नदी के प्रतिबंब: खिसकती रेत और तनाव से जूझती ज़िंदगियाँ

बाढ़, भूस्खलन, पर्यावरणीय दुर्दशा, प्रदूषण- यह सब ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे से गायब होती जमीन, विस्थापित जीवन और बरबाद हो रही आजीविका की कहानी के साथ जुड़ा है।

By :  Megha
Update: 2022-07-19 15:10 GMT

अरुणाचल प्रदेश का एक खेत  

ब्रह्मपुत्र हमेशा से बड़ी मात्रा में अपने साथ तलछट लेकर आने वाली नदी रही है - चीन में यांग्त्ज़ी किआंग के बाद धरती पर किसी भी अन्य नदी की तुलना में सबसे ज्यादा गाद और रेत बहाकर लाने वाली नदी। ब्रह्मपुत्र के जलोढ़ पंखे बंगाल की खाड़ी में पहुंच जाते हैं और बांग्लादेश के प्राकृतिक भूमि क्षेत्र का निर्माण करते हैं। यह उपग्रह इमेजरी से दिखने वाला दृश्य है।

लेकिन पिछले कुछ सालों में नदी व्यापक और उथली हो गई है और इसके बड़े साथी (मैं उन्हें सहायक नदियां कहना पसंद नहीं करता) भी सर्दियों के मौसम में गहराई, मात्रा और चौड़ाई में सिकुड़ रहे हैं।

2021 में बारिश देर से आई तो नदी में सैलाब भी देर से ही आया। लेकिन इस साल मूसलाधार बारिश की पहली लहर ने फरवरी की शुरुआत में असम और अन्य राज्यों को अपनी चपेट में ले लिया। उसके बाद अप्रैल और फिर मई में भारी बारिश के तीसरे दौर के साथ बाढ़ की शुरुआत हो गई।

किसान बेमौसम और असमय आई बाढ़ से अपनी चावल की फसल को बचाने के लिए मजदूरों और अपने समुदायों के लोगों के साथ खेतों की ओर भागने के लिए मजबूर हो गए। वे फसल काटकर सड़कों पर ले आए- उनके लिए यही एकमात्र ऊंची जगह थी जहां वह अपनी फसल को बचा सकते थे। उन्होंने उसे नीले रंग की तिरपालों पर सुखाया और इस ऊंची जगह पर बोरों में बांधकर रख दिया।

सड़क पर अपनी फसल सूखाते किसान 

हजारों लोग विस्थापित हुए, कम से कम 18 लोगों की मौत हो गई, इनमें से कई की जान भुस्खलन में गई थी। जिस वजह से कुछ लोगों ने इस तरफ देखना शुरू किया। वरना तो जनता और मीडिया का सारा ध्यान दीमा हसाओ जिले में हुई तबाही पर केंद्रित था। यहां एक नई रेलवे लाइन और रेलवे स्टेशन को भूस्खलन और बाढ़ ने बर्बाद कर दिया था। कई ट्रेन इसकी चपेट में आ गईं, पटरियां पानी में बह गईं और देश के बाकी हिस्से के साथ संपर्क टूट गया।

गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे से पूछा था कि रेलवे लाइन के निर्माण के दौरान 2015 में रेलवे सुरक्षा आयुक्त की एक रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू क्यों नहीं किया गया। आरोप लगाया जाता रहा है कि नए ट्रैक को खराब तरीके से डिजाइन किया गया था और जल्दबाजी में बनाया गया था। इंजीनियरों और ठेकेदारों ने स्थानीय भूवैज्ञानिक संरचना पर ध्यान नहीं दिया। इसे बनाने के लिए हजारों पेड़ काटे गए, वो पेड़ जिनकी जड़ें मिट्टी को एक साथ बांधे रखती हैं। पहाड़ियों की अंधाधुंध कटाई ने ढलानों को कमजोर कर दिया और विनाशकारी भूस्खलन की स्थिति पैदा कर दी। राज्य के एक शीर्ष अधिकारी का कहना है कि जिले में व्यवस्था को सामान्य होने में कम से कम छह महीने लगेंगे।

