मुम्बई: भारत ने साल 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को 1 बिलियन टन तक कम करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस लक्ष्य की पूर्ति में हमारी वानिकी अहम भूमिका निभा सकते हैं। वो वातावरण में मौजूद कार्बन का पृथक्करण कर उसे अवशोषित करने में मददगार हो सकते हैं। लेकिन समस्या ये है कि भारत में वनक्षेत्र लगातार घटता जा रहा है।

भारत में वनीकरण योजना चल रही है लेकिन इसकी गति बड़ी धीमी है। यहां ये जानना जरूरी है कि वन वृक्षों का आवरण पिछले 2 दशक (2001 से 2020 के बीच) में कम से कम 5% की दर से घटा है (हालांकि आधिकारिक आंकड़े कुछ और ही कहते हैं)।

भारत ने उस वैश्विक समझौते पर भी हस्ताक्षर नहीं किए हैं जिसमें वनों की कटाई पर रोक लगाने का फैसला लिया गया है। भारत ने 2017 से 2019 के बीच 66,000 हेक्टेयर यानी 0.65% आर्द्र प्राथमिक वनों को गंवा दिया है। ये वो वन हैं जिनको परिपक्व, प्राकृतिक और उष्णकटिबंधीय वन के तौर पर पहचान हासिल है। इन्हें दो साल के छोटे से दौर में न तो फिर से स्थापित किया गया और न ही पूरे तौर पर इसको साफ किया गया। ये वो आंकड़े हैं जो 7 नवम्बर 2021 को एक नामचीन जल संसाधन संस्थान मंच, ग्लोबल फ़ॉरेस्ट वॉच डैशबोर्ड Global Forests Watch dashboard से हासिल किए गए।

यहां ये भी बताना जरूरी है कि 2001 से 2020 के बीच भारत अपने कुल वन क्षेत्र का 5% यानी 1.93 मिलियन हैक्टेयर वन क्षेत्र खो चुका है। 2020 के आंकड़ों के मुताबिक ही ये सभी 5 मीटर से अधिक ऊंचाई वाली वनस्पतियां थीं। इसको इस तरह से भी समझ सकते हैं कि हमने दिल्ली के कुल क्षेत्रफल का 14 गुणा नुकसान झेला। डैशबोर्ड के अनुसार सिर्फ 2020 में ही भारत ने 1,32,000 हैक्टेयर जंगल गंवा दिये।

हालांकि आधिकारिक आंकड़े कुछ और ही कहते हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि भारत का वनक्षेत्र और ट्री कवर बढ़ा है। फॉरेस्ट सर्वे 2019 Forests Survey 2019 के अनुमान के मुताबिक 2017 से 2019 के बीच भारत के वन क्षेत्र 5,188 वर्ग मीटर यानी 0.65% बढ़ा है। इन आंकड़ों को पर्यावरणविद् लगातार झुठलाते आ रहे हैं, जिसके बारे में हम इस स्टोरी में आगे बात करेंगे।

कार्बन सिंक का लक्ष्य

'कार्बन सिंक' ऐसे प्राकृतिक या कृत्रिम भंडार हैं जो अनिश्चित अवधि के लिए कुछ मात्रा में कार्बन युक्त रासायनिक अवयवों की भंडारण करता है। इससे वातावरण में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा कम हो जाती है, इस तरह ये उद्देश्य का समाधान भी करते हैं। भारत ने 2015 से 2030 तक 2.5 से 3 बिलियन टन (अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की तुलना CO2 से करने के लिए प्रयुक्त मीट्रिक) कार्बन सिंक के भंडारण का लक्ष्य तय किया था। इस लक्ष्य की घोषणा भारत के वनक्षेत्र और वृक्ष आवरण को जोड़कर की गई थी। हालांकि इस लक्ष्य को काफी महत्वाकांक्षी बताया गया था, लेकिन यह अपने अर्थ, व्यावहारिकता तथा विज्ञान को लेकर बहस के चक्कर में फंसकर रह गया।

