मध्य प्रदेश के सोयाबीन किसानों पर अनिश्चित मौसम की मार, घटते उत्पादन ने बढ़ाई चिंता
मध्य प्रदेश सोयाबीन उत्पादन के मामले में लंबे समय से नंबर एक राज्य है। लेकिन पिछले कई वर्षों से राज्य में सोयाबीन का उत्पादन बेहद उतार-चढ़ाव वाला रहा है। किसान और जानकार इसके लिए असमय बारिश को जिम्मेदार बता रहे हैं। सोयाबीन की खेती के लिए खास पहचान रखने वाले मालवा क्षेत्र के तीन जिलों उज्जैन, देवास और रायसेन से ग्राउंड रिपोर्ट।
उज्जैन/देवास/रायसेन: “वहां पहाड़ी तक, जहां तक आप देख पा रहे हैं, सभी खेतों में धान लगती है। हमारे पूरे क्षेत्र में अब धान की ही खेती होती है। तीन-चार साल पहले यहां के हर खेत में सोयाबीन लगती थी। लेकिन अब ये पुरानी बात हो चुकी है।” खेत में मेड़ों पर सिंचाई के लिए पड़ी प्लास्टिक की पाइप को ठीक करते हुए युवा किसान अजय मीणा बताते हैं।
वे बताते हैं कि पिछले पांच साल से उनके यहां खरीफ सीजन (जून-जुलाई में बोई जाने वाली फसल) में बस धान की ही खेती की जा रही।
“जब से पैदा हुआ हूं, तब से हमारे यहां सोयाबीन की ही खेती होती थी। लेकिन इधर कई वर्षों से बेमौसम बारिश की वजह से पूरी फसल ही चौपट हो जाती थी। इसलिए मेरे पिता सहित क्षेत्र के दूसरे किसानों ने धान लगाने का फैसला लिया। भले ही इसमें मेहनत ज्यादा और मुनाफा कम है। लेकिन नुकसान तो नहीं है।” मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 50 किमी दूर जिला रायसेन के राजातलाई में लगभग पांच एकड़ खेत में धान बोने वाले किसान अजय मीण (29) आगे बताते हैं।
सोयाबीन की बुवाई और उत्पादन के मामले में मध्य प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है। किसान कल्याण तथा कृषि विकास विभाग, मध्य प्रदेश और सोयाबीन किसानों, निर्यातकों और व्यापारियों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठन सोयाबीन प्रोसेसर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (SOPA) के अनुसार मध्य प्रदेश में खरीफ सीजन वर्ष 2023 में 52.050 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सोयाबीन की बुवाई हुई और उत्पादन 52.470 मिलियन मीट्रिक टन (1,000 किलोग्राम) रहा।
इससे पिछले खरीफ सीजन यानी 2022 में 50.645 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सोयाबीन की बुवाई हुई थी और अनुमानित उत्पादन 53.248 मिलियन मीट्रिक टन रहा। 2022 की अपेक्षा 2023 में रकबा तो बढ़ा, लेकिन उत्पादन में गिरावट आई। 2021 में बुवाई का रकबा 55.687 लाख हेक्टेयर था। वर्ष 2020 में मध्य प्रदेश (58.541 लाख हेक्टयेर) की अपेक्षा कम क्षेत्र (40.398 लाख हेक्टेयर) में बुवाई के बावजूद 45.446 मिलियन मीट्रिक टन उत्पादन के साथ महाराष्ट्र उत्पादन के मामले में पहले नंबर पर पहुंच गया था।