यह कहानी कहीं और भी दोहराई जा रही हैं। डिब्रूगढ़ और लखीमपुर में वरिष्ठ अधिकारी नदी में बढ़े हुए अवसादन के लिए सीधे ऊपर अरुणाचल प्रदेश की पहाड़ियों में अंधाधुंध वनों की कटाई को दोष देते हैं। इसकी वजह से चट्टानें और मिट्टी नदी के साथ नीचे आ रही है।

यह हमारी नदी के प्रतिबिंब सीरीज का चौथा और अंतिम भाग है। यहां आप ब्रह्मपुत्र की यात्रा का पहला भाग, दूसरा भाग और तीसरा भाग पढ़ सकते हैं।

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खासतौर पर 'मैनलैंड इंडिया' और महानगरीय मीडिया में बाढ़ और उसके बाद की, की जाने वाली रिपोर्टिंग का एक ही ढर्रा नजर आता है। 'भयंकर' बारिश, बाढ़ का स्तर, सैकड़ों हजारों विस्थापित लोग, पशुधन, संपत्ति और सरकारी बुनियादी ढांचे की तबाही के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को होने वाले नुकसान की कहानियां प्रिंट, टेलीविजन और सोशल मीडिया में सुर्खियां बनती हैं। नेता हवाई दौरे से नुकसान का निरीक्षण करने के लिए दौड़ पड़ते हैं (पिछले 75 सालों में हर प्रधानमंत्री ने ऐसा किया है)। जैसे-जैसे बाढ़ कम होती है (बाढ़ की तीन लहरें हो सकती हैं), ये कहानियां भी फीकी पड़ने लग जाती हैं। और अगले साल, अगली बाढ़ तक मीडिया भी इनमें दिलचस्पी खो देता है।

एक बार बाढ़ का पानी उतर जाने के बाद सपोरी वासियों का, उनके जीवन और उनकी आजीविका का क्या होगा? कितने लोग इसके बारे में सोचते हैं और उनकी दर्दनाक घर वापसी के बारे में लिखते या चैनल पर प्रसारित करते हैं? बाढ़ प्रभावित ये लोग जब वापस लौट कर आते हैं तो इनमें से न जाने कितनों को यह पता चलता है कि जिस जमीन पर उन्होंने अपने जीवन का निर्माण किया था, वह या तो बर्बाद हो गई है या कई उदाहरणों में, नीचे की ओर खिसक गई या एक नया द्वीप ऊपर की ओर बढ़ गया है। इसका सीधा सा मतलब है: घरों का फिर से बनाना, फिर से खेती करना, फिर से आजीविका के साधन ढूंढ़ना। ऐसा उनके जीवन में एक बार नहीं होता है। एक साल में दो और कभी-कभी तीन बार भी हो जाता है।

ब्रह्मपुत्र घाटी में बाढ़ की चुनौती इस तथ्य से बढ़ जाती है कि महानदी और उसके साथी व्यापक हो गए हैं, लेकिन उथले भी। सवाल यह है कि कैसे? और क्यों?

कुछ समय पहले तक तिब्बत की सीमा से सटे अरुणाचल प्रदेश के विशाल राज्य में कई बड़ी घाटियों को जोड़ने वाला कोई ट्रांस-अरुणाचल हाईवे नहीं था। अरुणाचल में वापस जाने के लिए कमर्शियल और यात्री वाहनों को असम का लंबा, महंगा चक्कर लगाने के लिए मजबूर होना पड़ता। इसलिए यहां सड़क निर्माण को आर्थिक और राष्ट्रीय सुरक्षा दोनों कारणों से जरूरी माना गया। लेकिन इसके लिए पहाड़ी ढलानों को काटने और वनों की कटाई जरूरत हुई, जिसका अर्थ है कि अधिकांश मलबा नीचे की घाटियों में चला गया। यह स्पष्ट नहीं है कि इसमें से कितना बचा लिया गया या निर्माण करने में इस्तेमाल करने के लिए कहीं और ले जाया गया।

नतीजतन, ब्रह्मपुत्र और अन्य नदियों की वहन क्षमता मिट्टी और चट्टान और मलबे के बढ़ते भार से कम हो गई और नदियों को गाद डंप करने के लिए मजबूर होना पड़ा। जैसे-जैसे वे आगे की ओर बढ़ती हैं गहराई को कम करते हुए, अपनी परिधि या घेरे को बढ़ाती चली जाती हैं।

