क्या है जीएम सरसों और ये विवादों में क्यों है?
भारत में जीएम सरसों को ट्रायल अनुमति मिल गयी है कृषि विशेषज्ञ इसका विरोध कर रहे हैं। मामला देश की सुप्रीम कोर्ट में है। वहीं सरकार का मानना है कि इस किस्म से देश में सरसों का उत्पादन बढ़ेगा।
लखनऊ: सरसों भारत की प्रमुख खाद्य तेल फसल है। भारत पिछले कुछ दशकों से तेल की मांग पूरी करने के लिए विदेशों से खाद्य वनस्पति तेल आयात करता है। तिलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर होने, उत्पादकता बढ़ाने और विदेश जाने वाले करोड़ों डॉलर बचाने के लिए जीएम सरसों को विकल्प के तौर पर देखा जा रहा। लेकिन पर्यावरण प्रेमी, कई किसान संगठन, खाद्य मामलों के जानकार जीएम सरसों का विरोध ये कहकर कर रहे कि ये पूरे इकोलॉजिकल सिस्टम, मानव स्वास्थ्य और दूसरी फसलों के लिए खतरा है।
कृषि विशेषज्ञों का तर्क है कि भारत में खाद्य फसलों में आनुवांशिक रूप से संशोधित बीजों पर पाबंदी है। ऐसे में अगर जीएम सरसों को अनुमति मिली तो दूसरी फसलों में भी ऐसा होने का रास्ता खुल जाएगा। जिसके बाद किसान के देशी और संकर बीज पर खतरा आ जाएगा, जैसा कि कपास (कॉटन) के मामले में हुआ है।
क्या है जीएम सरसों ?
जीएम (जेनेटिकली मॉडिफाइड) सरसों डीएमएच (धारा मस्टर्ड हाइब्रिड)-11 को भारतीय सरसों किस्म वरुणा और पूर्वी यूरोप की किस्म अर्ली हीरा-2 को क्रॉस करके तैयार किया गया है। इसमें तीन तरह के जीन का इस्तेमाल किया गया है, बार्नेस, बारस्टार और बार जीन। डीएमएच-11 मिट्टी के जीवाणुओं से प्राप्त दो ऐसे जीन (बार्नेस और बारस्टार) का उपयोग करता है जो सरसों को एक स्व-परागण करने वाला पौधा बनाता है, जिसे अन्य किस्मों के साथ संकरित करके संकर किस्मों का उत्पादन करना संभव किया जा सकता है। तीसरा जीन 'बार' जो हर्बीसाइड से जुड़ा है, यानी जीएम सरसों को हर्बीसाइड टालरेंट (HT) बनाता है। ये विवाद की बड़ी जड़ भी है।
आनुवंशिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (GEAC) के मुताबिक डीएमएच-11 हाइब्रिड का व्यवसायिक उपयोग भारत में बीज अधिनियम, 1966 के संबंधित नियमों के अधीन होगा।
जीएम सरसों डीएमएच-11 को दिल्ली यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर जेनेटिक मैनिपुलेशन ऑफ क्रॉप प्लांट्स ने तैयार किया है। जिसे तैयार करने वाली टीम के मुखिया अनुवांशिक विद डॉ. दीपक पेंटल हैं। वे इससे पहले कई बार जीएम सरसों के लिए अनुमति मांग चुके थे। लेकिन पर्यावरण प्रेमियों और जीएम फसलों के विरोधियों के सवालों के चलते कभी कोर्ट, कभी मंत्रालय तो कभी सरकार के किसी निकाय में मामला फंस जाता था।देशी नस्लों के दूषित होने का खतरा:
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सरसों अनुसंधान निदेशालय (DRMR), भरतपुर के पूर्व निदेशक और 43 वर्षों से भारत के तिलहन (खासकर सरसों) से जुड़े रहे डॉ. धीरज सिंह जीएम सरसों की खुलकर मुखालफत करते हैं और मानते हैं कि भारत को जेनेटिकली मॉडिफाइड सरसों की जरूरत नहीं है।
