90% हिंदी वोटर ने किया इंदिरा गांधी की तकदीर का फैसला
By : प्रवीन चक्रवर्ती
Update: 2015-07-08 09:30 GMT
Source: Election Commission Hindi States: UP, Maharashtra, Bihar, Madhya Pradesh, Gujarat, Rajasthan Non-Hindi states: Andhra Pradesh, West Bengal, Tamil Nadu, Karnataka, Orissa, Kerala
1971 के चुनाव के दौरान 52 फीसदी मतदाता के कांग्रेस उम्मीदवार को चुना था जबकि 1977 के चुनाव में मतदाताओ के आकंड़े गिरकर 38 फीसदी हो गए। आपातकाल के बाद 1971 और 1977 के चुनाव के बीच 4.3 मिलियन मतदाताओं का नुकसान दर्ज किया गया। हालांकि छह ‘हिंदी’ राज्यों में कांग्रेस विरोधी मतदाताओं की संख्या में 6.3 मिलियन की वृद्धि देखी गई जबकि ‘अहिंदी’ राज्यों में कांग्रेस के लिए 2 मिलियन मतदाताओं की वृद्धि दर्ज की गई। कुल मिला कर ‘अहिंदी’ राज्यों में 1977 के चुनाव में उतने ही प्रतिशत लोगों ने कांग्रेस के लिए वोट किया जितने 1971 में किया था। उत्तर प्रदेश के 73 फीसदी नाराज़ मतदाताओं ने कांग्रेस के प्रति अपने गुस्से का इज़हार उन्हें वोट न दे कर किया जबकि तमिलनाडु के मतदाताओं में कोई खास फर्क देखने को नहीं मिला। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान जैसे ‘हिंदी’ राज्यों में 90 फीसदी नाराज़ मतदाता देखे गए।Source: Election Commission
1977 के चुनाव में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। 1971 के मुकाबले 1977 के चुनाव में कांग्रेस बारह राज्यों में 167 सीटें हार गई। इनमें से 168 सीट,‘हिंदी’ राज्यों में कांग्रेस की हाथों से निकल गए थे जबकि ‘अहिंदी’ राज्यों में एक सीट की वृद्धि मिली थी। गौरतलब है कि छह ‘अहिंदी’ राज्यों की 40 मिलियन मतदाताओं ने आपातकाल के लिए इंदिरा गांधी को ज़िम्मेदार नहीं माना। इस बात पर बहस क जा सकती है कि गुजरात और महाराष्ट्र को ‘हिंदी’ राज्य के अंतर्गत परिभाषित किया जाए की नहींलेकिन इस विश्लेषण का मुख्य बिंदु मतदाताओं की प्रतिक्रिया में आए नए मोड़ को देखना है। भारतीय समाज के पर्यवेक्षक और भारतीय इतिहास के लिए यह कोई रहस्य की बात नही है। हालांकि इस बात की चर्चा होनी अब भी बाकि है कि ‘अहिंदी’ राज्यों में अपातकाल स्थिति से मतदाताओं की प्रतिक्रिया में अंतर क्यों नहीं आया। क्या यह कथित " बीस सूत्रिय" कार्यक्रम का सकारात्मक प्रभाव था? क्या आपातकाल के खिलाफ समर्थन कलई करने के लिए‘अहिंदी’ राज्यों में मजबूत विपक्ष की अनुपस्थिति कारण बना? क्या लोगों के साथ उनके गुस्से को बाहर निकलने के लिए एक विश्वसनीय विकल्प की कमी थी ?क्या यह धारणा कारण बनी कि नागरिक अधिकारों के निलंबनकी तुलना में स्थानीय शासन लोगों के लिए ज़्यादा महत्व रखती हैं ? अन्नादुरई ने हिंदी न थोपे जाने की मांग तो मनवा ली थी, लेकिन क्या अनजाने में हीं इससे हिंदी भाषी राज्य और अहिंदी भाषी राज्यों के वोटिंग ढ़र्रे की दरार और कड़वी और बड़ी बन गई है, जैसा हाल ही में 2014 के चुनाव में भी नज़र आया था ? ( चक्रवर्ती आईडीएफसी संस्थान में राजनीतिक अर्थव्यवस्था विषय के विजिटिंग फेलो है। साथ ही इंडियास्पेंड के ट्रस्टी संस्थापक भी हैं। लेख में अतिरिक्त मदद रितिका कुमार एवं स्वप्निल भंडारी ने की है ) Image Credit: Indian National Congress"क्या आपको यह लेख पसंद आया ?" Indiaspend.org एक गैर लाभकारी संस्था है, और हम अपने इस जनहित पत्रकारिता प्रयासों की सफलता के लिए आप जैसे पाठकों पर निर्भर करते हैं। कृपया अपना अनुदान दें :