खेतों की हरियाली पर झुलसता आसमान और गांव के घरों की चमचमाती टीन की छतों पर पड़तीं सूरज की तेज किरणें हमें भी तपा रही थीं। हम मध्य असम के नलबाड़ी जिले में पगलाड़िया नदी की एक धारा के साथ अपना रास्ता तय कर रहे थे। नलबाड़ी असम की हलचल भरी, प्रबल और अविश्वसनीय तेजी से बढ़ती वाणिज्यिक और राजनीतिक राजधानी - और काफी हद तक पूरे पूर्वोत्तर की - गुवाहाटी से लगभग दो घंटे दूर है।

जैसे ही सूरज छाँव में आया, तिरपाल के नीचे भीषण गर्मी कम हो गई और हमने राहत की सांस ली। एक तूफान आ रहा है, मैंने मन ही मन सोचा।

हम बस नाव से उतरे ही थे कि तेज हवा चलने लगी। वह टापू से टकराई, मानो फट पडी हो, उसने पेड़ों को झुका दिया। यह हमें डरा रहा था। उड़ती हुई रेत से बचने के लिए हम अपने चेहरों को कपड़े से ढककर, तेज कदमों से आगे की और बढ़ने लगे। लेकिन अपने गंतव्य - एक प्राथमिक विद्यालय जहां एक स्वास्थ्य शिविर लगा हुआ था - तक पहुंचने के लिए रेत में हमारे कदम तेजी से आगे नहीं बढ़ पा रहे थे। तभी शॉर्ट्स पहना एक युवक ट्रैक्टर से जुड़ी रेत की ट्रॉली के भड़-भड़ की तेज आवाज के साथ हमारे पास से लेकर निकल गया।

जब द्वीप पर तूफान आया तो हम मुश्किल से तिलार्डिया की छोटी सी इमारत में घुस पाए थे, इसकी छत और दीवारें टिन की चादरों से बनी थीं। बचने के लिए बच्चे डेस्क के नीचे दौड़े। यह आपदा की तैयारियों का एक बेहतरीन नमूना था। भीषण आंधी में फड़फड़ाती टिन की चादरें और नई किताबों पर छत से टपकता पानी, प्लास्टिक की चादर से ढका तिलार्डिया एल.पी. स्कूल, जिसे एकमात्र शिक्षक चलाता है, आंगन जो कुछ क्षण पहले सूखा नजर आ रहा था, अब पानी के पोखर में बदल गया।

जैसे ही बारिश के थपेड़े कम हुए, स्कूल फिर से शुरू हो गया। बच्चे अपना पाठ दोहराने लगे। पास की एक इमारत में चल रहे स्वास्थ्य शिविर में नर्सों और सामुदायिक कार्यकर्ताओं के साथ-साथ आशा (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) ने लोगों को जुटाने और लाने का काम सुचारू रूप से शुरू कर दिया। यहां आए अधिकांश लोगों में महिलाएं और बच्चे थे। नवजात शिशुओं को पहली बार टीका लगा था, वो अचानक से मिले दर्द से रो रहे थे और उनकी मां उन्हें चुप कराने की कोशिशों में लगी थी। यहां गर्भवती महिलाओं की जांच चल रही थी और हर उस व्यक्ति को जिसे एनीमिया (ग्रामीण क्षेत्रों खासकर द्वीपों पर रहने वालों में एक बड़ी समस्या) और किसी अन्य बीमारी के इलाज की जरूरत थी, को दवा दी जा रही थी। अपने काम में निपुण नर्सों ने यहां आने वाले सभी लोगों को, वहां मौजूद एकमात्र डॉक्टर के पास भेजने से पहले उनकी जांच की और बड़े रजिस्टरों में उनके नाम दर्ज किये। यह डाक्टर मुश्किल से दो घंटे में 92 मरीजों को देख चुका है। लैब सहायक ने रक्त और मूत्र के नमूनों की जांच की, जबकि फार्मासिस्ट मरीज और दवाइयों का नाम पुकारते हुए उन्हें दवा बांट रहा था।

