झारखंड में भाषा आंदोलन: आखिर क्यों होने लगा है बिहारी बनाम झारखंडी?
राज्य के कई भागों में भोजपुरी, मगही और अंगिका को सरकारी नौकरियों के लिए जिला स्तरीय चयन प्रक्रिया में 'क्षेत्रीय भाषा' की श्रेणी में शामिल किये जाने को लेकर विरोध हो रहा है।
राँची: नवंबर 2000 में बिहार से अलग हुए झारखंड राज्य में भाषा को लेकर विरोध का स्वर थमने का नाम नहीं ले रहा है। झारखंड कर्मचारी चयन आयोग (जेएसएससी) की ओर से विभिन्न पदों के लिए आयोजित होने वाली मैट्रिक और इंटर स्तर की परीक्षाओं में भोजपुरी, मगही, अंगिका और उर्दू को जगह देने के बाद आदिवासी और मूलवासी विरोध करने सड़क पर उतर आए हैं। विरोध की शुरुआत बोकारो और धनबाद जिलों से हुई। यहां के लोगों का कहना है कि इन दो जिलों में भोजपुरी, मगही, मैथिली, उर्दू नहीं बोली जाती है। ऐसे में उन्हें क्षेत्रीय भाषा की श्रेणी से हटाया जाना चाहिए।
झारखंड सरकार ने पिछले साल 23 दिसंबर को एक नोटिफिकेशन जारी किया था। इसके मुताबिक, इन परीक्षाओं के लिए जनजातीय भाषा की श्रेणी में संथाली, कुडुख, खड़िया, हो, मुंडारी, असुर, बिरजिया, बिरहोरी, भूमिज और माल्तो को शामिल किया गया। वहीं क्षेत्रीय भाषा की श्रेणी में नागपुरी, पंचपरगनिया, बांग्ला, अंगिका, कुरमाली, मगही, उड़िया, खोरठा और भोजपुरी को जगह दी गई। इसके साथ ही उर्दू को सभी जिलों की क्षेत्रीय भाषा की सूची में शामिल कर दिया गया।
इससे पहले 12 अगस्त 2021 को जेएसएससी ने एक और नोटिफिकेशन जारी किया था जिसमें कहा गया था कि जिला एवं राज्य स्तरीय नियुक्ति में कुल तीन पेपर होंगे। इसमें एक हिन्दी-अंग्रेजी केवल क्वालिफाइंग होगा और इसमें 30% अंक लाने होंगे। लेकिन इसके अंक मेरिट लिस्ट में नहीं जुड़ेंगे। इसके अलावा, दूसरा पेपर क्षेत्रीय-जनजातीय भाषा का होगा। इसमें अनारक्षित श्रेणी को 40, अनुसूचित जाति-जनजाति व महिलाओं को 32, अत्यंत पिछड़ा वर्ग (अनुसूची-1) को 34, पिछड़ा वर्ग (अनुसूची-2) को 36.5, आदिम जनजाति को 30, और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को 40% अंक लाना अनिवार्य होगा। तीसरा पेपर सामान्य अध्ययन का होगा। इन दोनों के अंकों को मिलाकर मेरिट लिस्ट बनाई जाएगी।
झारखंड में तृतीय और चतुर्थ श्रेणी वाली नौकरियों को दो श्रेणियों में बांटा गया है। पहली राज्य स्तरीय और दूसरी जिला स्तरीय। राज्य स्तरीय परीक्षाओं के लिए क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से मगही, मैथिली, भोजपुरी और अंगिका को बाहर रखा गया है। जिला स्तरीय परीक्षाओं के लिए जिला स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं की अलग सूची है, जिसमें कुछ जिलों में मगही, भोजपुरी, अंगिका को शामिल किया गया है। विवाद जिला स्तरीय तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों का है।
आखिर इतने लोग सड़क पर कैसे उतर गए?
