रायपुर: छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 68 किलोमीटर दूर रजनकट्टा गांव की 38 वर्षीय लक्ष्मी कंवर के दिन की शुरुआत भोर से ही हो जाती है। उनका पहला काम अपने पशुओं के बाड़े में जाना होता है, जो चार बांस के खंभों और सूखे ताड़ के पत्तों से बना एक छप्पर है।

वह अपनी गायों और बकरियों द्वारा त्यागे गए गोबर को पुआल की टोकरी में इकट्ठा करती हैं और उसे अपनी झोपड़ी से कुछ दूर पर बनी एक गड्ढे में डाल देती हैं। ऐसे डंपिंग गड्ढों को स्थानीय रूप से 'घुरवा' कहते हैं और इसमें इकट्ठा हुए गोबर से गर्मियों में खाद बनाता है।

कंवर बताती हैं, "बारिश से ठीक पहले हम अपनी ज़मीन पर उगने वाले खरपतवार को जला देते हैं। फिर हम खेत की जुताई करते हैं और जले हुए खरपतवार व सूखे खाद को मिट्टी में मिलाते हैं। एक बार जब खेत तैयार हो जाती है तो हम कोदो (बाजरा), थोड़ा चावल और काली दाल लगाते हैं। हम बाजरे की फसल और साथ ही कुछ सब्जियां बेचते हैं, जिसे बारी (किचन गार्डन) में उगाया जाता है।"

कंवर कमार जनजाति के उन कई किसानों में से एक हैं, जो छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में रहती हैं और आजीविका के लिए खेती करती हैं। छत्तीसगढ़ की 30 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जनजाति (एसटी) की है। ये जंगलों और उसके आसपास रहते हैं और इनके पास छत्तीसगढ़ की भूमि का 44% हिस्सा है।

कंवर के ससुर 60 वर्षीय लक्ष्मण कंवर बताते हैं, "हमारे पूर्वज खेती नहीं करते थे। हम खानाबदोश हुआ करते थे और किसी भी एक स्थान पर केवल मौसमी रूप से बसते थे। बाजरा मजबूत पौधा होता है, इसलिए उस समय हम सिर्फ बाजरा उगाते थे, जो वनोपज के साथ हमारा मुख्य भरण-पोषण होता था। लेकिन पिछले कुछ दशकों में हमने पूरी तरह से खेती को अपना लिया है।"

राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल खुद को एक किसान के बेटे के रूप में पेश करते हैं। उन्होंने घोषणा की थी कि उनकी सरकार का मुख्य ध्यान नरवा गरुवा घुरवा बाड़ी (NGGB) पर होगा। इसका मतलब होता है- सिंचाई, मवेशी, खाद और सब्जी का बाग़। इसमें 'गौठानों' या गौशालाओं का निर्माण भी शामिल था। फिर जुलाई 2020 में सरकार ने गोधन न्याय योजना (गाय के लाभों की पहचान कराने वाली योजना) की घोषणा की, जो यह सुनिश्चित करेगी कि गौठान आत्मनिर्भर हों। सरकार ने 2 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से गाय का गोबर खरीदने का फैसला किया, जिसे बाद में स्वयं सहायता समूह की महिलाओं द्वारा गौठानों में तीन ग्रेड की खाद में परिवर्तित किया जाता है और 10 रुपये प्रति किलोग्राम की शुरुआती कीमत पर बेचा जाता है।

इस योजना का उद्देश्य उच्च लागत वाले रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग को कम करने और खेती को अधिक टिकाऊ बनाने के लिए जैव-उर्वरकों और जैव-कीटनाशकों को बढ़ावा देना व प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करना था।

मुख्यमंत्री बघेल के सहयोगी और गोधन न्याय योजना के योजनाकरों में से एक प्रदीप शर्मा ने कहा, "प्राकृतिक खेती एक पुरानी परंपरा है, जिसे हमें वापस लाना था।"

