देहरादून: उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों के खेतों में पिछले कुछ वर्षों से जंगली जानवरों के नियमित हमले होते रहे हैं। इन लगातार हमलों की चपेट में आने से कई लोगों की जान चली गई, कई मवेशी घायल हुए, फसलें और इमारतें क्षतिग्रस्त हो गई और खेत बंजर हो गए।

हाल ही में 'बीज बमबारी' की रोपण तकनीक का विचार इस समस्या के समाधान के रूप में उभर कर आया है। जंगल में ही जंगली जानवरों के लिए भोजन उपलब्ध हो, यह सुनिश्चित करने के लिए बीज बम या मिट्टी में ढके बीज के गोले जंगलों में फेंके जा रहे हैं। इस तरह खेतों को जंगली जानवर के हमले से बचाने का प्रयास किया जा रहा है। 2017 में शुरू हुआ यह अभियान अब देहरादून, टिहरी और नैनीताल समेत पूरे राज्य में फैल गया है।

साल 2017 के बाद से, जब से बीज बमबारी की पहल शुरू हुई है, क्षतिग्रस्त फसलों की संख्या गिर रही है (हालांकि यह पिछले साल फिर से बढ़ गई थी)। इसी तरह मनुष्यों, मवेशियों और इमारतों को होने वाले नुकसान में भी उतार-चढ़ाव देखा गया है। डेटा बताता है कि अभियान के परिणाम अभी भी अनिर्णायक हैं, इसके बावजूद इसे समुदाय, नागरिक समाज और सरकार से समर्थन मिलना जारी है।

रिलायंस फाउंडेशन जैसे गैर सरकारी संगठनों ने भी इस अभियान को अपनाया है। फाउंडेशन के प्रोजेक्ट हेड कमलेश गुरुरानी कहते हैं, "पिछले तीन सालों से हम उत्तरकाशी के जंगलों में बीज फेंक रहे हैं, जो अब उग आए हैं। अगले कुछ सालों में हम इस नतीजे पर पहुंच पाएंगे कि यह तरीका कारगर है या नहीं?"

वह आगे कहते हैं, "इस वर्ष हमने बीज बमों को बिखेरने के लिए एक विशेष स्थान को चुना है, तब हम उन पर नजर भी रख सकेंगे। हम यह भी आकलन करेंगे कि क्या पहले की तुलना में किसानों की उपज में मामूली वृद्धि हुई है। लेकिन वन्य जीवों को जंगल तक सीमित रखने के लिए हमें भोजन के साथ पानी की भी व्यवस्था करनी होगी। इसके लिए कुछ जगहों पर 'चलखल' भी बनाए गए हैं।"

हिमालय पर्यावरण जड़ी बूटी एग्रो संस्थान के सचिव द्वारका प्रसाद सेमवाल। फोटो- वर्षा सिंह (तस्‍वीर में बाएं तरफ)

बीज बम को जंगल में रखा जा रहा है। फोटो- सावित्री सकलानी (तस्‍वीर के दाएं तरफ ऊपर)

कुछ हफ्तों बाद बीज बम से पौधा न‍िकल रहा है। फोटो - जगदीश चंद्र जीतू (तस्‍वीर के दाएं तरफ नीचे)


अभियान के बीज

राज्य में बीज बम अभियान की शुरुआत हिमालय पर्यावरण जड़ी बूटी एग्रो संस्थान (JADDI), उत्तरकाशी के सचिव द्वारका प्रसाद सेमवाल और पर्यावरण संरक्षण पर केंद्रित एक एनजीओ द्वारा की गई थी।

अभियान के पीछे के विचार के बारे में बताते हुए सेमवाल ने कहा, "हमने 2017 में जंगल में बीज लगाए थे, लेकिन अधिकांश बीज या तो खो गए या फिर पक्षियों द्वारा खा लिए गए या फिर जानवरों ने उन्हें रौंद दिया। हमें एक प्रतिशत भी सफलता नहीं मिली। इसके बाद बीज की रक्षा के लिए हमने मिट्टी, खाद और पानी का एक गोला बनाया और उसमें दो बीज डाले। हमने उन्हें 'बीज बम' नाम दिया। हमने इस अभियान को छोटे स्तर पर कुछ गांवों में शुरू किया और फिर इसे पूरे राज्य में ले गए।"

