उत्तराखंड: जलवायु आपदाओं की कीमत चुका रहे बच्चे, घर और स्कूल लौटने का इंतजार
देहरादून: पिछले डेढ़ महीने से राहत शिविर में रही 10 साल की अंशिका चंदेल नाराज हैं कि उनके पास पढ़ने-लिखने के लिए न तो पूरी कॉपी-किताबें हैं, एक मेज-कुर्सी, कक्षा फुलटाइम शिक्षक भी नहीं हैं। खेलने पर डांट पड़ती है। तेज बोलने पर डांट पड़ती है। बोलकर पढ़ने पर डांट पड़ती है।
“मैं पहले पांचवीं क्लास में पढ़ती थी। अब ढंग से नहीं पढ़ पाती हूं। मेरे कपड़े, नोटबुक, किताबें, सब घर के साथ दब गए। एक महीने बाद हमें कुछ किताबें दी गई हैं। लेकिन नोटबुक सिर्फ एक है। हमें एक कमरे में गद्दे पर बिठाकर पढ़ाया जाता है। हमारे सर कभी-कभी आते हैं और जो पढ़ाते हैं हमें समझ नहीं आता। यहां हर समय शोर रहता है। सब लोग हमें चुप रहने को कहते हैं। वे कहते हैं कि ये तुम्हारा घर नहीं है जो तुम खेलोगी”।
जुलाई-2023 में देश के कई हिस्सों में अत्यधिक भारी बारिश रिकॉर्ड हुई। मौसम विज्ञान विभाग के मुताबिक उत्तराखंड में सामान्य से 32% अधिक बारिश दर्ज हुई। जबकि अगस्त 2023 में राज्य में सामान्य से कम बारिश रिकॉर्ड हुई। लेकिन इस दौरान देशभर के 1197 वेदर स्टेशन में से 58 में अत्यधिक भारी बारिश (> 204.4 मिलीमीटर से अधिक बारिशl) हुई, उत्तराखंड भी इनमें से एक था।
देहरादून मौसम विज्ञान केंद्र के मुताबिक 9 से 16 अगस्त के बीच देहरादून में सामान्य से 192% अधिक 350.1 मिमी बारिश रिकॉर्ड की गई थी।
हिमालयी क्षेत्र में अधिकांश भूस्खलन बारिश के चलते होते हैं और समूचा हिमालयी क्षेत्र इस लिहाज से अत्यधिक जोखिम वाले क्षेत्र में शामिल है। बारिश के लंबे दौर के बाद 16 अगस्त को धूप खिली थी और लोग अपने खेतों में व्यस्त थे। जब भूस्खलन से पीढ़ियों पुराने गांव का एक हिस्सा मलबे के ढेर में तब्दील हो गया।
राहत शिविर में अपने घर और भविष्य की चिंता में डूबे परेशान लोगों के बीच 10 साल की अंशिका भी आशंकित है, क्या कभी उसका अपना घर होगा, क्या कभी वो फिर स्कूल जाएगी, जिंदगी कब सामान्य होगी?
देहरादून के विकासनगर तहसील के मदर्सू ग्राम पंचायत के मजरा जाखन गांव में 16 अगस्त को दोपहर करीब दो बजे भूस्खलन हुआ था। कुछ ही मिनटों में पूरे गांव का भूगोल बदल गया। अंशिका की मां पवित्रा चंदेल उस समय खेत में काम कर रही थीं। वह बताती हैं “जमीन के भीतर बडी-बडी दरारें आ गईं। गांव के ऊपर की सड़क, उसके नीचे खेत, खेत के नीचे मंदिर, मंदिर के नीचे एक के बाद एक बने घर, सब तेज आवाज के साथ ढहते चले गए। गनीमत थी कि वह दिन का समय था और ज्यादातर लोग घरों से बाहर थे”।
उन्हें दुख है कि यह सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि अपने घर से जरूरी सामान, कागजात, जेवर, अनाज कुछ भी निकालने का मौका नहीं मिला। ऊपर पहाड़, नीचे खाई, एक ओर बहती यमुना की गूंज। पहाड़ की ढलान पर बसे मजरा जाखन गांव में रहते हुए कई पीढ़ियां गुजर गई। गांव के 28 परिवार के 150 लोग यहां रह रहे थे। आपदा में 10 घर और 7 गौशालाएं पूरी तरह ढह गए। बाकी घरों में भी दरारें आ गई हैं। प्रशासन ने पूरे गांव को रहने के लिहाज से असुरक्षित घोषित कर गांव वालों को लांघा क्षेत्र के पूर्व माध्यमिक विद्यालय में शिफ्ट किया। जाखन गांव का 12 विद्यार्थियों वाला प्राथमिक विद्यालय भी इस आपदा की भेंट चढ़ गया। स्कूल के बाहर की जमीन पर 6 इंच तक मोटी दरारें पड़ गई हैं।
जलवायु आपदाओं की कीमत कौन चुका रहा?
