जलवायु परिवर्तन को अनुकूल बनाने के लिए स्थानीय पहल अधिक जरूरी क्यों?
राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर बनने वाली अनुकूलन योजनाएं जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित समुदायों की ही अनदेखी करती हैं, लेकिन झारखंड के साक्ष्य बताते हैं कि जमीनी उपाय ही अधिक बेहतर हैं
रांची: झारखंड के लातेहार जिले के नेतरहाट पहाड़ियों में बसे गांव दादीचापर में बिरजिया जनजाति के लगभग 35 परिवार रहते हैं। बिरजिया समुदाय भारत के सबसे दुलर्भ चिन्हित 75 आदिवासी समूहों में से एक है। बादलों से ढकी घुमावदार पहाड़ियों और घने जंगलों से घिरा हुआ यह क्षेत्र काफी मनोरम दिखता है।
दादीचापर गांव, लातेहार शहर से 30 किलोमीटर दूर है और इस गांव तक एक पथरीली और घुमावदार सड़क जाती है जो मुख्य सड़क से कई किलोमीटर दूर है। जुलाई के एक गर्म दिन में जब दोपहर के 12.30 बजे के आस-पास मैं दादीचापर पहुंचता हूं तो ग्रामीण अपने खेतों और जंगलों से काम करके अपने घर वापस आ रहे होते हैं। मैं उनमें से एक ग्रामीण निर्मल तेलरा से बात करने लगता हूं, जिनकी उम्र लगभग 60 से 65 वर्ष के बीच होगी। बाकी के ग्रामीण भी इकट्ठा होकर जमीन पर इधर-उधर बैठ जाते हैं।
तेलरा अपने परिवार के साथ गांव में ही रहते हैं और वह क्षेत्र में पड़ने वाली अधिक गर्मी और कम बारिश से चिंतित हैं। जून-अगस्त 2023 के बीच राज्य में मौसमी संचयी वर्षा 798.8 मिमी की सामान्य वर्षा के मुकाबले 502.3 मिमी ही हुई। तेलरा बताते हैं, “हमारे पास पीने के लिए पानी नहीं है, पास की नदी भी सूख गई है। यहां गांव में पानी की कोई पाइप लाइन भी नहीं पहुंची है।”
पक्की सड़क के अभाव का मतलब विभिन्न सरकारी योजनाओं, जैसे- महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) या सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) से वंचित होना भी है। निकटतम उचित मूल्य की दुकान 2 किमी दूर है, लेकिन ग्रामीणों में कुछ के पास राशन कार्ड नहीं है, वहीं जिनके पास है, उन्हें नियमित रूप से अनाज नहीं मिलता है।
तलेरा बताते हैं, “हमें सूखा राहत या अन्य किसी भी योजना के बारे में पता ही नहीं चल पाता है। इसके अलावा हमें यह भी नहीं पता है कि हमारे क्षेत्र में मनरेगा का कोई कार्य हो रहा है या नहीं। हम बड़ी मात्रा में वन उपज भी एकत्र नहीं करते हैं, इसलिए हम जो एकत्र करते हैं, उसे बेच नहीं पाते हैं। हम जो थोड़ी सी वन उपज एकत्र करते हैं, उसे साबुन या अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुओं को खरीदने के लिए कम दरों पर बेच देते हैं।”
ये पहाड़ियां ही एकमात्र स्थान हैं, जहां बिरजिया जनजाति के लोग निवास करते हैं। उनकी संख्या कम है। 2011 की जनगणना के अनुसार तब इनकी संख्या 6,276 थी। इस समुदाय के लोग भारत के उपनिवेशीकरण से पहले इस्पात के विशेषज्ञ निर्माता थे। वे साल के पेड़ों की लकड़ी का कोयला बनाकर लौह अयस्कों को गलाते थे और माना जाता है कि इससे उन्हें जंग रहित लोहा प्राप्त होता था। हालांकि ब्रिटिश काल में इस पद्धति को अपराध घोषित कर दिया गया।
साल के पेड़ नेतरहाट पहाड़ियों में जीवन का आधार-केंद्र हैं और यहां अन्य समुदायों के लोग भी इस पर निर्भर हैं। इस क्षेत्र में दशकों से भूमि और वन अधिकारों पर काम करने वाले फादर जॉर्ज मोनीपल्ली बताते हैं, "ब्रिटिश काल के दौरान न केवल पारंपरिक लौह-अयस्क गलाने की प्रक्रिया को अपराध घोषित किया गया, बल्कि उनके उत्पादन के तरीकों को भी हथिया लिया गया। यह क्षेत्र में रहने वाले अन्य समुदायों, जैसे- असुर आदि लोगों के साथ भी हुआ।”