आज यह अभियान उत्तरकाशी के कई गांवों में सक्रिय है, जहां महिलाएं और युवा मिलकर बीज बम बनाते हैं और उन्हें जंगलों में बिखेर देते हैं। बीज बम बारिश शुरू होने से ठीक पहले जून-जुलाई के महीने में तैयार किए जाते हैं क्योंकि गीली मिट्टी में बीजों के अंकुरित होने की सबसे अधिक संभावना होती है। मिट्टी के गोले को जंगल मे ले जाने से पहले तीन से चार दिनों तक छाए में सुखाया जाता है, जब तक कि वे न तो बहुत सख्त और न ही बहुत नरम हों।

बीज बम को मिट्टी, खाद, कागज और पानी से बनाया जाता है और फिर इसे छाए में कुछ द‍िन सुखाया जाता है। इसके बाद इन्‍हें जंगलों में फेंका जाता है। फोटो - द्वारका प्रसाद सेमवाल

नैनीताल के रामगढ़ प्रखंड के नाथूखान गांव की पूर्व ग्राम प्रधान तुलसी देवी इन बीज बमों को लेकर आशान्वित हैं। उन्होंने कहा, "हमने कद्दू, लौकी, तोरी, ककड़ी, मक्का और दाल के बीजों से बीज बम बनाए। बारिश से ठीक पहले कुछ बीज बम जंगल की ओर फेंके गए। अगर हम इन सब्जियों और फलों को जंगल के पास उगाएंगे तो हमारी खेती बच जाएगी। बीज बम बनाने का यह हमारा तीसरा वर्ष है।"

द्वारिका प्रसाद ने कहा कि बीजों को ऊंचाई और मिट्टी के अनुसार सावधानी से चुना जाता है। बीज लेने के लिए उनके एनजीओ ने एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अन्नपूर्णा नौटियाल, उत्तरकाशी के सहायक बागवानी अधिकारी एनके सिंह और चिन्यालीसौर में कृषि विज्ञान केंद्र के पंकज नौटियाल जैसे कई विशेषज्ञों के साथ भी परामर्श किया।

इस वर्ष समाज से बीज दान भी मांगा जा रहा है। सेमवाल ने समझाया, "बीज दान से संरक्षण की भावना जुड़ी हुई है। बहुत से लोगों ने बीज दान किए हैं। कोई दो देता है तो कोई 10 देता है। उत्तरकाशी के मंगल यूथ फाउंडेशन के सदस्य आकाश नौटियाल ने कहा,"किसान आज भी अपने घरों में पारंपरिक बीज रखते हैं, जो वे कभी-कभी हमें दे देते हैं।"

नैनीताल में जगदीश चंद्र जीतू स्थानीय युवाओं के साथ मिलकर बीज बमबारी अभियान के लिए काम करते हैं। कोरोना महामारी आने के बाद वह पिछले साल अपने गांव नाथूखान लौट आए थे। "द्वारिका प्रसाद सेमवाल जी, जो कर रहे थे उसे देखते हुए मैंने भी पिछले साल तालाबंदी के दौरान बीज बम बनाए और उन्हें जंगल में फेंक दिया। 10-15 दिनों के बाद कई बीज बम अंकुरित होते देखे गए। जिन जगहों पर हमने बीज बम फेंके थे, वे अब हरे हैं। हमारा प्रयास है कि हर साल इस अभियान को आगे बढ़ाया जाए। तब हमें इसके अच्छे परिणाम देखने को मिलेंगे।"

एक शून्य बजट के सफलता की कहानी

एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय के डॉ. अरविंद दरमोरा जो कि पर्वतीय विकास शोध केंद्र (सेंटर फॉर माउंटेन डेवलपमेंट), श्रीनगर तहसील, उत्तराखंड के निदेशक भी हैं, का मानना है कि अगर इसे हम सरकार द्वारा वृक्षारोपण के खर्च से इसकी तुलना करें तो बीज बम अभियानों की सफलता दर बहुत अधिक है।

