संपादक का नोट: मई तक, औसत से अधिक बारिश के बाद पूर्वोत्तर क्षेत्र पहले से ही व्यापक बाढ़ से जूझ रहा था। असम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने घोषणा की कि राज्य भर में हजारों गाँवों का संपर्क शेष भारत से कट गया है और करीब 1,10,000 हेक्टेयर से ज्यादा फसल क्षेत्र प्रभावित हुई है। इस क्षेत्र में सुधार की शुरुआत बस हुई ही थी कि भारी बारिश ने असम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश के कई हिस्सों में सड़कों और पुलों जैसे बुनियादी ढांचे के टूटे; और रेल संपर्क और दूरसंचार बाधित हुआ। हवा और पानी के तेज बहाव, भूस्खलन और कटाव ने घातक प्रहार किया। 22 जून तक असम में 88 लोगों की मौत हो चुकी थी, 34 जिलों में आई बाढ़ में 35 लोग लापता थे और 4 लाख से ज्यादा लोगों ने शिविरों में आश्रय लिया हुआ था। गृह मंत्रालय के आपदा प्रबंधन विभाग के आंकड़ों के अनुसार, लगभग 1 लाख 25,000 घर क्षतिग्रस्त हो गए और 67,290 जानवरों की मौत हुई।

यह लेख असम में वर्तमान बाढ़ से पहले लिखा गया था। लेकिन यह राज्य के उन लोगों के अनिश्चित जीवन और आजीविका की पड़ताल करता है जो ब्रह्मपुत्र और उसकी साथी नदियों में बार-बार आने वाली बाढ़ से संघर्ष करते रहे हैं।

*****

दुनिया में सबसे अधिक तलछट से भरी नदियों में से एक ब्रह्मपुत्र , एक भौगोलिक घटना का घर है - अनुमानित 2,300 से ज्यादा द्वीपों का एक अनूठा नेटवर्क, जो उस रेत, गाद और चट्टानों के अवशेषों का परिणाम है, जिसे नदी बड़ी मात्रा में अपने रास्ते के साथ पहाड़ों से नीचे मैदान में ले आती है।

नदी के प्रवाह के साथ आई गाद और रेत जमा होकर अस्थायी द्वीप बन जाते हैं। इसके जलमार्ग में आने वाली चट्टानें घिसकर गाद बन इसके साथ हो लेती हैं और फिर इसके अंदर समाई तलछट द्वीपों को आकार देती है। अगर कुछ बड़े द्वीपों को छोड़ दें तों इनमें से अधिकांश द्वीप अस्थायी हैं- जो यहां से वहां स्थानांतरित होते रहते हैं। इनमें से सबसे बड़ा द्वीप माजुली है जो कि दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप है। कटाव की वजह से अपने मूल आकार के एक तिहाई तक सिकुड़ जाने के बाद भी यह विशाल बना हुआ है। लगभग 400 वर्ग किमी में फैला माजुली तकरीबन राजस्थान की राजधानी जयपुर जितना बड़ा है। एक बार वहां पहुंचने के बाद आपको पता नहीं चलता कि आप एक विशाल नदी के बीच एक द्वीप पर हैं।

असम के नलबारी में एक अधूरा पुल

ये अस्थायी द्वीप जिन्हें स्थानीय रूप से चार्स या सपोरी के रूप में जाना जाता है, हमेशा बह जाने की स्थिति में बने रहते हैं। नदी उन्हें बनाती है और फिर समय-समय पर आने वाली बाढ़ उनके कुछ हिस्सों को बहा ले जाती है - कभी-कभी तो एक छोटा द्वीप या शोल पूरी तरह गायब हो जाता है। जमीन के निर्माण और विनाश के इस चक्र में बाढ़ का पानी गाद को दूर बहा ले जाता है ताकि द्वीपों को कहीं और फिर से बनाया जा सके।