"भारत को जीएम सरसों की जरूरत नहीं है। क्योंकि हमारी कई देशी और संकर किस्में जीएम सरसों से ज्यादा उत्पादन दे रही हैं। पूरी दुनिया में बीज से जुड़ा 67 फीसदी बिजनेस 4 बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास है। बीज उनके, जीन उनके, पेंटेट और तकनीकी उनकी है। किसी देश को गुलाम बनाना है तो वहां की बीज व्यवस्था को कैप्चर (कब्जे) कर लो, गोला-बारूद की जरूरत नहीं पड़ेगी।" सरसों विशेषज्ञ डॉक्टर धीरज सिंह ने इंडिया स्पेंड से कहा।
तिलहन क्षेत्र के विशेषज्ञ, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पूर्व निदेशक डॉ. मुक्ति सधन बसु भी जीएम सरसों के पक्ष में नहीं हैं।
डॉ. बसु कहते हैं,"भारत में सरसों सिर्फ एक खाद्य तेल नहीं है। इसे ग्रामीण हिस्सों में औषधि की तरह इस्तेमाल किया जाता है। जीएम सरसों से सबसे बड़ी आशंका हमारे देसी और हाइब्रिड (संकर) किस्मों के दूषित होने की है। भारत सरसों का उद्गम स्थल (सेंटर ऑफ ऑरिजिन)नहीं है, लेकिन तिलहन किस्मों की विविधता से भरा है। वह दूषित हो सकती हैं।" डॉ. बसु इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टिट्यूट फॉर थे सेमि एरिड ट्रॉपिक्स के विजिटिंग वैज्ञानिक हैं।
देश में करीब 6.5 से 7 मिलियन हेक्येटर में सरसों की खेती होती है। सरसों के प्रमुख उत्पादक राज्य राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब,और हरियाणा हैं। भारत स्पाइस बोर्ड के मुताबिक पीली/सफेद सरसों दक्षिणी यूरोप की स्वदेशी है, जबकि भूरी सरसों चीन से उत्तरी भारत में आई है। वहीं काली सरसों दक्षिणी भूमध्यसागरीय क्षेत्र की स्थानीय फसल है।
भारत सरकार के एक आंकड़े के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2020-2021 में देश ने तकरीबन 13.35 टन खाने का तेल आयात किया था जिसमे भारत को 117 हज़ार करोड़ (विदेशी मुद्रा) का खर्च आया था।
अनुवांशिक रूप से संशोधित (जीएम) सरसों की किस्म का नाम डीएमएच-11 है। जीएम सरसों का जिक्र पहली बार साल 2002 में आया था। उसी साल जीएम कॉटन (बीटी कपास) को व्यवसायिक फसल के रूप में अनुमति मिली थी। केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के तहत काम करने वाली आनुवंशिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (GEAC) ने आनुवंशिक रूप से संशोधित (GM) सरसों के बीज तैयार करने और इसकी बुआई से जुड़े परीक्षण करने की इजाजत दे दी है। इस परीक्षण में ये देखा जाएगा कि जीएम सरसों की वजह से मधुमक्खियों और परागण आदि में सहायक दूसरे कीट-पतंगों को कोई नुकसान तो नहीं होगा। ये इजाजत इस मायने में अहम है कि इससे भारत में तैयार की गई पहली ट्रांसजेनिक हाइब्रिड मस्टर्ड यानी जीएम सरसों की खेती का रास्ता खुल सकता है।
