मौसम संबंधी आपदाओं के चलते 14% भारतीय पलायन करने के लिए मजबूर हुए - सर्वे

येल प्रोग्राम ऑन क्लाइमेट चेंज कम्युनिकेशन की एक नई रिपोर्ट से पता चलता है कि भारतीय जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को लेकर काफी चिंतित हैं। उन्हें सरकार से काफी उम्मीदें है और वे चाहते है कि सरकार जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए और ज्यादा काम करे।

Update: 2024-06-20 06:58 GMT

मुंबई: एक नए सर्वे से पता चलता है कि भारत में 85% लोगों ने ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने के प्रभावों का व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया है। 2021-22 की तुलना में यह 11 प्रतिशत की वृद्धि है। इससे जलवायु परिवर्तन के गंभीर परिणामों का अंदाजा लगाया जा सकता है। येल प्रोग्राम ऑन क्लाइमेट चेंज कम्युनिकेशन की नई रिपोर्ट बताती है कि 2,178 उत्तरदाताओं में से लगभग एक तिहाई (34%) ने कहा कि भीषण गर्मी, सूखा,समुद्र के जल स्तर में वृद्धि और बाढ़ जैसी मौसम संबंधी आपदाओं के कारण या तो पहले ही उन्होंने अपना घर छोड़ दिया है या फिर वे ऐसा करने पर विचार कर रहे हैं।

भारत में भयंकर गर्मी पड़ रही है और देश के कुछ हिस्सों में अधिकतम तापमान 50 डिग्री सेल्सियस को पार कर चुका है। मानवीय गतिविधियों के कारण होने वाली ग्लोबल वार्मिंग प्रति दशक 0.26 डिग्री सेल्सियस की दर से बढ़ रही है - रिकॉर्ड रखने के बाद से यह सबसे अधिक दर है। पिछले दशक (2014-2023) में मानवीय गतिविधियों के कारण पृथ्वी का तापमान 1.19 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। यह 2013-2022 के दौरान देखे गए 1.14 डिग्री सेल्सियस की तुलना में थोड़ा अधिक है।

हाल ही में हुए आम चुनाव भी भीषण गर्मी के दौरान ही हुए। हालांकि चुनाव प्रचार में जलवायु परिवर्तन व पर्यावरण संबंधी चिंताएं उभरीं और भारत की दो बड़ी पार्टियों ने अपने घोषणा पत्रों में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संबंधी मुद्दों को शामिल भी किया था, मगर इन्हें लेकर चर्चा न के बराबर ही हुई। जबकि नई रिसर्च बताती है कि भारतीय लोग जलवायु परिवर्तन की वजह से अपने जीवन और रोजगार पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर काफी ज्यादा चिंतित हैं।

जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता

जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाला पलायन दक्षिण एशिया के लिए चिंता का विषय रहा है। रिसर्च से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन या तो सीधे लोगों को विस्थापित कर रहा है या उनकी मुश्किलों को बढ़ा रहा है। बांग्लादेश में नदियों के किनारों का कटाव, भारत और पाकिस्तान में बाढ़, नेपाल में ग्लेशियरों का पिघलना, भारत और बांग्लादेश में समुद्री जल स्तर का बढ़ना, श्रीलंका में चावल और चाय बागानों में असामान्य शुष्क महीनों के बाद भारी बारिश या सभी देशों में चक्रवात और अनुकूल तापमान न होना , ये सभी कारण पलायन को बढ़ा रहे हैं।

दिसंबर 2020 में क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क, साउथ एशिया की रिपोर्ट में कहा गया था कि अगर जलवायु परिवर्तन के लिए किए गए वादों और लक्ष्यों को पूरा नहीं किया जाता है, तो 2050 तक भारत में लगभग 4.5 करोड़ लोग धीमी गति से होने वाले प्रभावों के कारण विस्थापित हो सकते हैं, जिनका जिक्र ऊपर रिपोर्ट में किया गया है।

