तमिलनाडु: बदलते मौसम का असर, पारंपरिक धान की खेती से दूर जा रहे किसान
बढ़ते तापमान और कम बारिश की वजह से तंजावुर-तिरुवरुर क्षेत्र में भूजल सूख गया है। इसका असर किसानों पर पड़ा है। फसलों की पैदावार घट गई है।
तंजावुर, तमिलनाडु: तमिलनाडु के जिला तंजावुर की पंचायत ओझुगासेरी में रहने वाले दिनेश पांडीदुरई और उनके जैसे कई अन्य किसानों ने गर्मी ने लगने वाली धान की किस्म सांबा ना लगाने का फैसला किया है।
लंबे समय तक ज्यादा गर्मी और उसके बाद मानसून सीजन में अच्छी बारिश ना होने की वजह से इस क्षेत्र का भूजल सूख गया है। पानी की दिक्कत उन खेतों में भी है जो कोल्लीडैम नदी से सिर्फ 100 मीटर की दूरी पर हैं। पानी में बढ़े हुए खारापान की वजह से भूजल का इस्तेमाल नहीं हो पा रहा जिससे स्थिति और बदतर हो गई है।
दो मुद्दे रिवर्स ऑस्मोसिस की प्रक्रिया से जुड़े हुए हैं: जैसे-जैसे गर्मी और बारिश की कमी भूजल स्तर को नीचे ले जाती है, समुद्र का पानी अंतरिक्ष में प्रवेश करता है और भूजल को प्रदूषित करता है। नमक मिट्टी की ऊपरी सतह पर चढ़ जाता है और फसलों को एक पतली सफेद फिल्म से ढक देता है।
अधिकांश किसानों ने गहरे पानी तक पहुंचने के लिए सबमर्सिबल बोरवेल लगवाये हैं और एक साल तक खेती की। बावजूद इसके पौधे जमने लगे, जलने लगे। पांडीदुरई बताते हैं, ''खारा भूजल मिट्टी और जड़ों को भी प्रभावित कर रहा है।'' "यह जड़ों को सूरज की रोशनी और पोषक तत्व प्राप्त करने से रोक रहा है इसलिए फसलें जल जाती हैं।"
इस क्षेत्र में सामान्य फसल चक्र में सांबा शामिल है। इस फसल की बुवाई अगस्त में शुरू होती है और अगस्त के आसपास 145 दिन में पक जाती है। इसके अलावा धान की किस्म कुरुवई की बुवाई जूल-जुलाई में हो जाती है जो 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है। 135 दिन में पकने वाली थलाडी की बुवाई सितंबर-अक्टूबर में होती है। यहां के किसानों का कहना है कि वे साल में अब बस दो फसल ही लगा रहे हैं। कहीं-कहीं तो एक फसल ही लगाई जा रही।
"जलवायु परिवर्तन की वजह से हो रहे ग्लोबल वार्मिंग के परिणामस्वरूप अगले 15-20 वर्षों में तापमान में 1 से 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है।" जीए धीबाकरन बताते हैं जो तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय (टीएनएयू), कोयंबटूर में कृषि-जलवायु अनुसंधान केंद्र में कृषि विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर हैं। “कृषि फसल उत्पादन बढ़ते तापमान के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। वैज्ञानिकों ने विभिन्न फसल सिमुलेशन मॉडल के माध्यम से साबित कर दिया है कि तापमान वृद्धि किसी भी अन्य मौसम मापदंडों की तुलना में अधिक हानिकारक है और तापमान में एक डिग्री की वृद्धि से भी उपज में 10-25% की कमी हो सकती है।
उन्होंने बताया कि चूँकि न्यूनतम तापमान अधिकतम तापमान की तुलना में अधिक दर से बढ़ रहा है, इससे दिन और रात के बीच तापमान में दैनिक भिन्नता कम हो जाती है। धीबाकरन ने कहा, " यह उपज में कमी का एक और कारण है।" बढ़ते तापमान के कारण फसलों के लिए प्रकाश संश्लेषण का समय कम बच रहा। अगर धान कर बात करें तो प्रकाश संश्लेषण के दिन 60 दिनों से कम होकर 10 दिन हो गया है। इससे अनाज का उत्पादन कम या ख़राब हो रहा है।
