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अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), नई दिल्ली का एक दृश्य। इतिहास एक सवाल उठाता है : अब जब कि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) उच्च शिक्षा में उच्च जातियों के बराबर दिखाई पड़ते हैं, तो क्या यह आरक्षण को दूर करने का समय है? इस सवाल का जवाब देना मुश्किल है क्योंकि पिछड़े वर्ग का आरक्षण 1931 में करवाई गयी पहली जातिगत जनगणना पर ही आधारित है। यानि आंकड़े 85 साल पुराने है।

2010 में समाप्त हुए दशक के दौरान, अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) - निचली जातियों की एक ढीली परिभाषा, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के ऊपर एक स्तर – उच्च शिक्षा का नामांकन दर तीन गुना बढ़ कर 22 फीसदी हुआ है, जोकि राष्ट्रीय दर, 23.6 फीसदी, के करीब है। लेकिन ओबीसी के लिए जारी रखने के लिए सकारात्मक कार्रवाई का मुद्दा दलदला हो रहा है क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर उनके लिए आरक्षित सीटों का प्रतिशत 85 वर्ष पुराना है।

उच्च शिक्षा में आरक्षण की अवसर और दुविधाओं की कहानी 34 वर्षीय परमेश्वरुद्दु पुलाटोटा द्वारा साफ किया जा रहा है। पुलाटोटा - परंपरागत चरवाहों, कुरुबस, के समुदाय से - वर्तमान में हैदराबाद विश्वविद्यालय में एक डॉक्टरेट के छात्र है, और सकारात्मक कार्रवाई के एक परिणाम के रूप में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अन्य पिछड़े वर्ग के नामांकन में वृद्धि का प्रतीक हैं।

पुलाटोटा ने सबसे पहले, सकारात्मक कार्रवाई का इस्तेमाल किया जब वह 11 साल का था। पुलाटोटा ने इसका इस्तेमाल आंध्र प्रदेश सरकारी स्कूल में पांचवी कक्षा में नामांकन के लिए किया जहां प्रवेश योग्यता के आधार पर मिलता है। पुलाटोटा स्वीकार करते हैं, “मैंने एक आरक्षित सीट अपने नाम कराया। स्कूल में मुझे आर्ट, खेल से लेकर अंग्रेज़ी तक से परिचय कराया गया - कम से कम मैं व्याकरण समझ जाता था, भले ही में अंग्रेजी में बात करने में कमज़ोर था - और सबसे महत्वपूर्ण बात वहां मेरी सोच को आकार मिला है।”

Parameswarudu Pulatota

34 वर्षीय परमेश्वरुद्दु पुलाटोटा परंपरागत चरवाहों, कुरुबस, के समुदाय से हैं और वर्तमान में हैदराबाद विश्वविद्यालय में डॉक्टरेट के छात्र हैं। पुलाटोटा ने जीवन में दो बार सकारात्मक कार्रवाई का इस्तेमाल किया है। पुलटोटा ने आरक्षण के बिना एमए पाठ्यक्रम और एक एम.फिल कार्यक्रम में प्रवेश पाया था। पुलाटोटा की सफलता अन्य पिछड़े वर्गों (ओबसी) द्वारा की गई प्रगति को दर्शाती है।

2004 में, योग्यता के आधार पर पुलाटोटा को हैदराबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश मिला - तब वहां केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कोई आरक्षण नहीं था।तीन साल बाद, अपने दूसरे प्रयास उसे एम.फिल कार्यक्रम में दाखिला मिला, एक बार फिर बिना किसी आरक्षण के।

2009 में, उन्हें पीएचडी कार्यक्रम में दाखिला मिला – इस बार ओबीसी कोटे के तहत प्रवेश मिला। पुलाटोटा कहते हैं, “यदि वहां ओबीसी के लिए कोटा नहीं होता तो शायद मैं डॉक्टरेट नहीं कर पाता।”

इतिहास कुछ सवाल उठाता है : अब जब उच्च शिक्षा के क्षेत्र में ओबीसी उच्च जातियों के बराबर दिखाई पड़ते हैं, तो क्या समय आ गया है कि ओबीसी के लिए आरक्षण को समाप्त कर दिया जाए? क्या अपनी पीएचडी के लिए आवेदन करते वक्त पुलाटोटा पिछड़े वर्ग में हुए जन्म के नुकसान से एक कदम आगे बढ़ा है?