गैर-सरकारी संगठन 'वन अधिकार मंच' के विजेंद्र अजनबी बताते हैं कि एसटी जाति के जो लोग प्राकृतिक खेती कर रहे हैं, वह उनकी खानाबदोश जड़ों की उपज है। मवेशी खानाबदोश जीवन का मुख्य आधार होते हैं। इसके अलावा गोबर, मूत्र, जड़ी-बूटियों, पत्तियों और जंगलों में पाए जाने वाले पेड़ की छालों का उपयोग खेती में कई तरह से किया जा सकता है।

अजनबी बताते हैं, "विशिष्ट कीटनाशकों से मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने की कहानी एक मनगढ़ंत कहानी है, जबकि ऐसा जनजातियों ने बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के किया है। माना जाता है कि उन्होंने कभी भी व्यावसायिक पैमाने पर खेती नहीं की और ना ही उन्होंने उत्पादन को अधिकतम करने की आवश्यकता कभी महसूस की।"

प्राकृतिक खेती पर हमारी चल रही सीरीज़ के एक हिस्से के रूप में, हमने यह समझने के लिए छत्तीसगढ़ का दौरा किया कि गोधन न्याय योजना और राज्य में प्राकृतिक खेती की ओर बदलाव कैसा रहा है?

छत्तीसगढ़ में खेती उच्च उपज वाले चावल की किस्मों की ओर बढ़ी है

कर्क रेखा छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर जिले से होकर गुजरती है। इसके अलावा राज्य में उष्णकटिबंधीय जलवायु है, जो अतिगर्म ग्रीष्मकालीन मौसम और कृषि के लिए सहायक मानसून के मौसम की विशेषता है।

इस क्षेत्र को आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से एक सरकारी प्रयास के द्वारा राज्य में चावल की उपज 2008-09 के 4.39 मिलियन मीट्रिक टन (एमएमटी) से बढ़कर 2016-17 में 8.05 एमएमटी हो गया। हालांकि 2017-18 में उत्पादन गिरकर 4.93 एमएमटी हो गया, लेकिन 2019-20 में यह फिर से बढ़कर 6.7 एमएमटी और 2020-21 में 7.16 एमएमटी हो गया।

शोधकर्ताओं के अनुसार राज्य में चावल की हजारों किस्मों की उपलब्धता के कारण छत्तीसगढ़ को बोलचाल की भाषा में मध्य भारत के चावल के कटोरे के रूप में जाना जाता है, जिसे अगर संरक्षित नहीं किया गया तो यह समय के साथ गायब हो सकता है।

परिवार की अधिकांश महिलाएं प्राकृतिक खेती में कृषि कार्य करती हैं, जबकि पुरुष दिहाड़ी मजदूरों के रूप में काम के लिए बाहर जाते हैं

सरकारी अनुमान बताते हैं कि 2022 में छत्तीसगढ़ में 33 लाख हेक्टेयर खेती में धान की खेती हुई थी। उत्पादन में इस वृद्धि का सबसे बड़ा कारण उच्च उपज वाली चावल की किस्मों और रासायनिक उर्वरकों के उपयोग में महत्वपूर्ण वृद्धि है। विशेषज्ञों का कहना है कि हालांकि राज्य के दक्षिणी पठारों और उत्तर के पहाड़ी क्षेत्रों में प्राकृतिक खेती होती है, जो विशेष रूप से एसटी आबादी द्वारा संचालित है।

शर्मा ने कहा, "पिछली भाजपा सरकार ने उत्पादन को अधिकतम करने पर जोर दिया था, जिसके परिणामस्वरूप रासायनिक उर्वरक छोटे किसानों के लिए भी पसंदीदा बन गए। लोगों को इससे दूर करने के लिए हमने गाय के गोबर की खाद को अधिक सुलभ और आर्थिक रूप से व्यवहार्य तरीके से वापस लाने का फैसला किया।"