परंपरागत रूप से बिरजिया समुदाय के लोग अपने निवास स्थान को स्थायी रूप से छोड़े बिना भी एक गांव से दूसरे गांव और एक जंगल से दूसरे जंगलों में चले जाते थे। हालांकि शादी वे अपने आस-पास के घरों और परिवारों में ही करते थे। वे अपनी सभी जरूरतों के लिए लगभग पूरी तरह से जंगलों पर निर्भर थे। हालांकि औपनिवेशिक शासन का उनकी जीवनशैली पर भारी प्रभाव पड़ा। कई लोगों को अपने अस्तित्व के लिए पास के जंगलों पर निर्भर होकर एक व्यवस्थित जीवन शैली चुनने के लिए मजबूर होना पड़ा।
हालांकि जलवायु परिवर्तन अब इस प्रक्रिया को कठिन बना रहा है। इस क्षेत्र में जलस्रोतों का अभाव है। आसपास की बारहमासी नदियां- दुआरिया और सिरोम, हर साल क्रमशः जनवरी और मार्च तक सूख जाती हैं और महिलाएं पानी लाने के लिए गर्मी के मौसम में घंटों पैदल चलती हैं। चालीस वर्षीय जर्मेना तेलरा ने 2022 में पहली बार गांव से पलायन किया और दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करने के लिए करीब एक हजार किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में हैदराबाद चली गईं। जर्मेना तेलरा का कहना है कि पुरुषों को उनके श्रम के लिए प्रति दिन 450 रुपये जबकि महिलाओं को केवल 350 रुपये मिलते हैं।
इन गांवों में जलवायु परिवर्तन के कई कारक हैं। महीनों व कभी-कभी वर्षों तक बारिश न होने और सरकारी समर्थन या हस्तक्षेप की कमी ने ग्रामीणों को अनिश्चितता के कगार पर पहुंचा दिया है। वर्ष 1956-2008 के झारखंड राज्य कार्य योजना के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि यहां पर वार्षिक औसत वर्षा का कोई सेट पैटर्न या रेंज नहीं है। 1991 से 2000 के दशक में सबसे अधिक बारिश (औसतन 1,623.5 मिमी) हुई, जबकि सबसे कम बारिश 1956-1960 के दौरान हुई। 1956-2000 के दौरान देखी गई प्रवृत्ति के विपरीत 2001-08 की अवधि में वार्षिक वर्षा में गिरावट देखी गई और 2000 के बाद राज्य में भयंकर सूखा पड़ने लगा।
अप्रैल 2018 में प्रकाशित बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, रांची और सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ झारखंड के शोधकर्ताओं के एक अध्ययन के मुताबिक 1984-2014 की अवधि के दौरान गर्मियों के महीनों के दौरान अधिकतम तापमान लगातार बढ़ा है।
इससे पता चलता है कि लातेहार जिले के कई हिस्से गर्मी के महीनों के दौरान उच्च तापमान से गंभीर रूप से प्रभावित रहते हैं।
उच्च तापमान ने उन ग्रामीणों को अधिक प्रभावित किया है, जो कृषि पर निर्भर हैं। जीवन निर्वाह के लिए इस क्षेत्र में अनाज (धान), मक्का (मकई), गेहूं, महुआ, छोटा बाजरा (गोंदली), बरनी बाजरा (सांवा), बाजरा आदि उगाया और उपयोग किया जाता है। निर्मल तेलरा ने बताया कि फिलहाल क्षेत्र को सूखा घोषित करने का यह सही समय है।
पिछले कुछ वर्षों में किसी क्षेत्र को सूखा घोषित करने की प्रक्रिया जटिल होती गई है, जिसमें कई मानदंड शामिल हुए हैं। सामान्य वर्षा में कमी के अलावा जिला अधिकारियों को उस क्षेत्र के बारे में जमीनी डेटा एकत्र करना आवश्यक है, जहां फसल बोई जाएगी। जरूरी डेटा में फसल की स्थिति, मिट्टी की नमी का स्तर और पानी का स्तर भी दर्ज करना होता है, इसके बाद ही किसी क्षेत्र को सूखाग्रस्त घोषित किया जाता है। सूखा राहत के लिए धन तभी जारी किया जाता है, जब इनमें से कम से कम तीन या चार पैरामीटर निर्धारित सीमा से मेल खाते हों। निर्मल तलेरा बताते हैं, “हमारे गांव में कोई आता ही नहीं है, वे सर्वे कैसे करेंगे?”