हाल ही में वैश्विक मंच पर 130 से भी ज्यादा देशों के नेता एकत्रित हुए। ये वो देश थे जो दुनिया के लगभग 90% जंगलों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्होंने ग्लासगो घोषणा के तहत ग्लास्गो लीडर्स डिक्लेरेशन ऑन फारेस्ट एंड लैंड यूज़ (Glasgow Leaders Declaration on Forest and Land Use) में 2030 तक वनों की कटाई पर रोक लगाने और भूमि अवक्रमण का प्रण लिया। लेकिन इस पर हस्ताक्षर नहीं किया।

पर्यावरण पर शोध करने वाले शोधार्थियों का कहना है कि भारत इसलिए इसका हिस्सा नहीं बना क्योंकि इसे लगता है कि हमारा वन आवरण का दायरा बढ़ा है। दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेन्टर फॉर पॉलिसी रिसर्च Centre for Policy Research की वरिष्ठ शोधार्थी कांची कोहली बताती हैं कि जिस क्षण आप वनों की कटाई न करने की इस प्रतिज्ञा को मान लेते हैं तो एक तरह से आप स्वीकार कर लेते हैं कि ऊर्जा संरक्षण में आप पिछड़ रहे हैं। कांची कोहली का कहना है कि हाल के वर्षों में वन आवरण में वृद्धि हुई है और वन क्षेत्र से बाहर की जमीन पर लगे वृक्षों और प्रतिपूरक वृक्षारोपण क्षेत्र का हिसाब लगाने पर पाएंगे कि कुल वन आवरण में वृद्धि हुई है।

वन आवरण की व्याख्या

हर दूसरे वर्ष फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (Forest Survey of India) यानी FSI भारत के वन संसाधनों का मूल्यांकन करता है और अपनी स्टडी को 'भारत वन राज्य रिपोर्ट' के जरिए प्रस्तुत करता है। इसे आमतौर पर वन्य रिपोर्ट कहते हैं। सर्वे रिपोर्ट 2019 के मुताबिक, 2017 के मुकाबले भारत के कुल वन आवरण में 0.56%, वृक्ष आवरण में 1.29% और वन एवं वृक्ष आवरण मिलाकर 0.65% की बढ़ोतरी दर्ज की गई है।

हालांकि ये निष्कर्ष विवादित है, इंडियास्पेंड इस पर पहले भी रिपोर्ट कर चुका है।

भारत के वन आवरण में जमीन के वो सभी टुकड़े निहित हैं जिनके वृक्षों का वितान या मंडपाकार आच्छादन 10% के करीब बढ़ता है और उसका क्षेत्रफल 1 हैक्टेयर के करीब बढ़ता है। लेकिन ये सब भूमि उपयोग की प्रकृति और पेड़ों के स्वामित्व और प्रजातियों की परवाह किए बिना है. "वृक्षों के आवरण" में पेड़ों के साथ भूमि के सभी हिस्से शामिल हैं, यहां तक कि एक हेक्टेयर से भी कम।

हालांकि वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों के अनुसार, वन आवरण की ये परिभाषा त्रुटिपूर्ण है। क्योंकि इसमें पौधरोपण, बाग और ऐसे ही हरित क्षेत्र शामिल हैं। इस मुद्दे को भारत के वन सन्दर्भ स्तर (FRL) पर संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (UNFCCC) द्वारा 2018 में प्रस्तुत की गयी तकनीकी मूल्यांकन रिपोर्ट में उठाया गया।