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता और राज्य की विधानसभा के एक पूर्व सदस्य ने कहा, "भाजपा सरकार जब 2003 में बनी थी, तो उसने राज्य की कम कृषि उत्पादकता को बढ़ाने और वाणिज्यिक कृषि के लिए सिस्टम स्थापित करने का काम किया। चूंकि धान एक सामान्य फसल थी, इसलिए भाजपा ने यह सुनिश्चित किया कि खेती में जवाबदेही सुनिश्चित हो। हमने उन प्रणालियों की स्थापना की जो अब कांग्रेस सरकार अपनी योजनाओं के लिए उपयोग कर रही है।"

प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने और पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाने वाले उर्वरकों से हटकर गाय के गोबर जैसे प्राकृतिक उर्वरकों की ओर बढ़ने के लिए कांग्रेस सरकार ने 2020 में 175 करोड़ रुपये के बजट के साथ गोधन न्याय योजना शुरू की। एनजीजीबी योजना के तहत इस समय तक 2,200 गौठान पहले ही बनाए जा चुके हैं और 2,800 निर्माणाधीन हैं।

सीएम बघेल द्वारा विधानसभा में दिए गए बजट भाषण के अनुसार 2021 में 127 करोड़ रुपये गोबर-विक्रेताओं के बैंक खातों में स्थानांतरित किए गए और 31.34 करोड़ रुपये गौठानों में काम करने वाले विभिन्न स्वयं सहायता समूहों को भुगतान किए गए। विधानसभा में एक प्रश्न के उत्तर में राज्य सरकार ने बताया कि दिसंबर 2022 तक विभिन्न वित्तीय मदों के तहत गौठानों के निर्माण पर 928 करोड़ रुपये खर्च किए गए।

सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार, अक्टूबर 2022 तक सरकार ने गोबर बेचने वालों, खाद बनाने वालों और गौठानों को चलाने वाली प्रबंधन समितियों को 340 करोड़ रुपये से अधिक का भुगतान किया था। दिसंबर 2022 तक सरकार ने 11,288 गौठानों को मंजूरी दी थी, जिनमें से 85% का निर्माण हो चुका हैं और वे कार्यरत हैं। छत्तीसगढ़ सरकार के शर्मा ने कहा कि सरकार 9,631 गौठानों से गोबर खरीद रही है, इनमें से 4,372 आत्मनिर्भर बन गए हैं।

गरियाबंद की लक्ष्मी कंवर कहती हैं कि यह योजना भूमिहीन और बिना मवेशी वाले किसानों व कुछ वर्षों के बाद खेती करने वाले किसानों के लिए भी फायदेमंद है। वह कहती हैं, "अगर कोई अपना खाद नहीं बना सकता है, तो यह खरीद के लिए भी उपलब्ध है। जिस आसानी से किसान रासायनिक उर्वरक के लिए पहुंचते थे, अब इस बेहतर जैविक उत्पाद द्वारा उस पर अंकुश लगेगा।"

उर्वरकों की कमी और राजनीतिक झगड़े

जैव-उर्वरकों और प्राकृतिक खेती पर सरकार के जोर ने एक राजनीतिक विवाद खड़ा कर दिया है। राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी बीजेपी ने कांग्रेस सरकार पर घोटाले का आरोप लगाया है। पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी नेता रमन सिंह के मुताबिक सरकार के आंकड़े सिर्फ कागजों पर हैं।

सिंह ने बताया, "इस योजना से लाभ पाने वाले लोग केवल डेयरी मालिक और पशु किसान हैं। गाय के गोबर को भी खूब पानी दिया जाता है, जिससे वह प्रदूषित होता है और खराब गुणवत्ता वाली खाद बनती है और किसान उसे खरीदने के लिए मजबूर होते हैं। अधिकांश गौठान या तो निर्माणाधीन हैं या काम नहीं कर रहे हैं। स्वयं सहायता समूह की महिलाएं, जिन्हें सरकार समर्थन देने का दावा करती है, उनका भुगतान भी नहीं किया गया है।"

वहीं सरकारी अधिकारी इन आरोपों से इनकार करते हैं। गोधन न्याय योजना विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, "शायद ही कभी कुछ मामलों के कारण भुगतान में देरी हुई हो और यह हजारों गौठानों में 10% से भी कम है। इसे कम करने के लिए हम गौठानों को आत्मनिर्भर व्यवसाय मॉडल में विकसित करने पर काम कर रहे हैं।"

