उधमपुर: जम्मू और कश्मीर का उधमपुर जिला एक समय बसंत, पीपल के पेड़ और अफवाहों के लिए लोकप्रिय था। यहां के लोगों ने समय के साथ अपनी बावड़ियों या प्राकृतिक झरनों को घटते और खत्म होते देखा और जल्द ही उन्होंने इसे उधमपुर के भाग्य के रूप में स्वीकार कर लिया। यहां के सभी जल स्रोत एक दशक पहले तक स्थानीय लोगों के लिए पानी के प्राथमिक स्रोत थे, लेकिन अब वे सूख गए हैं। कुछ महीने पहले ही सूकी करलाई गांव के लोगों ने जीवन देने वाले इन जल स्त्रोतों को पुनर्जीवित करने का फैसला किया।

फरवरी महीने में यहां के लोगों ने खत्म हो चुके झरनों को पुनर्जीवित करने का कार्य शुरू किया और केवल ढाई महीने में ही वे उनमें से छह को पुनर्जीवित करने में कामयाब रहे। उन्होंने जिस आखिरी जल स्त्रोत को फिर से जिंदा किया, वह एक वृद्धाश्रम के पीछे स्थित है। सूकी करलाई गांव के इस अभियान से प्रेरित होकर जिले में आसपास के अन्य गांवों में भी इसी तरह के प्रयास किए जाने लगे। इसने जम्मू-कश्मीर के प्रशासकों का भी ध्यान आकर्षित किया, जिन्होंने हाल ही में इस क्षेत्र की 877 बावड़ियों को जियो टैग किए और उनमें से कई को बहाल करने का वादा किया है।

यह सब कैसे शुरू हुआ?

लगभग तीन साल पहले, सूकी करलाई गांव के एक 80 वर्षीय बुजुर्ग दीवान चंद ने रिपोर्टर के साथ घटती हुई बावड़ियों के बारे में अपनी चिंता साझा की थी। उन्होंने कहा कि जिले में बावड़ियों की संख्या 1,000 से घटकर महज 100 या 110 रह गई है। उन्होंने इसके पीछे के कारण को गिनवाते हुए कहा कि इसका मुख्य कारण मानव गतिविधियों जैसे कि बावड़ियों के आसपास इमारतों का निर्माण, बार-बार बाढ़, रख-रखाव की कमी और व्यक्तिगत रूप से लोगों के घरों में नल के पानी की उपलब्धता है।

यह कहानी जैसे ही अखबारों और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर साझा की गई तो घटते जलस्त्रोतों के इस मुद्दे ने आसपास के गांवों के कुछ लोगों का ध्यान खींचा। इसके बाद उन्होंने वजूद खत्म कर चुकी बावड़ियों को पुनर्जीवित करने का फैसला किया।

फरवरी की एक शाम की बात है, जब सूकी करलाई गांव के रहने वाले व जम्मू-कश्मीर सरकार के साथ बागवानी और विपणन निरीक्षक डॉ. विजय अत्री (38), छात्र दीपक कुमार (28), छात्र केशव शर्मा (18) और जम्मू एवं कश्मीर राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन के ब्लॉक प्रोग्राम मैनेजर नरेश कुमार ने प्राकृतिक जल स्त्रोतों का पता लगाकर उन्हें साफ करने का फैसला किया।

डॉ. अत्री ने बताया कि भूजल स्त्रोत की खुदाई और साफ करने के लिए उन्हें कुछ जरूरी उपकरणों की आवश्यकता थी, जिसका उन्होंने प्रबंध किया।

इस टीम ने 20 मार्च को दो पूरी तरह से खत्म हो चुके झरनों को जिंदा करने का काम किया, जिसे स्थानीय तौर पर 'गर्ने आली बावलियां' के नाम से जाना जाता है। साल 2007 तक इनकी हालत ठीक थी और इन्हें उपयोग में लाया जा रहा था, मगर इसी समय उधमपुर प्रशासन ने गांव के निवासियों के लिए नल द्वारा घर तक जल पहुंच सेवा स्थापित कर दी, जिसके बाद इन बावड़ियों का अस्तित्व धीरे-धीरे खत्म होता चला गया।

डॉ विजय अत्रि और रमेश सल्लन गर्ने आली बावड़ी के आसपास से जंगली घास साफ़ करते हुए। फोटो: बिवेक माथुर

आमतौर पर एक छोटी बावली को साफ करने में टीम को दो से तीन घंटे का वक्त लगता है, जबकि बड़ी बावली में एक या दो घंटे अतिरिक्त भी लग जाते हैं।

इन दो बावड़ियों से मिली सफलता के बाद, जब टीम बिलैन बावली क्षेत्र के पास अगले मृत जलस्त्रोत को पुनर्जीवित करने के लिए गई तो दो और लोग भी स्वेच्छा से काम करने के लिए उनके साथ जुड़ गए। जिनमें एक दुकानदार संजय कुमार (42) और दैनिक मजदूरी करने वाले रमेश सल्लन (46) शामिल हैं। इसके बाद ये लोग भी प्राकृतिक जल स्त्रोतों को बचाने की मुहिम में अपना योगदान देने लगे।