नौकरी ना मिलने की बढ़ती संभावना और अपनी भाषा को तवज्जो न मिलता देख लोग 30 जनवरी 2022 को सड़क पर उतर आए। लगभग दो लाख लोगों ने 50 किलोमीटर की मानव श्रृंखला बनाई। सवाल यह उठता है कि युवाओं के एक छोटे से ग्रुप के कहने पर आखिर इतने लोग सड़क पर कैसे उतर गए? इस सवाल के जवाब में आंदोलन में शामिल सुनीता टुडू कहती हैं, ''भाषा मतलब मां। जब मां की बात आ गई तो सड़क पर आना ही था। हम केवल अपनी भाषा, झारखंडी भाषा की प्रमुखता चाहते हैं। अगर थर्ड और फोर्थ ग्रेड की नौकरी में भी हमें अपनी भाषा के माध्यम से जगह नहीं मिलेगी, तब हमारे लिए बचेगा क्या? दूसरे बाहरी भाषाओं को बोलने वालों के मुकाबले हममें कम टैलेंट हैं। ऐसे में सरकारी नौकरियों में जगह बनाए रखने के लिए हमें सड़क पर उतरना ही था।''
तीर्थनाथ आकाश गांव-गांव की यात्रा कर लोगों को सरकार के इस निर्णय के खिलाफ एकजुट कर रहे हैं। उन्होंने शपथ ली है कि जब तक सरकार ये निर्णय वापस नहीं लेगी, वो नंगे पैर ही चलेंगे। वहीं एक और आंदोलनकारी जयराम महतो की सभा में हर दिन हजारों की भीड़ जुट रही है।
आंदोलन के विरोध में भी उठने लगी हैं आवाजें
भोजपुरी, मैथिली और अंगिका भाषा को हटाने को लेकर राज्य में विरोध तेज हो गया है। बीते 8 फरवरी को धनबाद में एक कार जला दी गई थी। भोजपुरी, मैथिली भाषा से जुड़े संगठन भी लगातार बैठकें कर रहे हैं। अखिल भारतीय भोजपुरी, मगही, मैथिली, अंगिका मंच के अध्यक्ष कैलाश यादव कहते हैं, ''जिन भाषाओं का विरोध हो रहा है, उसको बोलने वाले यहां 19 जिलों में हैं। वो यहां दशकों से रह रहे हैं। यहां के मतदाता हैं, तो क्या सरकारी नौकरियों पर उनका हक नहीं है? विरोध करने वाले हमें घुसपैठिया कहते हैं। विरोध के नाम पर समाज को बांटने का काम हो रहा है। सरकार के शिक्षा मंत्री ही इस विरोध को हवा दे रहे हैं।''
पलामू के युवा अभिमन्यु वत्स ट्विटर पर लिखते हैं, "काहे नी चलतो? हमनी पलमुअन त भोजपुरी आउ मगही बोल ही तो का पलामू झारखंड में नैय हउ? बाहरी भाषा उर्दू आउ बंगाली नैय लगलौ? खाली भोजपुरी आर मगही के विरोध करबे? 1932 के खतियान लागू कराव ओकर बाद भीतरी आउ बाहरी तय होतऊ.
काहे नी चलतो? हमनी पलमुअन त भोजपुरी आउ मगही बोल ही तो का पलामू झारखंड में नैय हउ?
— Abhimanyu Vats (@imabhimanyuvats) February 9, 2022
बाहरी भाषा उर्दू आउ बंगाली नैय लगलौ? खाली भोजपुरी आर मगही के विरोध करबे?
1932 के खतियान लागू कराव ओकर बाद भीतरी आउ बाहरी तय होतऊ।
सरकार से काम मांग, भाषा के नाम पर लड़ मत!@SunnyPalamu @DuttaAnand https://t.co/AqVEQr0O3p
मतलब, "सरकार से काम मांग, भाषा के नाम पर लड़ मत! (भोजपुरी, मगही, मैथिली क्यों नहीं चलेगा? पलामू के रहने वाले यही भाषा बोलते हैं, क्या पलामू झारखंड का हिस्सा नहीं है? उर्दू और बंगाली बाहरी भाषा नहीं है क्या? केवल भोजपुरी, मगही का विरोध होगा क्या? पहले 1932 का खतियान लागू कराया जाए, इसके बाद बाहरी और स्थानीय तय होगा।)
क्या कहता है 1932 का खतियान?
साल 1932 के खतियान का मतलब है, उस साल के भूमि सर्वेक्षण में जिन परिवारों का नाम दर्ज है, उन्हीं को स्थानीय माना जाएगा। हालांकि स्थिति कुछ और ही बयां कर रही है। जमीन से जुड़े मामलों में कई रिपोर्ट कर चुके पत्रकार प्रवीण कुमार बताते हैं, ''पूरे झारखंड में 1932 में भूमि सर्वे नहीं हुआ है। इसके बाद 1964, 1972 में भी कुछ इलाकों में सर्वे हुआ है। यहां तक कि 1972-73 में राज्य के कई इलाकों में पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को भी बसाया गया है। सच्चाई तो ये है कि आज तक पूरे झारखंड का पूरा-पूरा भूमि सर्वे हुआ ही नहीं है।''
बांग्ला, उर्दू, उड़िया का विरोध क्यों नहीं?