गौशाला में दीवार, इन गौशालाओं या गौठानों को ग्रामीण औद्योगिक इकाइयों के रूप में माना जाता है और महिला स्वयं सहायता समूह गोधन न्याय योजना के तहत गाय के गोबर के साथ कई गतिविधियां करती हैं।

अकलतरा निर्वाचन क्षेत्र से भाजपा विधायक सौरभ सिंह इन आरोपों को और आगे ले जाते हैं और कहते हैं, "सरकार ने गाय-गोबर खाद को किसानों पर थोपने के लिए केंद्र द्वारा आपूर्ति किए गए रासायनिक उर्वरकों का एक नकली संकट पैदा किया और उर्वरक की कमी के लिए केंद्र सरकार को दोष देकर उनकी छवि खराब की।"

18 फरवरी, 2022 को जारी केंद्र सरकार की एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि छत्तीसगढ़ ने 2021 में खरीफ सीजन के लिए 11.75 लाख मीट्रिक टन रासायनिक उर्वरक का अनुरोध किया था और उसे 14.44 लाख मीट्रिक टन आवंटित किया गया। 2021-22 में रबी सीजन के लिए, राज्य ने 3.61 लाख मीट्रिक टन उर्वरकों का अनुरोध किया था और उन्हें 4.11 लाख मीट्रिक टन आवंटित किया गया।

सिंह ने कहा, "इसके बावजूद राज्य सरकार ने महीनों तक उर्वरकों को रेलवे स्टेशनों के मालगोदामों पर ही रोके रखा। किसानों को उनकी जरूरत के समय उर्वरक नहीं दिया गया और इसके बजाय उन्हें रासायनिक खाद का उपयोग करने पर मजबूर किया गया। कृषि-कर्जमाफी और सोसायटी के तहत पंजीकृत लोगों को इसका सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ा। छत्तीसगढ़ में सभी किसान किसी न किसी तरह से अपनी मिट्टी में गाय का गोबर मिलाते हैं। जो कभी मुफ्त में मिलता था, उसके लिए उन्हें पैसे देना एक घोटाला है और यह किसी का भला नहीं कर रहा है।"

वहीं सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी इन आरोपों को राजनीति से प्रेरित बताकर खारिज करती है और बताती है कि गोधन न्याय योजना की आरएसएस [राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ] द्वारा प्रशंसा की गई है, जिससे भाजपा संबंधित है। इसके अलावा छत्तीसगढ़ की सफलता के बाद झारखंड और उत्तर प्रदेश में भी इसी तरह की योजनाएं शुरू की गई हैं।

कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता सुशील आनंद शुक्ला ने कहा, "बीजेपी इस बात को पचा नहीं पा रही है कि 15 साल सत्ता में रहने के बावजूद वह जो नहीं कर पाई, कांग्रेस सरकार उसे करने में कामयाब रही। अगर वे वास्तव में मवेशियों को बचाने और खेती के पारंपरिक तरीकों में विश्वास करते तो वे राज्य में कृषि पद्धतियों को इतना खराब नहीं करते। अब जब हम कुछ कर रहे हैं, तो वे इसमें काल्पनिक खामियां ढूंढ रहे हैं।"

कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि गाय के गोबर की बिक्री प्राकृतिक खेती के लिए बुरा है

राजनीति एक तरफ है लेकिन हर कोई इस योजना के प्रति आसक्त नहीं है और डेटा भी उस मोहभंग का समर्थन करता है। जब महामारी आई और नकदी का प्रवाह तंग हो गया तो गाय के गोबर को बेचने के लिए भीड़ लग गई। हालांकि गोबर की खरीद कम होती दिख रही है क्योंकि गौठानों की संख्या बढ़ने लगी है। बीबीसी ने अक्टूबर 2022 में बताया था कि जुलाई 2020 से मार्च 2021 के बीच राज्य ने 45 लाख क्विंटल से अधिक गाय-गोबर खरीदा था। हालांकि, अप्रैल 2021 से मार्च 2022 के बीच सिर्फ 21 लाख क्विंटल गोबर की खरीद हुई, जो पिछले साल के आधे से भी कम था। सरकार ने दिसंबर 2021 से दिसंबर 2022 के बीच 41.18 लाख क्विंटल गोबर की खरीद की।