वन सन्दर्भ स्तर किसी भी वन का आधारभूत उत्सर्जन स्तर है।

इस मूल्यांकन के अनुसार- भारत में वे सभी भूमि शामिल हैं जो वन सीमा से मिलती हैं, जिसमें पेड़ की फसलें, फलों के बाग, बांस और कृषि वानिकी वृक्षारोपण शामिल हैं। भारत ने इसकी व्याख्या इस रूप में भी की है कि बागों का क्षेत्र, बांस और ताड़ की फसलों को विस्तार से नहीं बताया जा सकता या इन्हें रेखांकित नहीं किया जा सकता इसलिए इनके क्षेत्रों की जानकारी नहीं है। हालांकि अगर भारत ने वन को परिभाषित करने वाले आरंभिक बिंदु की पात्रता पूरी की है तो इन क्षेत्रों को वन सन्दर्भ स्तर में शामिल किया जाना चाहिए।

भारत सरकार ने मार्च 2021 में लोकसभा में बताया भी था कि अप्रैल 2008 से मार्च 2020 के बीच, भारत में वन (संरक्षण) अधिनियम के तहत लगभग 2,58,000 हेक्टेयर वन भूमि को गैर-वन उपयोग के लिए डायवर्ट किया गया है।

कांची कोहली कहती हैं, "वन आवरण में वृद्धि हमारे वनों की गुणवत्ता पर कोई टिप्पणी भर नहीं है, बल्कि अगर वन क्षेत्र की निश्चित सीमा से हम बाहर निकलते हैं, पौधरोपण करते हैं या फिर व्यावसायिक तौर पर पौधरोपण करते हैं तो इस आवरण में वृद्धि की दर और बढ़ जाती है। आपकी कार्यप्रणाली प्रतिक्रियात्मक होगी अगर आप दिखाना चाहते हैं कि निर्धारित जलवायु लक्ष्य की तरफ आप सही तरीके से बढ़ रहे हैं। इस दौरान ये संभव है कि आप पौधरोपण को वास्तविक वन से अलग तरीके से भी देखें।"

वनरोपण की धीमी गति

अतिरिक्त कार्बन सिंक बनाने के लिए भारत के लिए जरूरी है कि वो ग्रीन इंडिया मिशन को लागू करे। इसके तहत राष्ट्रीय राजमार्गों के दोनों ओर 1,40,000 किमी. की दूरी को वृक्षों से पूरी तरह कवर किया जाए। साथ ही गंगा नदी के किनारे पौधरोपण को विस्तार देकर ईंधन के रूप में लकड़ी या बायोमास की खपत को कम किया जाए।

इन परियोजनाओं को प्रतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन और योजना प्राधिकरण (CAMPA) द्वारा वित्त पोषित किया जाना है, जो प्रतिपूरक वनीकरण, राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम (NAP) और अन्य का प्रबंधन करने के लिए एक सरकारी निकाय है। देश में इस तरह की कई राज्य-स्तरीय वनीकरण योजनाएं हैं, मसलन तेलंगाना का तेलंगानाकु हरिता हरम

अब सवाल यह उठता है कि इन योजनाओं का प्रदर्शन कैसा रहा? फरवरी 2021 में UNFCCC के समक्ष रखी गई भारत की तीसरी द्विवार्षिक अद्यतन रिपोर्ट के मुताबिक, 2016 से नवंबर 2020 के बीच राष्ट्रीय हरित राजमार्ग योजना के तहत लगभग 19.37 मिलियन पेड़ लगाए गए थे। भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने कार्यक्रम के लिए 2019-20 में रुपये 300 करोड़ निर्धारित किए थे जबकि 2020-21 के लिए रुपये 500 करोड़। UNFCC को दिए गए ग्रीन इंडिया मिशन के आंकड़ों पर गौर करें तो 2015 से 2020 के बीच भारत ने 1,42,000 हैक्टेयर भूमि पर वृक्षारोपण का लक्ष्य रखा था लेकिन 1,12,000 हैक्टेयर (78%) पर ही वृक्ष रोपित हो पाए।