तूफान से बचने के लिए स्कूल की डेस्क के नीचे छुपे बच्चे।

मैंने अभी तक जितने भी सपोरी की यात्रा की, वहां एक बात ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया। वो है यहां के स्कूलों में पीने के पानी के लिए लगी फिल्टर यूनिट और काम करते साफ-सुथरे शौचालय। मुझे तिलाकर्डिया स्कूल में शौचालय का इस्तेमाल करना पड़ा और मैं अपने पूर्वाभास और पूर्वानुमान के साथ अंदर गया। मुझे फिर से सुखद आश्चर्य हुआ। मैं यहां की साफ-सफाई को देख काफी प्रभावित था। असम में स्वच्छ भारत वास्तव में उसके सुदूरवर्ती गांवों तक पहुंच गया है, जो भले ही नदी की वजह से मुख्य भूमि से कटे हुए हो, संचार बाधित हो और बेहद दूर हों।

स्कूल के एकमात्र शिक्षक अब्दुल रहीम ने कहा, "मैं यहां हर दिन अपनी मोटरबाइक से आता हूं – गांव की सड़कें बहुत अच्छी हैं – और फिर एक पॉइंट से एक फेरी लेनी पड़ती है।" तिलार्डिया में अलग-अलग कक्षाओं और उनके अलग-अलग सेक्शन में कुल 250 छात्र हैं। वह कहते हैं, "मुझे अपना काम पसंद है, यह चुनौतीपूर्ण है, काश हमारे पास और शिक्षक होते।"

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डिब्रूगढ़ में रेत का डम्पर

हमने नाव पर लौटने के लिए गीली मिट्टी के रास्ते पर कदम रखा, पोखरों से बचते हुए आगे बढ़े, एक तरफ ताजे धुले हुए धान और दूसरी तरफ सब्जी के लहलहाते खेत हमारा अभिवादन करते नजर आए। तभी उस चालक को फिर से देखा, वह अपने ट्रैक्टर और उसकी ट्रॉली को तेजी से भड़भड़ाते हुए जा रहा था। मैंने एक जेसीबी (बैकहो एक्सकैवेटर, जरूरी नहीं कि इसी नाम की कंपनी हो) भी देखी, इसका सर्वव्यापी पीला रंग, हरियाली में दूर से ही चमक रहा था।

ये यहां क्या कर रहे हैं, पास में खड़े गांव के सामुदायिक कार्यकर्ता से मैंने पूछा। वे गांव में सड़क बना रहे थे। सड़क? हां, गांव के लिए एक मिट्टी की सड़क ताकि लोग अधिक आसानी से यात्रा कर सकें। मुझे बताया गया है कि इस काम के लिए सिर्फ दो ट्रैक्टर हैं और एक यह जेसीबी है।

द्वीप छोड़ने के बाद, काफी दूर तक वह चमकीला पीला रंग दिखाई देता रहा।

राज्य के कई जिलों में रेत की अर्थव्यवस्था के प्रभाव देखे जा सकते हैं।

गुवाहाटी से लगभग 35 किमी दूर डिब्रूगढ़ और धेमाजी, तिनसुकिया और लखीमपुर के साथ-साथ कुकुरमारा के नलबाड़ी में, यहां की समृद्धि, रोजगार सृजन, इसके विस्तार और रेत से चलने वाली अर्थव्यवस्था की ताकत नजर आ रही थी। वरना जेसीबी, ट्रैक्टर ट्रॉली, डंपर और छोटे ट्रक छोटी सड़कों और राजमार्गों पर खड़खड़ाहट और गड़गड़ाहट क्यों करते। और, मुझे यकीन है कि जिन जिलों में मैं नहीं गया हूं, वे वन विभाग द्वारा अनुमोदित नामित स्थानों से नदी के किनारे से निकाली गई रेत और गाद लेकर गए होंगे। वन विभाग के दायरे में ऐसे कार्य आते हैं। लेकिन यहां विशेष रूप से नदी और नाले से मिट्टी, कंकड़ और चट्टानों की अवैध निकासी भी होती है। जो इन जगहों पर काम करने वाले लोगों को खतरे में डाल देती है, वे अकसर नदी के तल या गड्ढों में फंस जाते हैं।