भले ही मध्य प्रदेश उत्पादन के मामले में अभी पहले पायदान पर खड़ा है। लेकिन आंकड़ें बता रहे हैं कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान प्रदेश में सोयाबीन की खेती का रकबा और उत्पादन दोनों अस्थिर रहे हैं। राज्य का मालवा क्षेत्र (भोपाल, गुना, रायसेन, सागर, विदिशा, देवास, सीहोर, उज्जैन, शाजापुर, इंदौर, रतलाम, धार, झाबुआ, मंदसौर, राजगढ़, नीमच) सोयाबीन की खेती के लिए जाना जाता है। इंडियास्पेंड ने मालवा के ही तीन जिलों, उज्जैन, देवास और रायसेन के किसानों से बात की और घटते उत्पादन की वजह जानने की कोशिश की।
सोयाबीन उत्पादन वाले शीर्ष राज्य
उत्पादन में अनिश्चितता और घटता रकबा
उज्जैन जिले के शंकरपुल में ईश्वर सिंह डोडिया (58) अपने दो एकड़ खेत में वर्ष 2013 से पहले तक सोयाबीन की खेती करते थे। लेकिन अब वे जैविक तरीके से सब्जियों की खेती कर रहे हैं। वजह पूछने पर बताते हैं, “पिछले 8-10 वर्षों की बात करेंगे तो मौसम सोयाबीन का सबसे बड़ा दुश्मन बन चुका है। अब इसी समय (जुलाई 25 2023) की बात कर लीजिये। किसान बारिश का इंतजार कर रहे हैं। पौधे पीले पड़ने लगे हैं। जल्दी बारिश नहीं हुई तो पौधे ही खत्म हो जाएंगे। पिछले कई वर्षों से ऐसा ही हो रहा है।”
“ऐसा नहीं है कि जिले में बारिश नहीं हो रही है। लेकिन समय पर नहीं हो रही और अगर हो भी रही है तो एक दो दिन में ही इतनी बारिश हो जा रही कि पूरी फसल ही चौपट हो जाती है। और ऐसा पिछले कुछ वर्षों में ज्यादा हो रहा। इसलिए सोयाबीन की खेती करने वाले किसानों की संख्या धीरे-धीरे कम हो रही है।” ईश्वर सिंह आगे बताते हैं।
केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण विभाग की रिपोर्ट के अनुसार उज्जैन में वर्ष 1997-98 में कुल 407,600 हेक्टेयर में सोयाबीन की खेती हुई थी कि और कुल उत्पादन 424,400 टन हुआ जबकि वर्ष 2019-20 में बुवाई क्षेत्र का बढ़कर 505,789 हेक्टयेर हो गया जबकि उत्पादन कम होकर 235,698 टन पर आ गया। यानि पिछले 23-24 वर्षों के दौरान बुवाई का क्षेत्र भले ही लगभग 24% से ज्यादा बढ़ा। लेकिन इस दौरान उत्पादन में 44% से ज्यादा की गिरावट आई है।
अगर 1997 से 2021 के बीच के आंकड़ों को देखेंगे तो उत्पादन और बुवाई क्षेत्र के आंकड़ें ऊपर नीचे होते रहे हैं। 1997-98 में जिले में प्रति हेक्टेयर सोयाबीन का उत्पादन प्रति हेक्टेयर 1.04 टन था तो 2019- 20 में 0.47 पर आ गया।
“दरअसल सोयाबीन की खेती को लेकर किसानों के मन में अब डर बैठ गया है। इसकी सबसे बड़ी वजह है मौसम की अनिश्चितता। लेकिन हमारे पास इसका दूसरा विकल्प भी नहीं है। पिछले से पिछले साल (2022) मेरा कम से कम पांच लाख रुपए का नुकसान हुआ था। फिर भी मैंने इस खरीफ सीजन में भगवान भरोसे 20 एकड़ में सोयाबीन लगाया। उत्पादन लगभग 30% कम रहा। मैंने अर्ली वेरायटी (80 से 85 दिन में पकने वाली फसल) लगाया। प्रति एकड़ उत्पादन महज 2.5 क्विंटल रहा क्योंकि सितंबर में लंबी खींच (लंबी खींच मतलब बारिश वाले दो दिनों के बीच का अंतराल) लगभग 15 दिनों की हो गई।” उज्जैन से लगभग 50 किलोमीटर दूर देवास जिले के गांव मनासा के किसान कांतीलाल जाट बताते हैं।