टोरंटो विश्वविद्यालय में शोधरत और पर्यावरणीय मुद्दे पर काम करने वाले कुन्दन कुमार कहते हैं, “लोग और समुदाय अपने-अपने तरीके से बदलती जलवायु परिस्थितियों को अपनाते हैं, लेकिन इसके अनुकूलन की दिशा में राज्य की नीतियों का मूल्यांकन करना भी जरूरी है।"
कुमार कहते हैं, “यह अनुकूलन जंगलों के संदर्भ में विशेष रूप से मुश्किल और परिवर्तनशील हो सकता है। यहां के लोग उच्च तापमान और गर्मी की लहरों (हीट वेव्स) के प्रति कैसे अनुकूलित होते हैं। लोग हीट वेव्स का अनुभव तब भी करते हैं, जब वे वन उत्पादों का संग्रह करते हैं, क्योंकि संग्रह का मौसम गर्मियों के दौरान ही होता है।”
वह आगे कहते हैं, “ग्रामीण संदर्भ में यह भी देखना होगा कि जलवायु परिवर्तन की जोखिमों को कम करने के लिए क्या अनुकूलन उपाय किए गए हैं? उदाहरण के लिए क्या सूखाग्रस्त क्षेत्रों को टैंक से जल आपूर्ति प्रदान की जा रही है? क्या सिंचाई सुविधाओं में सुधार किया जा रहा है? अनुकूलन नीतियां ज़मीन पर कैसे आकार ले रही हैं?”
भारत के अनुकूलन उपायों से पता चलता है कि लोगों ने स्थानीय स्तर पर खुद से विभिन्न उपाय किए हैं, जिसमें स्थानीय स्तर पर कच्चे माल का उपयोग करके छोटे चेक डैम के निर्माण से लेकर लकड़ी माफिया से जंगलों की सुरक्षा और अन्य उपाय शामिल हैं। एक सामूहिक दृष्टिकोण ने जलवायु परिवर्तन अनुकूलन को समझने में मदद की है।
जलवायु परिवर्तन अनुकूलन को मुख्यधारा में लाना
संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक आयोग का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन से औसत वार्षिक तापमान में 1.5 डिग्री तक की वृद्धि होने से भारत का वार्षिक औसत नुकसान सकल घरेलू उत्पाद का 5.9%-6% हो सकता है। सिर्फ सूखे के कारण औसतन 72 बिलियन डॉलर या सकल घरेलू उत्पाद का 2.8% नुकसान हो सकता है। वहीं इन खतरों से निपटने के लिए लगभग 29 बिलियन डॉलर या सकल घरेलू उत्पाद का 1.1% कोष लग सकता है।
2011 में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनडीपी-यूएनईपी) ने जलवायु अनुकूलन को मुख्यधारा में लाने के लिए एक गाइड प्रकाशित किया। इसकी रूपरेखा में शामिल जलवायु परिवर्तन और राष्ट्रीय विकासात्मक प्राथमिकताओं के बीच संबंधों को समझने की आवश्यकता है और इसमें सरकारी, संस्थागत और राजनीतिक संदर्भ और ज़रूरतें भी शामिल हैं।
इसमें कहा गया है कि ऐसे प्रयास देश, क्षेत्र और स्थानीय-विशिष्ट साक्ष्यों पर आधारित होने चाहिए, जिनमें प्रभाव, अनुकूलन, सामाजिक-आर्थिक विश्लेषण और परियोजनाएं शामिल हों। यह झारखंड जैसे राज्यों के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है, जहां उच्च स्तर की जलवायु परिवर्तनशीलता, विविध प्रकार के वन और मिट्टी के पाए जाते हैं।
राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और उपराष्ट्रीय स्तरों पर नीति निर्माण, बजट, कार्यान्वयन और निगरानी प्रक्रियाओं में भी जलवायु परिवर्तन अनुकूलन विचारों को शामिल करने बात चल रही है। यह एक बहु-वर्षीय, बहु-हितधारक प्रयास है जो मानव कल्याण, गरीब-समर्थक आर्थिक विकास और विकास लक्ष्यों की प्राप्ति में जलवायु परिवर्तन अनुकूलन के योगदान पर आधारित है।