मिट्टी को यहां से कहीं और ले जाया जाता है। चूंकि पानी के बाद रेत, धरती से सबसे ज्यादा निकाली जाने वाली सामग्री है। यह हर तरह के निर्माण के लिए जरूरी हैः घर से लेकर आसमान छूती ऑफिस बिल्डिंग, रेलमार्ग, कारखाने, सड़कें, पुल और हवाई अड्डे, बाजार और यहां तक कि सौंदर्य उपचार में भी। इसका इस्तेमाल तटबंधों को बनाने के लिए किया जाता है, इसे सीमेंट के साथ मिलाकर एक नई अर्थव्यवस्था को बल दिया जाता है।

नदी किनारे की ये गाद घरेलू, जैविक सब्जियों की पैदावर के लिए अच्छी है, जिन्हें स्थानीय किसान और उत्पादक गांव की सड़क के किनारे और शहर के बाजारों में बेचते नजर आते हैं। रेत ही की तरह कुछ तरीके की गाद का इस्तेमाल सड़कों को बनाने के लिए भी किया जा सकता है। लेकिन रेत और गाद की कुछ किस्में निर्माण के लिए अच्छी नहीं हैं, कंक्रीट के साथ अच्छी तरह से मिक्स नहीं हो पाती हैं और यह टूटी हुई दीवारों और असुरक्षित घरों का कारण बनती हैं।

इन छोटे कस्बों और गांवों में मालिकों, ड्राइवरों और श्रमिकों के तौर पर ज्यादातर नौजवान ही काम करते हैं। प्रमुख प्रोजेक्ट बड़े और धनी दिग्गजों के नियंत्रण में हैं। इनके संबंध काफी बड़े-बड़े लोगों से हैं। रेत की अर्थव्यवस्था एक विश्वव्यापी घटना है। भारत में यह सामाजिक पूंजी के आधार पर हरित अर्थव्यवस्था के लिए दबाव डालने वालों और संसाधनों के दोहन के लिए दृढ़ संकल्प वाले लोगों के बीच टकराव की स्थिति में रहती है। राजनीतिक नेताओं, नौकरशाही के गुमनाम अधिकारियों, वन विभागों और स्थानीय ठेकेदारों पर अक्सर आरोप लगाने वाले कार्यकर्ता, पत्रकार और अन्य लोग, कई राज्यों में हताहत भी हुए हैं।

मुझे बताया गया है कि एक ट्रक लोड करने पर उसके मालिक को 3,000 रुपये तक मिल सकते हैं। एक मुखबिर ने कहा, "तीन ट्रक लोड कर वह नौकरी से ज्यादा पैसा कमा लेता है।" मध्यम आकार के शहरों के लिए यह कमाई काफी अच्छी है। यहां बाजार खुले और व्यस्त हैं। फसल उत्सव बिहू का हर ओर जिक्र है। और नौजवान बीयर की एक पेटी लेने के बाद उत्साह के साथ एक-दूसरे को आवाज देते और देर रात तक पार्टी करते रहे। यह नजारा देश या दुनिया के किसी अन्य हिस्से की तरह ही लग रहा था।