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मौसम का बदलता मिजाज किसानों, कारोबारियों और प्रशासकों के लिए नई चुनौतियां पैदा कर रहा है। लखीमपुर जिले के मिशिंग आदिवासी समुदाय के 900 लोगों वाले गांव गुवालबाड़ी में पुष्पो पेगू ने हरे धान के एक खेत को देखा और पिछली गर्मियों की फसल के नुकसान पर अफसोस जताया। पुष्पो पेगू गांव के एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं। उन्होंने अपने पड़ोसी के धान के छोटे से लहलहाते खेतों की ओर इशारा करते हुए कहा, "पिछले साल बारिश बहुत देर से हुई थी। चीजें इतनी अनिश्चित हैं, हमें नहीं पता कि कब रोपना है और क्या बोना है, क्योंकि मौसम कभी भी बदल जाता है और बारिश आ जाती है।"

ग्वालबारी जैसा कि इसके नाम से पता चलता है कि ये डेयरी फार्मिंग की एक जगह है। यहां हर घर लचीली लेकिन सख्त बांस की जाली की एक हल्की संरचना से बना है, इसके ऊपर पुआल या टिन की छतें हैं। यह मजबूत बांस की स्टिल्ट पर खड़े हैं। एक देशी डिज़ाइन है, जिसे ऊपरी असम में यह समुदाय सदियों से इस्तेमाल करता आया है। यह उन्हें बाढ़ से और पहले के समय में जंगली जानवरों से बचाने में कारगार रहा है।

पुष्पो पेगु अपने पडोसी के धान के खेत के सामने 

एक लकड़ी के लट्ठे के जरिए जिसमें छोटी-छोटी सीढ़िया बनी है, हम पेगु के चांग घर पर चढ़ते हैं। इन घरों को इसी नाम से पुकारा जाता है। अंदर से ठंडा, कम रोशनी और हवादार है – नाव पर एक लंबे सफर के बाद इसने हमारी थकान को ताजगी में बदल दिया। वो सफर जो हमने खेतों और गांव के बीच से होते हुए और गांव की महिलाओं और बुजुर्गों के एक समूह के साथ एक जोशीली चर्चा करते हुए पूरा किया था।

बांस के फर्श पर प्लास्टिक के बोरों को एक साथ सिलकर बनाए गए छोटे-छोटे मुर्तां बिछे हुए थे। हम उन्हीं पर बैठ गए। सीट आरामदायक हैं और रीसाइक्लिंग बेहद शानदार। महिलाएं हमें पीतल के चौड़े कटोरे में ठंडक का अहसास करने वाली साई अपोंग यानी ताजी पिसे हुए चावल की बीयर परोसती हैं। अपोंग के बाद सूअर के मांस एक कटोरे में परोसा गया। यह लहसुन और काली मिर्च के साथ कद्दू की करी में बना खास और अनोखा व्यंजन था।

ये मोहक सुंदरता के प्राचीन स्थान हैं, जो अभी भी अनियोजित विकास और बुनियादी ढांचे की दुर्लभ शक्ति से अछूते हैं। यहां और अन्य जगहों की तरह, ऑफ-सर्किट पर्यटन के लिए बैकपैकर्स, पर्यावरणविदों और शोधकर्ताओं के लिए अवसर हैं। भले ही जलवायु परिवर्तन से प्रेरित बदलते मौसम के पैटर्न नई कमजोरियां और चुनौतियां पैदा कर रहे हों।

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मैंने डिब्रू सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान की यात्रा की, जो डिब्रूगढ़ और तिनसुकिया जिलों के कुछ हिस्सों में फैला है, उत्तर में ब्रह्मपुत्र और लोहित नदियों और दक्षिण में डिब्रू से घिरा है। हमें कोई वन्यजीव नहीं मिला, क्योंकि हम दिन के उजाले में यात्रा कर रहे थे। अधिकांश प्रजातियों के लिए दिन बहुत उज्ज्वल और गर्म होते हैं। उनके निकलने के लिए सुबह और शाम का समय है। हमने पार्क में मौजूद एक गांव और वन शिविर का दौरा किया।

यहां भी अन्य जिलों की ही तरह कई मसले हैः भूमि का कटाव, आजीविका और आमदनी को निगल रहा है। नंदनाथ रेगॉन ने कहा, "हमें नियमित रूप से 5 किलो मुफ्त चावल मिल रहे हैं, यह एक बड़ी मदद है।" लाइका पोमुआ के वन गांव में रहने वाले रेगॉन ने शरीर के ऊपरी हिस्से पर कुछ नहीं पहना था।