इस सवाल का जवाब देना मुश्किल है क्योंकि आंकड़े जिसने पहली बार ओबीसी आरक्षण के लिए बाध्य किया था वह अब 85 साल पुराना है। तब से,सामान्य जनसंख्या में अन्य पिछड़े वर्ग के अनुपात का विभिन्न अनुमान लगाया गया है, 32 फीसदी (1955), 27 फीसदी (1991), 36 फीसदी (1999) और 41 फीसदी ( 2005)। यह भी प्रतीत होता है कि नामांकन - दर लाभ अन्य पिछड़े वर्ग और सवर्ण हिंदुओं के बीच जारी अंतराल प्रतिबिंबित नहीं कर रहा है।

क्या अपनी आबादी में हिस्सेदारी के अनुपात में ओबीसी में उच्च शिक्षा अधिक है? यह वास्तव में कोई नहीं जानता

1991 में, जब भारत ने राज्य स्तर पर मंडल आयोग - पिछड़ी जातियों की पहचान करने के लिए मानदंड निर्धारित करने के लिए, 1978 में बनाया एक आयोग - की सिफारिश पर उच्च शिक्षा संस्थानों में ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण की शुरूआत की , तब करीब 3743 से पिछड़े जाति के समूह थे जो भारतीय आबादी का करीब 52 फीसदी था।

2014 की यह अध्ययन कहती है, इस आंकड़े पर पहुंचने के लिए, आयोग ने 100 फीसदी अनुसूचित जाति - अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या की हिस्सेदारी से घटाया, गैर हिन्दू जनसंख्या 1971 की जनगणना के आधार पर थी, और हिंदू ऊंची जातियों की हिस्सेदारी 1931 की जनगणना से ली गई है। अवशिष्ट वास्तव में 43.7 था, जिसमें आधी गैर-हिंदू आबादी हिस्सेदारी को जोड़ा गया।

दूसरे शब्दों में, सामान्य जनसंख्या में उनकी अपेक्षा की 52 फीसदी हिस्सेदारी के खिलाफ उच्च शिक्षा का 27 फीसदी ओबीसी के लिए आरक्षित किया गया था। क्या सरकार का मानना ​​है कि हिस्सेदारी वास्तविकता से अधिक थी?

उच्च शिक्षा में आरक्षण: बड़ी संख्या

Source: SAGE Publications, All India Survey on Higher Education, , Ministry of Tribal Affairs, Sikh Institute, UNESCO, National Sample Survey Office

Notes:1. Gross Enrolment Ratio for Other Backward Classes and Muslims shown for 2000-01 is from 1999-2000.2. Gross Enrolment Ratio for Other Backward Classes and Muslims shown for 2014-15 is from 2009-10.3. OBC share of population: Kaka Kalelkar Commission estimate. OBC share in population has been variously reported since Independence, with no definite assessment as the last caste census in India was done in 1931.4. SC and ST literacy rates for 2014-2015 are from NSS 55th Round.5. OBC Literacy Rate: 54.8% rural, 75.3% urban6. Muslim Literacy rate: rural male 69.1%, urban male 81%, rural female 47.4%, rural male 65.5%

पिछले अनुमान, 1955 में कालेलकर आयोग ने अनुमान लगाया ओबीसी की आबादी का 32 फीसदी हो सकता है। 1999 राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार आबादी का 36 फीसदी ओबीसी था, जबकि 2004-05 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण ने कहा कि यह 41 फीसदी था।

कार्नेगी मेलॉन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा जून 2016 में प्रकाशित एक नए अध्ययन में कहा गया है कि, “वंचित जातियों के लिए कोटा शेयर उनकी जनसंख्या के शेयरों के अनुपात में काफी मोटे तौर पर किया गया है।” उस मामले में, जनसंख्या में अन्य पिछड़े वर्ग की हिस्सेदारी लगभग 27 फीसदी होगी, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उनके लिए आरक्षित स्थानों की हिस्सेदारी।

ओबीसी की जो भी जनसंख्या में हिस्सेदारी हो – 27 फीसदी या 32 फीसदी या 36 फीसदी या 41फीसदी - स्पष्ट रूप से उन्होंने उच्च शिक्षा में नामांकन में अनुसूचित जनजाति अनुसूचित जाति से भी बड़ा लाभ उठाया है। उच्च शिक्षा पर 2014-15 अखिल भारतीय सर्वेक्षण विभाग के अनुसार, अपनी आबादी की हिस्सेदारी के खिलाफ, उच्च शिक्षा में दाखिला लेने वाले 33 फीसदी छात्र ओबीसी से हैं।

तो, क्या ओबीसी के लिए आरक्षण वापस लिया जाना चाहिए ?

