मुंबई। पिछले दो मॉनसून के दौरान, बेहद भारी बारिश की घटनाओं की वजह से शायद ऐसी धारणा बन गई है कि भारत में गर्मियों में होने वाली मॉनसून की बारिश बढ़ गई है। हालांकि, ऐसा नहीं है। भारत सरकार और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन के आकलन के मुताबिक, पिछले 60 सालों में यह बारिश 6 प्रतिशत कम हुई है। 2021 की गर्मियों का मॉनसून वैसे तो 'सामान्य' था, लेकिन कई जगहों पर स्थानीय स्तर पर भारी बारिश की घटनाएं हुईं और बारिश के प्रसार के स्वरूप में काफ़ी हद तक अंतर देखा गया। इन आकलनों ने चेतावनी दी है कि आने वाले समय में बारिश की घटनाएं और बारिश के स्वरूप का यह अंतर बढ़ता जाएगा।

भारत में एक साल में होने वाली कुल बारिश में, दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून यानी गर्मियों के मॉनसून का योगदान 70 प्रतिशत है। यह मॉनसून देश की कृषि अर्थव्यवस्था के लिए बेहद ज़रूरी है, क्योंकि इस अर्थव्यवस्था का देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में योगदान 11 प्रतिशत है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने 1 अक्टूबर को बताया कि 1961 से 2010 के लंबी अवधि के औसत (एलपीए) 880 मिलीमीटर की तुलना में, साल 2021 के मॉनसून सीज़न में 870 मिलीमीटर बारिश हुई है। एलपीए के 99 प्रतिशत के बराबर बारिश होने की वजह से, इस साल के मॉनसून को सामान्य माना गया है।

आईएमडी के डेटा से पता चलता है कि यह 'सामान्य' मॉनसून भी अभूतपूर्व था। शुरुआत में, जून महीने के सामान्य स्तर की तुलना में 110 प्रतिशत की अच्छी बारिश हुई, जुलाई में यह घटकर 93 प्रतिशत पर पहुंची, अगस्त में काफी घटकर 76 प्रतिशत पहुंच गई, जो कि सूखे का स्तर माना जाता है। सितंबर में बारिश ने जोर पकड़ा और यह स्तर बढ़कर 135 प्रतिशत पहुंच गया। जुलाई और सितंबर में अलग-अलग जगहों पर स्थानीय स्तर पर हुई भारी बारिश की घटनाएं, खासकर पश्चिमी तट पर हुई बारिश पिछले पांच सालों में सबसे ज़्यादा थी। भारी बारिश के चलते आई बाढ़ की वजह से जुलाई महीने में महाराष्ट्र में और सितंबर महीने में गुजरात में सैकड़ों लोगों की जान चली गई। 9 अक्टूबर को हैदराबाद और सिकंदराबाद में दो घंटों के भीतर बादल फटने की घटनाएं हुईं, जिसकी वजह से बाढ़ जैसे हालात पैदा हो गए। साल 2021 की गर्मियों के मॉनसून के खत्म होते-होते ताउते और गुलाब जैसे चक्रवात आए। इस तरह, चक्रवातों की संख्या बढ़ गई। इंडियास्पेंड की मई 2021 में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, चक्रवातों की यह संख्या आने वाले समय में और भी बढ़ सकती है।

अगस्त महीने में, रेटिंग एजेंसी CRISIL की एक रिपोर्ट में देश भर में होने वाली बारिश के विस्तार के स्वरूप को लेकर चिंता जताई गई थी। इस बीच यह भी देखा गया कि खरीफ़ (मॉनसून) की फ़सल की बुवाई के महीनों जुलाई और अगस्त में यह मॉनसून "रुक सा गया"। रिपोर्ट में इस बात पर भी चिंता जताई गई कि जलाशयों में पानी का स्तर का लंबे समय के स्तर से नीचे चला गया। फिर सितंबर का महीना आया और ज़रूरत से ज़्यादा बारिश हुई। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, अक्टूबर के पहले हफ़्ते में जलाशयों में पानी का स्तर और खरीफ़ की फ़सल का क्षेत्रफल दोनों बढ़ गए।