इसमें कई सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों के साथ काम करना भी शामिल है। इसके बावजूद इस बात का बहुत कम दस्तावेजीकरण है कि समुदाय स्थानीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन के प्रति कैसे अनुकूल हो रहे हैं, खासकर जब उनके पास उस भूमि पर स्वामित्व अधिकार हो, जिस पर वे रहते हैं या काम करते हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति का आकलन करने के लिए 2020 में गठित एपेक्स कमेटी में नीति आयोग के साथ तेरह मंत्रालयों को प्रतिनिधित्व दिया गया था, लेकिन इसमें आदिवासी मामलों का मंत्रालय शामिल नहीं था।
सूखे से निपटने और बड़े बांधों के विरोध के लिए लामबंदी
झारखंड के पलामू जिले में आए 1994 के सूखे ने लोगों को जलवायु परिवर्तन के समाधानों पर विचार करने और स्थायी स्थानीय समाधान बनाने के लिए संगठित होने के लिए प्रेरित किया था। यह क्षेत्र बारहमासी नदियों पर निर्भर है, जो वर्षा द्वारा पोषित होती हैं। कम और असमान वर्षा जल आपूर्ति को प्रभावित करती है और इसके कारण स्थानीय लोगों ने बांध-निर्माण अभ्यास का आयोजन किया।
नरेगा संघर्ष मोर्चा के राज्य संयोजक जेम्स हेरेंज बताते हैं, “वर्ष 1993-94 के दौरान जब अविभाजित बिहार में पलामू सूखे का सामना कर रहा था, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने क्षेत्र का दौरा किया। इसके बाद उस समय के जिला कलेक्टर संतोष मैथ्यू ने इससे निपटने की रणनीति बनाने के लिए एक बैठक बुलाई।” जेम्स बताते हैं कि तब सूखे के कारण क्षेत्र में 200 लोगों की जान चली गई थी।
उस समय लोग बड़े बांधों के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे और नारा था "बड़े बांध नहीं, छोटे बांध।" जेम्स का कहना है कि प्रशासन ने फैसला किया कि वे इस आंदोलन के रास्ते में नहीं खड़े होंगे। इसके बजाय इसका निस्तारण करने के लिए सिविल सोसाएटी और अन्य लोगों को आगे किया गया, जो तकनीकी रूप से इन स्थानीय मांगों को समझते थे। इससे लोगों को अपनी भूमि का स्वामित्व लेने और छोटे बांधों के निर्माण जैसे स्थायी स्थानीय समाधानों में शामिल होने की अनुमति मिली।
एक स्थानीय कार्यकर्ता जितेंद्र सिंह कहते हैं, “लोगों ने इस प्रयास में धन और श्रम दोनों का योगदान दिया। हमने औरंगाबाद बांध का निर्माण नहीं होने दिया। इसकी बजाय हमने स्थानीय और पारंपरिक सिंचाई स्रोतों जैसे- कुओं, छोटे चेक डैम, तालाबों के निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया।''
सिंह ने कहा, "हमारे पारंपरिक बांध और सिस्टम मजबूत हैं। बड़े बांधों के विपरीत, छोटे बांध विस्थापन का कारण नहीं बनते हैं। 1966-68 के सूखे के दौरान लोग अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए जंगलों पर निर्भर थे। लोग अपने संसाधनों को संयोजित करते और वन उपज के साथ-साथ छोटे पैमाने की फसलों का आदान-प्रदान करते, जो वे अपनी जोती हुई भूमि पर उगाते थे। यदि किसी व्यक्ति या परिवार को कोई उपज नहीं मिलती, तो उन्हें अनाज और अन्य सामान उधार दिया जाता था और अच्छी फसल होने पर वे उसे वापस कर देते थे।''
राज्य कार्य योजनाओं की प्रासंगिकता
जलवायु परिवर्तन पर भारत की राष्ट्रीय कार्य योजना 2008 में तैयार की गई और 2021 में इसे अपडेट भी किया गया। इस दस्तावेज में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बनने वाली योजनाओं के कार्यान्वयन में राज्य व स्थानीय सरकारों की भूमिका को परिभाषित किया गया था। राज्य स्तर पर अधिकारियों से अपेक्षा की जाती है कि वे जलवायु परिवर्तन संबंधी विचारों को दिन-प्रतिदिन के शासन में सक्रिय रूप से शामिल करें और जलवायु-अनुकूल नीतियों व कार्यक्रमों को अपनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं।