अंशिका समेत कुछ अन्य बच्चों ने आपदा के इस मंजर को देखा। छठी कक्षा में पढ़ने वाली नव्या कहती हैं कि उस आपदा के बाद हम बुरी तरह डर गए हैं। कई बार नींद में भी डर जाते हैं।
जाखन गांव के शिक्षक सुरजीत सिंह कहते हैं “शुरू में ये बच्चे बेहद सहमे हुए थे कि आगे चलकर कहां रहेंगे। शिविर में सारा दिन यही बातें होती रहती हैं। कभी किसी के रिश्तेदार मिलने आते तो कभी नजदीक के गांव वाले। शासन प्रशासन की टीम के दौरे होते रहते। ऐसे हालात में पढ़ाई तो प्रभावित होती है। उनका मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित हुआ है। हम बच्चों का मनोबल बढ़ा रहे हैं क्योंकि उन्हें सदमा लगा है”।
जलवायु संकट बच्चों के अधिकारों का संकट
राहत शिविर में रह रहे जाखन गांव के 18 वर्ष तक की आयु के 18 बच्चों के मन-मस्तिष्क पर आपदा का गहरा असर पड़ा है। चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) संस्था की क्षेत्रीय निदेशक सोहा मोईत्रा कहती हैं “जलवायु परिवर्तन और आपदा दुनिया भर में गंभीर चुनौतियां पैदा कर रही हैं। जिसके चलते मानव जीवन खासतौर पर बच्चों के अधिकार और सुरक्षा प्रभावित हो रही है। बच्चे अपनी शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक-आर्थिक स्थिति के कारण जलवायु परिवर्तन और आपदाओं के प्रभावों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होते हैं”।
वर्ष 2021 की यूनिसेफ की रिपोर्ट क्लाइमेट क्राइसिस इज चाइल्ड राइट क्राइसिस (जलवायु संकट बच्चों के अधिकारों का संकट) के मुताबिक जलवायु नीतियों में बच्चों के हितों की लगातार अनदेखी की जा रही है। भारत भी उन देशों में शामिल हैं जिसमें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने से जुड़े एनडीसी (National determined contributions) लक्ष्य में बच्चों और युवाओं के हितों को शामिल नहीं किया गया है।
जलवायु परिवर्तन, पर्यावरणीय खतरों, सदमे और तनाव और बच्चों की संवेदनशीलता के कई पैमानों के आधार पर बनाए गए “द चिल्ड्रेनस क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स” में भारत को अत्यंत उच्च जोखिम वाले देशों की श्रेणी में रखा गया है। बच्चों पर जलवायु संकट के लिहाज से 163 देशों की सूची में भारत का 26वां स्थान है।
जाखन गांव के लोग अपने खेतों में काम करने जा रहे हैं और अपने उजड़े गांव को देख रहे हैं। आपदा में बच गए घरों से सामान निकाल रहे हैं। बच्चे भी अपनी माओं के साथ उजड़े हुए गांव में जा रहे हैं।
उत्तराखंड बाल संरक्षण आयोग की अध्यक्ष डॉ. गीता खन्ना कहती हैं “खेतों में काम करने जा रही मां को हमने मना किया है कि वे बच्चों को साथ न ले जाएं। बच्चे बार-बार उसी जगह जा रहे हैं इससे सदमा बढ़ता है। एक डॉक्टर के तौर पर मैं जानती हूं कि बच्चे की मानसिक सेहत पर इसका असर काफी लंबे समय तक रहता है। हमने बच्चों और महिलाओं की काउंसलिंग की है”।
डॉ. खन्ना बताती हैं कि शिक्षा विभाग, समाज कल्याण विभाग और स्थानीय प्रशासन को बच्चों की पढ़ाई और स्वास्थ्य जांच की व्यवस्था करने को कहा है।
विकासनगर के उपजिलाधिकारी विनोद कुमार के मुताबिक “राहत शिविर में बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था की गई है। नियमित स्वास्थ्य जांच की जा रही है और गांव के पुनर्वास के लिए जमीन की तलाश की जा रही है”।
शिक्षा पर असर