हालांकि, इस सीजन में अगस्त के आखिर तक उत्तर और पूर्वोत्तर भारत में हुए बारिश के घाटे को, सितंबर की यह बारिश पूरा नहीं कर सकी। पूर्वोत्तर भारत इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित रहा। 8 अक्टूबर तक के आंकड़ों के मुताबिक, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलजी के सूखा मॉनिटर ने सूखे का स्तर काफी ज़्यादा दिखाया। इसके मुताबिक, पूर्वोत्तर भारत और गंगा के मैदानी क्षेत्र में इस सूखे का असर सबसे ज़्यादा देखा गया।

विशेषज्ञों ने हमें बताया कि सितंबर महीने में असामान्य रूप से हुई यह बारिश मॉनसून सत्र की उन फसलों को बुरी तरह से प्रभावित कर सकती है, जो कम समय में तैयार हो जाती हैं। 1 अक्टूबर को केंद्र सरकार ने कहा कि सितंबर महीने के आखिर में हुई बेमौसम बारिश की वजह से, हरियाणा और पंजाब में धान की फसल कटने में देरी हुई। विशेषज्ञों का कहना है कि इससे भी बुरा यह है कि अक्टूबर महीने में होने वाली यह बारिश पिछले कुछ सालों में इतनी अनिश्चित हो गई है कि किसानों को सलाह देना भी मुश्किल हो गया है। दूसरी तरफ़, साल 2021 के मॉनसून की बढ़ाई गई तारीखों के बाद तक भी मॉनसून का लौटना जारी रहा।

मॉनसून की इन अनिश्चितताओं की वजह से, जलवायु परिवर्तन के आकलन में अंतर आएगा। इसकी वजह से, इस सदी के अंत तक मॉनसून की कुल बारिश में जलवायु परिवर्तन के योगदान में भी बढ़ोतरी होगी। विशेषज्ञों ने हमें बताया कि हाल के मॉनसून से यह पता चला है कि बारिश के स्वरूप में अंतर और भारी बारिश की घटनाओं में बढ़ोतरी अभी से शुरू हो गई है।

अलग-अलग समय और क्षेत्र के हिसाब से बारिश में अंतर

साल 2021 में, देशभर में गर्मी के मॉनसून में हुई बारिश अलग-अलग समय और चार अलग-अलग क्षेत्रों में असमान रूप से हुई। ये चार क्षेत्र हैं: दक्षिणी प्रायद्वीप (कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल और द्वीपों वाले केंद्र शासित प्रदेश), मध्य भारत (गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा), पूर्व और पूर्वोत्तर भारत (बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर के अन्य राज्य), और उत्तर-पश्चिमी भारत (राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, चंडीगढ़, पंजाब, जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश)।

जून महीने में, सभी क्षेत्रों में सामान्य से ज़्यादा बारिश हुई। जुलाई महीने में, चार में से तीन क्षेत्रों में बारिश में सामान्य स्तर से कमी होनी शुरू हुई। इसके उलट, जुलाई महीने में दक्षिण के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में बारिश में जुलाई के सामान्य स्तर से 26 प्रतिशत ज़्यादा बारिश हुई। अगस्त महीने में, पूर्व और पूर्वोत्तर क्षेत्र को छोड़कर बाकी सभी क्षेत्रों में सामान्य से कम बारिश हुई। जलवायु और ऊर्जा परिवर्तन के रणनीतिक संचार से जुड़े दिल्ली आधारित उपक्रम क्लाइमेट ट्रेंड्स के मुताबिक, अगस्त 2009 के बाद 2021 का अगस्त महीना ऐसा रहा जिसमें 24 प्रतिशत कम बारिश हुई और इतने सालों में पहली बार अगस्त महीने में सूखे की स्थिति पैदा हुई।