इनमें से अधिकांश द्वीप अस्थायी हैं, इसलिए यहां रहने वालों या उनके स्वामित्व के बारे में ज्यादा कहा नहीं जा सकता। ये द्वीप बेहद उपजाऊ भी होते हैं – इसलिए जैसे ही ये आकार लेते हैं, स्थानीय समुदाय यहां आकर बसने लग जाते हैं, ये सिलसिला पीढ़ी-दर पीढ़ी चलता रहता है, वे बांस और मिट्टी के घरों में रहते हैं, अपनी रियासतें बनाते हैं, परिवार का पालन-पोषण करते हैं। खेती और मछली पालन के जरिए अपना जीवन यापन करते हैं।

जब बाढ़ आती है तो ये लोग राहत शिविरों में जाकर अपनी जान बचाते हैं या बाढ़ के मैदानों को पार करते हुए तटबंधों के किनारे बने अस्थायी आश्रयों में अपना बसेरा डाल लेते हैं और यहां तक कि नावों पर रहकर भी अपना बचाव करते हैं। एक बार जब बाढ़ का पानी उतरता है तो वे लौट आते हैं। कई बार उन्हें 'अपना' गृह द्वीप बहाव के साथ आगे खिसका हुआ नजर आता है, कभी-कभी तो यह कुछ किलोमीटर दूर चला जाता है और फिर उन्हें शुरू से शुरू करना पड़ता है। यह प्रक्रिया चक्रीय है, कभी-कभी उन्हें बाढ़ की संख्या और उसकी गति के आधार पर एक साल में कई बार इस प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। लेकिन इस बीच तनाव उनका एक निरंतर साथी बना रहता है।

असम की 3 करोड़ 50 लाख की आबादी का लगभग दसवां हिस्सा इन्हीं द्वीपों पर रहता है और यह द्वीप यहां रहने वाली कई जातियों और विभिन्न समुदायों के लिए जाने जाते हैं, जिनमें कुछ ऐसे भी हैं जो राष्ट्रीय उद्यान में रहते हैं। इसके अलावा इन चार्स पर हाथी के झुंड, जंगली भैंस और जंगली घोड़ों के साथ-साथ प्रवासी और स्थानीय पक्षियों सहित वन्य जीवों की कई प्रजातियां बसी हुई हैं। कभी-कभी तो लुप्तप्राय नदी डॉल्फिन भी इस नदी और उसकी सहायक नदियों में अठखेलियां करती दिख जाती हैं।

डेढ़ किलो की गोल्डन कार्प

इस ब्रह्मांड पर यह एक अलग ही जगह है। भैंसें उथले पानी में लोट लगा रही हैं, एक मछुआरा अपनी डोंगी को हमारी नाव की ओर ले आया। उसने एक चमकती हुई सुनहरी कार्प यानी एक बड़ी मछली हमारी ओर बढ़ाई - उस दिन उसके जाल में फंसी ये सबसे बड़ी मछली थी। डेढ़ किलो वजन और कीमत 800 रुपये। पास ही एक अधूरा लकड़ी का पुल जिसका ढांचा तो बना है लेकिन शीर्ष नहीं है। इसमें लगी बल्लियां चुपचाप, सीधी आकाश की ओर मुंह बाये खड़ी हैं, मानो उससे शिकायत कर रही हों। एक देसी नाव, पुल बनाने के लिए खड़ी की गई इन बल्लियों के बीच की खाली जगह से बड़ी ही सावधानी से तड़तड़ाते हुए निकल जाती है।

ब्रह्मपुत्र नदी के पारिस्थितिकी तंत्र की खोज करने वाली हमारी सीरीज 'एक नदी के प्रतिबिंब' का यह दूसरा भाग है। आप पहला भाग यहां पढ़ सकते हैं।

******

धेमाजी जिले में 'कोबू सपोरी' नदी के पुराने द्वीपों में से एक है। यहां अलग-अलग समुदायों के कुछ पुरुष अपने मेहमानों के साथ बात करने के लिए स्थानीय प्राथमिक विद्यालय में इकट्ठा हुए हैं।