रमेश सल्लन ने पुरानी यादें ताजा करते हुए बताया कि ये बावड़ियां ऊधमपुर की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा हैं और जब वह बच्चे थे तो अपने दोस्तों के साथ यहां नहाने भी आते थे। रमेश ने बताया कि स्थानीय लोग इन प्राकृतिक जल स्त्रोतों से ही भगवान शिव (शिवलिंग) को जल अर्पित करते थे।

अभियान से बढ़ी जागरूकता

उधमपुर के डिप्टी कमिश्नर (डीसी), इंदु कंवल चिब ने बावली की सफाई कर रहे छह लोगों का एक वीडियो ट्विटर पर देखा। उन्होंने इस वीडियो को साझा करते हुए कैप्शन दिया, "ये उधमपुर के बावड़ी वॉरियर्स हैं...मैं भी आपके साथ काम करना चाहती हूं। किसी बावड़ी की सफाई के लिए मुझे भी सूचित करें।"

नरेश कुमार का मानना है कि डीसी वास्तव में बावड़ी की सफाई करने में असमर्थ थे, लेकिन उनके एक ट्वीट ने काफी मदद कर दी। "डीसी के एक ट्वीट की वजह से यह पहल लोगों तक पहुंच पाई और वे इससे प्रेरित हुए। इसके बाद जिले भर के लोगों ने अपने इलाकों में खत्म हो चुके झरनों को फिर से जीवंत करने के लिए स्वेच्छा से काम करना शुरू किया। उन्होंने इससे संबंधित तीन विभिन्न पोस्ट को साझा किया, जिसके बाद पंचायत सदस्य भी इस पहल में अपना योगदान देने के लिए आगे आए।

चिब का कहना है कि रियासी (जम्मू प्रांत में एक जिला) के डीसी के रूप में उन्होंने जल संरक्षण पर बहुत काम किया है और स्थानीय लोगों के इस पहल का वह पूरी तरह से समर्थन करती हैं। उन्होंने कहा, "हम उनके सुझावों पर विचार करने के लिए तैयार हैं और उनके साथ काम करना बहुत अच्छी बात होगी।"

इस अभियान ने अन्य जिलों का भी ध्यान आकर्षित किया है। जम्मू और कश्मीर नेशनल पैंथर्स पार्टी के पूर्व नेता पवन देव सिंह ने रामनगर क्षेत्र में कुछ बावड़ियों को साफ करने में मदद की। इसी तरह नल्लाह गौरान गांव के सामाजिक कार्यकर्ता, बबलू कोहली (31) ने भी अपने पैतृक गांव में कुछ बावड़ियों की सफाई का काम किया।

गर्ने आली बावड़ी पहले (ऊपर) और सफाई के बाद (नीचे)। फोटो: बिवेक माथुर

फोटो: बिवेक माथुर

बावड़ी का इतिहास

सामाजिक कार्यकर्ता अशोक शर्मा के अनुसार बावड़ी एक तरह के झरने हैं, जिनका उपयोग पानी के मुख्य स्रोतों के रूप में लोगों द्वारा पुराने समय से किया जाता रहा है। "डोगरा शासन के दौरान इन सुंदर झरनों को बावड़ियों में विकसित किया गया था। इसका उपयोग पानी के स्रोत के अलावा पीपल के पेड़ों की ठंडी छाया के नीचे थके हुए यात्रियों के आराम स्थान के रूप में भी किया जाता था," शर्मा ने 2015 में लिखा था।

सूकी करलाई गाँव के निवासी राम दास (69) और राज कुमार (62), याद करते हुए बताते हैं, "बावड़ियों का पूराना रूप भूजल स्रोत के रूप में था, जिसे डोगरी भाषा में डोम या गूंगा कहा जाता था। इससे पूरे वर्ष मीठा पानी प्राप्त किया जा सकता है। चूंकि यह भूजल है इसलिए सर्दियों में गर्म होता है और पृथ्वी की सतह के नीचे लगातार तापमान के कारण गर्मियों में ठंडा हो जाता है। सभी धर्मों के लोग बावड़ी के पानी का उपयोग करते हैं।"

जब इन गुंबदों को सीमेंट किया जाता है, तो उन्हें बावड़ी कहा जाता है। कुछ बावड़ी वर्ग के आकार के होते हैं, कुछ गोल होते हैं, जबकि कुछ का आकार त्रिकोणीय होता है। उधमपुर शहर में तो षटकोणीय बावड़ी भी हैं।

बावड़ियों का धार्मिक महत्व भी रहा है। इंडिया वाटर पोर्टल में चंदर मोहन भट के लेख के अनुसार देविका मंदिर में आठ बावड़ियों का एक समूह है, जिसमें प्रत्येक बावड़ियों का अपना महत्व है। भट लिखते हैं, "उधमपुर में बत्तल बलियान के पास लोंदाना गांव में एक प्राकृतिक झरना है और यहां वसंत ऋतु में डुबकी लगाने से त्वचा की बीमारियों से पीड़ित लोग ठीक हो जाते हैं। माना जाता है कि ऐसा बाबा लोंदाना की शक्ति के कारण होता है।"