डिब्रू सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान के अंदर लाइका पोमुआ के वन गांव में रहने वाले ग्रामीण 

60 साल का रेगॉन मिशिंग समुदाय में से हैं, जो कुछ साल पहले एक बड़ी बाढ़ के बाद यहां आकर बस गए। ऊंची जमीन से बमुश्किल एक किलोमीटर दूर, नदी के किनारे के घरों को वह पीछे हटते हुए देख सकता हैं। रेगॉन ने अपने केले के बाग और उन छोटी-छोटी झोपड़ियों को निहारते हुए कहा, "हम सभी को किसी न किसी मोड़ पर यहां से जाना होगा, भले ही हम न चाहें।" चूजे शोर मचा रहे थे और मुर्गी जो उनकी मां थी, उन्हें धकेलते हुए आगे की ओर ले जा रही थी। परिवार मेहमानों के लिए, खूबसूरती से तैयार की गई दो बेंत की कुर्सियों को बाहर लाया और कागज के प्यालों में लाल चाय परोसी। यह सुखद जीवन हो सकता था, लेकिन नदी का बढ़ता खतरा जमीन को निगल रहा था और लगातार उनके करीब आ रहा था।

रेगॉन के साथ खड़े लखीनाथ नगेटी ने कहा, मुफ्त चावल जरूरी है, लेकिन, "अब इससे भी ज्यादा जरूरी जमीन है जहां जाकर हम बस सकें। नौजवान बाहर जा रहे हैं क्योंकि उनके लिए यहां कोई काम नहीं है।" बुजुर्गों का कहना है कि गांव के युवा गुवाहाटी और उससे आगे की ओर निकल रहे हैं।

तिनसुकिया में मैंने नटुन रोंगागोर गांव के पास, बागजान में एक तेल के कुएं में हुए विस्फोट वाली जगह का दौरा किया, जो एक पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र के नजदीक है। जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध पक्षी का निवास स्थान मगुरी मोटापुंग बील शामिल है। यहां हुआ विस्फोट, भारत की सबसे खराब तेल आपदाओं में से एक था, जिसे बुझाने में 110 दिन का समय लग गया। इससे काफी प्रदूषण हुआ और ये हवा में फैल गया, इसने तीन लोगों की जान ले ली और लगभग 9,000 लोगों को विस्थापित कर दिया। इनमें से बहुत से कुछ समय के लिए राहत शिविरों में रहे।

ईस्ट मोजो की रिपोर्ट के अनुसार, असम के वन विभाग की एक जांच रिपोर्ट में शुरू में 25,000 करोड़ रुपये के आर्थिक नुकसान और 55% जैव विविधता के नुकसान का अनुमान लगाया गया था। इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन की एक इकाई ऑयल इंडिया लिमिटेड (OIL) ने सीधे प्रभावित हुए 600 से अधिक परिवारों को मुआवजे और राहत के तौर पर 147.92 करोड़ रुपये का भुगतान किया था।

ऑनलाइन समाचार साइट ईस्ट मोजो के एक रिपोर्टर अनुपम चक्रवर्ती ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा जरूरी जांच का हवाला देते हुए बताया कि विस्फोट से प्रभावित लगभग 4 वर्ग किमी भूमि इतनी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई थी कि उसे वापिस पाना संभव नहीं था। रिपोर्ट में कहा गया है कि लोहित, डिब्रू और मगुरी-मोटापुंग के पानी, मिट्टी और तलछट में अत्यधिक कार्सिनोजेनिक पॉली-एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन (पीएएच) का जमाव, इसी तरह की दुर्घटनाओं पर की गई अन्य भारतीय और वैश्विक रिपोर्ट की तुलना में काफी ज्यादा था। पीएएच अत्यधिक कार्सिनोजेनिक रासायनिक यौगिक हैं जो कोयले, कच्चे तेल और पेट्रोल को जलाने के दौरान उत्पन्न होते हैं। ये यौगिक आसानी से कार्बनिक पदार्थों से बंध सकते हैं जिससे तेल रिसाव से प्रभावित पारिस्थितिक तंत्र का बड़े पैमाने पर जैविक क्षरण हो सकता है।

