जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए ओडिशा के इन गांवों में बसाए जा रहे 'मिनी जंगल'
स्थानीय लोगों को उम्मीद है कि ये छोटे वन, बाढ़ से उनके तटीय आवासों की रक्षा करेंगे और इसके साथ ही उन्हें सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा भी देंगे।
जगतसिंहपुर, ओडिशा : पिछले साल 'साइंस ऑफ द टोटल एनवायरनमेंट' में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार, ओडिशा के जगतसिंहपुर जिले में बाढ़ का खतरा वर्तमान के 12.55% से बढ़कर साल 2040 तक 27.35% तक हो जाएगा। जगतसिंहपुर में हालात केवल जमीन पर ही नहीं बल्कि हवा में भी खराब हैं। यहां की हवा बहुत ज़्यादा प्रदूषित है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने साल 2018 की अपनी रिपोर्ट में इसी जिले के बंदरगाह शहर पारादीप को 'गंभीर रूप से प्रदूषित' बताया था।
इस शहर से लगभग 10 किलोमीटर दूर कुजंग ब्लॉक के लोगों ने इन दोनों समस्याओं से लड़ने के लिए 'मिनी वन' का समाधान प्रस्तुत किया है। पिछले दो दशकों में, इस ब्लॉक के 20 गाँवों में छोटी-छोटी जगहों पर बड़े पैमाने पर पेड़ उगाए गए हैं। ये वन लगभग एक एकड़ या उससे भी कम क्षेत्र में फैले हुए हैं और कुल मिलाकर ऐसे वनों का क्षेत्रफल 35 एकड़ तक है।
स्थानीय लोगों को उम्मीद है कि ये छोटे वन, बाढ़ से उनके तटीय आवासों की रक्षा करेंगे और इसके साथ ही उन्हें सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा भी देंगे।
दरअसल, इन गांव के लोगों की चिंताएं गलत नहीं हैं। महानदी कुजंग ब्लॉक के उत्तर में बहती है जबकि बंगाल की खाड़ी भी पूर्व में सिर्फ 10 किलोमीटर ही दूर है। यह इलाका नदी और समुद्र से निकटता के कारण अक्सर बाढ़ और चक्रवात की चपेट में रहता है। इन आपदाओं की वजह से स्थानीय लोगों को कई बार जान-माल की हानि, बिजली, इंटरनेट और सड़क मार्ग के अवरुद्ध हो जाने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
वेस्टर्न यूनिवर्सिटी, लंदन में शोध कर रहे ओडिशा के रिसर्चर मोहित मोहंती ने फोन पर बात करते हुए बताया कि इरमा और कुजंग जैसे निचले इलाकों में बाढ़ का खतरा अधिक है। उन्होंने साल 2018 में जगतसिंहपुर जिले में बाढ़ पर एक अध्ययन भी किया था।
सही प्रजाति के पेड़ों का चुनाव जरूरी
यहां के लोगों ने इन छोटे वनों में ज्यादातर स्थानीय रूप से उगाई जाने वाली प्रजातियों जैसे कि भारतीय पोंगामिया, लेब्बेक, सागौन, जामुन, अमरूद और केले के पेड़ लगाए हैं।
भुवनेश्वर स्थित पर्यावरणविद जया कृष्ण पाणिग्रही सामुदायिक पहल पर ज़ोर देते हुए कहते हैं, "ये पेड़ मिट्टी को मजबूती से पकड़ कर रखते हैं और चक्रवात व बाढ़ जैसी आपदाओं के प्रभाव को कम करते हैं।" साल 2011 की एक रिसर्च भी कहती है कि मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए राजमार्गों, सड़कों और नहरों के आसपास पोंगामिया (मिलेटिया पिन्नाटा) प्रजाति के पेड़ लगाए जाने चाहिए। इसी तरह एक अन्य अध्ययन में लेब्बेक की मिट्टी-धारण क्षमता के बारे में भी बात की गई है।
क्षेत्र के उचाबांदापुर गांव के निवासी सुरेंद्र तराई कहते हैं कि ये सभी पेड़ सड़कों, नहरों और बंजर भूमि के आसपास लगाए गए हैं ताकि उन जगहों में मिट्टी के कटाव को रोका जा सके। उनका कहना है कि बाढ़ के दौरान मिट्टी के कटाव को रोकने में जंगल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
इसके अलावा, यहां ग्रामीणों ने कैसुरीना, बबूल और नीलगिरी के पेड़ भी लगाए हैं, हालांकि इनकी संख्या तुलनात्मक रूप से कम है। वनों को बढ़ावा देने वाले इस अभियान की शुरुआत करने वाले अमरेश नरेश सामंत बताते हैं, "एक तरफ, ये पेड़ तेजी से बढ़ते हैं, वहीं दूसरी ओर ये ऐसी आक्रामक प्रजातियां हैं जो कि स्थानीय वनस्पतियों को पनपने से रोकते हैं, इसलिए हमने इन्हें ज्यादा नहीं लगाया है।"
डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट में कैसुरीना को समुद्री तट के किनारे का बायोशील्ड बताते हुए इसके वृक्षारोपण की आलोचना भी की गई है। तमिलनाडु सरकार ने साल 2004 में हिंद महासागर में आई सुनामी के बाद बड़े पैमाने पर इस बायोशील्ड को लगाया था।
एक आदमी और उसके पीछे कई वॉलंटियर
इस वनीकरण अभियान की शुरुआत साल 2000 में कुजंग ब्लॉक के बिस्वाली गांव से हुई थी। आज यह अभियान आसपास के कई गांवों में भी फैल गया है। जब सामंत ने इस अभियान की शुरुआत की थी, तब वह 25 साल के थे। वे अपने बदहाल और बंजर गांव को देखकर चिंतित हो गए और उन्होंने इलाके को फिर से हरा-भरा करने के लिए जंगल को पुनर्जीवित करने का निर्णय लिया। आज बीस साल बाद, पारादीप बंदरगाह में इलेक्ट्रिकल इंजीनियर के रूप में काम करने वाले सामंत को जगतसिंहपुर के "ब्रुख्या मानब" (फॉरेस्ट मैन) के रूप में जाना जाता है।
आज, उनका वनीकरण अभियान अन्य जिलों में भी फैल रहा है। केंद्रपाड़ा और ढेंकेनाल में ये 'मिनी जंगल' लगभग 15 एकड़ क्षेत्र में फैल चुके हैं।
अब 46 साल के हो चुके सामंत कहते हैं कि स्थानीय समुदायों के समर्थन के बिना उनके लिए इस मुकाम को हासिल करना संभव नहीं था। उन्होंने कहा, "इसमें थोड़ा समय लगा, लेकिन धीरे-धीरे युवाओं ने मेरे साथ स्वेच्छा से और मुफ्त में काम करना शुरू कर दिया। इन सभी लोगों ने इस मुहिम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हुए और अधिक लोगों को जोड़ने का काम किया। आज, मेरे पास 110 स्वयंसेवकों का एक नेटवर्क है। हम ग्रामीणों के बीच वनों के महत्व को लेकर जागरूकता पैदा करते हैं, और इसके साथ ही वृक्षारोपण का प्रबंध करते हैं।"
पारादीपगढ़ के रहने वाले 37 वर्षीय स्वयंसेवक सुखदेव तराई ने हमें बताया कि इस अभियान में वे क्यों शामिल हुए। उन्होंने कहा, "मैंने स्कूल में पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में पेड़ों के महत्व के बारे में पढ़ा था। जब मैंने देखा कि हमारा क्षेत्र लगातार चक्रवात जैसी आपदाओं का सामना कर रहा है, तो मैंने इसे रोकने व पर्यावरण की बेहतरी में मदद करने का फैसला किया।"
स्थानीय लोग ही पौधा लगाने से लेकर उसके रख-रखाव की व्यवस्था करते हैं। वन विभाग द्वारा केवल एक बार सामयिक सहायता प्रदान की गई थी, लेकिन इसके बाद उन्होंने कोई सुध नहीं ली।
राजनगर के प्रभागीय वनाधिकारी बिकास कुमार नायक ने बताया, "हम कुजंग में ग्रामीणों द्वारा की जा रही वनीकरण को प्रोत्साहन देते हैं। हमने उन्हें अनुदानित बीज एक रुपए प्रति बीज की कीमत पर दिया है। इसके अलावा हमने ग्रीन महानदी मिशन के तहत उन्हें मुफ्त बीज भी उपलब्ध कराया था। हमने फल-फूल समेत कई तरह के पेड़ों की प्रजातियों के बीज भी वितरित किए थे।"
तटीय गांवों के आसपास जरूरी हैं जंगल
साल 1999 के सुपर साइक्लोन से सीख लेते हुए यहां के लोगों ने अपने गांवों में जंगलों को पुनर्जीवित करने का निर्णय लिया। बिस्वाली निवासी दिलीप कुमार पलाई बताते हैं, "चक्रवात के दौरान, हमारे गाँव के 90% पेड़ या तो उखड़ गए थे या फिर क्षतिग्रस्त हो गए थे। लेकिन अगर ये पेड़ नहीं होते तो हमें जान-माल का अधिक नुकसान हो सकता था।"
पुरुषों और महिलाओं में से हर किसी ने इस वनीकरण अभियान में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। गांव की एक गृहिणी सबिता सेठी कहती हैं, "हमने पौधों को नियमित रूप से पानी दिया ताकि पेड़ मजबूत हों और वे तेजी के साथ बढ़ें। हम अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) जैसे बड़े अवसरों पर भी नियमित रूप से वृक्षारोपण कार्यक्रम आयोजित करते हैं।"