लेकिन गलत तरीके से खोदी गई मिट्टी प्राकृतिक प्रणाली, जलभृतों की पुनर्भरण क्षमता के साथ-साथ मानव-निर्मित हस्तक्षेप जैसे कि तटबंधों को भी नुकसान पहुंचा सकती है। डिब्रूगढ़ में जल इंजीनियर इस बात को लेकर चिंतित हैं कि जिस तरह से मैजान घाट के पास शहर के इस हिस्से की सुरक्षा करने के लिए बने प्रमुख तटबंध से निजी खनिक रेत के हिस्से को काट रहे हैं, वह इस तटबंध के आधार को कमजोर कर सकता है और इस वजह से बाढ़ का पानी भी शहर में घुस सकता है।

स्थानीय व्यवसायी कमल गुरुंग लदे हुए ट्रकों को मैजान घाट तट से सड़क पर बढ़ते हुए देख रहे थे, वह बोले "उन्होंने गलत रास्ता अख्तियार कर लिया है।"

डिब्रूगढ़ में कुछ लोग अगस्त 1950 की विनाशकारी घटना को याद कर सकते हैं। जब रिक्टर पैमाने पर 8.6 की तीव्रता वाले बड़े भूकंप ने शहर को तहस-नहस कर दिया, घाटियों में दरारे पड़ गईं , पहाड़ियों को ध्वस्त कर दिया और घाटी में भयावह पानी की एक तेज विधवंसक लहर आ गई। डिब्रूगढ़ के कुछ हिस्सों को नदी ने निगल लिया था, जैसा कि ऊपरी छोर पर बसे सादिया और अन्य कस्बे और गांव के साथ हुआ। इसलिए तटबंध को डिब्रूगढ़ की सुरक्षा के लिए नदी के खिलाफ किलेबंदी के रूप में बनाया गया था। अक्सर यह भी माना जाता है कि कभी-कभी नदी, खासकर तेज बाढ़ में शहर के स्तर से ऊपर बह सकती है - 1950 के दशक में इससे बचने के लिए ही तटबंध का निर्माण किया गया था।

यह वह प्रलयंकारी भूकंप था जिसने ब्रह्मपुत्र के प्रवाह और आकार को बदल दिया। भूकंपीय घटना ने इसके तल को ऊपर की ओर धकेल दिया, जिससे यह उथला हो गया। यह एक चुनौती है जो नदी को लगातार प्रभावित करती रहती है, भले ही तलछट बढ़ गया हो और जल स्तर कम हो।

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मेरे दोस्त, अर्थशास्त्री और स्तंभकार स्वामीनाथन ए अय्यर ने 2013 में इकोनॉमिक टाइम्स में लिखा था "....लाइसेंस और पर्यावरण संबंधी बाधाओं के कारण रेत की भारी किल्लत हो गई है। इसलिए, माफिया पूरे भारत में अवैध रूप से नदी के तल का खनन कर रहे हैं। यह आसान है: यांत्रिक साधनों से खुदाई करने वाला व्यक्ति हर रात कई ट्रक रेत निकाल सकता है।"

उन्होंने आगे कहा, "रेत नदी के तल में मानसून के पानी को बनाए रखने में मदद करती है, शुष्क मौसम में धीरे-धीरे पानी छोड़ती है। जरूरत से ज्यादा खनन इसे खतरे में डालता है।

वह लिखते हैं, "केंद्र और राज्य सरकारों के पास रेत निष्कर्षण के लिए विस्तृत पर्यावरणीय नियम हैं, अदालत के हस्तक्षेप से इन्हें और भी कठिन बना दिया गया है। आदर्श रूप से, हमारे पास बढ़ती निर्माण मांग को पूरा करने के लिए पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित खनन होना चाहिए। इसके बजाय हमारे पास पूरी तरह से अपर्याप्त कानूनी खनन, भारी अवैध खनन, निर्माण के लिए रेत की कमी और माफिया और राजनेताओं के बीच बड़े अवैध मुनाफे का बंटवारा है।"