18 अगस्त, 2009 को आयोजित राज्य पर्यावरण मंत्रियों के सम्मेलन में तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा की गई घोषणा के बाद जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्य योजना (एसएपीसीसी) की प्रक्रिया शुरू की गई थी। तब पर्यावरण और वन मंत्रालय (एमओ ईएफ) ने एसएपीसीसी तैयार करने के लिए सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) से संपर्क किया था।
झारखंड राज्य कार्य योजना में कहा गया है कि वर्षा और तापमान में परिवर्तन से क्षेत्र का आर्थिक प्रदर्शन भी प्रभावित होगा। इसमें कहा गया है, “तापमान बढ़ने के साथ ही राज्य में कृषि उत्पादकता घट जाएगी, साथ ही कीटों और अन्य फसल रोगों का प्रकोप भी बढ़ेगा। चूंकि राज्य की अधिकांश खेती वर्षा आधारित है, इसलिए मजबूत सिंचाई बुनियादी ढांचे के अभाव में राज्य का कृषि उत्पादन समय के साथ कम होता जाएगा। जल संकट बढ़ेगा और पहले से ही जल अभाव से जूझ रहे राज्य के कृषि, घरेलू और औद्योगिक क्षेत्रों में पानी की मांग बढ़ जाएगी। इससे राज्य के जल संसाधनों पर दबाव बढ़ जाएगा।”
इस कार्ययोजना में सुझाव दिया गया है कि इससे निपटने के लिए राज्य को दो तरफा दृष्टिकोण अपनाना होगा, जिसमें जलवायु परिवर्तन अनुकूलन को अपनाने के साथ-साथ इसे नियंत्रित करना भी शामिल है। इसमें कहा गया है, "राज्य को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने के लिए कुछ ऐक्शन की ज़रूरत होगी और मानवजनित गतिविधियों से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के प्रयास करने होंगे।"
यह योजना इस बात पर जोर देती है कि राज्य को आबादी, विशेषकर आदिवासियों के कल्याण हितों की रक्षा के लिए भारी निवेश करना होगा, जो सबसे अधिक गरीबी से पीड़ित हैं। पर्याप्त और गुणवत्तापूर्ण पानी व भोजन सुनिश्चित करना राज्य की प्राथमिकता बन जाएगी क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों (जल, कृषि, वानिकी) के भंडार और प्रवाह पर दबाव के कारण अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण आवकों की आपूर्ति कम हो जाएगी।
नीति शोधकर्ता कांची कोहली का कहना है कि राज्य की कार्य योजनाएं विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों के संसाधनों को सुरक्षित करने के लिए तैयार की जा रही हैं।
कोहली का तर्क है कि इन राज्य कार्य योजनाओं के लिए यह महत्वपूर्ण है कि धीरे-धीरे जलवायु परिवर्तन चर्चा संबंधी विभिन्न चिंताओं और समझ को भी टेबल पर लाया जाए। इसमें शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में गरीब और हाशिए पर रहने वाले समुदाय सबसे अधिक प्रभावित हैं। वे जलवायु प्रेरित आपदाओं- गर्मी की लहरों (हीट वेव्स), चक्रवात या बादल फटने जैसी अनियमित मौसम की घटनाओं के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील हैं।
कोहली का कहना है कि कई सरकारी विभाग जलवायु परिवर्तन को उन योजनाओं के ढांचे में एकीकृत करने की आवश्यकता को पहचानने लगे हैं, जिससे जलवायु अनुकूलन के लिए मानव और वित्तीय संसाधनों का उपयोग किया जा सके। यह आदिवासी क्षेत्रों के लिए भी उतना ही सच है। यह आपदा प्रबंधन और वानिकी संबंधी मामलों के लिए भी विशेष रूप से सच है।