हम जब 26 जुलाई 2023 को कांतीलाल से मिलने पहुंचे तो उस दिन तेज बारिश हो रही थी और उन्होंने बताया कि पिछले तीन दिनों से बारिश हो रही है। “इधर के कुछ वर्षों में यही हो रहा है। दो-तीन दिन में ही इतनी बारिश हो जाती है पूरी फसल पीली (खराब) पड़ जाती है। आज लगातार तीसरा दिन है जब हमारे यहां बारिश हो रही है। अगर यही हाल रहा तो इस साल भी उत्पादन कम ही होगा। और बाद में जब बारिश की जरूरत हुई तो लंबे समय तब बारिश ना होने की वजह से उत्पादन प्रभावित हो गया।”
उज्जैन, देवास और रायसेन में 1997-98 से 2019-20 के बीच सोयाबीन उत्पादन और बुवाई क्षेत्र की स्थिति
देवास में 1997-98 की अपेक्षा बुवाई का रकबा तो बढ़ा। लेकिन उत्पादन में लगभग 26% की गिरावट आई है। बीच के वर्षों में कई बार उत्पादन 40% से भी नीचे आ गया। वहीं अगर प्रति हेक्टेयर उत्पादन की बात करें 1997-98 की अपेक्षा 2019-20 में 54 फीसदी से ज्यादा की गिरावट आई।
देवास से लगभग 300 किलोमीटर दूर जिला रायसेन में अब चारों ओर धान के खेत दिखते हैं। मध्य प्रदेश सरकार के अनुसार सोयाबीन पहले यहां के किसानों की पसंदीदा उपज हुआ करती थी। लेकिन असमय वर्षा की वजह से अब किसान दूसरी खेती कर रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन पर बनी मध्य प्रदेश सरकार की वेबसाइट के अनुसार रायसेन में हाल के वर्षों में बारिश के तरीके में बदलाव आया है। अनियमित और कम समय में तेज बारिश होने लगी है। इसके कारण सोयाबीन की फसल को लगातार नुकसान होने लगा है। जिसकी वजह से किसान अब धीरे-धीरे सोयाबीन की जगह धान की खेती करने लगे हैं।
रायसेन के ही किसान नारायण सिंह (60) बताते हैं कि उत्पादन के साथ-साथ सोयाबीन की खेती की लागत भी बढ़ी है। वे कहते हैं, "आज से 8-10 साल पहले तक एक हेक्टेयर में कम से कम 20 से 25 क्विंटल उत्पादन होता था। पांच साल पहले जब सोयाबीन की खेती छोड़ी तब उत्पादन
प्रति हेक्टेयर 3 से 5 क्विंटल से भी कम हो चुका था। 10 साल पहले एक हेक्टेयर की खेती में 5 से 7 हजार रुपए का खर्च आता था। अब ये बढ़कर दोगुना तक हो चुका है। यही सब देखते हुए हमें धान की खेती शुरू करनी पड़ी।"
वर्ष 1997-98 में रायसेन में कुल 132,400 हेक्टेयर में सोयाबीन की बोवनी हुई थी। 2019-20 आते-आते ये बुवाई का कुल क्षेत्र सिकुड़कर 97,491 हेक्टेयर पर आ गया। इस दौरान उत्पादन 181,600 मीट्रिक टन से घटकर 43,773 पर पहुंच गया। मतलब उत्पादन में 75% से ज्यादा की गिरावट आई है। इस दौरान प्रति हेक्टेयर उत्पादन में 67% से की गिरावट देखी गई।
आईसीएआर- भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डॉ. बीयू दुपारे (कृषि विस्तार) भी कहते हैं कि मौसम की अनिश्चितता ने सोयाबीन किसानों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं, “खरीफ की फसल सोयाबीन की बुवाई किसान जून के आखिरी सप्ताह से लेकर जुलाई के पहले सप्ताह तक करते हैं और 90 से 110 दिनों में फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है। लेकिन पिछले कुछ सालों से हो ये रहा कि बुवाई के समय बारिश बहुत कम हो रही है। और जब कटाई का समय आता है इतनी बारिश हो जाती है कि पूरी की पूरी फसल खेत में ही गल जाती है। सही मायने में बारिश के प्रारूप में काफी बदलाव आया है और इसका असर किसानों पर पड़ेगा ही।”