हमें पास के फेरी पॉइंट से यहां तक पहुंचने में डेढ़ घंटे से ज्यादा का समय लग गया। फेरी पॉइंट वास्तव में उस तट से ज्यादा कुछ नहीं है जहां नावें यात्रियों और सामानों को ले जाने के लिए लंगर डालती हैं। जिस फेरी को हमने किराए पर लिया, वह तकरीबन 20 मीटर लंबी शोर करने वाली देसी नाव है। एक इंजन वाली ये नाव चालू होने पर गुस्से से फूट पड़ी और फिर कुछ समय के लिए कोमा में चली गई और फिर मानो अचानक से उसमें जीवन लौट आया हो। हमें पता है कि यह ताकतवर, तुनकमिजाजी ब्रह्मपुत्र की एक छोटी सहायक नदी को पार करने के लिए परिवहन का सबसे आश्वस्त रूप नहीं है। लेकिन आने-जाने के लिए बहुत सीमित विकल्प होने के कारण हमें इसी से गुजारा करना पड़ा।

एकनाथ शर्मा ने बताया कि वह 40 साल के हैं और उनका जन्म कोबू सपोरी में हुआ था। शर्मा कहते हैं, ''पहले यह द्वीप करीब 10,000 लोगों का घर था। अब मुश्किल से 1,000 लोग ही यहां रहते हैं। वैसे जिनका नाम मतदाता सूची में है, वे चुनाव के दौरान अपना वोट देने के लिए वापस आते हैं।"

बाद में इसकी पड़ताल करने पर मुझे पता चला कि उनकी बताई गई संख्या आधिकारिक आंकड़ों (600) के करीब है। लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि ये आंकड़े कोबू सपोरी के मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) के एक सर्वे के आधार पर हैं, जो सटीक नहीं हैं। ऐसा क्यों है, ये समझ में आता है। क्योंकि ये एक ऐसी जगह है जहां समय एक अलग गति से चलता है और स्थानीय समुदाय को मौसम और उनके चारों ओर बहती नदी से परिभाषित किया जाता है। शर्मा किसानों और शिक्षकों के इस भिन्न समूह के लिए एक अनौपचारिक प्रवक्ता हैं। ये सभी सख्त मौसम की मार झेलते हुए, नदी के किनारे जीवन की मुश्किलों और असंख्य अनिश्चितताओं के साथ रह रहे हैं।

संख्या को लेकर उनका आकलन सही है या नहीं ये बता पाना मुश्किल है, लेकिन शर्मा द्वारा बताए गए ये नंबर असम के सपोरियों की कहानी कहते हैं। यह उन लोगों के अनिश्चित अस्तित्व के बारे में नहीं है जो यहां से वहां जाते रेत के टीलों पर रहते हैं, बल्कि उन लोगों के बारे में है जिनके लिए घरों, जमीन और पशुओं को खोने के तनाव से निपट पाना मुश्किल हो गया है और वो इस जगह को छोड़ कहीं और नौकरी की तलाश में जा रहे हैं।

सिर्फ 2022 में बाढ़ ने असम को तीन बार प्रभावित किया है। ब्रह्मपुत्र में रेत और गाद से बने द्वीपों या सपोरी पर रहने वाले कई लोग इस अनिश्चितता के कारण उनके घरों को छोड़ कर जाने को मजबूर हैं। यह फोटो 2014 की बाढ़ के दौरान तिनसुकिया जिले के गुइजान में लिया गया था।

हमने जो महसूस किया था यह उस नजरिए के साथ मेल खाता है। कुछ समय पहले जब कोबू में हमें लेकर आने वाली लकड़ी से बनी, खुरदरी-कटी हुई इस देसी नाव पर चढ़ने की तैयारी कर रहे थे, तो देखा कि एक पूरा परिवार हमारी इस होने वाली यात्रा को पहले ही पूरा कर चुका था। वे अपनी टूटी हुई छतों की टिन की चादरें, लकड़ी के बीम, खाना पकाने के बर्तन, गैस सिलेंडर और कपड़ों से भरे ट्रंक के साथ घूम रहे हैं। यह पलायन का एक संकेत है जो नदी के इस रास्ते में बेहद आम है।

