बजट-2021 में रोज़गार बढ़ाने का पुख्ता इंतजाम नहीं : विशेषज्ञ
रोज़गार के मुद्दे पर आर्थिक विशेषज्ञों का साफ-तौर पर कहना है कि केंद्रीय बजट 2021-22 में शहरी क्षेत्रों में रोज़गार को लेकर कोई नया प्रावधान नहीं है और लघु उद्यमियों को भी मामूली राहत दी गई है। ग्रामीण रोज़गार कार्यक्रमों के लिए भी इस बजट में मात्र 73 हज़ार करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं, जो 2020-21 के संशोधित अनुमानित आवंटन 1,11,500 करोड़ से 35% कम और अपर्याप्त हैं।
बेंगलुरु एवं मुंबई: कोरोना महामारी और लॉकडाउन की वजह से भारत में जिस तरह का रोज़गार संकट खड़ा हो गया है, उससे निपटने के लिए केंद्रीय बजट 2021-22 के पूंजीगत खर्च में 34% की बढ़ोतरी को काफी कम करके आंका जा रहा है। 2020-21 की बात करें तो पूंजीगत खर्च 4 लाख 12 हजार करोड़ रुपये का था, जिसे बढ़ाकर अब 2021-22 के बजट में 5 लाख 54 हजार करोड़ रुपये किया गया है।
हालांकि दीर्घकालिक इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट को प्रोत्साहित करना अच्छी बात है, लेकिन इससे बहुत अधिक नौकरियां पैदा हो जाएंगी, यह सोचना गलत होगा, ऐसा आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है। इसके अलावा इस बजट में 2019 और 2020 में सामाजिक सुरक्षा तथा सर्वमान्य न्यूनतम मज़दूरी से जुड़े प्रावधानों को बस दोहराया गया है।
इस बजट के आवंटन पर गौर फरमाएं तो 'मनरेगा' यानी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के बजट आवंटन में भी कटौती कर दी गई है। यह भारत के गाँवों में रोज़गार सृजन की सबसे अहम योजना है। लॉकडाउन के दौरान रोज़गार गँवाकर घर लौटने वाले लाखों प्रवासी मज़दूरों के लिए 'मनरेगा' जीवनदायिनी साबित हुई थी। शहरी क्षेत्रों में भी रोज़गार बढ़ाने के लिए किसी भी तरह का क़दम नहीं उठाया गया है जबकि कोरोना से अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले दबाव को कम करने के लिए आजीविका से जुड़ी एजेंसियों ने इसकी पुरजोर वकालत की थी।
श्रम और रोज़गार मंत्रालय को 13,306.5 करोड़ ($1.82 बिलियन) आवंटित किए गए हैं जो 2020-21 की संशोधित आवंटन से 413 करोड़ रुपये कम हैं। इसमें भी श्रमिकों के लिए मौजूद सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं के बजट को 3.4% कम करके 11,104 करोड़ ($ 1.52 बिलियन) कर दिया गया है। दिसंबर 2019 यानी लॉकडाउन की घोषणा से चार महीने पहले भारत के कुल मानव संसाधन का 48% हिस्सा स्व-रोज़गार से जुड़ा था। अगस्त 2020 में ऐसे लोगों की संख्या बढ़कर 64% हो गई। इंडियास्पेंड ने तब जनवरी, 2021 में रोज़गार के अवसरों में लगातार होने वाली कटौती को लेकर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी।
आखिर क्यों बड़े इंफ्रा-प्रोजेक्ट से अधिक नौकरियाँ नहीं आएँगी
अपने 110 मिनट के लंबे बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने टेक्सटाइल, शिपिंग और इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र के लिए योजनाओं और आवंटन की घोषणाएँ की है, जिससे उम्मीद की जा रही है कि नौकरियाँ बढ़ेंगी। मसलन,
- 13 क्षेत्रों में प्रोडक्शन-लिंक्ड इनिशिएटिव (पीएलआई) के लिए पांच सालों में 1.97 लाख करोड़ ($ 27 बिलियन) का प्रावधान किया जाएगा।
- बजट में अगले तीन सालों में सात मेगा इन्वेस्टेमेंट टेक्सटाइल्स पार्क (मित्र) शुरू किए जाएंगे।
- टेक्सटाइल इंडस्ट्री के कच्चे माल के लिए मौलिक सीमा-शुल्क को कम करके 5% किया गया है। सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के साथ-साथ तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल और असम में आर्थिक मार्ग और राष्ट्रीय राजमार्ग के लिए 1,08,230 करोड़ रुपये ($ 14.8 बिलियन) की पूँजी तय की गई है।