'अतिरिक्त' के अर्थ को लेकर कोई स्पष्टता नहीं

साल 2015 में संलग्न FSI रिपोर्ट के मूल्यांकन के अनुसार, भारत का वन और वृक्ष आवरण 29.62 बिलियन टन CO2eq को अवशोषित कर सकता है। साल 2030 तक इसके 31.87 बिलियन टन CO2eq तक बढ़ने का अनुमान है।

कार्बन डाइआक्साइड एक्विवैलेन्ट या CO2eq ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की एक इकाई है।

भारत अपना कार्बन सिंक बढ़ाना चाहता है लेकिन 2015 में कार्बन सिंक का लक्ष्य पेश करने के बाद (जो कार्बन उत्सर्जन को रोकने के लिए पेरिस समझौते के तहत राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान यानी एनडीसी का जो हिस्सा है) 'अतिरिक्त' शब्द को लेकर उठ रहा है उसको लेकर कोई स्पष्टता नहीं है. मसलन, अतिरिक्त 2.5 से 3 बिलियन कार्बन डाइऑक्साइड जो एक कार्बन सिंक के समकक्ष होगा की गणना का आधार वर्ष क्या होगा? ये अतिरिक्त की तुलना मौजूदा कार्बन सिंक्स से कैसे होगी?

हालांकि भारतीय वन सर्वेक्षण (Forest Survey of India) ने अपनी 2019 की रिपोर्ट 'इंडियाज एनडीसी ऑफ क्रिएटिंग ए एडिशनल कार्बन सिंक: पॉसिबिलिटीज, स्केल एंड कॉस्ट्स फॉर फॉर्मूलेशन स्ट्रैटेजी' शीर्षक से स्पष्टता की कमी का उल्लेख किया है।

एनडीसी की स्थापना के चार साल बाद 11 साल की समयसीमा को लेकर जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया है, आधारभूत वर्ष पर स्पष्टता और एनडीसी लक्ष्य की सही व्याख्या काफी अहम है। रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख किया गया है कि वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को इन दो अहम सवालों पर स्पष्टीकरण जारी करना चाहिए। इसके बिना एनडीसी लक्ष्य को प्राप्त करने की रणनीति विकसित नहीं की जा सकती।

कार्बन सिंक्स के लिए प्रयास और संसाधन जरूरी

स्पष्टता की कमी को देखते हुए एफएसआई रिपोर्ट में कार्बन सिंक्स बढ़ाने के लिए तीन तरह की स्थितियों पर विचार किया गया है। इनमें से सबसे कम खर्चीली योजना रुपये 1.14 लाख करोड़ की होगी। विशेषज्ञों का कहना है कि इसके लिए संसाधन, लागत और प्रयास पर विचार किया जाना चाहिए।

कैम्पा के साथ काम कर चुके भारतीय वानिकी विशेषज्ञ एन.एच. रविन्द्रनाथ कहते हैं, "अतिरिक्त का मतलब मौजूदा वक्त में उपलब्ध उपायों से ही जोड़ कर देखा जाना चाहिए। लेकिन इसके लिए सरकार को बेसलाइन ईयर पहले से ही तय करना होगा।" रविन्द्रनाथ का कहना है कि वानिकी एनडीसी हासिल किया जा सकता है अगर भारत को इसके लिए पैसा, जमीन और एक योजना मिल जाए।

रवींद्रनाथ ने कहा, "वनीकरण के इस स्तर के लिए 25 से 30 मिलियन हेक्टेयर भूमि की आवश्यकता होगी। रेलवे पटरियों और नदियों के किनारे रोपण केवल एक छोटा सा घटक है। भारत में, सभी भूमि किसी न किसी उपयोग में है, जो एक चुनौती है।"

"इसके अलावा, हमें इस एनडीसी को हासिल करने के लिए हर साल रुपये 1 लाख करोड़ की जरूरत है। हमें एक परिचालन योजना की जरूरत है कि हम कहां हैं और हम वहां कैसे पहुंचेंगे। साल की देरी से यह और मुश्किल हो रहा है।"