आपको बताते चलें कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग मंत्री, स्वतंत्र प्रभार, डॉ जितेन्द्र सिंह ने राज्यसभा में एक लिखित जवाब में कहा कि जीएम कॉटन (कपास) की खेती से पिछले दस वर्षों में शहद के उत्पादन के कम होने का साक्ष्य नहीं मिला है। डॉ सिंह ने बताया कि जीएम सरसों का पिछले तीन साल से एक सीमित ट्रायल चल रहा था जिसमे ये पाया गया कि इसका उत्पादन राष्ट्रीय स्तर पर 28% ज्यादा है और जोनल स्तर पर 37% अधिक पाया गया।
जीएम के विरोध में प्रदर्शन, सत्याग्रह और खत:
जीएम का विरोध करने वाले कोलिएशन फॉर ए जीएम फ्री इंडिया ने सरकार से तीखा विरोध जताते हुए सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) से इस प्रक्रिया पर रोक लगाने और जिन फील्ड में डीएमएच-11 के परीक्षण चल रहे हैं, उसे तत्काल खत्म करने की मांग की है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंद्ध संगठन भारतीय किसान संघ ने 19 दिसंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान में रैली कर सरकार से किसी भी सूरत में जीएम सरसों को मंजूरी न देने की बात की। इससे पहले 5 दिसंबर को देश के 100 से ज्यादा डॉक्टरों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खत लिखकर जीएम फसलों पर रोक लगाने की मांग की। पंजाब में अलग-अलग जगहों पर विरोध सेमिनार हो रहे हैं। दक्षिण भारत के कई राज्यों में सरसों सत्याग्रह चलाया जा रहा। राजस्थान के भरतपुर स्थित सरसों अनुसंधान संस्थान के सामने मधुमक्खी पालक प्रदर्शन कर चुके हैं।
इस सरसों को विकसित करने वाले डॉ. दीपक पेंटल के मुताबिक डीएमएच-11 तकनीक से 99 फीसदी से ज्यादा शुद्ध हाइब्रिड सीड किसानों को मिलेंगे और उनका जैव सुरक्षा पर असर नहीं होगा, क्योंकि 20 साल ये तकनीक अमेरिका-कनाडा और ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों में अपनाई जा रही है।
धारा मस्टर्ड हाइब्रिड (डीएमएच-11) से जुड़े सवालों को जवाब देते हुए डॉ. पेंटल ने इंडिया स्पेंड से कहा, "मुख्य मुद्दा ये है कि हाइब्रिड सीड बनाने का सिस्टम सुरक्षित है या नहीं? हाइब्रिड एक नहीं होता है। आज DHM-11 है कल और आएंगी। इस तरीके में कोई दो पेरेंट्स के बीज उठाकर उसमें बार्नेज और बारस्टार जीन डालकर करके नया हाइब्रिड बना सकते हैं। डीएमएच-4 और डीएमएच-1 को भी हमने ही बनाया है, लेकिन उससे ज्यादा बीज क्यों नहीं बन पा रहे हैं, क्योंकि इसका जो पॉलिनेशन कंट्रोल सिस्टम है वो इतना अच्छा नहीं है। इस कारण ज्यादा हाइब्रिड बीज नहीं बना पा रहे हैं कि वो किसानों तक जाए और सरसों में नई क्रांति लाए। हाइब्रिड बीज कंपनियां न बेचें इससे बचने के लिए हम कब तक किसानों को रद्दी बीज देते रहेंगे और कम पैदावार लेते रहेंगे।'