- पब्लिक-प्राइवेट पार्टनर-शिप मॉडल के तहत शहरी क्षेत्रों में सार्वजनिक बस परिवहन वृद्धि योजना के लिए 18,000 करोड़ रुपये की घोषणा की गई है।
उपरोक्त घोषणाओं की बात करें तो विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार की इन योजनाओं और पहल से रोज़गार के अवसर सृजित तो होंगे, लेकिन इसमें लंबा वक्त लगेगा। इससे तत्काल राहत की बात करना बेमानी होगी।
"इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स को प्रोत्साहित करना अच्छा कदम है लेकिन यह इस पर निर्भर करेगा कि आर्थिक मार्ग जैसे प्रोजेक्ट कितनी जल्दी शुरू होते हैं। क्योंकि आमतौर पर इन प्रोजेक्ट्स के शुरू होने में लंबा वक्त लगता है। इसलिए इस बात की आशंका ज्यादा है कि इसमें बड़े पैमाने पर शायद रोज़गार सृजित ना हों। इसके अलावा यह सहायता ज़्यादातर पूँजी प्रधान उद्योगों को ही मिली है," इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकॉनामिक रिलेशन (आईसीआरआईईआर) की वरिष्ठ व्यक्ति और अर्थ-शास्त्री राधिका कपूर ने इंडियास्पेंड के साथ बातचीत में बताया।
"बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में इन दिनों काफी बड़ी पूँजी लगती है," अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में सहयोगी प्रोफेसर और सेंटर फॉर सस्टेनेबल एंप्लायमेंट में शोधकर्ता अमित बासोले का ऐसा मानना है। "निर्माण क्षेत्र की ज़्यादातर नौकरियाँ आवासीय और व्यावसायिक परियोजनाओं में सृजित होती हैं, बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में नहीं," नौकरियों के ज़्यादा अवसर नहीं होने की वजह बताते हुए बासोले ने आगे कहा"
टेक्सटाइल्स पार्क की स्थापना एक सकारात्मक क़दम है क्योंकि इस क्षेत्र में ज़्यादा श्रमिकों की ज़रूरत होती है लेकिन इसके लिए जितना बजट आवंटित किया जाना चाहिए था उतना नहीं किया गया," नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ पब्लिक फ़ाइनेंस एंड पॉलिसी (एनआईपीएफपी) के अर्थ-शास्त्री भाबेश हज़ारिका का ऐसा कहना है। उन्होंने बजट आवंटन को अपर्याप्त बताया।-
सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) के लिए बजट में राहत की कमी की तरफ विशेषज्ञों ने इशारा किया है। यह मंत्रालय देश के असंगठित क्षेत्र के 40% कर्मचारियों को रोज़गार प्रदान करता है। अमित बासोले का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान सबसे ज़्यादा मार इसी सेक्टर पर पड़ी थी और कई लघु उद्योग धंधों के विभाग दिवालिया हो गए। एमएसएमई मंत्रालय के लिए वर्तमान वित्तीय अनुमान 7,572 करोड़ को दोगुना करके 2021-22 में 15,700 करोड़ कर दिया गया है। हालांकि कुल आवंटन का 64% हिस्सा गारंटी इमर्जेंसी क्रेडिट लाइन (जीईसीएल) सुविधा के लिए है। यह योजना एमएसएमईस, व्यापार उद्योगों, व्यक्तिगत उद्यमियों, माइक्रो यूनिट्स डवलपमेंट एंड रिफाइनेंस एजेंसीज़ (मुद्रा) से उधार लेने वालों को पूरी तरह से गारंटी-युक्त और कोलैटरल फ्री क्रेडिट मुहैया कराती है।
ग्रामीण रोज़गार योजना में पहले से कम आवंटन
प्रत्येक ग्रामीण परिवार के वयस्क सदस्यों को साल में 100 दिन रोज़गार की गारंटी देने वाली ग्रामीण रोज़गार योजना में 14.4 करोड़ कार्यकर्ता है। काम न होने की वजह से अपने घरों को लौटने वाले बेरोज़गार प्रवासी मज़दूरों ने लॉकडाउन के दौरान मनरेगा के तहत काम के लिए आवेदन किया था, लेकिन 97 लाख ज़रूरतमंद लोगों को काम नहीं मिला। इंडियास्पेंड ने 4 जनवरी, 2021 को प्रकाशित रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया था।
