सुपौल: बिहार हर साल बाढ़ की आपदा को झेलता है और पिछले लगभग चार दशकों से प्रदेश में कोई साल ऐसा नहीं गया है जब यहां बाढ़ ने अपना कहर ना बरपाया हो। प्रदेश सरकार बाढ़ सुरक्षा पर प्रतिवर्ष करीब 600 करोड़ रुपये खर्च करती है वहीं राहत अभियान में भी हज़ारों करोड़ खर्च किये जाते हैं।

बिहार में मुख्यतः 12 नदी बेसिन हैं और लगभग सभी हर साल बाढ़ से प्रभावित होते हैं लेकिन कोसी बेसिन की बाढ़ का स्वरुप भयावह होता है।

कोसी में लगभग हर साल आने वाली बाढ़ के लिए नेपाल को
जिम्मेदार
ठहराया जाता है और तटबंदी और हाई डैम जैसे उपाए सुझाए जाते हैं लेकिन कोसी की बाढ़ का स्वरुप वाक़ई में भयावह है या फिर यह आपदा प्रबंधन की खामियों और सरकार की उदासीनता का नतीजा है?

बिहार के सुपौल जिले में बारिश के आंकड़ों के अनुसार जून से लेकर अभी तक सामान्य वर्षा हुई है। जिले ने इस दौरान 374 मिलीमीटर बारिश दर्ज की जो कि लगभग सामान्य है। लेकिन जिले में सामान्य वर्षा के बावजूद कोसी नदी के किनारे बेला गोठ गाँव के लगभग 100 से ज्यादा घर कोसी नदी में समा गए हैं जबकि अभी नदी में पूरा पानी भी नहीं उतरा है।


मौसम विभाग के अनुसार 13 जुलाई तक राज्य में केवल अररिया और किशनगंज जिलों में सामान्य से अधिक बारिश हुई है और प्रदेश के कई जिलों में सूखे की स्थिति बनी हुई है। केंद्रीय जल आयोग के बाढ़ पूर्वानुमान डैशबोर्ड के अनुसार भी कोसी से सटे इलाकों में बाढ़ की स्थिति सामान्य दिखाई देती है। लेकिन इसके बावजूद कोसी नदी में कटाव और घरों का बहना शुरू हो चुका है।

बेला गोठ के निवासी बिन्दो यादव बताते हैं कि कोसी नदी की वजह से लोगों को हर साल विस्थापन का दंश झेलना पड़ता है लेकिन प्रशासन इनकी सुध तब ही लेता है जब पानी सर के ऊपर चला जाता है। "नदी में पानी कम है। लेकिन कटाव शुरू हो चुका है। लगभग 100 से ज्यादा घर और 20 कट्ठा खेती की जमीन कट चुकी है। प्रशासन के आदमी रोज आते हैं कटाव वाले जमीन के पास कुछ गिट्टी का बोरा रख कर चले जाते हैं।"

कहाँ है आपदा प्रबंधन विभाग?

पिछले 42 साल के उपलब्ध आँकड़े इस ओर इशारा करते हैं कि इस दौरान लगभग हर साल बिहार को बाढ़ का सामना करना पड़ा है।

हमने पिछले साल रिपोर्ट किया था कि वर्ष 1979 से लेकर अब तक के उपलब्ध आंकड़ों के हिसाब से पिछले 43 वर्षों में एक भी ऐसा साल नहीं गुजरा, जब बिहार में बाढ़ नहीं आई हो। इस बाढ़ की वजह से बिहार में हर साल औसतन 200 इंसानों और 662 पशुओं की मौत होती है और सालाना तीन अरब रुपये का नुकसान होता है। राज्य सरकार बाढ़ सुरक्षा के नाम पर हर साल औसतन 600 करोड़ रुपये खर्च करती है और बाढ़ आने के बाद राहत अभियान में अमूमन दो हजार करोड़ रुपये से अधिक की राशि खर्च होती है।

इस वर्ष जहाँ एक तरफ दक्षिण बिहार के कई जिले सूखे से लड़ रहे हैं वही उत्तरी बिहार का कुछ इलाका बाढ़ से जूझ रहा है। सुपौल जिले के अलावा भागलपुर जिले के बिहपुर प्रखंड के कहारपुर और रंगरा प्रखंड के जहांगीरपुर वैसी के लोग कोसी में कटाव से प्रभावित हैं। लेकिन बिहार राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग के द्वारा किसी भी तरह की कोई भी सूचना नहीं दी गई है। आपदा प्रबंधन विभाग के ट्विटर आईडी से 24 जून को ग्रामीण क्षेत्र में बाढ़ से सुरक्षा के उपाय बताए गए थे। इसके अलावा कटाव और बाढ़ की कोई भी जानकारी नहीं दी जा रही है।