इस आंदोलन से एक सवाल और निकलकर सामने आया और वो ये कि बांग्ला, उर्दू, उड़िया का विरोध क्यों नहीं? इस सवाल के जवाब में तीर्थनाथ आकाश कहते हैं, ''धनबाद और बोकारो जिलों में उर्दू, उड़िया नहीं बोली जाती है, बांग्ला बोली जाती है। हम क्षेत्रीय भाषा के तौर पर उर्दू का भी विरोध करते हैं। इस सरकार ने षड्यंत्र के तहत उर्दू को सभी जिलों में लागू किया है। वैसे भी यहां के मुसलमान उर्दू को मजहबी भाषा मानते हैं, वो भी खोरठा ही बोलते हैं। इसलिए वो भी इस आंदोलन में साथ हैं। सुनीता टुडू एक बार फिर कहती हैं, "उर्दू का भी विरोध है, लेकिन फिलहाल कम। क्योंकि यह शुरू से ही सरकारी भाषा रही है। राज्यभर में उसके स्कूल हैं। इस वक्त अगर उसका विरोध करेंगे तो हमारा आंदोलन दूसरी दिशा में चला जाएगा।"
राजनीतिक दल तय नहीं कर पा रहे कि किधर जाएं
राज्य के शिक्षा मंत्री जगन्नाथ महतो जिस इलाके (डुमरी विधानसभा) से चुनकर आते हैं, विरोध का स्वर सबसे अधिक तेज वहीं है। यही वजह है कि मुख्यमंत्री से चर्चा किए बिना, कैबिनेट में प्रस्ताव लाए बिना उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कह दिया कि धनबाद और बोकारो से भोजपुरी, मगही, मैथिली और अंगिका को क्षेत्रीय भाषा की श्रेणी से हटाया जाएगा। हालांकि इसे हटाया भी गया। जबकि पलामू, गढ़वा, चतरा ऐसे जिले हैं जहां भोजपुरी, मगही, अंगिका, मैथिली बोली जाती हैं। इन इलाकों से चुनकर आने वाले जेएमएम के विधायक पूरे मसले पर चुप्पी साधे हुए हैं।
अब आते हैं कांग्रेस की तरफ। राज्य के कांग्रेस अध्यक्ष राजेश ठाकुर का इस बारे में साफ कहना है, "हम सरकार में हैं। ऐसे में सरकार के सभी निर्णयों पर हमारी सहमति है।"
इस बीच 17 से 19 फरवरी तक कांग्रेस ने चिंतन शिविर आयोजित किया। यहां भी भाषा का मुद्दा हावी रहा। स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता ने कहा, "भोजपुरी बोलने से मन मिजाज हरियर (अच्छा) हो जाता है। इसे बोलने में क्या दिक्कत है? हम तो सब जात-बिरादरी का सम्मान करते हैं। हालांकि भाषा और स्थानीयता के मसले पर पार्टी का क्या स्टैंड होगा, इसको लेकर अभी कोई आम राय नहीं बन सकी है।"
पिछली बीजेपी सरकार ने इन भाषाओं को द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिया था। पार्टी के धनबाद से विधायक राज सिन्हा कहते हैं, ''हेमंत सरकार ने हर साल 5 लाख लोगों को रोजगार देने का वादा किया था। कुछ एक हजार नियुक्तियां हुई, वो भी मामला कोर्ट पहुंच गया। ऐसे में लोगों के सवाल से बचने के लिए यह आंदोलन खड़ा किया गया है। अब बताइए न कि उर्दू किस जिले की क्षेत्रीय भाषा है, उसका विरोध क्यों नहीं हो रहा। आंदोलनकारी मेरा पुतला जला रहे हैं। मैं तो कहता हूं कि अगर सरकार 10 लाख लोगों को रोजगार दे देती है, तो पुतला नहीं मुझे जला दो।''
दूसरी विपक्षी पार्टी ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन (आजसू) के पार्टी प्रमुख सुदेश महतो कहते हैं कि हेमंत सरकार ने जानबूझकर इन भाषाओं को शामिल किया है, लोगों को लड़ाने का काम किया है।