जून 2020 में, मनरेगा के लिए रिकॉर्ड 61,500 करोड़ रुपये ($ 8.4 बिलियन) का आवंटन किया गया था। बाद में महामारी के दौरान रोज़गार संकट का सामना करने के लिए अतिरिक्त 40 हज़ार करोड़ रुपये ($ 5.5 बिलियन) भी दिए गए थे। 2021-22 में बजट में इज़ाफे के साथ 73 हज़ार करोड़ आवंटित किए गए, यह 2020-21 के संशोधित अनुमान की तुलना में 35% कम है। 2020-21 के अनुमानित राशि के हिसाब से इस मद मे 1,11,500 करोड़ रुपये ($ 15.3 बिलियन) ख़र्च हुए।
इस बजटीय आवंटन को अपर्याप्त बताते हुए आईसीआरआईईआर की राधिका कपूर आगे कहती है कि "मनरेगा में मांग की स्थिति बरकरार है क्योंकि श्रम बाज़ार काफी दबाव में है और कोविड का संकट अभी ख़त्म नहीं हुआ है।" आईआईटी दिल्ली की सहयोगी प्रोफेसर और अर्थ-शास्त्री रितिका खेरा का भी कहना है कि "मांग के मुकाबले बजट में मनरेगा के लिए हमेशा कम पैसे दिए जाते हैं। पिछले साल इस मद में आवंटन बढ़ाया गया था लेकिन वह पैसा भी नौकरी कार्ड वाले सभी परिवारों को सौ दिन काम देने के लिए ज़रूरी पैसे का महज एक तिहाई है।"
भारत में भीषण आर्थिक असमानता को देखते हुए बजट आवंटन में मनरेगा के लिए भुगतान बढ़ाने की ज़रूरत है ताकि शहरों की तरफ होने वाला पलायन कम हो, ऐसा राजेंद्रन नारायण का कहना है। राजेंद्रन अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के असिसटेंट प्रोफेसर और ग्रामीण इलाकों में सार्वजनिक सेवाओं की पहुंच में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने के लिए काम करने वाले प्रोजेक्ट लिबटेक इंडिया के संस्थापक सदस्य है। "सरकार ने बजट में सप्लाई के सभी मापदंडों पर ज्यादा ध्यान दिया है, लेकिन मांग संबंधी मापदंडों को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किया गया है। यह मनरेगा और आजीविका देने वाली तमाम दूसरी योजनाओं के आवंटन पर अपने मौन से साफ स्पष्ट है", इस बारे में बताते हुए राजेंद्रन आगे कहते है।
अवसर को गँवाने जैसा है शहरी रोज़गार की उपेक्षा
मनरेगा की तर्ज़ पर शहरी क्षेत्रों में रोज़गार बढ़ाने की योजना कई राज्यों मसलन ओडिशा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड और केरल में लागू है। राज्य सरकार की ये योजनाएं मौजूदा संकट का सामना करने में मददगार है, ऐसा इंडियास्पेंड ने 4 जनवरी, 2021 को प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में बताया था। 2020 में कृषि क्षेत्र में आम दिनों की तुलना में ज़्यादा लोगों को रोज़गार मिला। इससे पता चलता है कि शहर के गैर-कृषि क्षेत्रों में कोरोना के असर के चलते नौकरियों के अवसर कम हैं, सेंटर फॉर मानिटरिंग इंडियन इकनॉमी ने जनवरी, 2021 में अपने विश्लेषण में बताया। इस विश्लेषण के मुताबिक, कृषि क्षेत्र में रोज़गार की बात करें तो अक्टूबर-दिसंबर, 2020 में रोज़गार पिछली तिमाही यानी जुलाई-सितंबर 2020 के 15.8 करोड़ से गिरकर 15.4 करोड़ रह गया। लेकिन अक्टूबर-दिसंबर 2019 की तुलना में यह 3.5% ज़्यादा है।
अमित बासोले का मानना है कि नए बजट में शहरों में रोज़गार सृजन के लिए किसी तरह का पहल नहीं किया जाना अवसर के छूट जाने के समान है। बासोले ने कहा, "यह महत्वपूर्ण होता कि सरकार इसके ज़रिए न केवल सबसे ज़्यादा प्रभावित शहरी कामगारों को मुआवजा दे पाती, बल्कि वह यह भी दिखा पाती कि एयरपोर्ट और राजमार्गों जैसे बड़े-बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के साथ ही वह लोकल इंफ्रास्ट्रक्चर को भी बेहतर करने के लिए भी प्रतिबद्ध है।"
आर्थिक सर्वेक्षण ने कोविड-19 संकट के चलते उत्पन्न बेरोज़गारी की समस्या को स्वीकार नहीं किया, जेवियर स्कूल ऑफ़ मैनेजमेंट (एक्सएलआरआई) में मानव संसाधन प्रबंधन के प्रोफेसर के. आर. श्याम का कहना है उन्होंने यह सवाल भी उठाया है कि "क्या यह शहरी रोज़गार आश्वासन योजना शुरू करने का उचित समय नहीं था? वह भी तब जब एंप्लायज स्टेट इंश्यूरेंस एक्ट, 1948 (जिसमें बेहद कम लोगों को काम मिला है) के अलावा देश में बेरोज़गारी भत्ता या सहायता देने की कोई योजना नहीं है?"