वे आगे कहते हैं, "इसमें दो अहम बाते हैं कि हाइब्रिड बीज बनाने के लिए प्रजातियां कौन सी इस्तेमाल की गई हैं, पेरेंट्स कौन से हैं? और आपने सिस्टम (बीज उत्पादन) कौन सा इस्तेमाल किया है? इसलिए उपज (पैदावार) इस बात पर निर्भर करेगी कि आपने पेरेंट्स कौन से इस्तेमाल किए हैं। ये सीड बनाने का की व्यवस्था है जिसमें उत्पादन का सवाल नहीं है। जो पेरेंट्स हम इस्तेमाल करेंगे वैसा उत्पादन मिलेगा। ये सिस्टम हर दो पेरेंट्स में डाला जा सकता है और हाइब्रिड सीड देगा।"
डॉ. पेंटल आगे कहते हैं, "मान लीजिए कि डीएमएच-1, डीएमएच-11 से अच्छा है लेकिन हम डीएमएच-1 के हाइब्रिड ज्यादा बना नहीं पा रहे क्योंकि साइटोप्लाज्मिक मेल स्टेरिलिटी (कोशिकाद्रव्यी नर बंध्यता) को भंग कर देती है। तो हमने ज्यादा हाइब्रिड सीड बनाने के लिए एक मजबूत सिस्टम अपनाया है। तो इसे उपज के साथ मिलाना एक अलग मुद्दा है। हमने वरुणा और ईस्ट यूरोपियन (ईएच-2) को क्रॉस करवाया है। अगर कल आप भारत की दूसरी बेहतर किस्मों से ईस्ट यूरोपियन किस्मों से क्रॉस करवाते हैं तो हो सकता है कि हमें और ज्यादा पैदावार वाली किस्में मिलेगी तो रोना किस बात का है। अगर डीएमएच-11 का उत्पादन वरुणा से कम लग रहा है तो ज्यादा पैदावार वाली किस्म का पेरेंट्स इस्तेमाल कर लें। जिन तीन जीन्स का इस्तेमाल करके हमने हाइब्रिड सीड बनाया है वो तकनीक, यूनाइटेड स्टेट्स,कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में 20 साल इस्तेमाल में लाकर रेप सीड (सरसों से मिलती जुलती खाद्य तेल प्रजाति- गोभी सरसों) का उत्पादन कर रहे हैं। वे लाखों करोड़ों का व्यापार कर रहे। सारी दुनिया कर रही है। जो इसका विरोध कर रहे है वे लोगों को डराने वाली बातें कर रहे हैं।"
55-60 फीसदी खाद्य तेल जीएम वाले देशों से आ रहा- पर्यावरण मंत्री
"देश में इस्तेमाल किया जा रहा खाने पकाने का 55-60 फीसदी खाद्य तेल आयात किया जाता है, और ये उन देशों से आता है जहां जीएम खाद्य पदार्थों की अनुमति है। तो हम इन देशों से तेल आयात कर सकते हैं लेकिन अपने देश में जीएम फसलों का उत्पादन नहीं कर सकते हैं?" केंद्रीय वन पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्री, भूपेंद्र यादव ने पुणे में जीएम सरसों को लेकर जुड़े एक सवाल के जवाब में कहा।
ये पहला मौका था जब केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जीएम सरसों को लेकर जनता में कुछ बोल रहे थे। एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने लोगों के सवाल का जवाब, सवाल से दिया "किसी भी देश की प्रगति के लिए क्या वैज्ञानिक अनुसंधान की आवश्यकता नहीं है? अगर दिल्ली विश्वविद्यालय ने जीएम सरसों पर वैज्ञानिक शोध किया है तो क्या हमें दो साल तक इस पर काम करना चाहिए या नहीं? जीएम फसलों से खाद्य सुरक्षा में जबरदस्त इजाफा होगा।'
भारत में खाद्य तेल अर्जेंटीना, अमेरिका, ब्राजील और कनाडा समेत कई देशों से आते हैं और इनमें से कुछ देशों में जीएम खेती होती है।
क्या जीएम सरसों कम लागत में ज्यादा मुनाफा देगी ?