अश्विनी देशपांडे, दिल्ली विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री और राजेश रामचंद्रन , फ्रैंकफर्ट गेटे विश्वविद्यालय में एक अर्थशास्त्री, द्वारा 2014 में की गई एक अध्ययन कहती है – नहीं।

ओबीसी और अन्य लोगों के बीच की खाई का अध्ययन में - इन योग्यता के आधार पर प्रवेश - देशपांडे और रामचंद्रन ने पाया कि 9 फीसदी युवा ओबीसी (1976 और 1985 के बीच पैदा हुए) ने स्नातक की डिग्री प्राप्त किया है जबकि अधिक उम्र वाले ओबीसी छात्रों (1926 से 1935 के दशक में पैदा हुए) के लिए यही आंकड़े 0.4 फीसदी है।

अन्यों के स्नातक की डिग्री प्राप्त करने की संभावना में भी वृद्धि हुई है, इन आयु समूहों के लिए 4 फीसदी से 20 फीसदी, सामाजिक समूहों के बीच उच्च शिक्षा में अंतर को दर्शाती है। एक ईमेल साक्षात्कार में इंडियास्पेंड से बात करते हुए देशपांडे ने बताया कि, “अन्यों ने बेहतर प्रदर्शन किया है, ओबीसी .दर्शाता है कि उन्हें अब भी आरक्षण की आवश्यकता है।”

स्थाबीर खोरा , एसोसिएट प्रोफेसर, स्कूल ऑफ एजुकेशन , टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, मुंबई, के अनुसार, “न्य पिछड़ा वर्ग और सवर्ण नामांकन दरों की तुलना, ओबीसी और राष्ट्रीय दर के बीच संकीर्ण अंतर से बड़ा फर्क दिखा सकते हैं।”

ओबीसी आरक्षण की समीक्षा करने का मामला

आंकड़े दिखाने के साथ, ओबीसी, सकल नामांकन दर में राष्ट्रीय औसत (जीईआर) के बराबर है - उम्र की परवाह किए बिना, दिए गए शैक्षणिक वर्ष में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में वास्तविक नामांकन का प्रतिशत - ओबीसी के भीतर की पहचान करने और प्रमुख जातियों को बाहर करने में मदद मिलेगी।

राज्य स्तर पर, केंद्रीय ओबीसी सूची में शामिल जातियों के उप- वर्गीकृत वर्गों ए / बी / सी / डी में किया गया है। उदाहरण के लिए, पुलाटोटा के सामुदायिक , कुरुबा, आंध्र प्रदेश के लिए केंद्र सरकार की ओबीसी सूची में शामिल है और राज्य के पिछड़ा वर्ग सूची में खंड 'बी' में दर्ज है। जैसा कि हमने लेख के पहले भाग में संकेत दिया है कि "क्रीमी लेयर" को उन लोगों की कीमत पर लाभ न मिले जिन्हें वास्तव में इसकी ज़रुरत है, यह सुनिश्चित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह की आवधिक समीक्षा का समर्थन किया है।

यहां दिया गया है कि किस प्रकार पिछड़े वर्ग के लिए राष्ट्रीय आयोग पिछड़े वर्गों की सूची में समय-समय पर संशोधन के पीछे दर्शन का वर्णन करता है : "आरक्षण उन पिछड़े वर्ग के लिए जिन्हें इसकी ज़रुरत है और जो इसके बगैर विकलांग हैं, और उन लोगों के लिए नहीं है जो इनका खुद लाभ उठा रहे हैं और आरक्षण के लाभों का आनंद ले पिछड़े नहीं रह गए हैं।”

इस अभ्यास के ज़रिए, “जातियां / समुदाय जो समाज के आगे वर्गों के स्तर पर पहुंच गए हैं, उन्हें चाहिए कि वे जगह उन लोगों को दें जो विकास के इस स्तर तक नहीं पहुंचे हैं और जिन्हें आरक्षण की सबसे अधिक आवश्यकता है।”

जैसा कि हमने बताया कि, चुनौती यह है कि, सटीक समीक्षा के लिए डेटा की कमी है। पिछले जाति जनगणना 1931 में आयोजित की गई थी। केवल कर्नाटक में पिछड़ा वर्ग आयोग ने, प्रमुख जातियों के शामिल किए जाने पर काफी बहस के बाद जातियों की एक व्यापक जनगणना का आयोजन किया है।

खोरा कहते हैं, जाति को पूरी तरह से अनुमति न देने की बजाय संभावित लाभार्थियों की पहचान करने से जरूरतमंद लोगों को प्रत्यक्ष आरक्षण के मदद मिल सकती है।

वह कहते हैं, “इससे उच्च सरकार और कंपनियों के पदों और उच्च आय वाले परिवार के बच्चों को आरक्षण की अनुमति पर रोक लगाएगा।”

तीन श्रृंखला लेख का यह दूसरा भाग है। पहला भाग आप यहां पढ़ सकते हैं। तीसरा और अंतिम भाग कल प्रकाशित होगा।

(बाहरी माउंट आबू , राजस्थान स्थित एक स्वतंत्र लेखक और संपादक हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 21 जुलाई 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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