रवींद्रनाथ इस विचार के समर्थक हैं कि भारत को एनडीसी के लिए आधार वर्ष के रूप में 2020 निर्धारित करना चाहिए और चूंकि वनों के नष्ट होने के बाद मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन को रिचार्ज होने में दशकों लग जाते हैं लिहाजा मौजूदा वनों को भी संरक्षित किया जाना चाहिए।

कार्बन सिंक्स से जुड़े सवालों का मूल्यांकन

साल 2018 में पर्यावरण और संसाधनों की वार्षिक समीक्षा में प्रकाशित 'इंडिया एंड क्लाइमेट चेंज' नामक एक पेपर में कार्बन की प्रतिबद्धता को एक कुछ आलोचनात्मक मसले उठाए थे। पहला, भारत के वनों में वृक्षारोपण को शामिल करने के कारण भारतीय वनों की कार्बन को अलग करने की क्षमता को कम करके आंका जा सकता था। पेपर में इस बात का भी उल्लेख किया गया कि कार्बन उत्सर्जन को मापते वक्त आधिकारिक अनुमानों में वनों की कटाई और उसके नष्ट होने को शामिल नहीं किया गया। इस पेपर में ये भी लिखा गया, "कुल मिलाकर भारत का आधिकारिक रवैया जताता है कि भारत के वन, कार्बन को अलग करने की क्षमता रखते हैं और आगे भी ऐसा करने में सक्षम हैं। कुछ एकेडमिक स्टडी इस दावे पर जैवभौतिकीय आधार पर सवाल भी उठा रहे हैं, लेकिन इसके समाधान को लेकर कोई पहल नहीं की गई है।"

दिल्ली स्थित थिंक टैंक दी एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट (टेरी) की मानें तो कार्बन सिंक लक्ष्य बेहद मुश्किल और महत्वाकांक्षी लक्ष्य है। इसे पाने के लिए कई तरह के सुधार जरूरी हैं। ये तभी संभव होगा जब सरकार की ओर से मजबूत राजनीतिक और वित्तीय प्रतिबद्धता दिखाई जाएगी। टेरी का अनुमान है कि जरूरत के हिसाब से राज्य और केन्द्र पर जरूरत के अनुपात में सालाना 82% का अंतर है। राज्य और केन्द्र की विभिन्न योजनाओं पर फिलहाल रुपये 11,256 करोड़ खर्च हो रहा है और जरूरत रुपये 60,000 करोड़ की है। इसके अतिरिक्त वन और वृक्ष आवरण कर 2.5 से 3.0 बिलियन टन का CO2eq का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकेगा।

विशेषज्ञों का ये भी कहना है कि कार्बन सिंक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए व्यापक वनीकरण और पुन: वनरोपण वाली भारत की खोज स्थानीय समुदाय को प्रभावित करेगी। वन अधिकारों को लेकर काम करने वाले और स्वतंत्र शोधार्थी तुषार दास कहते हैं, "कई स्टडीज और रिपोर्ट्स से पता चला है कि कैम्पा पौधरोपण वन पारिस्थितिकी के लिए विनाश का सबब बन रहे हैं।"

दास कहते हैं, "जमीन पर व्यापक पौधरोपण से एक ही प्रजाति के पेड़ उग रहे हैं जो भूमि के लिए सही नहीं हैं और ये वन समुदाय के अधिकारों और जैव विविधता को भी प्रभावित कर रहे हैं। लिहाजा मौजूदा शमन नीतियों को मौलिक रूप से बदलने की जरूरत है। यहां जरूरी है कि इसके लिए वन अधिकार आधारित जलवायु प्रतिबद्धता हो।"

(तन्वी देशपांडे मुंबई में इंडियास्पेंड की विशेष संवाददाता (पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन) हैं।)