गोधन न्याय योजना का एक मुख्य उद्देश्य सड़क पर आवारा मवेशियों को भी कम करना था, लेकिन मवेशी अभी भी राज्य और राष्ट्रीय राजमार्गों सहित सभी सड़कों पर आवारा घूमते हैं

राज्य में प्राकृतिक किसानों को गोबर बेचने का विचार अकल्पनीय लगता है। बीजापुर में गोठान समिति के अध्यक्ष ओम चौहान (34) के अनुसार गोबर विक्रेता लगभग हमेशा राउत या यादव समुदायों से होते हैं, न कि एसटी समुदाय से। उन्होंने बताया, "भले ही किसान अपनी गायों को गोठान भेजते हैं लेकिन एक पशुपालक होता है जो गोबर इकट्ठा करता है और उसे बेचता है। किसान अपने घर के गोबर को नहीं बेचते हैं क्योंकि वे इसका उपयोग करते हैं- घर की दीवारों और फर्श के प्लास्टर के रूप में, कीटनाशकों के रूप में और धार्मिक अनुष्ठानों में। पशु अपशिष्ट किसानों के लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।"

धमतरी में तीसरी पीढ़ी के किसान किशोरीलाल ठाकुर (58) कहते हैं, "हमने कभी भी रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं किया और हमेशा विभिन्न रूपों में मवेशियों के गोबर का उपयोग करते हैं। हम अपने बीजों को सप्तपर्णी से उपचारित करते हैं, जो गोमूत्र में सात प्रकार की पत्तियों को उबालकर बनाया गया घोल है। हम जुताई के समय भी ताजा गाय के गोबर का उपयोग करते हैं। नीम से उपचारित खाद का उपयोग भी उर्वरक के रूप में किया जाता है।"

30 से अधिक मवेशी पालने वाले ठाकुर कहते हैं कि वे गोबर को कभी नहीं बेचेंगे। उन्होंने कहा, "कोई भी किसान जो गैर-रासायनिक प्राकृतिक खेती करना चाहता है, वह अपनी खाद कभी नहीं बेचेगा।"

हाशिये के समुदायों के सहभागी विकास पर काम करने वाले एनजीओ 'प्रेरक' के प्रमुख रामगुलाम सिन्हा तीन दशकों के अधिक समय से स्थायी कृषि के क्षेत्र में काम करते हैं और प्राकृतिक खेती के तरीकों को प्रोत्साहित करते हैं। उनका मानना है कि यह योजना जमीन पर काफी हद तक अप्रभावी है।

उन्होंने बताया, "यह विचार सही हो सकता है, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि सभी चालू गौठान गोबर नहीं खरीद रहे हैं, भले ही ग्रामीण बेचना चाहते हों। वास्तव में यह योजना हमें एक सामाजिक-आर्थिक संघर्ष की ओर ले जा रही है क्योंकि इससे लाभान्वित होने वाले लोगों में ज्यादातर यादव या राउत समुदाय से हैं क्योंकि वे पारंपरिक रूप से किसान के बजाय चरवाहे हैं।"

सरकारी अधिकारियों के अनुसार गौठानों में उत्पादित खाद, रासायनिक खाद के लिए स्थापित प्रणालियों के माध्यम से बेची जाती है। नाम ना छापने की शर्त पर एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने बताया, "जिस तरह रासायनिक खाद उन लोगों को दी जाती थी, जिन्होंने कर्जमाफी के लिए स्थानीय कृषि-समितियों में पंजीकरण कराया था, उसी तरह हमने उन्हें यह खाद भी देना शुरू किया।" दिसंबर में इसकी बिक्री का एक बड़ा हिस्सा (लगभग 16.4 लाख क्विंटल) इसी माध्यम से बेचा गया था।