क्लाइमेट ट्रेंड्स के मुताबिक, अगस्त में 24 प्रतिशत की कमी से रिकवर कर पाने की संभावना कम थी। साल 2009 में, अगस्त महीने में 26 प्रतिशत कम बारिश हुई थी और सितंबर में यह कमी 19 प्रतिशत की थी। वहीं, साल 2021 के सितंबर में बदलाव हुआ। अगस्त की तुलना में 35 प्रतिशत ज़्यादा बारिश हुई। आईएमडी के मुताबिक, पिछले 28 सालों में सितंबर महीने में हुई यह बारिश दूसरे सबसे ज़्यादा है। इससे पहले सितंबर महीने में सबसे ज़्यादा बारिश 2019 में हुई थी। इसी वजह से, साल 2021 के मॉनसून का कुल स्तर सामान्य स्तर तक पहुंच सका।

सितंबर महीने के बाद, भौगौलिक स्तर पर बारिश में असमानता कम हो गई। सिर्फ़ पूर्व और पूर्वोत्तर क्षेत्र ही ऐसे थे जहां बहुत कम बारिश हो रही थी।

सितंबर महीने में भारी बारिश के बावजूद, उत्तर भारत के कई राज्यों के जलाशय ऐसे हैं जिनमें पानी का स्तर कम है। यह डेटा केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) की ओर से दिया गया है।

अगस्त के मध्य में, CRISIL की रिपोर्ट में इस बात पर चिंता जताई गई थी कि जलाशयों में पानी का स्तर सामान्य से कम है। इसके अलावा, जलाशयों वाले 19 में से 10 राज्यों में पानी का स्तर 10 साल के औसत से भी कम है। इस रिपोर्ट में इस बात को लेकर आगाह किया गया था कि अगर बारिश में और कमी होती है तो इन राज्यों में जलाशयों के आसपास वाले इलाकों में सिंचाई के लिए पानी की भारी कमी हो जाएगी। हालांकि, 7 अक्टूबर तक देश के ज़्यादातर जलाशयों में पानी का स्तर सामान्य हो चुका था। सीडब्ल्यूसी के मुताबिक, सिर्फ़ हिमाचल प्रदेश और पंजाब ही ऐसे थे जहां जलाशयों में पानी का स्तर 10 साल के औसत से क्रमश: 26 प्रतिशत और 41 प्रतिशत कम था। ऐसा तब हुआ जब पंजाब में सितंबर महीने में 77% ज़्यादा बारिश हुई।

पश्चिमी घाट ने भुगता खामियाजा

आईएमडी के डेटा से पता चलता है कि साल 2021 में हुई भार बारिश की घटनाएं, पिछले पांच साल में दूसरी सबसे कम थीं। हालांकि, इससे इस साल अगस्त के महीने में बेहद कम बारिश और सितंबर के महीने में बहुत ज़्यादा बारिश का असामान्य पैटर्न देखने को मिलता है। भारी बारिश की घटनाओं में, बहुत भारी बारिश (115।6 से 204।4 मिमी) और बहुत ज़्यादा भारी बारिश (204।4 मिमी से ज़्यादा) की घटनाएं शामिल हैं। एक तरफ जहां अगस्त महीने में पिछले पांच साल की तुलना में भारी बारिश की घटनाएं सबसे कम हुईं, वहीं सितंबर महीने में हुई भारी बारिश की घटनाएं पिछले पांच साल में सबसे ज़्यादा थीं। इसके अलावा, सितंबर महीने में पिछले पांच सालों में बहुत ज़्यादा भारी बारिश की घटनाओं की संख्या 2017 के बाद सबसे ज़्यादा थी।

पूरे देशभर में भारी बारिश की घटनाएं हुईं। हालांकि, बहुत ज़्यादा भारी बारिश की घटनाएं ज़्यादातर पश्चिमी कोंकण तट से लगे राज्यों, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा और कर्नाटक में ही देखी गईं।

आईएमडी के राष्ट्रीय मध्यम अवधि मौसम पूर्वानुमान केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक आर. के. जेनामनि ने इंडियास्पेंड को बताया, 'इस साल बहुत ज़्यादा भारी बारिश की घटनाओं का नुकसान महाराष्ट्र को उठाना पड़ा।' उन्होंने आगे कहा, 'रायगढ़ में आई बाढ़ ने बहुत नुकसान पहुंचाया। हमने कभी ऐसा नहीं देखा कि महाराष्ट्र में लगातार दो दिन तक 500 मिमी से ज़्यादा बारिश हुई हो। उस एक हफ़्ते में कोंकण-गोवा बेल्ट (जुलाई में) में हुई बारिश का योगदान, इस सीज़न की कुल बारिश में सबसे ज़्यादा था।'