उन्होंने समझाया, "लाखों रुपये खर्च करने के बावजूद वृक्षारोपण कार्यक्रम केवल 20-30 प्रतिशत तक ही सफल रहे हैं। लेकिन बीज बम अभियान 80 प्रतिशत तक सफल रहा है।"

बीज बम एक शून्य बजट अभियान है जहां उत्साही सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से बीज, मिट्टी और उर्वरक प्राप्त किए जाते हैं।

दरमोड़ा ने उत्तरकाशी के कामद इंटरमीडिएट कॉलेज के छात्रों का एक उदाहरण भी याद किया। इन छात्रों ने उत्तरकाशी के आन्यार खल से बुडा केदारनाथ के जंगलों में बीज बम छोड़े थे। उन्होंने कहा, "वहां लगभग तीन लाख पौधों की नर्सरी तैयार की गई है। यह अभियान जंगल के साथ लोगों के जुड़ाव को मजबूत कर रहा है।"

चीनाखोली गांव में राजकीय कन्या विद्यालय की छात्राओं में यह बीज बम बांटे गए और उन्‍होंने अपने घरों के लिए घास लेने जाते वक्‍त इन बीज बम को जंगल में छोड़ दिया। फोटो - सावित्री सकलानी

उत्तरकाशी के डूंडा ब्लॉक के चीनाखोली गांव में राजकीय कन्या विद्यालय (सरकारी बालिका विद्यालय) की शिक्षिका सावित्री सकलानी ने कहा कि वह और उनकी छात्राएं भी बीज बमबारी अभियान से प्रेरित हैं।

सकलानी ने कहा, "छात्रों ने मिट्टी, खाद और बीज एकत्र किए। हमने एक हजार से अधिक बीज बम बनाए। हमारे स्कूल के पास एक जंगल है। लड़कियों ने जंगल में बीज बम फेंके। यहां सिर्फ लड़कियां ही अपने घरों के लिए घास लेने जंगल में जाती हैं, इसलिए जब वे जंगल गईं तो बीज बम भी अपने साथ ले गईं और उन्हें जंगल में छोड़ दिया।"

उत्तरकाशी के मुख्य उद्यान अधिकारी डॉ. रजनीश सिंह ने कहा कि जंगल की आग से इन युवा पौधों को होने वाले खतरों के बावजूद वह उन ग्रामीणों को बीज बमबारी का सुझाव देते रहे हैं, जो जंगली जानवरों की फसलों को नष्ट करने की शिकायत लेकर उनके पास आते हैं। उत्तरकाशी के पूर्व संभागीय वन अधिकारी संदीप कुमार भूस्खलन के समाधान के रूप में इसका प्रचार-प्रसार करते रहे हैं।

उत्तराखंड वन विभाग के अतिरिक्त मुख्य वन संरक्षक एसएस रासैली के अनुसार राजाजी टाइगर रिजर्व के कुछ हिस्सों में भी बीज बम प्रयोग की कोशिश की गई, जहां वन रक्षक बीज बम लेकर जंगल में जाते हैं।

वन विभाग के उत्साही समर्थन के अलावा, राज्यपाल बेबी रानी मौर्य और पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत जैसे कई महत्वपूर्ण लोग खासकर हरेला उत्सव (उत्तराखंड में एक लोक उत्सव) के दौरान इस अभियान का समर्थन करते रहे हैं। एक तरफ जहां निर्णायक अभी भी ये फैसला लेने में असमर्थ हैं कि क्या उत्तराखंड में मानव-पशु संघर्ष को कम करने के घोषित उद्देश्य को पूरा करने के लिए बीज बम पर्याप्त हैं या नहीं, वहीं दूसरी तरफ समुदाय प्रयास जारी रखने के लिए दृढ़ है।


(यह लेख 101रिपोर्टर्स की ओर से सामुदायिक प्रयास से होने वाले सकारात्मक बदलाव की कड़ी का हिस्सा है। इस कड़ी में हम यह पता लगाएंगे कि कैसे समाज के लोग किस तरह से अपने स्थानीय संसाधनों का विवेकपूर्ण इस्तेमाल करते हुए अपने लिए रोजगार के अवसर पैदा कर रहे हैं और समाज में एक बड़ा बदलाव भी लेकर आ रहे हैं।)

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