जमीन का खारापन और कीट
राजधानी चेन्नई से लगभग 325 किमी दक्षिण-पश्चिम में, खासकर तंजावुर-तिरुवरूर बेल्ट में बढ़ते तापमान ने खेती में कई तरह की समस्याएं खड़ी की हैं। तिरुवरूर जिले के मंजाकुडी गांव में स्वामी दयानंद एजुकेशनल फार्म्स के फार्म टीम के एम. जयशंकर कहते हैं, "ज्यादा बारिश और गंभीर सूखे, दोनों ने खेती को प्रभावित किया है।" "इस साल मई-जून के दौरान तापमान 49 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया था। इसकी वजह से जमीन में खारापन का स्तर अब तक 8.9 पीएच मान तक बढ़ गया।"
परिवर्तन को अपनाने के लिए किसान ने एक अलग फसल पैटर्न को फॉलो करने लगे। अब सांबा की खेती केवल सितंबर में शुरू होती है और फरवरी में समाप्त होती है। इसका सीधा असर पड़ता है: परंपरागत रूप से, चावल की फसल के बाद परती भूमि में दालों की खेती 14 जनवरी के आसपास शुरू होती है और अप्रैल में समाप्त होती है। इससे नाइट्रोजन को जड़ की गांठों में स्थिर करने में मदद मिलती है और यह दलहन की कटाई के बाद धान की फसल में चली जाएगी। लेकिन इस साल जनवरी के मध्य में हुई बारिश के कारण यह पैटर्न भी गड़बड़ा गया। इसलिए किसानों ने दालों की खेती बंद कर दी है और फरवरी से अगस्त तक कपास की खेती की ओर रुख कर लिया है।
फसल पैटर्न में यह बदलाव न तो फायदेमंद रहा है और न ही लागत कम हुई। स्थानीय चावल की किस्मों के संरक्षण को लेकर काम कर रहे सेंटर स्पिरिट ऑफ द अर्थ, चेन्नई की प्रियंका नवनीत ने बताया, “हालांकि भूजल में खारापन कपास की खेती के लिए फायदेमंद। लेकिन इसके लिए व्यापक कीट प्रबंधन की आवश्यकता है। जीएमओ-बीटी जैसी मौजूदा किस्मों को उगाने वाले 99% किसान उत्पादन बढ़ाने के लिए कपास के खेत में प्रतिबंधित कीटनाशकों, उर्वरकों और खरपतवारनाशकों का उपयोग करते हैं। इससे मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता नष्ट हो जाती है और अंततः उत्पादकता कम हो जाती है।”
इसके अलावा कपास की फसल की कम से कम 6 बार सिंचाई करनी पड़ती है। चूँकि भूजल स्रोत या तो सूख गए हैं या बहुत नीचे चले गये हैं, अधिकांश किसान कपास के खेतों की सिंचाई के लिए पनडुब्बी बोरवेल का उपयोग करते हैं जो 200 फीट भूमिगत तक जाते हैं और छोटे किसान बोरवेल को किराए पर लेते हैं। इससे भूजल और भी कम हो जाता है और भूजल स्तर और भी नीचे चला जाता है और इस सब के बाद भी पिछले साल फसल से उन्हें 55,000-56,000 रुपए प्रति क्विंटल मिले। कीमतें 45-58 रुपए प्रति किलोग्राम के बीच घटती-बढ़ती रहीं। लेकिन खर्च बढ़कर 60,000 रुपए प्रति एकड़ हो गया।
लागत बनाम मुनाफे की गणना
“मैं सिंचाई के लिए एक तेल इंजन पंप सेट का उपयोग करता हूं,” अज़घर ने कहा। “एक लीटर डीजल 45 मिनट तक चलता है। एक एकड़ की सिंचाई के लिए 10 लीटर डीजल की आवश्यकता है। उस दर पर हम अकेले ईंधन पर प्रति एकड़ 1,000 रुपए या उसके आसपास खर्च करते हैं।