"आप इस युवक को देख रहे हैं?" कोबू के प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक सुरेश मुक्ति ने हमारे आसपास की भीड़ के बीच से एक नौजवान की ओर इशारा करते हुए कहा। उन्होंने आगे बताया, "यह अभी गुजरात से आया है और एक या दो महीने बाद वापस चला जाएगा।" दरअसल यह नौजवान लगातार यहां से जाने वाले उन अकुशल मौसमी श्रमिकों में से एक है जो अस्थायी रोजगार की तलाश में देश के अन्य हिस्सों में जाने के अपने रास्ता तलाश रहे हैं। ग्रामीणों का कहना है कि ये प्रवासी अपने कमाए हुए एक हिस्से को घर भेजते हैं ताकि अपने परिवार की जीवन यापन में अतिरिक्त मदद कर सकें।


पिछली जनगणना 2011 में की गई थी। 2021 में होने वाली नई जनगणना कोविड -19 की वजह से अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दी गई। हालांकि ऐसे प्रवासी श्रमिकों, पेशेवरों और छात्रों की संख्या के सत्यापन का कोई सही डेटा नहीं है, जो उत्तर पूर्वी क्षेत्रों से बाहर निकल, देश के बाकी हिस्सों में फैले हुए हैं। एक अनुमान के मुताबिक, एक साल में पलायन करने वाले ऐसे लोगों की संख्या हजारों में है। इनमें से ज्यादातर देश भर के बड़े और मध्यम आकार के महानगरों में जाकर अस्थायी रूप से बस जाते हैं, और थोड़े बहुत लोग छोटे शहरों की ओर बढ़ते हैं। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र, राजस्थान और गोवा। हाल के एक अध्ययन ने 2001-2011 (पिछली जनगणना के दशक) में इस क्षेत्र से बाहर जाने वालों की संख्या लगभग दस लाख बताई थी और कहा कि उनमें से आधे से भी कम लोग महामारी के दौरान असंगठित क्षेत्र की असुरक्षित, अकुशल नौकरियों से वापस नहीं आए।

आर. लुसोम और आर.बी. भगत ने 'माइग्रेशन इन नॉर्थ ईस्ट इंडिया: इनफ्लो, आउटफ्लो एंड रिवर्स फ्लो ड्यूरिंग पैनडेमिक' में लिखा, "संबंधित राज्य सरकारों की सक्रिय भागीदारी से प्रवासियों की उनके मूल स्थानों पर बड़े पैमाने पर वापसी हुई है। पूर्वोत्तर के प्रवासी कोई अपवाद नहीं हैं। 138 से अधिक श्रमिक स्पेशल ट्रेनों ने लगभग 1,88,000 फंसे हुए लोगों को पूर्वोत्तर के विभिन्न राज्यों में उनके घरों तक पहुंचाया।"

यहां उन लोगों की गिनती नहीं की गई जिन्होंने अपने खुद से आने की व्यवस्था की थी। कुल मिलाकर समाचार पत्रों की रिपोर्ट के आधार पर अध्ययन का अनुमान है, "लॉकडाउन के दौरान पूर्वोत्तर में लौटने वाले प्रवासियों की अनुमानित संख्या 5,12,000 है। यह 2011 में पूर्वोत्तर के लगभग आधे प्रवासियों की संख्या को दर्शाता है। पूर्वोत्तर में यह सामूहिक वापसी प्रवास अभूतपूर्व था। लगभग 3 लाख 90 हजार प्रवासी अकेले असम लौटे - एक ऐसा राज्य जो अप्रवासी राजनीति के कारण संकट में है।"

अपने मूल स्थान से देश के दूसरे हिस्से में जाकर बसने यानी आउट-माइग्रेशन के कई कारण हैं: लुसोम और भगत अपने अध्ययन में सपोरियों में जीवन की अनिश्चितता, खेतों और मछली पालन से बेहतर रिटर्न न मिलने, बार-बार आने वाली बाढ़ से हमेशा बने रहने वाले तनाव- वह बाढ़ जो उनकी मेहनत को अपने साथ बहा ले जाती है, अनिश्चित सुरक्षा, पर्याप्त शैक्षिक सुविधाओं की कमी, विवाह आदि को जिम्मेदार मानते हैं।