बीज अधिकार मंच के संयोजक कपिल शाह इंडिया स्पेंड को बताते हैं, "जीएम सरसों की अनुमति के पीछे सरकार और विकसित करने वालों के मुताबिक ये ज्यादा पैदावार देगी। लेकिन ये दावा गलत है, हम लोग जीएम का विरोध, भावना नहीं, विज्ञान के आधार पर कर रहे। बीटी कॉटन (जीएम कॉटन) 2002 में रिलीज हुई। 3-4 साल ज्यादा पैदावार रही, लेकिन इधर 4-5 साल में किसान फसल का नया विकल्प खोज रहा है। क्योंकि उसके दावे खोखले थे।' शाह मास्टर ऑफ साइंस प्लांट वीडिंग (जेनेटिक्स) हैं।
शाह का मानना है कि नॉन-जीएम फसलों की पैदावार जीएम सरसों से ज्यादा है और सरकार के दावों में दम नहीं है।
कपिल शाह डीएमएच 11 की अनुमति में शोध और परीक्षण में प्रोटोकॉल का सही से पालन न किए जाने का आरोप लगाते हुए कहते हैं, "नई वैरायटी आने में 5-7 साल लगते हैं, फिर वह 8-10 साल किसान के पास रहती है। निजी कंपनियां 3 साल में नई वैरायटी ले आती हैं। जीएम सरसों (DMH-11) वास्तविक रूप से 2002 में विकसित हुई। इसकी रेगुलेटरी प्रोसेस में 20 साल चले गए, अभी 2-3 साल और लगेंगे किसान तक पहुंचने में, तब तक गंगा में कितना पानी बह चुका होगा। इतने वर्षों में कितना कुछ बदल चुका है। 20 साल पुरानी किस्म और रिसर्च का कितना संदर्भ रह जाएगा?"
कम उपज के साथ शाह डीएमएच-11 की दो और कमियां गिनाते हैं। "इस किस्म के साथ दो और समस्याएं हैं, इसके दाने छोटे और फलियां कटाई में देरी होने पर फट जाती हैं। दोनों बातें रिकॉर्ड में हैं। किसान इन खामियों को पसंद नहीं करते हैं।"
सरसों अनुसंधान संस्थान के पूर्व निदेशक डॉ. धीरज सिंह ज्यादा पैदावार के सवाल पर कहते हैं, "मैं आपको एक उदाहरण देता हूं। सरकार को दिया गया सेफ्टी को लेकर जो डाटा है, उसमें ऐसा बताया गया है कि एक पौध से करीब 800 फलियां आएंगी। मुझे 43 साल काम करते हो गए हैं और मैंने अब तक किसी पौधे में 230 फली से ज्यादा नहीं देंखी। जब मैं इस तरह के आंकड़ों का गुणा भाग लगाता हूं तो पता चलता है इनके (दीपक पेंटल) के हिसाब से उपज 9.5 टन प्रति हेक्टेयर पहुंच जा रहा है। दूसरी बात कहते ये है कि 25 फीसदी पैदावार बढ़ जाएगी। वह किसकी तुलना में बढ़ रही है। जो हमारी अच्छी किस्में उनके सामने इसमें 10-15 फीसदी पैदावार कम आएगी।" बता दें कि हाल ही में ऑस्ट्रेलिया के नियामक प्राधिकरण ने जेनेटिकली मोडिफाइड भारतीय सरसों की वाणिज्यिक खेती की अनुमति दी थी।
हैदराबाद स्थित सस्टेनेबल फार्मिंग को बढ़ावा देने वाले किसान संगठन रायथु स्वराज वेदिका (RSV) के सह-संस्थापक किरन कुमार विस्सा इंडिया स्पेंड से कहते हैं,"जीएम सरसों को रोकना बहुत जरूरी है। खाद्य फसलों में जीएम आ गया तो कई फसलों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फायदे के लिए जीएम लाने का रास्ता खुल जाएगा। कंपनियां इसी इंतजार में हैं। ये सिर्फ सरसों की बात नहीं है, चावल, मक्का, गेहूं में आ जाएगा। इसे सिर्फ सरसों नहीं बल्कि खाद्य फसलों में जीएम के नजर से देखना है।"
वे आगे कहते हैं, "हर्बीसाइड टॉलरेंट का मतलब है कि इसमें खरपतवार नाशक जहर के जीन हैं। ग्लूफ़ोसिनेट नाम के खरपतवार नाशक को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने खतरनाक रसायन घोषित किया है। अगर ऐसी फसलें आएंगी तो हर्बीसाइड का देश में उपयोग बढ़ जाएगा जो पर्यावरण और मनुष्य दोनों की सेहत के लिए ठीक नहीं है। जो केमिकल खेत में डाले जाते हैं उसका कुछ हिस्सा मिट्टी, फसल और पानी के जरिए हम तक पहुंचता ही है।"
क्या है विरोध का कारण?