सितंबर महीने में ऊष्णकटिबंधीय तूफान बनना, उदाहरण के लिए, मॉनसून के दौरान तूफान बनना भी इस सीज़न की काफी दुर्लभ घटना थी। गुलाब चक्रवात, 21वीं सदी का ऐसा तीसरा चक्रवात था जो सितंबर महीने में आया। बंगाल की खाड़ी से उठा यह चक्रवात, 26 सितंबर को उत्तरी आंध्र प्रदेश के तट पर श्रीकाकुलम के आसपास पहुंचा और जमकर बारिश हुई। इससे भी दुर्लभ बात यह हुई कि बारिश के बाद गुलाब चक्रवात का बचा हुआ हिस्सा प्रायद्वीपीय भारत को पार करके अरब सागर तक पहुंच गया और वहां यह बेहद भीषण चक्रवाती तूफान शाहीन बनकर फिर से उभरा।

बेमौसम की बारिश से प्रभावित होती हैं कम समय वाली मॉनसूनी फसलें

सितंबर में हुई बेमौसम बारिश के अलावा, एक बात यह भी थी कि साल 2021 का मॉनसून अपने तय समय में वापस नहीं लौटा। 15 मई, 2020 को आईएमडी ने 64 में से 58 शहरों में मॉनसून के आने की तारीखों में बदलाव किया था। इसके अलावा, 52 शहरों में मॉनसून के लौटने की तारीखें बदली गईं। पिछले पांच दशकों में मॉनसून के आने और लौटने के पैटर्न के हिसाब से बदली गई ये तारीखें, 1 जून 2020 से लागू हो गई थीं। कुछ क्षेत्रों जैसे कि उत्तर-पश्चिमी राजस्थान, उत्तर-पश्चिमी महाराष्ट्र और उत्तर-पश्चिमी गुजरात में मॉनसून के लौटने की तारीखों में 10 से 14 दिन का बदलाव किया गया। उदाहरण के लिए, जैसलमेर में इस बात की संभावना जताई गई कि 1 सितंबर की बजाय अब मॉनसून 17 सितंबर को लौटेगा।

इसके बावजूद, राजस्थान और उत्तर-पश्चिमी भारत के कई दूसरे राज्यों में मॉनसून का लौटना नए समय के हिसाब से भी नहीं हुआ। इस साल का मॉनसून, तय समय से तीन हफ़्ते बाद 6 अक्टूबर तक बरकरार रहा। 2021 तीसरा लगातार साल है जब भारत में मॉनसून के आने और लौटने में देरी हुई है। 2020 में मॉनसून का लौटना 28 सितंबर को शुरू हुआ था, वहीं 2019 में मॉनसून 9 अक्टूबर को लौटा था। विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह, बेमौसम की बारिश की वजह से उन फसलों पर बुरा असर पड़ेगा जो मॉनसून सत्र में कम समय में तैयार हो जाती हैं।

भारतीय महाद्वीप में, फसलों की बुवाई के दो मुख्य मौसम, खरीफ़ (मॉनसून की शुरुआत में बुवाई) और रबी (मॉनसून के आखिर में बुवाई) हैं। इसलिए, खरीफ़ के मौसम की फसलें पूरी तरह से मॉनसून पर निर्भर हैं। कृषि मंत्रालय के डेटा के मुताबिक, 17 सितंबर तक भारत में खरीफ की फसलों की बुवाई 110।5 मिलियन हेक्टयेर क्षेत्रफल में हो चुकी थी। यह आंकड़ा पिछले पांच सालों में इस हफ़्ते के आंकड़ों से 4 प्रतिशत की बढ़ोतरी दिखाता है और पिछले साल की तुलना में यह थोड़ा सा कम है। अगर पिछले पांच सालों के औसत से तुलना करें, तो 21 मुख्य फसलों में से सात फसलें ऐसी थीं जिनकी बुवाई वाले कुल क्षेत्रफल में पांच प्रतिशत से भी ज़्यादा की गिरावट आई।