दास कहते हैं कि दुख की बात है कि हमने अपनी अधिकांश बावड़ियों को खो दिया। उन्होंने आगे कहा, "नल से पानी की व्यवस्था घर पर होने के बाद लोगों ने बावड़ियों पर जाना बंद कर दिया, जिसकी वजह से ये धीरे-धीरे खत्म होते गए। कुछ अन्य बावड़ियां बाढ़ में पूरी तरह से दब गए और उन्हें पुनर्जीवित करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया था।"

भविष्य की योजनाएं

बावड़ियों को बचाने के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं को पता है कि इन्हें पुनर्जीवित करने का यह बड़ा काम मुट्ठी भर लोगों द्वारा पूरा नहीं किया जा सकता है। डॉ अत्री कहते हैं, "लेकिन हमें खुशी है कि हमारी पहल धीरे-धीरे गति प्राप्त कर रही है। हमें उम्मीद है कि इस सामुदायिक भागीदारी मॉडल से हमारी विरासत को संरक्षित करने में मदद मिलेगी।"

उन्होंने आगे कहा, "अपने दम पर लगभग 20 बावड़ियों को पुनर्जीवित करने की उपलब्धि हासिल करने के बाद, हमने इनके पानी को संग्रहित करने में जिला प्रशासन से मदद लेने की योजना बनाई है, ताकि इसे पाइपों के माध्यम से लोगों के घरों तक पहुंचाया जा सके।"

दीपक कुमार ने जोर देकर कहा कि जिला प्रशासन को जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने के इस अभियान में शामिल होने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा, "अन्यथा, ये झरने बाढ़ और खरपतवार के बढ़ने या फिर गाद से ढकने की वजह से फिर से बर्बाद हो जाएंगे। अगर ऐसा होता है तो हमारी मेहनत का कोई फायदा नहीं होगा। हम जल निकायों को केवल साफ कर सकते थे। बाहरी खतरों से उनकी स्थायी सुरक्षा के लिए हमारे पास सीमेंट की दीवारों से बावड़ियों को कवर करने के लिए पैसा नहीं है। यह प्रशासन द्वारा ही किया जा सकता है।"

डीसी चिब ने हाल ही में खुलासा किया है कि उधमपुर प्रशासन ने जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 877 बावड़ियों को जियोटैग किया है। उन्होंने कहा, "मैं कह सकती हूं कि बावड़ियों की संख्या इससे कहीं अधिक है। हम सटीक संख्या खोजने की कोशिश कर रहे हैं। उधमपुर के शहरी इलाकों जैसे ऊधमपुर, रामनगर और चेनानी में सैकड़ों सुंदर बावड़ियाँ हैं। हम उनके संरक्षण और बहाली के लिए कुछ बड़ी योजनाएं बना रहे हैं। बाद में उन विवरणों को उजागर किया जाएगा।"

जहां तक इन झरनों के पानी के भंडारण की बात है, चिब कहते हैं, "हम एक ऐसी परियोजना पर काम कर रहे हैं, जिसका उद्देश्य यह अध्ययन करना है कि सभी बावड़ियों का पानी पीने योग्य है या नहीं। कुछ बावड़ियों के लिए, सार्वजनिक स्वास्थ्य इंजीनियरिंग (PHE) विभाग ने स्पष्ट रूप से उल्लेख कहा है कि उनका पानी पीने योग्य नहीं है। ऐसे मामलों में, हमारी योजनाएं अलग होंगी। बहुत जल्द, हम बावड़ियों के पूर्ण संरक्षण को लेकर बनाई गई हमारी योजनाओं का खुलासा करेंगे।"

लेकिन एक सवाल यह है कि नल का पानी उपलब्ध होने पर लोग झरनों के पानी का उपयोग क्यों करेंगे। इसका जवाब देते हुए डॉ अत्री कहते हैं, "जो पानी हमें पाइपों के माध्यम से मिलता है, वह तवी नदी से आता है, जो जल प्रदूषण बढ़ने के कारण साफ नहीं है। बावड़ियों का मीठा पानी इसका एक विकल्प हो सकता है। लोग झरनों से पानी ले सकते हैं, जैसा कि वे साल 2006-07 तक करते थे।"

(यह लेख 101रिपोर्टर्स की ओर से सामुदायिक प्रयास से होने वाले सकारात्मक बदलाव की कड़ी का हिस्सा है। इस कड़ी में हम यह पता लगाएंगे कि कैसे समाज के लोग किस तरह से अपने स्थानीय संसाधनों का विवेकपूर्ण इस्तेमाल करते हुए अपने लिए रोजगार के अवसर पैदा कर रहे हैं और समाज में एक बड़ा बदलाव भी लेकर आ रहे हैं।)

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