राहत शिविर बनने से पूर्व माध्यमिक विद्यालय में पढ़ने वाले छठवीं से आठवीं तक की कक्षा के 30 बच्चों की पढ़ाई भी प्रभावित हुई है। यहां विज्ञान विषय के शिक्षक देवेश कुमार बताते हैं “स्कूल के तीन कमरों में एक में गांव की महिलाएं रह रही हैं। पुरुषों के कमरे में आठवीं कक्षा की पढ़ाई होती है। एक कक्षा में छठवीं और सातवीं में पढ़ने वाले बच्चों को साथ बिठाते हैं। जाखन गांव से आए 6 बच्चों को स्कूल की लॉबी में बिठाया जाता है। राहत शिविर बनने से पढ़ाई पर असर तो आया है। लेकिन ऐसी स्थिति में और क्या कर सकते हैं”।
जाखन प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने आने वाले नजदीकी गांव कुनेथ के 6 अन्य बच्चों को विद्यालय के एक शिक्षक उनके गांव में पढ़ाने जाते हैं।
दिन के समय जब स्कूल में पढ़ाई होती है उस दौरान ज्यादातर लोग कमरों से बाहर स्कूल के बरामदे, अपने खेत या अन्य जगह चले जाते हैं। स्कूल की छुट्टी के बाद वे वापस लौटते हैं।
यूनिसेफ रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक रूप से तकरीबन 10 अरब (1 बिलियन) बच्चे जलवायु आपदाओं के लिहाज से अत्यंत उच्च जोखिम वाले देशों में रहते हैं। स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा जैसी आवश्यक सेवाओं तक पहुंच की कमी उन्हें विशेष तौर पर प्रभावित करती है।
प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से हो बाल संरक्षण नीति
क्राई संस्था की मोइत्रा कहती हैं “प्राकृतिक आपदाओं के दौरान बाल सुरक्षा सुनिश्चित करने और बाल अधिकार के विषय को प्राथमिकता दिलाने के लिए हमारे सामने महत्वपूर्ण साक्ष्य हैं। हमें स्थान विशेष के लिहाज से जलवायु परिवर्तन के खतरों पर विचार कर प्रभावी बाल संरक्षण नीतियां विकसित करने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन और बाल शोषण के बीच सहसंबंध की समझ बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए रणनीति तैयार करने में मदद करेगी”।
संयुक्त राष्ट्र (UN) की एक समिति 28 अगस्त को नया कानूनी दिशा-निर्देश लेकर आई है। इसे जनरल कमेंट नंबर 26 कहा गया है। इसमें जलवायु परिवर्तन के गहराते संकट के बीच बच्चों की सुरक्षा के लिए सरकार से कार्रवाई करने का आह्वान किया गया है। यह दिशा-निर्देश बच्चों के स्वच्छ, स्वस्थ और टिकाऊ वातावरण में रहने के अधिकारों की पुष्टि करता है।
नवंबर में शर्म-अल-शेख में होने वाले कॉप-28 सम्मेलन में जलवायु संकट के लिहाज से अब तक की प्रगति की समीक्षा की जाएगी। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया अभी जलवायु संकट को हल करने की दिशा से बहुत दूर है और सबसे ज्यादा संकट वाले देश और समुदाय को सबसे ज्यादा जोखिम उठाना पड़ रहा है।
करीब डेढ़ महीने से तीन कमरों के स्कूल के दो कमरों में 120 लोग रह रहे हैं। कुछ परिवार किराए के कमरों या रिश्तेदारों के घर रहने चले गए।
मौजूदा हालात पर चिंतित गांव के वरिष्ठ आनंद सिंह कहते हैं “ जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं, हमें भय सताने लगा है। शुरू में तो अधिकारी और विधायक सब हमसे मिलने आते रहे। 16 सितंबर पुनर्वास को लेकर एक बैठक होनी थी। हम इंतजार करते रहे कोई अधिकारी नहीं आया। स्वास्थ्य जांच के लिए भी शुरू में दो हफ्ते तक डॉक्टरों की टीम आई। लेकिन अब वो भी नहीं आती”।
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