अनिश्चित मौसम
मौसम की अनिश्चितता को देखते हुए किसान सोयाबीन के इतर दूसरी फसलों की ओर रुख कर रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1999 में उज्जैन में धान की बुवाई 12 हेक्टेयर में हुई थी जो 2019-20 तक बढ़कर 30 हेक्टेयर हो गई। इस दौरान दूसरी फसलें जैसे मक्का, उड़द को भी किसान दूसरे विकल्प के रूप देख रहे हैं।
वहीं अगर दूसरे जिलों की बात करें तो रायसेन में वर्ष 1998-99 के दौरान कुल 3,800 हेक्टेयर में धान की बुवाई हुई तो जो 2019-20 में 5000% फीसदी से ज्यादा बढ़कर 197,944 हेक्टयेर तक पहुंच गई। इसी तरह देवास में खरीफ सीजन में मक्के की बुवाई का रकबा 1997-98 की अपेक्षा 2019-20 में 200% से ज्यादा बढ़ा है।
“ऐसा नहीं कि राज्य में बहुत बारिश हो रही है। लेकिन कम अवधि में ज्यादा बारिश की घटनाएं बढ़ रही हैं जो सोयाबीन की फसल के लिए नुकसानदायक है,” डॉ. बीयू दुपारे कहते हैं।
उज्जैन कृषि विज्ञान केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एस के कौशिक घटते उत्पादन के लिए बदलते मौसम और कुछ हद तक किसानों को भी जिम्मेदार मानते हैं। वे कहते हैं, “इसमें कोई दो राय नहीं है कि हाल के वर्षों में अनिश्चत मौसम ने सोयाबीन की फसल को काफी नुकसान पहुंचाया है। उत्पादन तो घटा ही है, साथ ही लागत भी बढ़ गई है। लेकिन इसके लिए कुछ हद तक किसान भी जिम्मेदार हैं।”
“अब समय आ गया है कि किसान सही किस्म और समय का चुनाव करें। कम दिनों में पकने वाली किस्म (अर्ली वेरायटी) ज्यादा प्रभावित हो रही है। किसान ज्यादा मुनाफा के चक्कर में ऐसी किस्मों का चयन कर रहे हैं। अगर नुकसान से बचना है तो किसानों को समय और किस्म का सही सही चुनाव करना पड़ेगा। खेती का पैटर्न बदलना होगा।” वे आगे कहते हैं।
देवास, रायसेन और उज्जैन में बारिश के आंकड़े, चार्ट
अगर हम पिछले पांच वर्षों के आंकड़े देखें तो भारत मौसम विज्ञान विभाग, पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय, भारत सरकार की रिपोर्ट बताती हैं कि रायसेन में वर्ष 2017 में 927.5 मिली मीटर बारिश हुई थी जबकि 2021 में जिले में 1,140 मिमी बारिश हुई। बीच के वर्षों को देखेंगे तो 2018 में 1064.8, 2019 में 1939.2 और 2020 में 1416.76 मिमी बारिश हुई। बारिश के आंकड़ों में लगातर उतार-चढ़ाव देखे जा सकते हैं। देवास और उज्जैन के भी आंकड़ें कुछ ऐसे ही हैं।
पिछले पांच साल के दौरान इन जिलों में मानसून सत्र के दौरान हुई बारिश में काफी उतार-चढ़ाव देखे गये। अगर रायसेन की बात करें तो वर्ष 2016 के जुलाई महीने में ही लगभग 700 और अगस्त में 500 मिमी बारिश हुई जबकि इस साल जिले में कुल 1469.8 मिमी बारिश हुई थी। मतलब दो महीने में ही लगभग 81 फीसदी बारिश हो गई। वर्ष 2018 में रायसेन में सितंबर महीने में 164.3 मिम बारिश हुई थी। इसके अगले साल 2019 में कुल 1939.2 मिमि बारिश हुई थी। इस साल मानसून के आखिरी महीने में यानी सितंबर में 648.4 मिमि बारिश हुई जो सालभर की बारिश का 34% से ज्यादा है। महीने दर महीने वाली बारिश के आंकड़े दूसरे जिलों में लगभग ऐसे ही हैं।