मैं और स्वामी कुछ बातों पर सहमत नहीं हैं, लेकिन उनके पास एक पॉइंट है - बढ़ती जरुरतों और आकांक्षाओं को पूरा करने वाली बेहतर खनन कानूनों की कमी। हाल ही में 2019 तक शहरी उद्देश्यों के लिए कम से कम 60 मिलियन टन रेत का उपयोग किया गया था। 2017 में देश भर में 515 मिलियन टन (असम में 15 मिलियन) रेत की खपत हुई थी। ये आंकड़े सिर्फ बढ़ते गए हैं।

लखीमपुर जिले में एक द्वीप पर होता रेत क्षरण

केंद्र ने इस मुद्दे से निपटने के लिए कदम उठाने की कोशिश की है। 2016 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने सतत रेत प्रबंधन दिशानिर्देश जारी किए थे। इसका उद्देश्य "वैज्ञानिक तरीके से रेत के खनन को बढ़ावा देना और पर्यावरण के अनुकूल प्रबंधन अभ्यास को प्रोत्साहित करना" है। यह सतत रेत निष्कर्षण के लिए की जाने वाली कार्रवाई की सिफारिश करता है, निगरानी पर जोर देता है और सुझाव देता है कि सरकार रेत की जिलेवार उपलब्धता का नक्शा तैयार करें।

2018 में खनन मंत्रालय ने राज्यों को अपनी रेत नीतियों को तैयार करने में मदद करने के लिए 'रेत खनन फ्रेमवर्क' जारी किया।

एक विवरण के अनुसार, भारत जितनी तेज़ी से रेत निकाल रहा है, उससे कहीं अधिक प्राकृतिक रूप से इसकी भरपाई की जा सकती है। 2019 की UNEP रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत और चीन में सबसे ज्यादा "चिंताजनक हॉटस्पॉट" हैं जहां रेत निकासी नदियों, झीलों और समुद्र तटों को प्रभावित कर रही है। रिपोर्ट में कहा गया है कि संभवत ऐसा दोनों देशों में निर्माण में तेजी के कारण है।

बेतहाशा खनन पानी में ऑक्सीजन पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, जिससे मछली और अन्य प्रजातियों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है, खासकर गंगा नदी में पाई जाने वाली गंगा डॉल्फिन के लिए। यह भारत का राष्ट्रीय जलीय जीव है।

स्वामीनाथन अय्यर के विचार यहां प्रासंगिक हैं: "पत्थरों को तोड़कर बजरी और रेत में बदलना एक विकल्प है, लेकिन यहां भी वही पर्यावरणीय समस्याएं पत्थर उत्खनन को प्रभावित करती हैं। यह क्षेत्र समान रूप से विस्तृत नियमों और अदालती प्रतिबंधों, बजरी और रेत की कमी, विशाल अवैध खनन और माफिया-राजनेता गठजोड़ की विशेषता वाला है।"

उन्होंने आखिरी लाइन में लिखा है: "अवैध गतिविधि को लेकर काफी आक्रोश है। हमें कानूनी गतिविधि की सीमाओं को लेकर अधिक नाराजगी की जरूरत है। आकार की परवाह किए बिना, हर गाद या डिपॉजिट में रेत और चट्टान खनन के लिए पर्यावरणीय प्रभाव आकलन की मांग करना प्रगतिशील लगता है। लेकिन राज्य सरकारों के पास न तो पैसा है और न ही विशेषज्ञता। नए नियमों की तो बात ही छोड़िए, उनके पास मौजूदा नियमों और कानूनों को लागू करने की क्षमता और कर्मचारियों की कमी है। उन पर और अधिक ज़िम्मेदारियां थोपने से केवल उदासीनता और भ्रष्टाचार ही निकलकर आएगा"