जीएम का विरोध करने वाले मंचों जीएम फ्री इंडिया, किसान संगठन और स्वदेशी मंच के विरोध की एक बड़ी खरपतवार नाशक से जुड़ी मजदूरों की बेरोजगारी भी है।
किरन विस्सा, कहते हैं, "हमारे देश में लाखों खेत मजदूर खासकर महिलाएं निराई-गुड़ाई का काम करती हैं। आप खरपतवार दवा (हर्बीसाइड) से खत्म कर देंगे तो इन मजदूरों की आजीविका और पशुओं का चारा खत्म होगा। इस तरह फील्ड का पूरी इको सिस्टम खत्म हो जाएगा।"
विस्सा के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर एक विशेषज्ञ कमेटी का गठन किया था, जो एक वैज्ञानिक बॉडी थी, उन्होंने कहा था हमारे देश में खरपतवार रोधी किस्मों की जगह नहीं होनी चाहिए, अनुमति नहीं देना चाहिए।
विस्सा बताते हैं कि 31 अक्टूबर को सरकारी अधिकारियों ने कोर्ट में दिए गए शपथ पत्र में कहा कि हर्बीसाइड (खरपतवार नाशक) का इस्तेमाल सिर्फ हाइब्रिड बीज उत्पादन में किया जाएगा। यानी सरकार के मुताबिक बीज तैयार करने में हर्बीसाइड का उपयोग होगा लेकिन किसान के खेत में नहीं होगा। यह बात केंद्रीय कैबिनेट मंत्री डॉ जितेंद्र सिंह ने राज्यसभा में एक लिखित जवाब में भी कही है।
विस्सा करते हैं, "कंपनियां शुरू में हर्बीसाइड टॉलरेंट कहकर बीज नहीं बेचेंगी, लेकिन उन्होंने बीज के साथ हर्बीसाइड की बोतल बेचना शुरू कर दिया तो कौन रोकेगा उन्हें?"
जीएम फसलों और खाद्य सुरक्षा को लेकर उठ रहे सवालों पर केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने इंडियन एक्सप्रेस के कार्यक्रम में कहा था, "परागण और मधुमक्खियों पर जीएम फसलों और खाद्य पदार्थों को लेकर कुछ मुद्दे उठाए गए हैं लेकिन इसकी जांच किए जाने की जरूरत है। मधुमक्खियों पर पड़ने वाले प्रभाव पर वैज्ञानिक शोध करें और हमारे सामने रखे। इसके बाद अगर साबित हो गया कि जीएम फसलें सुरक्षित हैं तो इसके व्यावसायिक उत्पादन में क्या नुकसान है?"
डॉक्टर धीरज सिंह कहते हैं, "अगर जीएम सरसों को शोध के प्रोटोकॉल पूरे किए गए होते तो लोग सवाल क्यों उठाते? अगर जीएम सरसों ने कोई सुपर हाइब्रिड बना दिया तो उसका क्या होगा? इन सब सवालों के जवाब सरकार और किस्म विकसित करने वाले, अनुमति देने वालों को देने ही होंगे।"
जीएम कपास से क्या सीखे?