मिनी वन की सुरक्षा से संबंधित सवाल का जवाब देते हुए बिस्वाली के उप सरपंच शरत चंद्र मल्ला कहते हैं, ''ग्रामीणों से जंगलों को कोई खतरा नहीं है, क्योंकि उन्होंने इसे बड़ी मेहनत से उगाया है और वे इसके महत्व को समझते हैं। फिर भी, हमने पौधों के चारों ओर कांटेदार तार लगाए हैं। जंगल के आसपास रहने वाले ग्रामीण भी इस बात का ध्यान रखते हैं कि कोई पेड़ों को किसी तरह का नुकसान ना पहुंचाए।"
भुवनेश्वर के पर्यावरणविद एसएन पात्रो ने ग्रामीणों के प्रयासों की सराहना करते हुए कहा, "यदि अधिक से अधिक तटीय गांवों में वनों का घनत्व बढ़ता है, तो इससे बाढ़ और मिट्टी के कटाव से लड़ने की क्षमता मजबूत होगी।"
वनों से हो रहा कई तरह का लाभ
आज, सामंत की कल्पना के अनुरुप इन मिनी वनों से ग्रामीणों को कई तरह के लाभ हो रहे हैं। मल्ला ने बताया कि ग्रामीण इन जंगलों से मिलने वाले जलावन लकड़ी, फल और चारे को सबसे पहले गाँव के गरीब सदस्यों को वितरित करते हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि उनके गांव में कई परिवारों के पास खाना पकाने के लिए गैस सिलेंडर नहीं हैं और वे इसके लिए जलाऊ लकड़ी पर निर्भर हैं। उन्होंने आगे बताया कि हालांकि, आम और केले जैसे फल सभी ग्रामीणों के बीच समान रूप से वितरित किए जाते हैं।
चूंकि ये जंगल छोटे हैं और यहां उत्पादन भी मौसमी तौर पर कम होता है, इसलिए ग्रामीण अपनी आजीविका के लिए पूरी तरह से इन पर निर्भर नहीं हो सकते। यहां के अधिकांश ग्रामीण या तो निर्माण स्थलों पर या फिर पारादीप बंदरगाह पर काम करते हैं।
वायु प्रदूषण की बात करें तो यहां कुछ ग्रामीणों को लगता है कि वायु की गुणवत्ता में सुधार हुआ है। पारादीपगढ़ गांव की बात करें तो यह पारादीप शहर से लगभग 10 किलोमीटर दूर स्थित है, जहां पर भारत के 12 सबसे बड़े बंदरगाहों में से एक पारादीप बंदरगाह भी है। पारादीप का नवीनतम व्यापक पर्यावरण प्रदूषण सूचकांक 69.26 है, जो कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक "गंभीर रूप से प्रदूषित" है।
पारादीपगढ़ के सरपंच मिहिर रंजन साहू ने बताया, "चूंकि हमारा गाँव शहर के राजमार्ग के करीब है, इसलिए वाहनों की वजह से आने वाली धूल हमारे गाँव की हवा को प्रदुषित करती थी। पेड़ों की बदौलत अब यह समस्या कुछ कम हुई है।"
कुजंग ब्लॉक के निवासी आज काफी खुश हैं, लेकिन वनीकरण अभियान की शुरुआत करने वाले सामंत को लगता है कि उनका काम अब तक खत्म नहीं हुआ है। वे आसपास के अन्य गांवों के लोगों को भी जंगल के महत्व के बारे में जागरूक करना चाहते हैं और इसके साथ ही उन्हें पेड़ लगाने के लिए प्रेरित करना चाहते है।
(लेखक भुवनेश्वर से स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101reporters.com केसदस्य हैं। यह संस्था जमीनी स्तर के पत्रकारों का अखिल भारतीय नेटवर्क है।)
(यह लेख 101रिपोर्टर्स की ओर से सामुदायिक प्रयास से होने वाले सकारात्मक बदलाव की कड़ी का हिस्सा है। इस कड़ी में हम यह पता लगाएंगे कि कैसे समाज के लोग किस तरह से अपने स्थानीय संसाधनों का विवेकपूर्ण इस्तेमाल करते हुए अपने लिए रोजगार के अवसर पैदा कर रहे हैं और समाज में एक बड़ा बदलाव भी लेकर आ रहे हैं।)हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। कृपया respond@indiaspend.org पर लिखें। हम भाषा और व्याकरण के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार सुरक्षित रखते हैं।