1 अक्टूबर तक, पिछले साल के स्तर की तुलना में खरीफ की फसलों का कुल क्षेत्रफल 0।21 प्रतिशत बढ़ा है। हालांकि, 21 में से छह मुख्य फसलों के क्षेत्रफल में कमी और बढ़ गई है।

इस पूरे घटनाक्रम को किसानों और खेती की अर्थव्यवस्था से जोड़कर देखते हुए CRISIL रिसर्च, मुंबई की निदेशक हेतल गांधी कहती हैं कि खरीफ़ की फसल के क्षेत्रफल को देखें तो कुछ फसलों के क्षेत्रफल में काफी कमी आई है। हेतल गांधी ने 1 अक्टूबर को इंडियास्पेंड को बताया, 'हमें आशंका है कि खरीफ की फसले के लिए, पिछले साल की तुलना में ये आंकड़े समान या कम हो सकते हैं। इसमें 0।5 प्रतिशत से कम का अंतर हो सकता है। हालांकि, फसलों की बुवाई के कुल क्षेत्रफल में भले ही समानता हो, लेकिन कपास, ज्वार, बाजरा और मूंगफली के बुवाई क्षेत्रफल में तेजी से कमी आ रही है।'

हालांकि, बुवाई सिर्फ़ एक पहलू है, फसल का उत्पान दूसरा पहलू है। 1 अक्टूबर को केंद्र सरकार ने कहा था कि सितंबर महीने में बेमौसम बारिश होने की वजह से पंजाब और हरियाणा में धान की खड़ी फसल के तैयार होने में देरी हुई। हरियाणा और पंजाब के धान की फसल में क्रमश: 18 प्रतिशत और 22 प्रतिशत की नमी होने की वजह से, इस बात की सलाह दी गई है कि इन दोनों ही राज्यों में धान की फसल सुखाने में किसानों की मदद की जाए, ताकि 11 अक्टूबर से धान की खरीद शुरू हो सके।

हेतल गांधी कहती हैं, 'सितंबर महीने में भारी बारिश का असर, खरीफ की कम समय वाली फसलों पर पड़ेगा। इन फसलों में, मूंगफली, उड़द, सोयाबीन, और मक्का शामिल हैं'। ये फसलें पकने की कगार पर हैं और आने वाले कुछ हफ्तों में इनकी कटाई होनी है। अगर बारिश बंद नहीं होती है, तो इन फसलों को रखने और एक जगह से दूसरी जगह ले जाने में समस्या होगी। इससे पहले, पहले से तैयार रखे प्याज़ की गुणवत्ता पर बारिश के चलते काफी असर पड़ रहा है।

हेतल कहती हैं, 'बारिश की वजह से किसानों को फसल खराब होने का डर है। यही कारण है कि प्याज समय से पहले ही बाजार में आ रहा है और उसे कम दाम पर बेचा जा रहा है। इसी प्याज के लिए, किसानों को सितंबर से नवंबर के महीने में ज़्यादा पैसे मिल सकते थे।' वह आगे कहती हैं कि बारिश की वजह से किसान पहले ही अपनी फसलें बेच चुके हैं, इसी वजह से बाजार में मांग कम हो गई है और आपूर्ति अचानक से बढ़ गई है। हेतल गांधी यह भी कहती हैं, 'कुल मिलाकर, किसानों के लिए हमें उम्मीद करनी चाहिए कि अब रबी की फसलों की बुवाई से पहले बेमौसम की बारिश न हो।'