"पिछले 15 दिनों से नदी का कटाव जारी है और प्रशासन को सूचना देने के बाद भी किसी ने झाँकना तक मुनासिब नहीं समझा। पिछले साल भी बाढ़ के समय कटाव निरोधी काम के लिए प्रशासनिक लोगों से गुहार लगाई गई थी लेकिन इस दिशा में कोई पहल नहीं की गई। जल संसाधन विभाग द्वारा समय रहते कटाव निरोधी काम नहीं किया गया तो लगभग 650 परिवार का घर कट कर नदी में बह जाएगा," क्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्ता मिथिलेश कुमार बताते हैं।

वहीं गाँव की 31 वर्षीय रजनी बताती हैं, "तीन छोटे बच्चों को लेकर रोड पर रह रही हूं। सरकारी आदमियों के द्वारा सिर्फ खाने का पॉलिथीन उपलब्ध कराया गया है। छोटे-छोटे बच्चे को भी खाने के लाले पड़ रहे हैं। जिनको विस्थापन के लिए जमीन मिली है। वह तो वहां घर बनाकर वहां रह रहे हैं लेकिन हम लोगों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है।"

बिहार का आपदा प्रबंधन विभाग साल 2020 तक हर साल बाढ़ के मौसम में दैनिक बाढ़ रिपोर्ट अपनी वेबसाइट पर डालता था लेकिन पिछले साल से ये रिपोर्ट भी बंद कर दी गई।

फिलहाल विभाग की वेबसाइट पर इस साल की बाढ़, उससे बचाव या इसके प्रबंधन को लेकर कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं है।

हालाँकि राज्य के जल संसाधन विभाग की वेबसाइट पर बाढ़ से जुड़े कुछ निर्देश दिखाई देते हैं। विभाग द्वारा बाढ़ नियंत्रण आदेश 2022 भी जारी किया गया है लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इस आदेश की प्रति आपदा प्रबंधन विभाग को भेजी तक नहीं गयी है। यह बाढ़ से निपटने के लिए जिम्मेदार राज्य के दो विभागों के बीच समन्वय की कमियों को दर्शाता है।

जल संसाधन विभाग की वेबसाइट पर भी बाढ़ की मौजूदा स्थिति या बाढ़ से बचाव या प्रबंधन से जुडी कोई जानकारी दिखाई नहीं देती है।

आपदा प्रबंधन विभाग के सचिव और विशेष सचिव को इस बारे में जानकारी लेने के लिए हमने संपर्क किया लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो पाया। संपर्क होने की स्थिति में इस रिपोर्ट को अपडेट किया जायेगा।

बिहार में बाढ़ की तैयारी

जल संसाधन मंत्री संजय झा ने मीडिया को बताया कि इस बार बिहार सरकार पूरी तरह से बाढ़ से लड़ने के लिए सक्षम है।

लेकिन दूसरी तरफ मधुबनी और सुपौल जिला की सीमा पर काम कर रहे आपदा प्रबंधन विभाग के अधिकारी कुछ और ही कहानी बताते हैं। विभाग के एक अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर बताया, "इस वर्ष तटबंध के पास रेत के बैग और अन्य बाढ़ सुरक्षा सामग्री को एकत्रित किया गया है। लेकिन इस सबका कोई खास फायदा नहीं है। जब कोसी का पानी आता हैं तो तटबंध धरा का धरा रह जाता है तो यह सब क्या चीज है! कोसी नदी की गिरफ्त में बिहार के 10 जिले हैं। जिसकी आबादी लगभग 3 करोड़ से ज्यादा होगी। इस पूरी आबादी के लिए एसडीआरएफ की सिर्फ पांच टीमें काम कर रही हैं। बताइए क्या ही होगा?"