1995 से 2021 के बीच मंथ वाइज बारिश के आंकड़े
“रेनफॉल पैटर्न में बदलाव आया है। अब आखिर-आखिर में ज्यादा बारिश हो रही है। शुरू में तो सूखे के हालात बन जाते हैं। वर्षा आधारित सोयाबीन की फसल को बहुत ज्यादा पानी की जरूरत नहीं पड़ती, 600 से 800 मिमी में इसकी पैदावार अच्छी हो जाती है। लेकिन इतने पानी का वितरण बुवाई, अंकुरण और फसल पकने तक बराबर मात्रा में होनी चाहिए। बारिश के दिनों की घटती संख्या की वजह से सोयाबीन की पैदावार सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है।” दुपारे आगे कहते कि कम दिनों में ज्यादा बारिश से फसल को ज्यादा नुकसान हो रहा है।
रायसेन के अजय मीण भी यही बात दुहराते हैं। वे कहते हैं कि इधर के सालों में एक दो दिन में खूब बारिश हो जा रही है जिसकी वजह से पानी खेतों में जमा हो जाता है और फसल उससे उबर ही नहीं पाती। वे यह भी कहते हैं कि पहले मध्य प्रदेश में मौसम ऐसा नहीं होता था। बारिश तो होती थी। लेकिन ऐसे दिनों की संख्या ज्यादा होती थी।
उज्जैन में 1951 से 1960 के बीच अत्यधिक बारिश (मतलब 24 घंटे में 100 मिमी से ज्यादा बारिश) वाले दिनों की संख्या 7 थी। जबकि इस दौरान रायसेन में ये संख्या 11 और देवास में 7 थी। इसके बाद 1961 से 1970 के बीच ज्यादा बारिश वाले दिनों की संख्या सामान्य रही। इसी तरह 1971 से 1980, 1981 से 1990, 1991 से 2000, 2001 से 2010 और 2011 से 2020 के बीच बहुत ज्यादा बारिश वाले दिनों की संख्या एक रही।
2023 मानसून सत्र में भी राहत नहीं
किसान कांतीलाल जाट ने बताया कि जुलाई के आखिरी और अगस्त के पहले सप्ताह में अच्छी बारिश हुई। उसके बाद बारिश कम हो गई। सितंबर में बहुत लंबा अंतराल हो गया जिसका असर उत्पादन पर पड़ा।
मानसून के इस सत्र में (4 सितंबर तक) देवास में 650.6 मिमी बारिश हुई है जो सामान्य से लगभग 18 फीसदी कम रही। भारत मौसम विभाग की रिपोर्ट देखें तो पता चलता है कि जिले में मानसून के शुरुआती सप्ताह में सामान्य से बहुत कम बारिश हुई। इसके बाद जुलाई के तीसरे, चौथे और अगस्तi के पहले सप्ताह में सामान्य से काफी ज्यादा बारिश हुई।
इसी तरह रायसेन और उज्जैन में भी मानसून के शुरुआती सप्ताह में सामान्य से बहुत कम बारिश हुई। इसके बाद कुछ सप्ताह सामान्य से ज्यादा बारिश हुई और सितंबर आते-आते बारिश सामान्य हो गई। लेकिन पूरे मानसून सत्र की बात करें तो बारिश सामान्य से कम ही हुई।
चार सितंबर 2023 तक रायसेन में 11 और उज्जैन में 25% कम बारिश हुई । पूरे प्रदेश की बात करें तो मध्य प्रदेश में 1 जून से 4 सितंबर तक 664.2 मिमि बारिश ही हुई है जो सामान्य से 19 फीसदी कम है।
सोयाबीन किसान और व्यवसायियों के संगठन सोपा (The Soybean Processors Association of India) के निदेशक डीएन पाठक भी बदलते मौसम को लेकर परेशान हैं। वे कहते हैं कि इंदौर और आसपास के कई जिलों में सोयाबीन प्रोसेसिंग यूनिट बंद हो चुके हैं। “बदलते मौसम की वजह से सोयाबीन का उत्पादन कम हो रहा है जिसकी वजह से कंपनियों पास कच्चा माल कम पहुंच रहा है। जो फसल आ भी रही है तो उसकी क्वालिटी ठीक नहीं है। ऐसे में बदलते मौसम से कैसे बचा जाये, इस पर प्रभावी कदम उठाने की जरूरत है।”