हम जो जानते हैं वह यह है कि यह पलायन लगातार जारी है और साथ ही यह भी कि रोजगार के अवसर सीमित होने की वजह से यहां से जाने वाले लोग शायद ही कभी लौटकर आएं। ये लोग सिर्फ पीछे छूट गए अपने परिवार से कभी-कभार मिलने या दशहरा, पूजा, बिहू, क्रिसमस और नए साल जैसी छुट्टियों पर कुछ समय के लिए आते हैं।

******

एकनाथ शर्मा, बांए से दुसरे, काबू सपोरी के स्कूल में गाँव वालों के साथ।

एकनाथ शर्मा कहते हैं, "यह सब मिट्टी के कटाव की वजह से है।" उन्होंने आगे कहा, "हम बाढ़ के साथ रह सकते हैं, लेकिन इस तरह के गहरे, निरंतर क्षरण के साथ नहीं। हमारा द्वीप अब अपने पूर्व आकार का एक अंश भर है-नदी किनारों को खा रही है, यह हमसे हमारे खेतों और इसके साथ हमारी आजीविका को भी अपने साथ बहा ले जाती है, क्योंकि खेती करना और मछली पकड़ना हमारी आय का मुख्य स्रोत हैं।"

नया दवाखाना जो बाढ़ की वजह से अब गाँव वालों के काम नहीं आता है।

हमारा ये ग्रुप स्थानीय डिस्पेंसरी की ओर चल पड़ा, जिसे कुछ साल पहले बनाया गया था – लेकिन पता चलता है कि हम वहां तक नहीं पहुंच सकते क्योंकि एक धारा में बाढ़ आ गई है और वहां जाने का रास्ता बंद हो चुका है। हम नदी पार करने के लिए अपने चारों ओर एक डांगी की तलाश करने लगे– वहां बस एक ही डांगी थी जिसे किसी और ने दूसरे काम के लिए ले लिया। हमें बताया गया कि नदी अचानक से जमीन को चीरती हुई दूसरी ओर बह निकली और पानी अब क्लिनिक के दरवाजे तक पहुंच गया है। धारा में आई बाढ़ और जमीन पर कब्जा जमाती नदी के बीच फंसा ये क्लिनिक अभी भी बेहद नया दिखता है, लेकिन सूना और बेकार पड़ा है क्योंकि न तो हम और न ही वो मरीज जिन्हें इसकी जरूरत है, वहां तक पहुंच सकते हैं।

कोबू की कहानी कहीं और भी दोहराई जा रही है। लखीमपुर, धेमाजी, तिनसुकिया और डिब्रूगढ़ में लोग दशकों से अपना घर-बार छोड़, नदियों के इस कटाव क्षेत्र से दूर जा रहे हैं। कुछ लोग सरकारी- आवंटित जगहों पर चले जाते हैं, लेकिन यह हमेशा एक संतोषजनक समाधान नहीं होता - उदाहरण के लिए, कुछ लोगों को नदी से दूर एक पहाड़ी क्षेत्र में जमीन दी गई, जहां वे न तो खेती कर सकते थे और न ही मछली पकड़ सकते थे। इस तरह से उन्होंने वहां खुद को बेबस पाया। उनके पास जीविका कमाने के लिए वहां कोई साधन नहीं था। इनमें से कुछ अपनी जमीन को औने-पौने दामों में बेचकर मुख्य भूमि की ओर चले गए।

जिनके घरों को नदी ने तहस-नहस कर डाला उनको आवंटित की गई जमीन पर टिप्पणी के लिए हमने अधिकारियों तक पहुंचने की कोशिश की है। उनकी प्रतिक्रिया मिलने पर लेख को अपडेट किया जाएगा।

