पटना: बिहार के पूर्णिया जिले का रहने वाला पांच साल का शिवम जन्म से ही थैलेसीमिया नामक गंभीर बीमारी से पीड़ित था। उसके परिजनों को हर 15-20 दिनों में उसे खून चढ़वाना पड़ता था। शिवम का जीवन उसके जिले पूर्णिया के रक्तदाताओं की मदद पर निर्भर था, जो ऐसे बच्चों के लिए नियमित तौर पर रक्तदान शिविर आयोजित करवाते थे। मगर कोरोना के प्रकोप के कारण ऐसे रक्तदान शिविर लगने बंद हो गये। शिवम के परिजनों को खून मिलने में परेशानी होने लगी और आखिर में 5 अप्रैल, 2021 को उसने दम तोड़ दिया।

शिवम जैसी ही कहानी पूर्णिया के खुश्कीबाग मोहल्ले के पीयूष की भी है। साढ़े पांच साल के पीयूष की भी मौत इस साल फरवरी महीने में हो गयी। वह भी थैलेसीमिया से पीड़ित था और आठ महीने की उम्र से ही उसे नियमित अंतराल पर खून चढ़ाये जाने की जरूरत होती थी। जब उसे समय से खून मिलना बंद हो गया तो उसके पेट में पानी भर गया। उसे बेहतर इलाज के लिए पटना ले जाया गया।

"पीयूष ठीक होकर पूर्णिया लौट आया था। मगर फिर समय से खून नहीं मिला और उसकी मौत हो गयी," पीयूष के पिता देवीलाल पासवान कहते हैं।

यह कहानी सिर्फ इन्हीं दोनों बच्चों की नहीं है। पूर्णिया के ही रहने वाले कई बच्चे जैसे विजेंद्र यादव के पुत्र सोनू, अजीत कुमार के पुत्र दिवाकर, छोटी बच्ची कमर परवीन, सरसी के चंदन यादव की बेटी खुशबू कुमारी, भवानीपुर के बालक अंकित कुमार, मगरूर आलम का बेटा जाहिद फजल, पलासी का आशीष, विजेंद्र ऋषिदेव का पुत्र सोनू, गुलाम हैदर का बेटा नबी अहमद आदि की मौत भी कोरोना काल में खून की कमी की वजह से हो गयी। पूर्णिया जिले के ये सभी बच्चे थैलेसीमिया से पीड़ित थे। इनकी मौत मार्च 2020 से जून 2021 के बीच हुई है।

स्थानीय मीडिया में आयी एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक साल में पूर्णिया जिले के दो दर्जन थैलेसीमिया से पीड़ित बच्चों की मौत इस वजह से हो गयी, क्योंकि उन्हें समय पर खून नहीं मिल सका। इस रिपोर्ट के मुताबिक जिले में थैलेसीमिया से पीड़ित बच्चों की कुल संख्या 144 थी, जो अब 120 रह गयी है। वे कहते हैं कि ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि जिले के दो ब्लड बैंकों रेड क्रॉस के ब्लड बैंक और सदर अस्पताल के ब्लड बैंक में कोरोना की शुरुआत से ही खून उपलब्ध नहीं हो पा रहा।

पहले जिले के स्वयं सहायता संगठन इन बच्चों के लिए नियमित तौर पर रक्तदान शिविर लगवाते थे, मगर कोरोना काल में वह भी बंद है। लोग अपनी इम्युनिटी को बरकरार रखने के लिए भी रक्तदान करने से परहेज कर रहे हैं। ऐसे में जो हालात बने हैं, वे इस दुर्लभ रोग से पीड़ित बच्चों के लिए जानलेवा साबित हो रहे हैं।

बिहार के एक जिले में थैलेसीमिया से इतने बच्चों की मौत की खबर हालांकि राजधानी पटना तक नहीं पहुंच पायी, मगर उसने जिले के स्वास्थ्य विभाग और प्रशासन को चौकन्ना कर दिया। जिले के सिविल सर्जन एसके वर्मा ने स्वीकार किया कि कोरोना की वजह से जिले के ब्लड बैंकों में खून की कमी हो रही है। इससे थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों को परेशानी हो रही है।