आईसीएआर कर रहा है सोयाबीन की नयी किस्म पर काम
ऐसे में अब सवाल यह भी है किसानों के पास विकल्प क्या हैं? इस पर आईसीएआर- भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डॉ. दुपारे बताते हैं कि हम सोयाबीन की ऐसी किस्मों पर काम कर रहे हैं कि जो हर तरह के मौसम को झेल सके।
“मानसून के दौरान पहले कभी चार-पांच दिन की ही ड्राय स्पेल हुआ करती थी। ड्राय स्पेल से मतलब है कि मानसून सत्र के दौरान 4 से 5 दिन तक पानी नहीं बरसता था। इससे फसलों को बहुत प्रभाव नहीं पड़ता था। अब मानसून का ट्रेंड बदलने के बाद सूखे के दिन 15 से 20 दिन तक के हो गए हैं, यानी ड्राय स्पेल की अवधि 15 से 20 दिन तक पहुंच गई है। ऐसे में मानसून में लंबा ड्राय स्पेल हो जाने के कारण सोयाबीन की फसल पर विपरीत असर पड़ता है। कई बार तो सोयाबीन के पौधे सूख जाते हैं और दोबारा बोवनी की स्थिति बन जाती है।”
“हम इधर के वर्षों में एनआरसी 150, एनआरसी 141, एनआरसी 148, एनआरसी 157 जैसी सोयाबीन की नई वैरायटी लेकर आए हैं जो समय कम लेती हैं और ये विपरीत मौसम से भी लड़ने में सक्षम है। इसके अलावा हम हम किसानों को नई तकनीकी के बारे में भी जागरूक कर रहे हैं। लेकिन किसान नये प्रयोगों से डरते हैं। आने वाले समय में सोयाबीन की कई और नई किस्में बाजार में आएंगी जिन पर प्रतकिूल मौसम का असर कम पड़ सकता है।” डॉ. दुपारे कहते हैं।
इंडियास्पेंड ने मध्य प्रदेश सरकार के तत्कालीन कृषि मंत्री कमल पटेल से फोन पर की। ये बातचीत विधानसभा चुनाव 2023 से पहले हुई थी। तब उन्होंन कहा, "इधर के वर्षों में मौसम किसानों का साथ नहीं दे रहा। लेकिन हमारी सरकार उनके साथ है। वैज्ञानिक ऐसी किस्में विकसित कर रहे हैं जो कम और ज्यादा बारिश में भी खराब नहीं होगी और उत्पादन भी अच्छा होगा। इसके अलावा इस साल की बात करें तो सरकार किसानों के साथ है। जहां कम बारिश हुई है वहां के धान और सोयाबीन किसानों के लिए जरूरी इंतजाम करेगी। सरकार आरबीसी (6- 4, प्राकृतिक आपदा को लेकर आर्थिक सहायता) और प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत सोयाबीन फसल में जो नुकसान किसानों का हुआ है, उसकी भरपाई करेगी।"
रायसेन में अजय मीण निराश हैं। उन्हें उम्मीद थी कि बीते खरीफ सीजन में धान की अच्छी पैदावार होगी। लेकिन उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। “सोयाबीन छोड़ धान की खेती शुरू की। क्योंकि पिछले कई वर्षों से खूब बारिश हो रही थी। लेकिन इस बार बारिश ने बहुत धोखा दिया। 15 अगस्त 2023 के बाद बारिश ही नहीं हुई। धान उत्पादन की बात करें तो इस प्रति एकड़ उत्पादन 15 क्विंटल ही हुआ जबकि इससे पहले यही उत्पादन 20 क्विंटल तक बड़े आराम से हो जाता था। सोयाबीन छोड़ धान लगाया, अब क्या करेंगे, पता नहीं।”