वाली छह एकड़ जमीन पर खेती करती थी।

अब, वह अपने पिता के स्वामित्व वाली दो एकड़ जमीन पर खेती करती है। अनिवार्य रूप से, उसकी स्थिति कोई भिन्न नहीं है - वह जिस खेत को जोतती है, अब भी उसके टाइटल के बिना ही है और इसलिए उसके पास कोई आर्थिक या सामाजिक सुरक्षा नहीं है।

अब 32 साल की पुष्पा कहती हैं, , “मैंने थानापाड़ा में अपने पति के खेत में खूब काम किया। उन्होंने मुझे जुताई और उपज बेचने में मदद की, लेकिन मैंने ज्यादा काम किया।"उन्होंने बुवाई, निराई और कटाई के चक्र पर भी चर्चा की। उसने आगे बताया, “अगर मेरे नाम से कम से कम ज़मीन का कुछ हिस्सा होता, तो उसने मुझे और मेरे बच्चों को छोड़ने से पहले उसने बहुत सोचा होता और उसे मुश्किलें आतीं। इसके अलावा, मेरे बच्चों का भविष्य सुरक्षित रहता। ”

अपनी 12 साल की बेटी और 14 साल के बेटे के साथ 32 साल की पुष्पा कदले। कदले, महाराष्ट्र के नासिक जिले के गावंध गांव की एक किसान हैं, जिन्हें 12 साल पहले उनके पति ने छोड़ दिया था।

कदले की तरह, भारत में कई महिला किसानों के पास खुद की जमीन नहीं है। एक ऐसे देश में जहां 73.2 फीसदी ग्रामीण महिला श्रमिक कृषि में लगी हुई हैं, केवल 12.8 फीसदी महिलाओं के पास जमीन का स्वामित्व है। महाराष्ट्र में, 88.46 पीसदी ग्रामीण महिलाएं कृषि में कार्यरत हैं, जो देश में सबसे ज्यादा हैं। 2015 की कृषि जनगणना के अनुसार, पश्चिमी महाराष्ट्र के नासिक जिले में, महिलाओं के पास केवल 15.6 फीसदी कृषि भूमि का स्वामित्व है, यानी कुल खेती वाले क्षेत्र में 14 फीसदी की हिस्सेदारी है।

अध्ययन से पहले ही यह बात साफ हो चुकी है कि जिन महिलाओं के पास जमीन है उनके पास बेहतर आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा है। संयुक्त राष्ट्र की 2013 की एक रिपोर्ट में कहा गया है, "जबरन बेदखली या गरीबी के खतरे को कम करके, प्रत्यक्ष और सुरक्षित भूमि अधिकार महिलाओं की घर में महिलाओं की सौदेबाजी की शक्ति को बढ़ाते हैं और उनकी सार्वजनिक भागीदारी के स्तर में सुधार करते हैं।"

नासिक में एक महिला अधिकार कार्यकर्ता, आनिता पगारे कहती हैं, महिलाओं के लिए भूमि एक सौदेबाजी उपकरण के रूप में कार्य करती है। वह कहती हैं, "उनके नाम पर कोई जमीन नहीं है, महिलाएं पूरी तरह से अपने पति या उनके परिवार की दया पर हैं।"

भारत में भूमि हस्तांतरण मुख्य रूप से विरासत के माध्यम से होता है और यह धर्म-केंद्रित व्यक्तिगत कानूनों की एक श्रृंखला के माध्यम से होता है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (एचएसए) के अनुसार, एक पुरुष हिंदू की मृत्यु के बाद, भूमि को विधवा, माता और मृतक के बच्चों के बीच विभाजित किया जाना है। एचएसए सिख धर्म, बौद्ध धर्म या जैन धर्म के लोगों पर भी लागू होता है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत मुस्लिम महिलाओं को संपत्ति में एक तिहाई हिस्सा मिलता है, जबकि पुरुषों को दो तिहाई हिस्सा मिलता है। यह कुछ राज्यों को छोड़कर, कृषि भूमि पर लागू नहीं है। भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के अनुसार, ईसाई विधवाओं को संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा मिलेगा, जबकि शेष दो-तिहाई को मृतक के बच्चों के बीच समान रूप से विभाजित किया जाएगा।

कानूनी अधिकारों के बावजूद, सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराएं महिलाओं को भूमि के स्वामित्व से वंचित करते हैं। गावंध गांव में, 40 साल की जीजाबाई गवली के पति के नाम पर कभी 10 एकड़ जमीन थी। वह 20 वर्षों से उस पर खेती कर रही थीं। लेकिन सात साल पहले जब उनके पति की मृत्यु के बाद, उन्हें जमीन का प्राथमिक स्वामित्व नहीं दिया गया था। गवली कहती हैं, "भूमि पहले मेरी ननद, फिर मेरी सास, फिर मेरे बच्चों, के स्वामित्व में है।"