कोबू से वापस जाते हुए हम उथले पानी में फंस गए। एक बार नहीं बल्कि दो बार। हर बार हट्टा-कट्ठा दिखने वाला ये नाविक- जो इंजन के साथ-साथ अपनी पतवार के साथ नाव को खे रहा है - नाव को उथले पानी से बाहर लाने और वापस नाव को खेने लायक पानी में धकेलने के लिए बाहर कूदता है। उसकी मदद करने वाला एक चालक है, जिसे नदी, उसकी गहराई और उसकी मौजूदा लहरों की जानकारी होनी चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे हम अपने शहर की सड़कों को जानते हैं। वह दोहरे उद्देश्य के लिए एक लंबे बांस की बल्ली का इस्तेमाल करने लगा: यह बल्ली न सिर्फ नाव को खेने में उसकी मदद कर रही है बल्कि यह गहराई और सतह के नीचे खामोश पड़े उथले पानी का पता लगाने का एक उपकरण भी है। लेकिन यह खास चालक नदी का ज्यादा जानकार नहीं है। इस छोटी सी नाव का 'कप्तान' उस पर बार-बार चिल्ला रहा था।

इस उथले पानी की वजह से इंजन फेल हो गया। हमने अपने आपको बहती, मौन और स्थिर नदी के प्रवाह के बीच खड़े पाया। हम लैंडिंग प्वाइंट से बहुत आगे निकल आए थे और मदद के लिए कोई नहीं था। पानी का प्रवाह या लहरे हमें आगे पीछे ले जा रहीं थीं। हम सबने बारी-बारी से इंजन को चलाने की कोशिश की। आखिरकार वह चल गया और अचानक से मिले जीवन में वह भड़-भड़ की आवाज के साथ आगे बढ़ा।

काबू की तरफ जाते हुए। रास्ते में यह नाव दो बार फस गई और नाविक को नाव से उतरकर इसे उथले पानी से बाहर निकलना पड़ा।

नाविक ने इसका फायदा उठाया और हमें तेजी से किनारे पर ले आया- और वह हमें बड़ी लाल चींटियों से आबाद एक झाड़ी के पास उतारता है। हम वहां से जैसे-तैसे उनसे बचते हुए आगे आते हैं। कुछ किलोमीटर पैदल चलते हुए झाड़ियों को पीछे छोड़ हम अपने लैंडिंग जगह तक पहुंच ही गए। लेकिन यह रास्ता भी कम जोखिम भरा नहीं था- यहां वहां फैली जोंक और गोबर के बड़े ढेर जो इशारा कर रहे थे कि यह हाथियों का मार्ग है। हम सूर्यास्त से पहले अपने गंतव्य तक पहुंचने की जल्दी में थे।

मेरे एक साथी ने हमें इस कहानी से रूबरू कराया कि कैसे पहले की यात्रा पर उसे और उसकी टीम को एक लैंडिंग प्वाइंट तक पहुंचने में देरी हो गई थी। उन्होंने कहा, अंधेरा हो चुका था। इससे पहले कि हमारी गाड़ी जंगल से बाहर निकल पाती, हमने हाथियों के एक झुंड को देखा। उन्होंने रास्ता रोक लिया और वो हमारी ओर बढ़ने लगे।' फिर उन्होंने अपनी गाड़ी को धीरे-धीरे पीछे की ओर मोड़ा. लगभग 500 मीटर तक हाथियों का झुंड उनका पीछा करता रहा। अंत में उन्हें अपनी गाड़ी के लिए रास्ता मिल गया और वो तेजी से वहां से बच भागे।

उन्होंने कहा, अब हाथी कम ही दिखते है- अब चूंकि जोखिम कम है तो मैं थोड़ी राहत महसूस कर रहा हूं। लेकिन मुझे इस बात की भी चिंता थी कि हाथियों के झुंड का कम होना भविष्य की किस दशा की ओर इशारा कर रहा है।

इस श्रृंखला का पहला भाग आप यहां पढ़ सकते हैं।

(हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। कृपया respond@indiaspend.org पर लिखें। हम भाषा और व्याकरण के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार सुरक्षित रखते हैं।)