मैं कहूंगा कि यह दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है, राज्य को इन सभी मोर्चों पर काम करने की जरूरत है, न कि केवल एक दर्शक बनकर देखते रहने की। जनवरी 2020 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 'रेत खनन के लिए कानून और निगरानी दिशानिर्देश' प्रकाशित किए थे, ताकि 'रेत खनिज स्रोतों की पहचान से लेकर उसके प्रेषण और उपभोक्ताओं और आम जनता द्वारा अंतिम उपयोग' तक रेत की निगरानी की जा सके। लेकिन इन पर अमल करना अभी बाकी है, जैसा कि असम और देश के अन्य हिस्सों में देखा जा सकता है।

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इस बीच, ट्रॉली, ट्रक, डंपर और खुदाई करने वाली गाड़ियां असम की नई, मुख्य मार्ग को जोड़ने वाली बढ़िया संकरी सड़कों, राजमार्गों और गांव की गलियों में घूम रही हैं - और शायद अन्य राज्यों में भी क्योंकि पूर्वोत्तर निर्माण और बुनियादी ढांचे के निर्माण के उन्माद में है। इसका एक जीवंत उदाहरण असम और क्षेत्र की वाणिज्यिक राजधानी गुवाहाटी का आश्चर्यजनक विकास है। कभी नींद में डूबा शहर, ऊपर की ओर सहित हर दिशा में विस्तार कर रहा है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे हर कुछ दिनों में, एक डिजाइनर स्टोर, नए हाई-एंड रेस्तरां, परिधान स्टोर और यहां तक कि मॉल सामने आ रहे हैं। यहां शहर, राज्य और क्षेत्र भर से ग्राहक हैं। लोगों के पास पैसा है और खर्च कर रहे हैं।

गुवाहाटी (यह वास्तव में दो शब्दों से बना है – गुवा का अर्थ है सुपारी, जिसे असमिया और पूर्वोत्तर के समुदाय चबाना पसंद करते हैं और हाट यानी बाजार) भी सभी मध्यम आकार के शहरी निकायों की तरह परेशानियों का सामना कर रहा है, जो भविष्य में तेजी से बढ़ेंगी- बढ़ती आबादी के कारण अप्रत्याशित दबावों के साथ, यह बढ़ते शहर के दर्द और उद्देश्यों को झेलता है। मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, बेंगलुरु, कोलकाता- सभी बड़े महानगरों में जलभराव की समस्या है। लेकिन गुवाहाटी के सामने एक अतिरिक्त चुनौती है। जब ब्रह्मपुत्र उफान पर होती है, तो इस ऐतिहासिक शहर (यह 1,000 साल से अधिक पुराना है) के नालों और धाराओं का पानी नदी में जाने के बजाय पीछे की ओर आता है, जिससे नागरिकों को अधिक जल भराव और अन्य परेशानी का सामना करना पड़ता है।

गुवाहाटी शहर हर दिशा में तेज़ी से फैलता जा रहा है।

हाल ही में हुई भारी बारिश ने भीड़-भाड़ वाले शहर को घंटों तक अस्त-व्यस्त कर दिया। कुछ इलाकों में नालियों और सड़कों के ओवरफ्लो होने से यात्रियों को कमर-तक भरे कीचड़ और गंदे पानी से जूझना पड़ा। समस्याओं का एक कारण गुवाहाटी के बील और जल निकाय हैं, जो तूफान के पानी के जलाशयों (स्ट्रॉम वाटर रिजर्वायर) के रूप में काम करते हैं। पर्यावरणविदों और मीडिया की आपत्तियों के बावजूद बड़े पैमाने पर इन पर निर्माण कार्य किया गया है। अतिरिक्त पानी के लिए ये प्राकृतिक जलाशय अब अपनी सुरक्षात्मक भूमिका नहीं निभा सकते हैं। समय-समय पर नालों और बील की सफाई और सफाई होती रहती है, फिर भी शहर के चारों ओर की पहाड़ियों पर अतिक्रमण कर लिया गया है और नालों में गंदगी जमा हो गई है।

इस श्रृंखला का पहला और दूसरा भाग आप यहां पढ़ सकते हैं।

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