75 हेक्टेयर से ज्यादा का क्षेत्र जल चुका था। धान के समृद्ध खेतों के बड़े हिस्से तेल, मिट्टी और अवशेषों से ढके हुए थे, चारों ओर कई किलोमीटर तक पेड़ और वनस्पति जलकर काली पड़ गई, प्रवासी और स्थानीय दोनों तरह के अनगिनत पक्षी जिंदा जल गए। एक मरी हुई नदी डॉल्फिन धारा में बहकर तट पर आ गई थी।

स्थानीय पर्यावरणविद्, वन्यजीव विशेषज्ञ और डांगोरी नदी के पास एक इको-रिसॉर्ट के मालिक जोयनल अबेदिन कहते हैं, प्रवासी पक्षी लौट रहे हैं, लेकिन संख्या कम हैं। उन्होंने बताया, "स्थानीय पक्षी ठीक-ठाक दिख रहे हैं, लेकिन समस्या यह है कि कोई वैज्ञानिक सर्वे नहीं किया गया।" गुइजान शहर के रहने वाले अबेदिन जिन्हें प्रकृति से गहरा प्यार है और क्षेत्र के पारिस्थितिक तंत्र का विशाल ज्ञान भी। इसे वह उस हर किसी के साथ स्वेच्छा से साझा करते हैं जो उसे समझना चाहता है।

ईस्ट मोजो के रिपोर्टर चक्रवर्ती ने किसानों के फसल उगाने के असफल प्रयासों के बारे में लिखा। सब्जियां पीली पड़ गईं, मुरझा गईं और मर गईं। एक चौंकाने वाले मामले में उन्होंने रितु चंद्र मोरन के अनुभव का हवाला दिया जो कंद रोप रहे थे। उन्होंने मुश्किल से "कुछ इंच" खोदा था, जब "कोसु (तारो) के लिए बने छेद से तेल की एक परत निकली।"

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कई नदियों और नीचे की ओर रहने वाले उनके आश्रित समुदायों के सामने एक बड़ी चुनौती बांधों जैसे अपस्ट्रीम हस्तक्षेप और उनका प्रभाव है। अरुणाचल प्रदेश में विशाल सुबनसिरी परियोजना, जिसे भारत में सबसे बड़ी जलविद्युत परियोजना के रूप में पेश किया गया है, आखिरकार पूरी होने के करीब है और 2023 में काम करना शुरू कर देगी। पहले यह 2018 में पूरी होने वाली थी, लेकिन भूस्खलन और अन्य समस्याओं के चलते इसे व्यापक रीडिज़ाइन की जरूरत थी। स्थानीय विरोध और प्रदर्शनों ने भी निर्माण की प्रक्रिया को धीमा कर दिया।

अरुणाचल में इस नाम की नदी पर रंगनाडी बांध 2001 से काम कर रहा है। मैंने तिनसुकिया जिले के गुइजान से नदी की यात्रा की और पाया कि यह सिकुड़ कर एक जलधारा बन गई है। मैंने किनारे से देखा, एक महिला आराम से खाली नदी को पार कर दूसरे किनारे पर चली गई। वहीं से थोड़ी दूरी पर उत्खनन करने वाले नदी के तल पर खड़े एक ट्रक पर मिट्टी और रेत लाद रहे थे। नदी को बचाने के लिए नो-माइनिंग जोन के साथ, खनन केवल सरकार द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों के आधार पर किया जाता है। अंधाधुंध खनन नदी प्रणाली को नुकसान पहुंचाता है, कटाव को तेज करता है। यहां रहने वाले जीवों और स्थानीय समुदायों के जीवन में व्यवधान पैदा करता है- इसमें स्थानिक मछली और नदी पर निर्भर अन्य प्रजातियों को नुकसान पहुंचाना, मछली पकड़ने की आजीविका को नुकसान पहुंचाना और पड़ोसी समुदायों के लिए भूजल तक पहुंच पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना शामिल है।

