‘एक दिन की मजदूरी के बदले 55 रुपए, कैसे चलेगा परिवार’? लाखों बच्चों का पेट भरने वालीं मिड डे मील रसोइयों का हाल बेहाल
लखनऊ। तारीख तीन दिसंबर 2024। जगह देश की राजधानी नई दिल्ली स्थित जंतर-मंतर। 14 राज्यों से सैकड़ों मिड-डे मील वर्कर्स मिड-डे मील वर्कर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (MDMWFI) के बैनर तले इकट्ठा हुए। इन मिड-डे मील वर्कर्स ने रोजगार के नियमितीकरण, साल में 12 महीने के लिए 26,000 रुपए प्रति माह का न्यूनतम वेतन, सामाजिक सुरक्षा लाभ और अपने लिए पेंशन की मांग की। हालांकि उनकी ये मांग नयी नहीं है।
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगभग 130 किलोमीटर लखीमपुर खीरी के फूलबेहड़ ब्लॉक में प्राथमिक विद्यालय मैनहा में कार्यरत रसोइया रामदेवी (42 वर्ष) 20 साल से मिड-डे मील (एमडीएम) के तहत बच्चों के लिए स्कूल में बनने वाला खाना बनाती हैं।
“करीब 10 साल पहले 500 रुपए प्रति महीने से शुरुआत की थी। अब 2,000 रुपए महीना मानदेय मिलता है। इतनी महंगाई में इतने पैसों में गुजारा करना मुश्किल होता है। लेकिन जब भी हम लोग मानदेय बढ़ाने की बात करते हैं तो यही बोला जाता है कि बढ़ेंगे। लेकिन कब बढ़ेगा, यह कोई नहीं बताता।” वे आगे बताती हैं।
रामदेवी यह भी कहती हैं कि स्कूल गांव में ही है। कहीं बाहर जाना मुश्किल है। ऐसे में कुछ पैसा मिल जाता है तो घर चलाने में मदद तो मिल ही जाती है। वे बाहर काम करने की अपेक्षा गांव में काम करना सुरक्षित मानती हैं।
दो हजार प्रति महीना मतलब लगभग 67 रुपए रोज। इसके लिए उन्हें स्कूल में करीब 6 से 7 घंटे काम करना पड़ता है। मध्य प्रदेश के सतना में रहने वालीं सुषमा कुमारी और बिहार के मुजफ्फरपुर की रसोइया वंदना कुमारी की कहानी भी रामदेवी की तरह ही है।
सुषमा बताती हैं कि उन्हें साल में 9 से 10 महीने काम मिलता है और उन्हें प्रति महीने 2000 रुपए प्रति वेतन के रूप में मिलता है। वहीं वंदना को 1,650 रुपए का भुगतान किया जाता है।
मध्याह्न भोजन कार्यक्रम (मिड-डे मील) के तहत सह सहायक के रूप 6 में 8 घंटे काम करने वालीं ज्यादातर राज्यों में रसोइयों को अभी भी 2009 में तय हुई रकम 1,000 रुपए प्रति महीने के अनुसार ही पैसा मिल रहा है। मतलब 15 साल भी महीने का वेतन अपरिवर्तित है। हालांकि राज्य सरकार अपने हिसाब से पैसा बढ़ा सकती है। केंद्र सरकार की ओर से तय राशि का 60% हिस्सा वह खुद देती है और बाकी का 40 फीसदी का भुगतान राज्य सरकार करती है। हालांकि पहाड़ी राज्य में ये हिस्सेदारी 90:10 है। रसोइयों को ग्रीष्मावकाश के दो महीने मई-जून को छोड़कर 10 महीने का मानदेय दिया जाता है।
केंद्र सरकार ने एक सवाल के जवाब में बताया कि केरल सबसे ज्यादा 12,000 रुपए का भुगतान करता है तो वहीं दिल्ली, गोवा और कई पूर्वोत्तर राज्यों सहित 10 राज्यों में यह सिर्फ 1,000 रुपए है। राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी, जिसके नीचे कोई भी राज्य अपना न्यूनतम वेतन तय नहीं कर सकता जो 5,340 रुपए प्रति माह यानी लगभग 178 रुपए प्रति दिन है। लेकिन चूंकि रसोइया-सह-सहायक (सीसीएच) को श्रमिक के रूप में मान्यता नहीं दी गई है, इसलिए सरकार न्यूनतम मजदूरी देने के लिए बाध्य नहीं है। संसद में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर में सरकार ने बार-बार कहा है "सीसीएच मानद कार्यकर्ता हैं जो सामाजिक सेवाएं प्रदान करने के लिए आगे आए हैं।"