इन सबके इतर एक चौथा धड़ा भी है। ये उन तीनों राजनीतिक दलों से निकले या उससे संबंध न रखने वाले लोग हैं। पूर्व विधायक शैलेंद्र महतो कहते हैं, ''भोजपुरी, मगही, मैथिली अंगिका के सरकारी मान्यता का विरोध है। जिस भाषा को बिहार में मान्यता नहीं है, यहां की सरकारों ने उसे मान्यता दे दी है। बिहार के लोग बंगाल भी गए, लेकिन बांग्ला सीख गए, इसलिए वहां भाषा को लेकर आंदोलन नहीं है। हम भाषा को लेकर बहुत झेले हैं। साल 1948 में एक जनवरी को सरायकेला-खरसांवा इलाके (वर्तमान में जिला) को ओडिशा में शामिल किया जा रहा था। उस आंदोलन में एक हजार से अधिक लोगों की मौत हो गई थी। चूंकि बिहार के लोग जबर्दस्ती कर रहे हैं, इसलिए फिलहाल ये आंदोलन बिहार बनाम झारखंड लग रहा है।''
लेखक और मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग भी कुछ इसी तरह की बात कहते हैं। उनके मुताबिक, ''यहां सभी राज्यों के लोग हैं, लेकिन दूसरे प्रदेश के लोगों के मन में झारखंडी और यहां की भाषा के लिए कोई सम्मान नहीं है। हेमंत सोरेन तीन पैरों वाली सरकार चला रहे हैं। लिहाजा इस मसले पर उन्हें कड़ा निर्णय लेना ही होगा। डुंगडुंग ये भी कहते हैं कि भोजपुरी, मगही के साथ अगर बांग्ला, उड़िया, उर्दू का विरोध नहीं हुआ तो जल्द ही ये आंदोलन कमजोर हो जाएगा।
राज्य में तीन लाख से अधिक सरकारी पद खाली
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के 31 जनवरी तक के आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में बेरोजगारी दर 8.9% है। बीते साल राज्य के अपर मुख्य सचिव एलएम ख्यांगते की अध्यक्षता वाली कमेटी ने विभिन्न सरकारी विभागों के खाली पदों की संख्या को लेकर एक रिपोर्ट सौंपी थी। उसके मुताबिक 34 विभागों में से 31 प्रमुख विभागों में जो खाली पद हैं उनमें कुल स्वीकृत पदों की संख्या 3,01,198 है। जिसमें से 57,182 पद पदोन्नति के आधार पर भरे जाने हैं। जबकि 2,44,016 पद सीधी नियुक्ति से भरे जाने हैं।
बहरहाल, राज्य में बजट सत्र चल रहा है। सत्र के दौरान बीजेपी के विधायक शिवपूजन मेहता ने पूछा है कि हिन्दी को उर्दू की तरह क्षेत्रीय भाषा का दर्जा क्यों नहीं दिया गया। इस पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा है कि हिन्दी को पासिंग मार्क्स श्रेणी में रखा गया है। फिलहाल क्षेत्रीय भाषा को बढ़ाना प्राथमिकता है। लेकिन इस बात को सभी समझ रहे हैं कि सरकार चालाकी कर रही है। पहले हेमंत सोरेन ने कहा कि भोजपुरी, मगही बिहार की भाषा है। इसको बोलने वाले डॉमिनेटिंग होते हैं। राज्य आंदोलन के दौरान इस भाषा के लोगों ने झारखंडियों के साथ बहुत दुर्व्यवहार किया है। महिलाओं का अपमान किया है। इसको बोलने वाले लोग गांवों में नहीं, बल्कि अपार्टमेंट में रहते हैं।
हालांकि ऐसा बोलने के कुछ ही महीने बाद सीएम सोरेन ने भोजपुरी, मगही को नियुक्ति प्रक्रिया में शामिल कर दिया था और विरोध होने के बाद फिर उसे हटा भी दिया। अब देखना यह है कि भाषा का ये आंदोलन जोर पकड़ता है या फिर धीरे-धीरे शांत हो जाता है।
(हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। कृपया respond@indiaspend.org पर लिखें। हम भाषा और व्याकरण के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार सुरक्षित रखते हैं।)