सितंबर बना 'नया अगस्त', अक्टूबर में सब गड़बड़

आईआईटी बॉम्बे के आईडीपी क्लाइमेट स्टडीज सेंटर में मकैनिकल इंजीनियरिंग के असोसिएट प्रोफ़ेसर और फैकल्टी श्रीधर बालासुब्रमण्यन ने इंडियास्पेंड को बताया, 'इस तरह होने वाली अनियमित बारिश आने समय में और भी हो सकती है, किसानों को इसके लिए तैयार रहना होगा। जून में बारिश के बाद कम या फिर भारी बारिश का होना, बुवाई के लिए किसी भी तरह से मुफ़ीद नहीं है।'

बालासुब्रमण्यन आगे कहते हैं, 'पिछले 10 साल के आंकड़े देखें, तो सितंबर अब नया अगस्त बन गया है। वहीं, अक्टूबर में भी बिना मौसम की बारिश हो रही हैं, लेकिन कोई साफ़ पैटर्न समझ नहीं आ रहा है। इसलिए, किसानों को खेती के बारे में सलाह देना भी बहुत मुश्किल हो रहा है।'

मॉनसून के समय बारिश का पिछले 10 साल का डेटा देखने पर पता चलता है कि सितंबर में बारिश की मात्रा बढ़ती जा रही है। वहीं, अक्टूबर महीने की बारिश में काफी अंतर देखा गया है।

जलवायु परिवर्तन के बारे में, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए कई आकलनों में बारिश के इस लगातार बदलने और बड़े अंतर वाले पैटर्न पर चिंता जताई गई है। दूसरी तरफ, आईएमडी के पिछले 120 सालों के अलग-अलग मौसम की बारिश के डेटा से पता चलता है कि मॉनसून की बारिश में कमी आई है।

पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की ओर से, भारतीय क्षेत्र के लिए पहली बार जलवायु परिवर्तन के बारे में आकलन किया गया। 2020 में जारी इस आकलन में कहा गया कि 1951 से 2015 के बीच में मॉनसून की बारिश में 6% की कमी आई है। साथ ही, गंगा के मैदानी क्षेत्र और पश्चिमी घाट के इलाकों में बारिश में भारी कमी हुई है। एक बयान में कहा गया कि इसी समय के दौरान भारत में गर्मी वाले मॉनसून के समय कुछ जगहों पर भारी बारिश तो कुछ जगहों पर बिल्कुल न के बराबर बारिश के मामले सामने आए। यही पैटर्न अगस्त और सितंबर 2021 में जारी रहा। इस आकलन में यह भी कहा गया कि मध्य भारत में, 1950 से 2015 के बीच स्थानीय स्तर पर बहुत ज़्यादा भारी बारिश (एक दिन में 150 मिमी से ज़्यादा बारिश) की घटनाएं 75 प्रतिशत बढ़ गई हैं।

जलवायु परिवर्तन की वजह से बढ़ रही है मॉनसून की अनियमितता

भारत में मॉनसून के समय होने वाली बारिश के घटने का कारण क्या है? सरकार के आकलन के मुताबिक, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की वजह से होने वाली ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रभावों के चलते औसत बारिश बढ़ जानी चाहिए थी। हालांकि, मानव उत्सर्जित ऐरोसॉल के रेडियोऐक्टिव प्रभावों की मात्रा 20वीं सदी में काफी ज़्यादा थी। इसी वजह से, ग्लोबल वॉर्मिंग का असर काफी हद तक कम प्रभावी रहा और औसत बारिश में कमी हुई। आने वाले समय में इंसान की ओर से होने वाले ऐरोसॉल उत्सर्जन में कमी आने की संभावना जताई जा रही है। ऐसे में ग्लोबल वॉर्मिंग जारी रहने से, 21वीं सदी के अंत तक मॉनसूनी बारिश की मात्रा बढ़ जाएगी। आकलन में यह भी चेतावनी दी गई है कि आने वाले समय में बारिश के प्रसार क्षेत्र और स्थानीय स्तर पर भारी या बहुत ज़्यादा बारिश की घटनाओं में भी बढ़ोतरी होगी।