अपनी तीन बेटियों के साथ 40 साल की जीजाबाई गवली। गवली 10 एकड़ जमीन पर खेती करती है जिस पर कभी उनके पति का स्वामित्व था। सात साल पहले उनकी मृत्यु के बाद, खेत को उनकी सास और ननद को सौंप दिया गया था। वह कहती है कि वह अपने बच्चों का भविष्य बेहतर कर सकती थी यदि उसके नाम जमीन का एक टुकड़ा होता।

गवली कहती हैं, "हमारी संस्कृति में, महिलाओं को भूमि का अधिकार नहीं है। मेरी सबसे बड़ी बेटी की शादी दो साल पहले हुई थी और वह अपने पति की जमीन पर काम करती है। वे अपनी भूमि उसके नाम पर हस्तांतरित नहीं करेंगे। उसे एक बाहरी व्यक्ति माना जाएगा। ”

चार बेटियों और एक बेटे के साथ रह रही गवली ने कहा कि वह अपने खर्चों को बेहतर ढंग से प्रबंधित कर सकती थीं और अपने बच्चों के भविष्य को सुरक्षित कर सकती थीं, अगर उनके स्वामित्व में जमीन होती।

आत्महत्या करने वाले ऋणी किसानों में से 29 फीसदी की पत्नियां, अपने पति की जमीन को अपने नाम पर हस्तांतरित करने में सक्षम नहीं थी, जैसा कि महिला किसान प्रवेश मंच (मकाम, MAKAAM) द्वारा 2018 का अध्ययन में कहा गया है, जो भारत में महिला किसानों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए एक अनौपचारिक मंच है। अध्ययन में शामिल की गई 505 महिलाओं में से 65 फीसदी अपने घरों को अपने नाम पर स्थानांतरित करने में सक्षम नहीं थीं।

31 साल की सविता गायकवाड़ की शादी13 साल पहले हुई थी। वह अपनी शादी के बाद से ही नासिक के सोंगा गांव में अपने ससुर के 15 गुंटा (0.375 एकड़) जमीन पर खेती कर रही हैं। तीन साल पहले, उसके पति ने आत्महत्या कर ली थी, क्योंकि वह 1.5 लाख रुपये का कृषि ऋण वापस नहीं कर पाया। तब से, वह और उसके दो बेटे, 12 और नौ वर्ष की आयु, अपने पति के परिवार और अपने ससुर की भूमि पर निर्भर हैं।

अपने पति की मृत्यु के बाद, गायकवाड़ ने अपने ससुर से जमीन अपने नाम पर स्थानांतरित करने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। उसने उसे जमीन से उपज के साथ निर्वाह करने के लिए कहा। गायकवाड़ ने कहा, “खेत को सालाना 10,000 रुपये के खर्च की आवश्यकता होती है और रिटर्न उपज पर निर्भर करता है। पिछले साल, वहां बहुत पैदावार नहीं थी, इसलिए मैं कुछ भी नहीं कमा सकी । मुझे और मेरे बेटों के लिए सभी बुनियादी आवश्यकताओं की देखभाल के लिए कम से कम 2,000 रुपये प्रति माह चाहिए। "

अपनी जरुरतों को पूरा करने के लिए,गायकवाड़ अपने खेत पर काम करने के अलावा, 150 रुपये की दिहाड़ी पर एक खेतिहर मजदूर के रूप में भी काम करती हैं।

सविता गायकवाड़ के पति ने तीन साल पहले कृषि ऋण के कारण आत्महत्या कर ली थी।गायकवाड़ और उनके दो बच्चे अब जीवित रहने के लिए अपने ससुर की भूमि पर निर्भर हैं।

गायकवाड़ को यह भी चिंता है कि किसी दिन उसे घर खाली करने के लिए कहा जा सकता है।दो साल पहले, उसके ससुर ने एक नया घर बनाने के लिए जमीन पर ऋण लिया, जहां वे लोग रहते हैं और गायकवाड़ अपने बच्चों के साथ लकड़ी के बीम के पर रखे टिन की चादरों से बने घर में स्वतंत्र रूप से रहती हैं।

सविता गायकवाड़ उस जमीन पर काम करती हैं जो उनके ससुर के नाम पर है। दो साल पहले उसके ससुर ने मकान (दाएं) बनाने के लिए जमीन पर कर्ज लिया था। टिन की चादरों और लकड़ी के बीम से बने एक घर (बाएं) में अपने बच्चों के साथ स्वतंत्र रूप से रहने वाली गायकवाड़ को चिंता है कि किसी दिन उसे खेत खाली करने के लिए कह दिया जाएगा।

गायकवाड़ की भूमि का बीमा पिछले साल प्रधान मंत्री बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) के तहत किया गया था, लेकिन बीमा राशि उनके ससुर को हस्तांतरित की गई थी, जिनके पास जमीन है। गायकवाड़ कहती हैं, “सरकार की योजनाओं ने किसानों की मदद हो सकती है। लेकिन जब से मेरे ससुर जमीन के मालिक हैं, तो उन्हें ही सभी लाभ मिलते हैं।”