कोहली बताती हैं कि सरकारी सहायता प्राप्त कार्यक्रमों के लिए बजट हमेशा सीमित रहा है और यह अब अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है। “वित्तीय सहायता या तो बहुपक्षीय सहायता एजेंसियों या फिर सीएसआर जैसी पहल के माध्यम से आ रही है। सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सरकारों को मौजूदा योजनाओं के साथ अंतर्राष्ट्रीय लक्ष्यों को एकीकृत करने की आवश्यकता है, जिनमें से कई जलवायु संवेदनशीलता को संबोधित करने के लिए सीधे प्रासंगिक हैं। विशिष्ट लक्ष्यों के साथ राज्य और केंद्र स्तर की योजनाओं की मैपिंग और उसका विश्लेषण करना उपयोगी होगा,” कोहली कहती हैं।
उनका तर्क है कि जलवायु परिवर्तन के बारे में चर्चाएं तो प्रचुर मात्रा में हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन अनुकूलन नीतियों और योजनाओं पर एक व्यवस्थित नज़र डालना अभी बाकी है।
फंड की कमी और गैर-कार्यात्मक योजनाएं
भारतीय संसद के कामकाज के बारे में जानकारी देने वाला दिल्ली स्थित स्वतंत्र अनुसंधान समूह पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च द्वारा किए गए एक विश्लेषण से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए बने नोडल मंत्रालय ‘पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ ने प्रशासनिक और प्रक्रियात्मक देरी के कारण जलवायु परिवर्तन क्षतिपूर्ति के लिए आवंटित धनराशि का उपयोग ही नहीं किया है।
विज्ञान व प्रौद्योगिकी, पर्यावरण और वन (2016) मामलों पर गठित स्थायी संसदीय समिति ने कहा कि यह मंत्रालय की ओर से दूरदर्शिता की कमी को दर्शाता है। समिति की ओर से कहा गया कि धन के इस तरह के कम उपयोग से योजनाओं और कार्यक्रमों की प्रगति प्रभावित हो सकती है।
वित्त मंत्रालय (2020) के अनुसार, 2030 तक भारत को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने के लिए आवश्यक कुल बजट लगभग 86 लाख करोड़ रुपये होने की उम्मीद है।
हालांकि जमीनी शोध से पता चलता है कि स्थानीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन अनुकूलन को अपनाना अतीत में संभव रहा है और इसके लिए समुदायों की सीधे भागीदारी की आवश्यकता है।
लोगों की स्थानीय अनुकूलन आवश्यकताओं को संबोधित करने के लिए कई मुद्दों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। राज्य तत्काल आपदा राहत और सूखा, अत्यधिक वर्षा, बाढ़ आदि जैसी जलवायु घटनाओं के लिए संबंधित धन की मांग कर रहे हैं, ताकि तत्काल और दीर्घकालिक प्रतिक्रियाओं के लिए योजना बनाई जा सके। जेम्स बताते हैं कि ऐसी योजनाओं के कम बजट की होने की भी संभावना है।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी, पर्यावरण और वन (2022) पर गठित स्थायी समिति ने ग्रीन इंडिया मिशन की मांग और बजटीय आवंटन में भारी अंतर को ध्यान में रखते हुए यह भी रेखांकित किया कि मिशन भारत की राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के साथ 60% तक मेल खाता है।
इसमें कहा गया है कि बजट में कटौती का असर सीधे गारंटीकृत मजदूरी पर पड़ सकता है। दूसरी ओर मनरेगा के कार्यान्वयन की स्थिति संतोषजनक से कम बनी हुई है।
पलामू के हताई गांव के निवासी लाला परहैया ने आरोप लगाया, "आजीविका की कमी और सूखे के कारण जहां एक तरफ लोगों को पलायन करना पड़ता है, वहीं दूसरी तरफ मनरेगा की धनराशि वापस सरकार को लौटा दी जाती है।" गौरतलब है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क निर्माण, सिंचाई सुविधाओं का निर्माण जैसे कई कार्य मनरेगा के तहत किए जा सकते हैं।
इंडियास्पेंड ने झारखंड सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय से संपर्क कर मनरेगा की स्थिति और धन के कम उपयोग पर टिप्पणी मांगी। जवाब मिलने पर हम इस स्टोरी को अपडेट करेंगे।