इंडियास्पेंड के साथ बातचीत में वे जिले में थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों की मौत की जानकारी न होने की बात कहते हैं। वे कहते हैं कि किसी परिजन ने उन्हें इस बात की सूचना नहीं दी। "अगर आपके पास मृत बच्चों की कोई सूची हो तो हमें उपलब्ध कराएं," वे कहते हैं । हालांकि वे यह भी स्वीकार करते हैं कि जिले में स्वास्थ्य विभाग के पास थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों की कोई सूची है भी नहीं। वे दो महीने पहले आये हैं और कोरोना की वजह से वे कुछ कर भी नहीं पा रहे।

पूर्णिया के ब्लड बैंकों में खून की कमी की बात को वे स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कोरोना काल में लोग रक्तदान से परहेज कर रहे थे। वे आगे यह भी कहते हैं कि थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों के परिजन भी अपने ही बच्चों के लिए खून का रिप्लेसमेंट देने को तैयार नहीं। सरकारी नियम है कि उनसे रिप्लेसमेंट नहीं मांगा जा सकता, इसलिए वे हमेशा मुफ्त में खून चाहते हैं।

वे यह भी कहते हैं कि 30 मई और 1 जून को जिला प्रशासन द्वारा रक्तदान शिविर लगाया गया और इससे जो 123 यूनिट खून एकत्र हुआ, उससे सभी पीड़ित बच्चों को एक-एक यूनिट खून उपलब्ध कराया गया है, आगे भी 13-14 जून को ऐसे रक्तदान शिविर का आयोजन किया जा रहा है।

हालांकि वे थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों की मौत के मामले पर साफ-साफ कुछ नहीं कहते, मगर हाल के दिनों में रक्तदान शिविर आयोजित करने को लेकर उनकी सक्रियता से जाहिर होता है कि मामला गंभीर है।

पिछले दिनों पूर्णिया के जिलाधिकारी राहुल कुमार ने भी इन बच्चों के लिए रक्तदान शिविर लगाने की अपील की। उन्होंने 30 मई, 2021 को जिला प्रशासन द्वारा आयोजित रक्तदान शिविर में खुद रक्तदान किया। उन्होंने भी ट्वीट कर यह स्वीकार किया कि कोविड की वजह से पूर्णिया के ब्लड बैंक में खून की कमी हो गयी थी।

अभी तक नहीं खुल पाए हैं डे-केयर सेंटर

मगर इस बीच यह सवाल अनुत्तरित रह गया कि एक साल पहले राज्य स्वास्थ्य समिति, बिहार ने पूर्णिया में थैलेसीमिया, हीमोफीलिया और सिकल सेल एनीमिया पीड़ितों के लिए डे-केयर सेंटर खोले जाने की बात हुई थी, वह अभी तक क्यों नहीं शुरू हो पायी है।

पिछले साल जून में यह घोषणा राज्य स्वास्थ्य समिति के कार्यपालक निदेशक मनोज कुमार ने पटना मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल (पीएमसीएच) में राज्य के पहले थैलेसीमिया डे-केयर सेंटर की शुरुआत के वक्त की थी। उन्होंने कहा था कि एक साल के अंदर मुजफ्फरपुर, भागलपुर, पूर्णिया और गया में भी ऐसे सेंटर शुरू हो जायेंगे। थैलेसीमिया पीड़ितों और दूसरी स्वयं सहायता संस्था द्वारा लंबे समय से की जा रही मांग की वजह से यह घोषणा की गयी थी। मगर ये केंद्र अब तक शुरू नहीं हो पाये हैं।