मैं यहां बड़े बांधों बनाम पर्यावरण की बहस में नहीं पड़ रहा हूं - यह मसला जटिल और बारीक है और इसे किसी एक लेख में समेटा नहीं जा सकता है। लेकिन फिलहाल तो मैं यही कहूंगा कि सुबनसिरी पर बने बड़े बांध पर सभी की निगाहें हैं। इंजीनियरों और अधिकारियों का कहना है कि नदी किनारे काफी सुरक्षात्मक कार्य किए गए हैं। हम जो जानते हैं वो ये है कि बांध और नदी का परिवर्तित प्रवाह नीचे के इलाकों में रहने वाले समुदायों को किस तरह से प्रभावित करेगा।

हम इसे इसलिए जानते हैं क्योंकि हमारे पास छोटे रंगनाडी बांध का उदाहरण है - इसके नीचे के गांव स्थानिक क्षरण, बर्बाद हुए खेतों, फसल की गिरती पैदावार, मछली पकड़ने और विस्थापन से जूझ रहे हैं। ध्यान रखें कि सुबनसिरी बहुत बड़ा बांध है - और इसलिए डाउनस्ट्रीम के परिणाम बहुत ज्यादा गंभीर हो सकते हैं। लेकिन गवाह बनने के लिए एक साल इंतजार करना होगा।

लखीमपुर के युवा डिप्टी कमिश्नर सुमित सत्तावन ने एक ऐसे मुद्दे के बारे में समझदारी से बात की, जिस पर मैंने पहले विचार नहीं किया था। यह बदलते मौसम के मिजाज और जलवायु परिवर्तन की बड़ी चिंताओं के साथ गहराई से जुड़ा है। उन्होंने बताया कि मिशिंग जैसे समुदाय पानी की बहुतायत (प्रचुरता) के आदी हैं और खुशी से उसे स्वीकार करते हैं।

लखीमपुर सर्किट हाउस में बैठे सत्तावन ने कहा, "आबादी को पानी की कमी से जूझना पड़ सकता है, इसका उन्होंने पहले कभी सामना नहीं किया हैं।" लोगों को प्रशिक्षित करने और इस बदलाव से निपटने में मदद करने के लिए, उन्होंने इसे "हम सभी के लिए" एक महत्वपूर्ण चुनौती के रूप में देखा।

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गीला मौसम और तूफान इस इलाके के ग्रामीण और शहरी समुदायों के सामने अथक चुनौतियों को रेखांकित करते हैं। मोरीगांव जिले के जगीरोड कस्बे के पास, मैंने ग्रामीणों को राजमार्ग पर अनाज फैलाते हुए देखा, वे अचानक से आने वाली बाढ़ से अपनी फसल को बचा रहे थे। वे अपने पैरों से धान को हिलाते हैं, उम्मीद करते हैं कि सूरज ढलने से पहले यह सूख जाएगी। एक किसान ने मुझे बताया कि किसी भी सरकारी अधिकारी ने नुकसान का आकलन करने के लिए क्षेत्र का दौरा नहीं किया है।

150 किमी से ज्यादा दूर, एक नाव बनाने वाला नदी में हो रहे बदलाव के बारे में बात कर रहा है। नगरबेरा के छोटे से शहर के इस्माइल शेख कहते हैं, "एक बात मैं आपको बता सकता हूं। पिछले पांच से 10 सालों में नदी उथली हो गई है, नेविगेशन मुश्किल है और हम नहीं जानते कि ऐसा क्यों है - वे कहते हैं कि चीन में बांध बनाए जा रहे हैं जिसकी वजह से ऐसा हो रहा है।" लगातार हो रही बारिश के बाद यहां की सड़कें और गलियां बदहाल हैं। लेकिन कामरूप के विशाल जिले से होकर बहने वाली यहां की नदी ग्रामीण इलाकों की तरह ही बेहद खूबसूरत है।

सुंदरता त्रासदी से संतुलित होती है। एक शानदार ग्रामीण सड़क के दोनों ओर धान के खेत गहरे पानी में डूबे हुए हैं। कुछ भैंस गाद के पानी में लौट लगा रही हैं, बस उनका सर पानी से बाहर है।


इस बात पर जोर देने की जरूरत है कि यह सिर्फ एक नदी या नदियों का एक नेटवर्क नहीं है, जो दांव पर है - यह संपूर्ण नदी बेसिन है, जिसमें 50 से ज्यादा नदियों का पानी है। नदी के वैज्ञानिक जयंत बंद्योपाध्याय ने कुछ साल पहले अपने भाषण में इन्हें 5,000 नदियां बताया था, क्योंकि भारी बारिश में मौसमी धाराएं और छोटी-छोटी नदियां अचानक से फूट पड़ती हैं।