2015 में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन की लागत को पूरा करने के लिए ‘जलवायु परिवर्तन के लिए राष्ट्रीय अनुकूलन कोष’ (NAFCC) की स्थापना की गई थी, जो विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के प्रति संवेदनशील थे। हालाकि, इस फंड में भी भारी कटौती देखी गई है। 2017-18 में जहां इस मद में कुल 115.36 करोड़ रुपये का आवंटन हुआ था, वहीं 2022-23 में यह फंडिंग घटकर सिर्फ 34 करोड़ रुपये रह गई।
इस कोष के तहत विभिन्न राज्यों में कई परियोजनाओं को क्रियान्वित किया जाना था। झारखंड के रामगढ़ और जामताड़ा जिलों में वनों और उस पर आश्रित समुदायों का जलवायु लचीलापन बढ़ाने के लिए एक परियोजना को चलाया जाना था, जिसमें वन विभाग कार्यान्वयन एजेंसी थी। लेकिन फादर जॉर्ज मोनिपल्ली बताते हैं कि लोगों के साथ वन विभाग का रिश्ता तनावपूर्ण बना हुआ है।
2023-24 में एनएएफसीसी को जलवायु परिवर्तन कार्य योजना और कुछ अन्य योजनाओं के साथ बंद कर दिया गया था। इंडियास्पेंड ने इन दोनों महत्वपूर्ण फंडों को बंद करने पर टिप्पणी करने के लिए फोन और ईमेल के माध्यम से मंत्रालय के संयुक्त सचिव से भी संपर्क किया है। जवाब मिलने पर हम इस स्टोरी को अपडेट करेंगे।
स्थानीय जलवायु परिवर्तन अनुकूलन उपाय
जेम्स कहते हैं कि बरियातू क्षेत्र के स्थानीय समुदायों ने जलवायु परिवर्तन अनुकूलन उपायों को अपनाया है, जो सरकार से पर्याप्त समर्थन मिलने पर और अधिक सफल हो सकता है।
2011 के आसपास मनिका जिले के बरियातू गांव के लोगों ने जिला कलेक्टर राहुल पुरवार के साथ एक सिंचाई उपयोगिता योजना के बारे में विस्तृत चर्चा की, जो एक ठोस और दीर्घकालिक समाधान में भी योगदान देती। योजना यह थी कि किसान भुसरिया नाले से बहने वाले पानी का उपयोग अपने खेतों की सिंचाई के लिए करेंगे और 2 किमी लंबा नाला खोदेंगे। उन्होंने अपने पारंपरिक ज्ञान का इस्तेमाल करते हुए इस योजना को अंजाम दिया।
ये ग्रामीण लघु सिंचाई विभाग, वन विभाग समेत कई सरकारी विभागों से आर्थिक मदद प्राप्त कर रहे थे। पुरवार ने तकनीकी सलाहकारों से बात की और उन्हें जमीनी सच्चाई का अभ्यास करके क्षेत्र का विस्तृत मूल्यांकन रिपोर्ट तैयार करने के लिए कहा।
जेम्स कहते हैं, "यह सर्वविदित है कि इस तरह के मौखिक आश्वासन सरकारी विभागों में काम नहीं करते हैं और इसलिए यह प्रस्ताव लघु सिंचाई विभाग में लगभग डेढ़ साल तक रुका रहा।"
हालांकि स्थानीय सामुदायिक संगठन नरेगा सहायता केंद्र हर बैठक में इस मुद्दे पर चर्चा करता रहा। परिणामस्वरूप, लघु सिंचाई विभाग ने एक विस्तृत तकनीकी रिपोर्ट तैयार की और इसे वित्तीय सहायता के लिए जिला प्रशासन को सौंप दिया। जेम्स बताते हैं कि चर्चा के बाद जिला प्रशासन की ओर से 49 लाख रुपये की सहायता प्रदान की गई।
आस-पास के गांवों के लगभग 40-45 श्रमिकों ने महीनों तक बांध परियोजना पर काम किया। डोंकी पंचायत के हेसातु गांव में बना 40 फीट का चेक डैम आसपास के कई गांवों के लिए सिंचाई का साधन बन गया। जेम्स ने बताया, “एक चेक डैम बनाया गया, जिसमें अभी भी पानी है और लगभग 200 एकड़ भूमि की सिंचाई बिना किसी मोटर या किसी अन्य सिंचाई प्रणाली के की जा रही है। नदी को खेतों की ओर ले जाने के लिए उसका रुख मोड़ दिया गया है।''
जेम्स कहते हैं, "जलवायु कार्रवाई का मतलब क्या होता है, इस बारे में सरकार की समझ में नीतिगत अंतर है। जलवायु कार्रवाई का मतलब सिर्फ पेड़ लगाना नहीं है, बल्कि स्थानीय पहलों में समुदायों का समर्थन करना भी शामिल है।"