पटना के पीएमसीएच में खुला डे-केयर सेंटर। फोटो: शैलेष श्रीवास्तव

पूर्णिया में ऐसे केंद्र की बहुत जरूरत है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि राज्य में सबसे अधिक थैलेसीमिया मरीज पूर्णिया जिले में ही हैं। मगर सिविल सर्जन एसके वर्मा कहते हैं कि उन्हें इस बात की बिल्कुल जानकारी नहीं है कि पूर्णिया में इन बच्चों के लिए कोई डे-केयर सेंटर खुलने वाला है। वे कहते हैं, बड़ा जिला होने के कारण आसपास के सात जिलों के थैलेसीमिया पीड़ित बच्चे खून के लिए पूर्णिया आते हैं। उनके लिए खून का इंतजाम करना आसान नहीं होता। सरकार को पूर्णिया जिले में संसाधन बढ़ाना चाहिए।

राज्य भर में थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों के साथ काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता मुकेश हिसारिया कहते हैं कि बिहार में अमूमन एक हजार थैलेसीमिया पीड़ित बच्चे हैं, सिर्फ पूर्णिया में ऐसे बच्चे 144 माने जाते हैं।

हिसारिया कहते हैं कि निश्चित तौर पर कोरोना की वजह से थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों को कई तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है। हालांकि किसी अन्य जिले से अभी तक उन्हें ऐसे बच्चों के मौत की खबर नहीं मिली है, मगर पूर्णिया में कुछ बच्चों की मौत जरूर हुई है। यह संख्या कितनी है, इस बारे में वे दावे से नहीं कह सकते।

वे बताते हैं कि पिछले साल 23 जून को बिहार सरकार ने राज्य के सभी सरकारी और निजी ब्लड बैंकों के लिए निर्देश जारी किया था कि थैलेसीमिया विकार से ग्रस्त बच्चों को बिना रिप्लेसमेंट और बिना प्रोसेसिंग के ब्लड की उपलब्धता सुनिश्चित करायें। इससे इन बच्चों की बड़ी मदद हुई है। जहां तक पूर्णिया का सवाल है, वहां पिछले कई महीनों से रक्तदान शिविर का आयोजन बंद था। इसकी वजह एक स्थानीय रक्तदान शिविर आयोजक पर खून बेचने का लगा आरोप था, इसलिए वहां खून की कमी हो गयी।

थैलेसीमिया पीड़ित शिवम के पिता मंटू मंडल ने भी इन आरोपों की पुष्टि की। उन्होंने कहा कि हमारे बच्चों के नाम पर ये लोग खून जमा करते थे और बाद में उसे अधिक कीमत पर बेच देते थे। मगर हम कर भी क्या सकते थे। हम मजबूर थे।

जब हमने उक्त रक्तदान शिविर आयोजक कार्तिक चौधरी से संपर्क किया, तो उन्होंने इस आरोप को सरासर गलत बताया और कहा कि मीडिया में इस तरह की खबरें आने के बाद उनके लिए रक्तदान शिविर का आयोजन मुश्किल हो गया था। इसलिए उन लोगों ने रक्तदान शिविर का आयोजन बंद कर दिया था। अब वे फिर से ऐसे आयोजन की तैयारी कर रहे हैं।

बिहार थैलेसीमिया पेरेंट्स एसोसिएशन की सेक्रेटरी प्रियंका मिश्रा जो खुद थैलेसीमिया पीड़ित हैं, कहती हैं कि कोरोना काल में न सिर्फ पूर्णिया बल्कि पूरे बिहार में बच्चों को खून की दिक्कत हुई है। खास तौर पर इसलिए भी कि गर्मियों में हमें खून की जरूरत 12-13 दिनों पर ही होने लगती है, क्योंकि सेल जल्दी टूटते हैं। वे कहती हैं कि हालांकि दूसरे किसी जिले से हमें बच्चों की असामयिक मौत की खबर नहीं आयी है, मगर पूर्णिया में व्यवस्थागत परेशानियों की वजह से बहुत सारी दुखद मौतें हो गयी हैं।

वे कहती हैं, पटना के पीएमसीएच में डे-केयर सेंटर खुल जाने से थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों के लिए काफी आसानी हो गयी है। इसलिए अगर पूर्णिया में भी डे-केयर खुल जाये तो वहां का भी संकट काफी कम हो जायेगा।