अधिकारी के अनुसार प्रत्येक टीम में 40 जवान के हिसाब से इस क्षेत्र में करीब 200 जवान तैनात हैं जो कि इतने बड़े क्षेत्र के लिए बहुत ही कम है।

वहीं कोसी परियोजना में काम कर चुके 77 वर्षीय अमोद कुमार झा कहते हैं कि सरकार हर साल बाढ़ से निपटने की तैयारी का दावा करती है लेकिन जब तक साल 2008 जैसी कोई बड़ी घटना नहीं घटती तब तक कुछ नहीं किया जाता।

"बिना बांध तोड़े सरकार की हर योजनाएं विफल है। हर साल वे यही दावा करते हैं, जिसमें 2007, 2008 और 2017 भी शामिल हैं, जब बिहार में भारी बाढ़ आई थी," झा बताते हैं।

सरकार के भरोसे नहीं रहते

दशकों से बाढ़ झेल रहे ये गांव वाले अब बाढ़ के साथ जीना सीख चुके हैं। बाढ़ के निपटने के तमाम इंतजाम ये लोग खुद ही करते हैं और इसके लिए सरकार पर निर्भर नहीं रहते। सुपौल जिला के पिपरा खुर्द गांव के रमेश राम बताते हैं, "हर परिवार के कुछ सदस्य तैरना जानते हैं। वो घर पर रुक जाते हैं। बाकि लोगों को रिश्तेदार के यहां या जिन्हें पुनर्वास की जमीन मिली है वो वहां चले जाते हैं। गांव वाले सामुदायिक रूप से नाव की व्यवस्था करते हैं। ताकि बाढ़ के समय हमें सरकार और प्रशासन की दया पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं पड़े।"

"बाढ़ के समय सबसे ज्यादा जरूरत नाव की पड़ती है। क्योंकि नाव के माध्यम से ही हम तटबंध और सड़क तक जा सकते हैं। सरकार हमें वह भी उपलब्ध नहीं करा पाता है। जबकि हमारे हाल को देखने के लिए अधिकारी और नेता बाढ़ से स्टीमर से आते हैं।" पिपरा खुर्द गांव के मोहन राय (47 वर्ष) बताते है।

जीवन की गतिविधियों के लिए तटबंध के भीतर के ग्रामीणों को परिवहन की सुविधा के लिए अधिक नावों की आवश्यकता है। राज्य सरकार ने उन्हें आश्वासन भी दिया था कि नाव उपलब्ध कराई जाएगी। फिर भी राज्य सरकार ने इस मोर्चे पर बहुत कम काम किया है।

बाढ़ राहत अभियान और सामग्री का अभाव

सुपौल जिले के पिपड़ा खुर्द, गोनवा, गोपालपुर, सिमराहा गांव और मधुबनी जिले के सोनबरसा और मैरचा गांव में किसी भी ग्रामीण को लगभग एक साल से सरकार द्वारा घोषित बाढ़ मुआवजा राशि नहीं मिली है। सिमराहा गांव के बुजुर्ग धनुष यादव बताते हैं, "गांव के 50% आदमी (लोगों) को ही 6000 रुपये वाला मुआवजा मिलता है। वह भी लगभग 1 साल से नहीं मिल रहा है। बाढ़ पीड़ितों को क्षतिपूर्ति राशि के 6,000 रुपयों के साथ बरतन और कपड़े के लिए 3,800 रुपये दिये जाने का भी नियम है। यहां क्षतिपूर्ति राशि नहीं मिल रही बर्तन और कपड़े के लिए क्या ही मिलेगा।"

वहीं कोसी वासियों के लिए काम कर रही संस्था कोसी नवनिर्माण मंच के अध्यक्ष महेंद्र यादव बताते हैं, "2017 से पहले राहत शिविर बनाया जाता था लेकिन उसके बाद सामुदायिक रसोई बनाया जाने लगा। राहत शिविर में हर वयस्क पीड़ित को 2400 कैलोरी, बच्चे को 1700 कैलोरी भोजन,छोटे बच्चों को दूध, साफ पेयजल, शौचालय, सोने के लिए बिछावन, मेडिकल कैंप, सुरक्षा एवं रोशनी का इंतजाम करना पड़ता है। जबकि सामुदायिक रसोई में प्रशासन स्थानीय जनप्रतिनिधियों को कुछ राशि दे दी जाती है, और वह लोगों को भोजन खिला देता है। भोजन असल बाढ़ पीड़ितों तक पहुंचता है, इसकी गारंटी नहीं होती।"

अभी भी जब पूरे बिहार में लगभग 200 परिवारों का घर नदी में कट चुका है। सरकार के द्वारा इनके सुरक्षित रहने के लिए राहत शिविरों के संचालन की व्यवस्था नहीं की जा रही है। राहत के नाम पर बस एक दो सामुदायिक रसोई खोल दी गई हैं।