वंदना पिछले 12 साल से बतौर रसोइया काम कर रही हैं। वे कहती हैं कि महज 1,650 रुपए से कोई खुद अकेले का महीनेभर का खर्च कैसे चला सकता है? परिवार चलाने की तो बात ही बहुत दूर है।
“कोई भी सब्जी 40-50 रुपए किलो से कम नहीं है। फलों की तो बात ही दूर है। दाल और तेल की कीमत हम महीने बढ़ रही है। हमारे पास तो खेती-बाड़ी भी नहीं है। ऐसे में कम करने और न करने से बहुत फायदा नहीं है। हमें तो एक दिन की मजदूरी के बदले 55 रुपए ही मिलते हैं। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इतना पैसा भी समय पर नहीं मिलता है। कई बार तो 6-7 बाद वेतना मिलता है।” वंदना नाराज होते हुए इंडिया स्पेंड को फोन पर बताती हैं।
रसोइयों के वेतमान में भले ही बहुत बढ़ोतरी ना हो रही हो, लेकिन भारत की खुदरा/रिटेल महंगाई दर की बात करेंगे तो यह पिछले 10 वर्ष में दोगुनी की रफ्तार से बढ़ा है। सांख्यिकी मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार नवंबर 2024 में खुदरा महंगाई दर 5.48 प्रतिशत रही जो वर्ष नवंबर 2014 में 3.27 फीसदी पर थी। नवंबर 2020 में तो ये लगभग 7% तक पहुंच गई थी। पिछले 12 वर्षों में सांसदों का वेतन भी तीन बढ़ा और अब बढ़कर एक लाख रुपए महीना हो गया है। सरकारी कर्मचारियों के लिए शुरुआती वेतन 2008 में छठे वेतन आयोग ने 2,550 से बढ़ाकर 7,000 रुपए कर दिया और बाद में 2015 में सातवें वेतन आयोग के बाद 18,000 रुपए हो गया। लेकिन रसोइयों का वेतन वहीं का वहीं है।
मिड-डे- मील योजना के तहत 11 लाख से अधिक स्कूलों के लगभग 12 करोड़ बच्चों को शामिल किया गया है। उत्तर प्रदेश मिड-डे-मील अथॉरिटी की उप निदेशक नीलम कहती हैं हमारे पास मांग तो आती रहती है। लेकिन जब तक बजट नहीं होगा, वेतन बढ़ नहीं सकता। हम कई प्रदेश से ज्यादा वेतन दे रहे हैं और कोशिश भी कर रहे हैं कि रसोइयों को ज्यादा से ज्यादा से काम मिले।
एमडीएमडब्लूएफआई के उपाध्यक्ष जयभगवान ने तीन दिसंबर को आयोजित रैली का समापन करते हुए कहा कि यदि संसद के आगामी बजट सत्र में वेतन वृद्धि और नियमितीकरण की मांगों पर ध्यान नहीं दिया गया तो देशभर में आंदोलन होगा।
“केंद्र सरकार ने वर्ष 2009 में वेतन तय किया था। तब से लेकर आज तक केंद्र सरकार की ओर से कोई भी बढ़ोतरी नहीं की गई। ऐसे में वर्कर्स काम कैसे करेंगे? सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए।” जयभगवान आगे कहते हैं।
बिहार राज्य विद्यालय रसोइया संघ से जुड़े पंकज कुमार बताते हैं कि रसोइयों को 21 हजार रुपए मानदेय देने, राज्यकर्मी का दर्जा देने, केंद्रीकृत किचेन को रद्द करने जैसी मांगों को लेकर उनका संघ लंबे समय से मांग कर रहा है।