आवश्यक दवाइयों की कमी

मगर सवाल सिर्फ खून की कमी का नहीं है। हिसारिया कहते हैं कि इन बच्चों को अगर समय से खून मिल भी जाये तो एक खतरा खून में आयरन की मात्रा बढ़ जाने का रहता है। ऐसे में इन्हें नियमित तौर पर खून में आयरन की मात्रा नियंत्रित करने की जरूरत होती है। इन दवाओं की खरीद के लिए दिसंबर, 2019 में ही सभी जिलों को आवश्यक फंड भेजा जा चुका था। इन्हें पीड़ित बच्चों को नियमित रूप से उपलब्ध कराना था। मगर यह काम ठीक से हो नहीं पाता और यह भी इन बच्चों के लिए जानलेवा साबित होता है।

पटना के डे-केयर सेंटर में सितम्बर 2020 में भी थैलेसीमिया के मरीज़ों के लिए ज़रूरी दवाएं उपलब्ध नहीं थीं। इन दवाओं की कमी आज भी है। फोटो: शैलेष श्रीवास्तव

शिवम के पिता मंटू मंडल कहते हैं कि इन दवाओं का खर्च रुपये 1200 से 1300 प्रति माह का पड़ता है। वे एक पेट्रोल पंप पर नौकरी करते हैं, ऐसे में इन दवाओं को हर महीने खरीदना उनके लिए आसान नहीं। उनके दो बच्चे थैलेसीमिया से पीड़ित थे। पहली बच्ची की 2012 में मृत्यु हो गयी। शिवम 2021 में चला गया। अब एक बच्चा बचा है, वह स्वस्थ है। मंटू मंडल कहते हैं, उन्हें सदर अस्पताल पूर्णिया से सिर्फ एक दफा यह दवा मिली थी। उसके बाद नहीं मिली।

प्रियंका मिश्रा कहती हैं, दवा का बोझ काफी अधिक है। अगर सभी जरूरी दवाएं ली जायें तो इन बच्चों के परिजनों का खर्च रुपये 5000 से 7000 प्रति माह तक चला जाता है। वे कहती हैं कि उन्होंने इस बारे में पूर्णिया के सिविल सर्जन से फोन पर बात की थी, तब उन्होंने बहुत नाराजगी भरे स्वर में इसे जरूरी नहीं बताया था।

सिविल सर्जन एसके वर्मा कहते हैं, पहली बात यह दवा आवश्यक औषधि की श्रेणी में नहीं आती। इसलिए अभी यह उपलब्ध नहीं है। दूसरी बात हमने राज्य से अनुरोध किया है कि इस दवा के लिए राशि उपलब्ध करायी जाये।

हिसारिया कहते हैं, इन बच्चों और उनके परिजनों के जीवन में यह कष्ट स्थायी रूप ले चुका है। इससे मुक्ति का एक ही तरीका है इनका बोन मेरो ट्रांसप्लांटेशन। पिछले साल तय हुआ था कि बिहार के 38 बच्चों का बोनमेरो ट्रांसप्लांट किया जायेगा। अब तक लगभग आधा दर्जन बच्चों का बोनमेरो ट्रांसप्लांट कराने में उनकी संस्था सक्रिय भूमिका निभा चुकी है।

वे कहते हैं, जब तक विवाह के वक्त ब्लड ग्रुप चेक करके शादियां तय नहीं की जायेगी। यह खतरा बना रहेगा।फिलहाल इन बच्चों को नियमित तौर पर खून चढ़ाने और खून में आयरन की मात्रा नियंत्रित करने की जरूरत बनी रहेगी। अमूमन ऐसे बच्चे गरीब तबके के होते हैं, इसलिए इन्हें इस काम के लिए सरकार और संस्था के सहृदय सहयोग की जरूरत है। सरकार को इनके लिए डे-केयर सेंटर जल्द से जल्द खोलने होंगे और इन बच्चों के लिए आयरन नियंत्रित करने की दवा मुफ्त में उपलब्ध कराने की मदद करनी होगी।

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