जीएम सरसों के विरोध अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए डॉ.धीरज कपास का उदाहरण देते हैं।
"जब हम आप (इंडिया स्पेंड बात कर रहे हैं, मैं गुजरात के बनासकांठा में हूं। यहां किसान बड़े पैमाने पर मूंगफली की खेती करते हैं, लेकिन पिछले कई वर्षों से इनके यहां ये हो रहा है कि जिस खेत में कपास बोते हैं, उसमें अगले साल मूंगफली में सीड सेटिंग (दाने बनना) नहीं होती है। इसलिए हमें ऐसे किसी फैसले पर पहले 100 बार सोचना होगा।"
तिलहन अनुसंधान से जुड़े डॉ. धीरज और डॉ. बसु के मुताबिक भारत में मूंगफली की कम से कम 1,700 किस्में थीं। पंजाब में पंजाब-1, पंजाब-2 हरियाणा में म्यूटेंट हरियाणा MH-1, MH-2 समेत कई किस्में थी जो अब तबाह हो गईं। इसके अलावा राजस्थान में बीकानेरी नरमा, 777 जैसी कई किस्में थीं।
ड़ॉ धीरज कहते हैं, "पंजाब के बठिंडा से जहां से कैंसर ट्रेन चलती है वो कपास का गढ़ हुआ करता था। कैंसर और दूसरी बीमारियों की वजह रासायनिक कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल रहा है। देश में कपास के किसान इतनी आत्महत्या क्यों करते हैं? ये सवाल वैज्ञानिकों से पूछिए। मरते किसान हैं, वैज्ञानिक नहीं। क्यों कोई किसान अपनी जान देना चाहेगा?"
जीएम फसलों को लेकर कई रिपोर्ट आई हैं। महाराष्ट्र के नागपुर में स्थित कॉटन अनुसंधान संस्थान (CICR) के निदेशक डॉ. केशव राज क्रांथि ने अपने रिपोर्ट, "फर्टिलाइजर गेव हाई ईल्ड बीटी ओनली प्रोवाइडेड कवर" में उन्होंने साल 2005 के बाद घटती उत्पादकता पर सवाल उठाए।
गैर सरकारी शोधकर्ता और संसदीय समितियां दिशा में कड़े नियमों की पैरोकारी करती हैं। संसद की कृषि संबंधित स्टैंडिग कमेटी ने साल 2012 में अपनी रिपोर्ट "आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलें और पर्यावरण पर इसका प्रभाव" की 37वीं रिपोर्ट में कहा था कि बीटी काटन के मामले में कपास किसानों की हालत बिगड़ गई हैं। रिपोर्ट में विदर्भ में किसान आत्महत्याओं का भी जिक्र किया गया था। इसके साथ ही साल 2017 में विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर्य़ावरण एवं वन संबंधी समिति ने अनुवांशिक रुप से संसोधित फसलें और पर्यावरण पर इनका प्रभाव विषय पर संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा कि जीएम फसलों के महत्वपूर्ण वैज्ञानिक मूल्याकांन के पश्चात ही जीएम फसलों की शुरुआत की जानी चाहिए। इसके अलावा समिति ने जीएम फसलों के निष्पक्ष मूल्याकांन के लिए नियामक संरचना के पुर्नगठन की भी सिफारिश की थी।
जीएम फसलें और खाद्य तेल में आत्मनिर्भर भारत