"रसोइयों को 10 महीने का ही वेतन मिलता है। स्कूल में उनसे खाना बनाने के अलावा दूसरे काम भी करवाये जाते हैं। बर्तन भी धुलवाया जाता है। जबकि इसके बदले उन्हें राज्य में महज 1,650 रुपए महीने का भुगतान हो रहा, मतलब 55 रुपए प्रतिदिन। इतने पैसे में किसी का परिवार चल सकता है क्या?" पंकज सवाल करते हैं।
मिड डे मील वर्कर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया की महासचिव मालिनी मेस्ता कहती हैं कि देश में 25 लाख के करीब मिड डे मील वर्कर काम कर रही हैं। जो देश के 12 करोड़ बच्चों के लिए दोपहर का भोजन बनाती हैं और देश के भविष्य को तैयार करने में लगी है। यह बहुत दुखद है कि महिलाओं के सशक्तिकरण का दावा करने वाली केन्द्र सरकार द्वारा पिछले 11 साल से मिड डे मील वर्कर्स के मानदेय में एक रुपए की भी बढ़ोतरी नहीं की है।
"केन्द्र सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनइपी) -2020 लेकर आई है। उसमें कम बच्चों वाले स्कूलों को बंद किया जा रहा है और स्कूल मर्ज किए जा रहे हैं। देश भर में इसके चलते हजारों-हजार स्कूल बंद हो चुके हैं। इनमें अधिकतर लड़कियों के प्राथमिक स्कूल हैं। सरकार की इन्हीं नीतियों के चलते पिछले 10 साल में ही देश में करीब 2 लाख मिड डे मील वर्कर्स का रोजगार छीना गया है।"
"मिड डे मील वर्कर्स को भी शिक्षकों व अन्य स्टाफ की तरह 12 महीने वेतन मिलना चाहिए और यह 26,000 रुपए से कम नहीं होना चाहिए। योजना में अधिक बजटीय प्रावधान किया जाए। करीब 30 साल से यह योजना जारी है लेकिन जिन वर्करों ने इस योजना में सालों काम किया उन्हें सेवानिवृति के समय एक रुपया तक नहीं मिलता। स्कूल में ड्यूटी के दौरान भोजन बनाते हुए दुर्घटनाओं में घायल हो जाते हैं, वर्करों की मौत हो जाती है लेकिन किसी प्रकार की आर्थिक मदद का प्रावधान नहीं है।" मालिनी आगे कहती हैं।
मिड डे मील वर्कर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया की प्रमुख मांगें
45वें श्रम सम्मेलन के निर्णय अनुसार मिड डे मील वर्कर्स को 26 हजार रुपये न्यूनतम वेतन दिया जाए। वेतन 12 महीने मिले।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 रद्द हो। किसी की छंटनी न की जाए। छंटनीग्रस्त वर्करों की बहाली की जाए।
सभी वर्करों को रिटायरमेंट पर लाख रुपये व सामाजिक सुरक्षा लाभ प्रदान किए जाएं।
12वीं कक्षा तक के सभी बच्चों को मिड डे मील योजना के दायरे में लाया जाए।
मिड डे मील योजना में कारपोरटस एनजीओ और केन्द्रीय रसोईघरों पर रोक लगे व निजीकरण बंद हो।
"महंगाई को ध्यान में रखते हुए क्या आज के समय में परिवार के एक मात्र कमाने वाले के लिए 2,000 रुपए पर्याप्त हैं," भदोही की एक मिड-डे मील वर्कर ने सवाल किया जो सप्ताह में लगभग छह दिन प्रतिदिन लगभग छह घंटे काम करती हैं।
“हमारा काम आसान नहीं है, खासकर गर्मियों के मौसम में जब हम एक बार में लगभग 250 से 300 छात्रों के लिए भोजन तैयार करते हैं। सरकारी स्कूलों में कर्मचारियों की कमी की समस्या है। कई बार हमसे चपरासी या सफाईकर्मी का काम करने की उम्मीद की जाती है।” नाम न बताने की शर्त पर उन्होंने आगे बताया।