राजनीतिक सीमाओं की परवाह किए बिना, ये कई घाटियां और बेसिन पूरे गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना बेसिन को कवर करते हैं जिसमें विशाल तिब्बती पठार, असम और अन्य उत्तर पूर्वी राज्य, बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश शामिल हैं।

आधे अरब से ज्यादा लोग इस क्षेत्र को अपना घर कहते हैं। जहां यह सीरीज ब्रह्मपुत्र घाटी की अलग समस्याओं पर प्रकाश डालती है, वहीं इन विशाल नदी प्रणालियों के अन्य हिस्सों के सामने आने वाले मुद्दे समान रूप से जटिल हैं।

जैसे ही हम नगरबेरा जाते हैं, एक दुर्लभ दृश्य दूर से दिखाई देने लगता है: छह लुप्तप्राय ग्रेटर एडजुटेंट स्टॉर्क का एक समूह, ग्रेट बर्ड जो असम और म्यांमार का मूल निवासी है, पूरे लैंडस्केप में चारों तरफ घूम रहा हैं। अपनी लंबी पीली चोंच को पानी में डुबोकर अपने शिकार को पकडने के लिए कुछ देर के लिए ठहर जाना और फिर आगे बढ़ना।

यह जगह गुवाहाटी के पास उस कूड़े के ढेर से बहुत दूर है, जहां इस प्रजाति के कई समूह दिख जाते हैं। वो प्रदूषण और जहरीले कचरे से मौत का जोखिम उठा रहे हैं। एक डाक्यूमेंट्री "दि ग्रोटेस्क एलिगेंस" इस प्रजाति की बात करती है, जिसकी दुनिया भर में दो-तिहाई आबादी असम में स्थित है। स्थानीय रूप से हरगिला या हड्डी निगलने वाले के रूप में जाना जाता है, इस सारस के पंख ढाई मीटर और पतले लंबे पीले पैर होते हैं। एक जीवविज्ञानी पूर्णिमा देवी बर्मन ने अस्तित्व की लड़ाई जीतने के लिए सारस को सक्षम बनाने और बचाने के लिए, अंधविश्वास और अज्ञानता से लड़ने के लिए ग्रामीण समुदायों की महिलाओं का एक समूह बनाया है और उसे नाम दिया है हरगिला सेना।

इस तरह के संघर्ष और आक्रामक विकास की स्थिति में संरक्षण और संरक्षण की कहानियां क्षेत्र के कैनवास को चिह्नित करती हैं। कुकुरमारा में देवजीत चौधरी जैसे कुछ, लोग जिन्होंने अत्यधिक लुप्तप्राय गंगा डॉल्फिन की रक्षा के लिए काम करते हुए कई साल बिताए हैं, उन्हें लगता है कि उनके खिलाफ बाधाओं का ढेर लगा हुआ है। चौधरी और यहां के स्थानीय समुदायों के लोग शहर से होकर बहने वाली ब्रह्मपुत्र की एक सहायक नदी कुलसी पर डॉल्फिन संरक्षण क्षेत्रों की मांग कर रहे हैं । शर्मीले, प्यारे राष्ट्रीय और राज्य-जलीय जानवर यहां अक्सर दर्शन हो जाते हैं। डेवलपर्स के भारी दबाव के बावजूद ये खिलखिलाते हैं, पड़ोस में उगने वाली फैक्ट्रियों के साथ-साथ रेत निकालने वालों को देख हर दिन मेरे दिमाग में सवाल उठा रहा है: " कितना होने पर बहुत ज्यादा होगा? हमें किस संतुलन की तलाश करनी है? क्या डॉल्फिन और सारस इस हमले से बच सकते हैं?" मुझे जवाब नहीं पता।

फिर भी, डॉल्फ़िन और बोर तुकोला- जिन्हें प्यार से असम में सारस कहा जाता है- के सामने चुनौतियां, ब्रह्मपुत्र, इसकी घाटी, इसके पारिस्थितिक तंत्र और नदी और भूमि दोनों में रहने वाले संवेदनशील प्राणियों के सामने आने वाले कई संघर्षों का एक हिस्सा हैं।



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