सलाह मात्र है असंगठित क्षेत्रों के श्रमिकों की सुरक्षा
लॉकडाउन के दौरान भारत के असंगठित क्षेत्र में रोज़गार संकट को बताने वाला कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। सरकार ने संसद में इस बात को स्वीकार भी किया कि उसके पास कोई आंकड़ा नहीं है जो यह बताए कि कितने प्रवासी मज़दूरों की नौकरियाँ चली गईं या फिर पैदल घर जाते वक्त कितने प्रवासी मज़दूरों की मौत हो गई। सरकार ने विशेषज्ञों के एक समूह का गठन भी किया है, जो प्रवासी मज़दूरों के आंकड़ों को एकत्रित करके उनकी कामकाज की स्थिति और नौकरियों के अवसर को बेहतर करने के लिए तरीके बताएगा।
बजट में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों का नेशनल डेटाबेस तैयार करने के लिए 150 करोड़ का प्रावधान किया गया है। इसके तहत एक पोर्टल बनाने का प्रस्ताव है जिसमें असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों, इमारत और कंस्ट्रक्शन से जुड़े मज़दूरों के अलावा दूसरे मज़दूरों की जानकारी एकत्रित की जाएगी और इस जानकारी के आधार पर उन्हें घर, स्किल ट्रेनिंग, बीमा, क्रेडिट और खाद्य सुरक्षा जैसी योजनाओं का लाभ मुहैया कराया जाएगा।
बजट की घोषणा में असंगठित क्षेत्र के अंशकालिक औऱ दूसरे मज़दूरों के लिए दुनिया भर में पहली बार सामाजिक सुरक्षा देने की बात कही गई है। लेकिन यह एक तरह से सरकार के सामाजिक सुरक्षा से जुड़े कोड को दोहराने की औपचारिकता भर है क्योंकि इस मकसद को पूरा करने के लिए किसी तरह के बजट का आवंटन नहीं किया गया है, ऐसा विशेषज्ञों का कहना है। "कोड के तहत असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों के लिए सुरक्षा का प्रावधान है लेकिन यह केवल सलाह के तौर पर है क्योंकि नेशनल डेटाबेस बनाने के अलावा असंगठित क्षेत्र के लिए किसी बजट का आवंटन नहीं किया गया है", आईसीआरआईईआर की राधिका कपूर ने बताया।
कोड के मुताबिक, अंशकालिक और असंगठित श्रमिकों के नियोक्ताओं को केंद्र या राज्य सरकार के साथ मिलकर एक सामाजिक सुरक्षा फंड तैयार करना चाहिए। इसमें नियोक्ताओं को अपने सालाना टर्नओवर का 1-2% राशि का भुगतान करना चाहिए। हालांकि कोड में यह स्पष्ट तौर पर नहीं बताया गया है कि कौन सा प्लेटफॉर्म होगा, कौन अंशकालिक श्रमिक होंगे, इस लिहाज से इन प्रावधानों को लागू करना कठिन है, इस बारे में बताते हुए कपूर आगे कहती हैं।
(यह खबर इंडियास्पेंड में प्रकाशित की गई खबर का हिंदी अनुवाद है।)
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