येल स्टडी से पता चलता है कि भारत के लोग कृषि कीटों और बीमारियों (87%), पौधों और जानवरों की प्रजातियों के विलुप्त होने (86%), तेज गर्म हवाओं (85%), सूखे और पानी की कमी (85%), गंभीर वायु प्रदूषण (85%), अकाल और भोजन की कमी (83%), चक्रवात (76%) और भयंकर बाढ़ (71%) सहित कई पर्यावरणीय खतरों को लेकर चिंतित हैं। बहुत से लोगों का मानना है कि ये समस्याएं अभी और बढेंगी।

रिपोर्ट भारत में वयस्कों के एक राष्ट्रीय स्तर पर किए गए सर्वेक्षण के परिणामों पर आधारित है, जिसे येल प्रोग्राम ऑन क्लाइमेट चेंज कम्युनिकेशन और सेंटर फॉर वोटिंग ओपिनियन एंड ट्रेंड्स इन इलेक्शन रिसर्च (सीवोटर) द्वारा करवाया गया था। पिछले साल सितंबर से नवंबर के बीच 2,178 वयस्कों की प्रतिक्रियाएं दर्ज की गईं। सर्वे में लिंग, उम्र, साक्षरता, आय, जाति और क्षेत्र के आधार पर विभिन्न लोगों को शामिल किया गया था।

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रिपोर्ट के मुताबिक, 3 में से 1 भारतीय ने कहा कि वे भीषण गर्मी, सूखा, समुद्र के जल स्तर में वृद्धि, बाढ़ जैसी मौसम संबंधी आपदाओं के कारण या तो पहले ही नई जगहों पर जाकर बस चुके हैं या फिर जाने का विचार बना रहे हैं। इसमें 14% लोगों ने बताया कि वे पहले ही नई जगहों पर अपना बसेरा बना चुके हैं और 20% ने कहा कि वे किसी दूसरे गांव, कस्बे या शहर में जाने के बारे में सोच रहे हैं।

अधिकांश लोगों का मानना ​​है कि बाढ़ या सूखे के प्रभावों से उबरने में उन्हें लंबा समय लगेगा।

सर्वेक्षणकर्ताओं के मुताबिक, 75% उत्तरदाताओं ने कहा कि उनके परिवार को गंभीर बाढ़ से उबरने में कई महीने या उससे अधिक समय लग सकता है, वहीं 85% ने माना कि गंभीर सूखे के बाद घर और जिंदगी को पटरी पर आने में एक लंबा समय लगेगा।

भारत में प्रवास कई वजहों से होता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाला प्रवासन उनमें से एक है। उदाहरण के लिए, ब्रह्मपुत्र नदी में बार-बार आने वाली बाढ़ के कारण जीवन और आजीविका की अनिश्चितता असम के अस्थायी गाद द्वीपों से कई लोगों को पलायन करने के लिए मजबूर कर रही है। पानी की कमी से जूझ रहे बुंदेलखंड में हर बार की तरह इस चुनावी मौसम में पानी की कमी और पलायन मुख्य मुद्दे रहे। उत्तर प्रदेश से हमारी एक रिपोर्ट बताती है कि जहां एक ओर लोग अक्सर अपने गांवों में काम न होने की वजह से पलायन कर रहे तो वहीं दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन की वजह से पड़ रही भीषण गर्मी के बावजूद ईंट भट्टों में काम करने के लिए मजबूर हैं।

येल यूनिवर्सिटी के एंथनी लीसेरोविट्ज ने कहा, "भारत पहले से ही जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना कर रहा है। रिकॉर्ड गर्मी से लेकर भयंकर बाढ़ और तेज तूफान जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं है" वह आगे कहते हैं "हालांकि भारत में बहुत से लोगों को अभी भी ग्लोबल वार्मिंग के बारे में ज्यादा नहीं पता हैं, लेकिन वे बड़े पैमाने पर बदलती जलवायु को लेकर बात कर रहे है और इसके बारे में चिंतित हैं।"

उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के 1,000 से अधिक घरों के लोगों से बात करने वाले शोधकर्ताओं ने पाया कि दो-तिहाई से अधिक घरों ने सूखे को काम की तलाश में पलायन करने का कारण बताया, लगभग एक चौथाई ने बाढ़ और लगभग 10% ने ओलावृष्टि को इसकी वजह बताया।

ग्लोबल रिपोर्ट ऑन इंटरनल डिस्प्लेसमेंट 2020 के अनुसार, 2019 में भारत में लगभग 50 लाख लोग आपदाओं के कारण अपने घरों से विस्थापित हुए थे। रिपोर्ट में कहा गया है कि यह संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है। यह आपदाओं का तीव्रता, उच्च जनसंख्या घनत्व और सामाजिक व आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की बढ़ती संख्या का परिणाम है।

जलवायु परिवर्तन की वजह से आने वाली आपदाएं, विस्थापन और प्रवासन महिलाओं के काम के बोझ को और बढ़ा देते हैं। जब परिवार का कोई पुरुष सदस्य पलायन करता है, तो महिलाओं पर खेती और परिवार के सदस्यों की अवैतनिक देखभाल की दोहरी जिम्मेदारी आ पड़ती है। जैसे-जैसे परिवार पलायन करते हैं, उनका जमीन से जुड़ाव भी खत्म होने लगता है।

भारत सरकार ने 2070 तक कार्बन न्यूट्रल बनने की प्रतिबद्धता जाहिर की है और 2030 तक के लिए महत्वाकांक्षी जलवायु परिवर्तन संबंधी लक्ष्य निर्धारित किए हैं। अधिकांश उत्तरदाताओं ने भारत सरकार के जलवायु लक्ष्यों से सहमति व्यक्त की है, लेकिन उनका मानना ​​​​था कि सरकार को इस दिशा में और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है।

सर्वे में शामिल 85% लोगों ने कहा कि बिजली पैदा करने के लिए कोयले से पवन और सौर ऊर्जा की तरफ जाने से वायु प्रदूषण कम होगा और 82% ने कहा कि ऐसा करने से ग्लोबल वार्मिंग भी कम होगी। हालांकि, 61% ने कहा कि इसकी वजह से भारत में बेरोजगारी बढ़ेगी, जबकि 58% ने माना कि इससे बिजली की कटौती होगी और 57% ने कहा कि इससे बिजली की कीमतें बढ़ जाएंगी।

लगभग 80% उत्तरदाताओं ने कहा कि भारत सरकार को ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए या तो "बहुत ज्यादा" (61%) या "और ज्यादा" (16%) काम करना चाहिए। ऐसे लोगों का प्रतिशत जो चाहते हैं कि सरकार बहुत ज्यादा काम करे, 2021-22 की तुलना में 15 प्रतिशत बढ़ गया है। इसके विपरीत, सिर्फ 10% ने कहा कि मौजूदा समय में सरकार ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए सही दिशा में काम कर रही है, तो वहीं 9% लोगों का मानना था कि सरकार को इस मुद्दे से निपटने के लिए कम काम करना चाहिए।

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पिछले सात सालों में भारत के प्रति व्यक्ति कोयला उत्सर्जन में 29% की वृद्धि हुई है, लेकिन राहत की बात ये है कि यह दुनिया के सबसे ज्यादा उत्सर्जन करने वाले देशों की सूची में शामिल नहीं है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने 11 जून को एक बार फिर मंत्रालय का कार्यभार संभालने के बाद मीडिया से कहा कि सरकार “पर्यावरण और विकास को एक साथ लेकर चल रही है” और सरकार "मिशन लाइफस्टाइल फॉर एन्वायरनमेंट (LiFE)" पर जोर देती रहेगी। यह मिशन लोगों के जलवायु अनुकूल व्यवहार को प्रोत्साहित करता है।



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