सरकारी योजनाओं और अन्य सुविधाओं तक महिलाओं की पहुंच तब कम हो जाती है, जब जमीन का स्वामित्व उनके नाम पर नहीं होता है, जैसा कि मकाम में राष्ट्रीय सुविधा टीम की सदस्य सीमा कुलकर्णी कहती हैं।

किसानों के लिए राष्ट्रीय नीति, 2007 में किसान, किरायेदार और अन्य श्रमिकों सहित एक किसान की व्यापक परिभाषा की सिफारिश की गई थी, लेकिन सरकार की परिभाषा भूमि के स्वामित्व पर आधारित है। कुलकर्णी ने कहा कि राजस्व विभाग एक किसान को भूमि के रिकॉर्ड के आधार पर परिभाषित करता है और कृषि विभाग राजस्व विभाग की परिभाषाओं का पालन करता है। उन्होंने कहा, "इसलिए, अधिकांश योजनाओं के लिए लाभार्थियों के आधार को सीमित करके भूमि शीर्षक रिकॉर्ड जमा करने की आवश्यकता होती है।"

संस्थागत ऋण की पहुंच भी भूमि के स्वामित्व के साथ सीमित है। कुलकर्णी ने कहा कि बिना जमीन वाली महिलाओं के लिए उपलब्ध एकमात्र धन विकल्प स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) और माइक्रोफाइनेंसर हैं। उन्होंने आगे कहा, "एसएचजी में सीमित धनराशि के साथ, अधिकांश महिलाएं माइक्रोफाइनेंसर के साथ जाती हैं और अपनी उच्च ब्याज दरों और सीमा अमानवीय वसूली प्रक्रियाओं को स्वीकार करती हैं।"

कृषि आत्महत्याओं के मामलों में, संस्थागत ऋण तक पहुंच का महत्व है। पति की मृत्यु के बाद कर्ज चुकाने का बोझ विधवा पर पड़ता है। मकाम द्वारा किए गए अध्ययन में कहा गया है कि इन विधवाओं में से अधिकांश (58 फीसदी) 45 से छोटे हैं और केवल मुट्ठी भर (1.7 फीसदी) के पास ही कृषि की आय के अन्य स्रोत हैं।

गायकवाड़ ने कहा कि वह अभी तक अपने पति का कर्ज नहीं चुका पाई है। गायकवाड़ ने कहा, “कुछ लोग मुझसे पैसे मांगने आए थे। लेकिन मैंने उन्हें अपनी स्थिति के बारे में बताया। इसलिए उन्होंने छोड़ दिया। वे वापस आ सकते हैं और मुझे नहीं पता कि मैं क्या करूंगी या मैं उन्हें कैसे चुकाउंगी। "

महाराष्ट्र सरकार आत्महत्या करने वाले एक ऋणी किसान के परिवार को 1 लाख रुपये की अनुग्रह राशि प्रदान करती है। हालांकि, परिवार को पैसा पाने के लिए किसान की मृत्यु आत्महत्या के रुप में घोषित होनी चाहिए।एक किसान संघ, अखिल भारतीय किसान सभा (AIKS) के कार्यकारी अध्यक्ष राजू देसले ने कहा,“ऋण के विवरण बताते हुए दस्तावेज कलेक्टर के अधीन गठित समिति को प्रस्तुत करने होंगे। समिति द्वारा इसे अनुमोदित करने के बाद, परिवार को पैसा मिलता है।"

महिला किसानों की सरकारी योजनाओं तक पहुंच बढ़ाने के लिए, 18 जून, 2019 को महाराष्ट्र सरकार ने आत्महत्या करने वाले किसान की विधवा को भूमि का टाइटिल (महाराष्ट्र में 7/12 अर्क कहा जाता है) स्थानांतरित करने के लिए एक सरकारी प्रस्ताव पारित किया।

प्रस्ताव में यह भी कहा गया है कि विधवाओं को सरकारी योजनाओं तक पहुंच में प्राथमिकता दी जाएगी और विधवाओं के लिए जिला स्तर पर सहायता प्रकोष्ठ बनाए जाएंगे।

इंडियास्पेंड ने प्रस्ताव के कार्यान्वयन के बारे में अधिक जानने के लिए महाराष्ट्र के राजस्व और वन विभाग के अधिकारियों से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है। हमने प्रमुख सचिव, मनु कुमार श्रीवास्तव के कार्यालय का दौरा किया, कार्यालय को दो ईमेल भेजे और टेलीफोन के माध्यम से उनसे पांच बार संपर्क करने की कोशिश की। यदि हमें प्रतिक्रिया मिलती है तो हम इस आलेख को अपडेट करेंगे।

(श्रेया रमन डेटा एनालिस्ट हैं और इंडियास्पेंड से जुड़ी हैं।)

(इस रिपोर्टिंग लिए इम्पैक्ट जर्नलिज्म ग्रांट मिला था।)

यह आलेख मूलत: 9 सितंबर 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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