"कपास को हर पंद्रह दिनों में एक बार सिंचाई की आवश्यकता होती है। मैंने पानी के लिए प्रति एकड़ 5,000 रुपए खर्च किए। इसके अतिरिक्त मैंने प्रत्येक 100 फीट के लिए 100 रुपए की दर से ट्यूब किराए पर ली। मजदूरों को प्रत्येक 30 फीट के लिए 400 रुपए प्रति व्यक्ति की दर से भुगतान करना पड़ता है। परिवहन व्यय, लोडर शुल्क और वाहन किराया जोड़ें और अंत में हम 30 किलोग्राम कपास से लगभग 1,000 रुपए कमाते हैं।
अज़घर ने 2021 में तीन एकड़ में खेती की। उस समय कीमत 110 रुपए प्रति किलोग्राम थी और उन्होंने पर्याप्त लाभ कमाया। उत्साहित होकर उन्होंने 2022 में पांच एकड़ में खेती की। लेकिन इस बार कीमतें गिर गईं और अब वह इस साल तीन एकड़ में खेती कर रहे हैं। अज़घर कहते हैं, मूल्य की अस्थिरिता को ठीक करने और एक मजबूत आजीविका अवसर बनाने के लिए मूल्य निर्धारण ही आगे बढ़ने का एकमात्र तरीका है। खर्चों को देखते हुए 100 रुपए प्रति किलोग्राम किसानों के लिए अच्छा रहेगा।
फिर धान है जिसकी खेती की लागत लगभग 40,000 रुपए प्रति एकड़ है। बहुत अच्छी स्थिति में उपज लगभग 1,800 से 2,000 किलोग्राम होती है। उपज या तो 60 किलोग्राम बैग में बेची जाती है, 1,200 रुपए प्रति बैग, या सीधे खरीद केंद्र के 40 किलोग्राम बैग में, जो 800 रुपए प्रति बैग पर बेचे जाते हैं।
किसान कम अवधि वाली किस्मों की खेती करने के इच्छुक हैं जिन्हें 15 अक्टूबर के बाद बोया जा सकता है और जनवरी के दौरान काटा जा सकता है। इस फसल का चक्र 78 से 80 दिन के बीच होता है।
स्पिरिट ऑफ द अर्थ की प्रियंका नवनीत कहती हैं, "आईआर 20, एडीटी 42, एडीटी 43 जैसी किस्में जिनकी अवधि लगभग 120 दिन और प्रति एकड़ औसत उपज 2,000-2,500 किलोग्राम के बीच है, विशिष्ट किस्में हैं जो तिरुवरूर जिले में मामूली रूप से सफल रही हैं।"
लेकिन तिरुवरूर जिले के सिरकाज़ी में अदथामंगलम के किसान जयपाल कालियापेरुमल का दावा है कि एडीटी-38 और एडीटी-46 जैसी पारंपरिक किस्में भी उतनी उत्पादक नहीं हैं जितनी बताई जाती हैं। “पिछले साल मैंने किचिली सांबा की खेती की, उस समय बारिश ठीक हुई थी। इस वर्ष मैंने थूयामल्ली और सीरगा सांबा किस्मों की खेती की है। उपज लगातार कम ही होता जा रहा। इस बार बहुत कम बारिश होने के कारण सीधी बुआई भी नहीं हो पा रही है," उन्होंने इंडियास्पेंड को बताया।
वर्षा प्रतिरोधी किस्मों का भी यही हाल है। पांडिदुरई हमें बताते हैं कि हमारे सब्र का बांध टूट चुका है। "ज्यादा समय लेनी वाली धान कह फसल सीआर-1009-सावित्री-सब बारिश में गिर जाती है और बहुत अधिक धूप इसे घास में बदल देती है।"
खूब मेहनत करने और पैसे लगाकर भी कुछ हासिल ना होता देख किसान खेती छोड़कर दूसरे व्यवसायों की ओर जा रहे हैं। खेती अब पसंदीदा या टिकाऊ विकल्प नहीं रह गई है। "मेरे दादाजी के दिनों में 1950 के दशक में धान की एक बोरी से होने वाला मुनाफा एक सॉवरेन (8 ग्राम) सोना (आज लगभग 56,000 रुपए) खरीदने के लिए पर्याप्त था। अब हम इसके आसपास भी नहीं कमाते हैं," दिनेश कहते हैं। "सांबा, कुरुवई और अब थलाडी की खेती खतरे में है, जनवरी में चावल की कीमत बढ़ सकती है।"
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