इसे आसानी से समझें तो पता चलता है कि आने वाले समय में मॉनसून के समय होने वाली बारिश में बढ़ोतरी होगी। हालांकि, इसके साथ मॉनसून के समय बारिश के प्रसार क्षेत्र में और अंतर देखा जाएगा, जैसा कि साल 2021 में भी देखा गया। इसके अलावा, इस साल महाराष्ट्र के तटीय क्षेत्रों, पश्चिमी गुजरात और हैदराबाद के कुछ इलाकों में कम समय में ही बहुत ज़्यादा भारी बारिश की कई घटनाओं की तरह ही और भी घटनाएं होंगी।

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) के वर्किंग ग्रुप के छठे आकलन की रिपोर्ट में भी भारत सरकार के आकलन को दोहराया गया। यह रिपोर्ट इसी महीने के आखिरी में यूनाइटेड किंगडम के ग्लॉसगो में जलवायु परिवर्तन पर होने जा रही 26वीं कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज से पहले प्रकाशित की गई है।

आईपीसीसी के इस छठे आकलन में यह भी कहा गया, 'दक्षिण एशिया के अलग-अलग क्षेत्रों में मॉनसून की कमी होने के मामलों में तेज बढ़ोतरी के चलते बारिश में तेजी से कमी आई है। वहीं, भारत में भारी बारिश की घटनाओं की संख्या तेजी से बढ़ी है। दूसरी तरफ 1950 से अब तक मध्यम बारिश की घटनाओं की संख्या काफी कम हो गई है।'

20वीं सदी में इंसानों की ओर से ऐरोसॉल उत्सर्जन की वजह से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी बढ़ा है। इसी के मॉडल पर, आईपीसीसी के आकलन में कहा गया है कि 21वीं सदी के अंत तक भारत और दक्षिण एशिया में मॉनसून की बारिश में बढ़ोतरी होगी और बहुत भारी बारिश की घटनाओं में बढ़ोतरी भी होगी। अगर पृथ्वी के औसत तापमान में 0.5 डिग्री सेंटीग्रेट की बढ़ोतरी भी होती है, तो बारिश में 3 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी।

आईएमडी के क्लाइमेट रिसर्च डिविजन के हेड पुलक गुहाठाकुरता कहते हैं कि भारी बारिश के रुझान और मॉनसून की बारिश में बढ़ता अंतर अभी से देखा जा रहा है।

पुलक आगे कहते हैं, 'पूरे भारत में बारिश का रुझान देखकर यह पता चलता है कि मॉनसून हो या बाकी समय पर, बारिश में कमी आ रही है। हमने कई दशकों में अलग-अलग अंतर देखा है। जहां 1901 से 1930-40 तक का समय काफी सूखे वाला था, वहीं 1970 तक बारिश की अधिकता थी। उसके बाद से सूखे का युग चल रहा है, लेकिन भारत में बारिश धीरे-धीरे सुधर रही है। पिछले दो सालों में मॉनसून अच्छा रहा है। पहले ही देखा जा रहा है कि भारी बारिश की घटनाओं में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है।' वह आगे कहते हैं, 'बिना बारिश वाले दिनों और बहुत ज़्यादा भारी बारिश के दिनों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन खेती के लिए अच्छी मानी जाने वाली मध्यम बारिश वाले दिनों की संख्या घटती जा रही है।'

आईआईटी बॉम्बे के बालासुब्रमण्यन का भी मानना है कि बारिश में जो भी बढ़ोतरी होगी वो भारी या बहुत ज़्यादा भारी बारिश के रूप में होगी। वह आगे कहते हैं, 'अगर आप पूरे भारत को देखें, तो आईएमडी ने लंबे समय वाली बारिश के औसत की मात्रा को 889 मिमी से घटाकर 880 मिमी कर दिया है। वहीं, अगर आप अलग-अलग जगहों को देखें तो महाबलेश्वर में जहां 4000 मिमी की बारिश होती थी, वहां अब 6000 मिमी बारिश हो रही है। इसका मतलब जो आईपीसीसी कहने की कोशिश कर रहा है, वह यह है कि ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से बारिश बढ़ेगी और यह बारिश भारी या बहुत ज़्यादा भारी बारिश के रूप में होगी। अब भी 880 मिमी की सालाना बारिश होगी, लेकिन अब यह भारी बारिश के रूप में होगी।'

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