कई किसानों का कहना है कि वे गाय के गोबर की खाद नहीं खरीदते हैं क्योंकि वे वर्षों से खुद खाद बना रहे हैं।

प्रेरक के सिन्हा ने बताया, "आदिवासी लोग इस योजना का हिस्सा नहीं बन रहे हैं और सामान्य किसानों के लिए यह योजना रासायनिक उर्वरकों से दूर जाने के लिए पर्याप्त प्रभावी साबित नहीं हो रही है। सरकार को इस पर काम करने की जरूरत है।"


कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञों का कहना है कि जहां प्राकृतिक खेती की सटीक प्रकृति पर बहस चल रही है, वहीं यह निश्चित है कि इस प्रथा को खेत के तत्काल वातावरण के बाहर से जीरो आउटपुट की आवश्यकता है। छत्तीसगढ़ में काम कर रहे एक कृषि विशेषज्ञ जैकब नलीनेथन (60) ने कहा, "गोबर खाद के वितरण की टॉप-डाउन विधि समस्याग्रस्त है और इसे प्राकृतिक नहीं माना जा सकता है क्योंकि यह बाहरी हस्तक्षेप का उत्पाद है।"

वन अधिकार मंच के अजनबी ने कहा, "वर्तमान में जब एक आदिवासी को अपनी जमीन का पट्टा मिलता है तो धान की उच्च उपज वाली फसल उगाता है। उसे व्यावसायिक खेती के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। यदि सरकार वास्तव में पारंपरिक खेती को बचाना और प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करना चाहती है तो मौजूदा योजनाओं को पारंपरिक कृषि पद्धतियों के अनुरूप बनाने की आवश्यकता है।"

अजनबी ने आगे बताया, "सरकार एमएसपी के तहत केवल कुछ वस्तुओं की खरीद करके इसे जारी रखती है। अगर किसी को खेती के तरीकों में बदलाव लाना है तो दृष्टिकोण को बदलने और स्थानीय किस्मों पर ध्यान देने सहित विविधता को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। वर्षों से रासायनिक उपयोग से क्षतिग्रस्त हुई मिट्टी को पुनर्जीवित करने के लिए पहले स्थानीय लोगों को जागरूक करना होगा। सबसे पहले हमें स्थानीय लोगों के पारंपरिक प्रथाओं का सम्मान कर उन्हें मुख्यधारा में लाना चाहिए।"

मुख्यमंत्री के सहयोगी शर्मा इस बात से अवगत हैं कि इस योजना की सार्वभौमिक स्वीकृति नहीं है और उनका कहना है कि प्राकृतिक खेती के चक्र को फिर से शुरू करने का इरादा कभी नहीं था। उन्होंने बताया, "हम जो कर रहे हैं उसमें कुछ भी नया नहीं है। पारंपरिक कृषि तरीकों को बचाने और आवारा मवेशियों के कारण होने वाले उपद्रव को कम करने के लिए बस इसे संस्थागत बनाने की आवश्यकता महसूस की गई।"

रजनकट्टा के कमार लोग ज्यादातर निर्वाह खेती करते हैं। महिलाएं खेती में अधिक समय बिताती हैं, वहीं पुरुष अक्सर दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते हैं। लक्ष्मी कहती हैं, "जिस तरह से हमारे पूर्वज खेती करते आए हैं उसे छोड़ने का हमारा इरादा नहीं है, भले ही इसका मतलब अधिक पैसा न बनाना हो।"

वहीं लक्ष्मी एक वर्ष में अधिक फसलें उगाना चाहती है, ताकि यह उन्हें पूरे वर्ष वित्तीय स्थिरता प्रदान करे। उन्होंने कहा, "हम सरकार से एक बाजार चाहते हैं, ताकि हमारी बेहतर गुणवत्ता वाली उपज वैध मूल्य पर बेचा जा सके। अगर सरकार हमारे माडिया और कुटकी (बाजरा के दो प्रकार) के लिए एक बाजार बनाती है, तो हम दूसरी फसल भी उगाना शुरू करेंगे।"