सरकार के तर्क हैं कि दुनिया में पाम ऑयल और सरसों समेत खाद्य तेलों के दाम बढ़ रहे हैं। देश की अर्थव्यवस्था और आत्मनिर्भरता के लिए जीएम सरसों जरूरी है। ड़ॉ. एम.एस बसु कहते हैं, "1986 में राजीव गांधी खाद्य तेल की उत्पादकता बढ़ाने के लिए टेक्नॉलजी मिशन ऑन ऑयल सीड (TMo) लेकर आए थे। पांच साल में हमें उत्पादन दोगुना करने का लक्ष्य दिया गया था। लेकिन वैज्ञानिकों ने 5 साल में 6 मिलियन टन से उत्पादन बढ़ाकर 13 मिलियन टन कर दिया था। हमारे देश में तिलहन-दलहन को लेकर बहुत संभावनाएं हैं। हमारे यहां 6 सीजन हैं। यूरोप में सिर्फ सर्दियां और गर्मियां होती हैं। हमारे पास 7-8 तरह के तिलहन बीज हैं। जो हर मौसम में कहीं न कहीं हो सकते हैं।"
वहीं, सरसों अनुसंधान संस्थान के पूर्व निदेशक डॉ. धीरज सिंह कहते हैं, "तिलहन मिशन में हमने 10 साल में 33 फीसदी क्षेत्र और 107 फीसदी उत्पादन और 55 फीसदी उत्पादकता बढ़ाई थी।"
वे सवाल करते हैं, देश तिलहन में आगे बढ़ रहा था, लेकिन फिर हमने इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे देशों से संधि कर ली। खाद्य तेलों पर उस वक्त 300 फीसदी ड्यूटी थी जिसे तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने घटाकर शून्य फीसदी कर दिया, नतीजन विदेश का सस्ता तेल यहां आने लगा और हम निर्यातक से आयातक बन गए। जो लॉबी उस वक्त सक्रिय थी वही लॉबी आज फिर जीएम सरसों लाकर कामयाब होना चाहती है।"
दिल्ली से करीब 110 किलोमीटर हरियाणा में घरौंडा मंडी के किसान रविंद काजल कहते हैं, "हम तो सिर्फ इतना जानते हैं अगर हमारी देसी या हाइब्रिड सरसों जीएम सरसों से ज्यादा उत्पादन दे रही हैं तो हमें इस नुकसान वाली सरसों की जरूरत ही क्या है?"
देविंदर शर्मा खाद्य एवं निर्यात नीति विशेषज्ञ, मोहाली से इंडिया स्पेंड को बताते हैं, "लॉबिंग ग्रुप एक नैरेटिव बना रहा है कि जीएम सरसों (DMH-11) से सरसों की पैदावार बढ़ेगी, उसका मतलब ये होगा कि जो हम खाद्यान्न तेल का आयात किया जा रहा है वो कम होगा। लोगों को समझ आता है कि अगर एक लाख 15 हजार करोड़ रुपए हर साल खाद्य तेलों के आयात पर खर्च कर रहे हैं तो उसे बचाना चाहिए। लेकिन लोगों को ये भी देखना चाहिए कि ये दावे कितने झूठे है।"
"डीएमएच-11 की उपज कितनी है वह सरसों अनुसंधान संस्थान को पता नहीं है। डीएमएच-11 को लेकर दावा किया जा रहा है कि इससे 28 फीसदी ज्यादा उपज देगी लेकिन जिस वैरायटी से उसकी तुलना (वरुणा) से जा रही है, वो काफी कम उपज देने वाली वैरायटी है। हमारे यहां एक हाइब्रिड किस्म है डीएमएच-4 वो प्रति हेक्टेयर 30.12 कुंटल दे रही है, यानी 14.7 फीसदी ज्यादा," देविंदर शर्मा ने इण्डिया स्पेंड से कहा ।
शर्मा तर्क देते हैं "जिस तरह से अभी कहा जा रहा है कि जीएम सरसों से खाद्य तेलों का आयात कम होगा, उसी तरह तरह की दलील पिछले साल पाम आयल के दौरान दी गई थी। अगले 5 वर्षों में 42 फीसदी खाद्य तेल पाम ऑयल से आएगा, जो एक सब स्टैंडर्ड (घटिया) खाद्य तेल है, जबकि हमारे यहां बेहतर विकल्प मौजूद हैं। हमें प्रति व्यक्ति साल में 7 किलो तेल चाहिए हम खा रहे हैं 14 किलो, ऐसे में जरूरी है सरकार लोगों को बताएं कि हमें बेहतर सेहत के लिए हमें खाद्य तेलों का कम इस्तेमाल करना चाहिए।"