पूर्वांचल के गांवों में घुलता आर्सेनिक का जहर, अनजाने में हर घूंट के साथ मौत के करीब जा रहे लोग !
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के जिलों में आर्सेनिक युक्त पानी पीने से वहा के लोगो पर स्वास्थ्य संकट गहराता जा रहा है, लिया, गाजीपुर, गोरखपुर जैसे जिलों में भूजल में आर्सेनिक की मात्रा WHO के मानक से 100 गुना तक अधिक है, जिससे कैंसर, त्वचा रोग और गर्भपात जैसी गंभीर समस्याएं पैदा हो रही हैं।

आर्सेनिक की वजह से पूर्वांचल के जिलों में त्वचा रोग से ग्रस्त एक महिला के हाथ। फोटो: विजय विनीत
वाराणसी: उत्तर प्रदेश की एक बड़ी ग्रामीण आबादी आज आर्सेनिक के एक अदृश्य खतरे से जूझ रही है। यह वह धीमा ज़हर है जो अनजाने में ही लाखों लोगों के शरीर में प्रवेश कर रहा है और उनके स्वास्थ्य को भीतर से खोखला कर रहा है। नई दिल्ली स्थित टेरी स्कूल ऑफ एडवांस्ड स्टडीज के शोधकर्ता डॉ. चंदर कुमार सिंह के अनुसार, उत्तर प्रदेश के कई जिलों में भूजल में आर्सेनिक की उच्च मात्रा गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट का कारण बन सकती है। विशेष रूप से बलिया, गोरखपुर, गाजीपुर, फैजाबाद और देवरिया जैसे जिलों में स्थिति चिंताजनक है।
इस अध्ययन के तहत, शोधकर्ताओं ने विशेष किट की मदद से भूजल के नमूनों का परीक्षण किया और प्रयोगशाला परीक्षणों से आंकड़ों की वैधता की पुष्टि की। शोधकर्ता डॉ. चंदर कुमार सिंह और उनकी शोध छात्रा सोनल बिंदल ने उत्तर प्रदेश के सभी जिलों में भूजल नमूनों का विश्लेषण किया। उन्होंने एक विशेष किट की मदद से आर्सेनिक की उपस्थिति की जांच की और फिर इन आंकड़ों की पुष्टि प्रयोगशाला में की गई। इसके बाद उन्नत कंप्यूटर मॉडलिंग तकनीकों का उपयोग कर प्रभावित क्षेत्रों का मानचित्र तैयार किया गया। इस अध्ययन में 20 प्रमुख मापदंडों को ध्यान में रखा गया, जिनमें भौगोलिक स्थिति, जलकूपों की गहराई, मिट्टी की रासायनिक एवं जैविक संरचना, वाष्पन, भूमि की ढलान, नदी से दूरी, बहाव क्षेत्र और स्थलाकृति शामिल हैं।
उत्तर प्रदेश की लगभग 78 फीसदी आबादी गांवों में रहती है और उनका जीवन पूरी तरह से भूजल पर निर्भर करता है। शहरों में जहां पाइपलाइन से पानी की आपूर्ति होती है, वहीं ग्रामीण इलाकों में लोग हैंडपंप और कुओं का पानी पीने को मजबूर हैं। यह पानी धीरे-धीरे उनके शरीर में ज़हर घोल रहा है और उन्हें गंभीर बीमारियों की ओर धकेल रहा है। हालांकि सरकार ने इस गंभीर समस्या से निपटने के लिए कई योजनाएं बनाई है, लेकिन जमीनी स्तर पर अभी भी व्यापक प्रयास की जरूरत है।
भारतीय शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अध्ययन से यह चिंताजनक तथ्य सामने आया है कि उत्तर प्रदेश के 40 जिलों के भूजल में आर्सेनिक का स्तर सामान्य से अधिक है। अध्ययन के अनुसार, राज्य के उत्तर-पूर्वी जिलों में भूजल में आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर पर पाई गई है। विशेष रूप से गंगा, राप्ती और घाघरा नदियों के मैदानी क्षेत्र इससे सबसे अधिक प्रभावित हैं। बलिया, गोरखपुर, गाजीपुर, बाराबंकी, गोंडा, फैजाबाद और लखीमपुर खीरी जैसे जिले आर्सेनिक प्रदूषण से सबसे अधिक प्रभावित हैं, जबकि शाहजहांपुर, उन्नाव, चंदौली, वाराणसी, प्रतापगढ़, कुशीनगर, मऊ, बलरामपुर, देवरिया और सिद्धार्थनगर के भूजल में आर्सेनिक का स्तर मध्यम दर्जे का पाया गया है।
खतरे में 2.34 करोड़ लोगों की जिंदगी
डॉ. चंदर कुमार सिंह की माने तो उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में जल संकट एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या बनता जा रहा है। वह कहते हैं, "अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ है कि प्रदेश की लगभग 2.34 करोड़ ग्रामीण आबादी आर्सेनिक से दूषित भूमिगत जल के उपयोग से प्रभावित हो रही है। यह समस्या उन क्षेत्रों में अधिक गंभीर है जहां पाइप लाइन जल आपूर्ति कमजोर है और लोग पीने व अन्य आवश्यक कार्यों के लिए हैंडपंप एवं कुओं के जल पर निर्भर हैं।"
उत्तर प्रदेश के 25 जिलों के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा मानकों से अधिक पाई गई है, जबकि 18 जिलों में फ्लोराइड और आर्सेनिक दोनों की उच्च मात्रा दर्ज की गई है। एक सरकारी रिपोर्टों के अनुसार, "उत्तर प्रदेश की 707 बस्तियां आर्सेनिक प्रदूषित पानी से प्रभावित हैं। जल शक्ति मंत्रालय द्वारा संसद में प्रस्तुत आंकड़ों के मुताबिक, 2015 में देशभर में 1,800 बस्तियां आर्सेनिक प्रभावित थीं, जबकि 2017 तक यह संख्या बढ़कर 4,421 हो गई, जो महज दो वर्षों में 145 फीसद की वृद्धि दर्शाती है। हाल के दिनों में यूपी में आर्सेनिक की समस्या पर कोई नया शोध नहीं हुआ है।"
डॉ. सिंह के अनुसार, "उत्तर प्रदेश के 40 जिलों में 1,680 भूजल नमूनों का परीक्षण किया गया, जिसमें उत्तर-पूर्वी जिलों में आर्सेनिक की मात्रा अधिक पाई गई। इनमें बलिया, गाजीपुर, गोरखपुर, फैजाबाद, बाराबंकी, गोंडा और लखीमपुर खीरी सबसे अधिक प्रभावित जिले हैं। इसके अलावा, शाहजहांपुर, उन्नाव, चंदौली, वाराणसी, प्रतापगढ़, कुशीनगर, मऊ, बलरामपुर, देवरिया और सिद्धार्थनगर में भूजल में आर्सेनिक की मध्यम मात्रा दर्ज की गई। इन जिलों की विशेष भौगोलिक स्थितियां, जैसे गंगा, राप्ती और घाघरा जैसी नदियों के मैदानों में स्थित होना, भूजल में आर्सेनिक की अधिकता का एक प्रमुख कारण मानी जाती है।"
उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में लाखों लोग हैंडपंपों और कुओं पर निर्भर हैं, लेकिन जब यही जल आर्सेनिक युक्त होता है, तो यह धीरे-धीरे गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म देता है। शोध के अनुसार, "प्रदेश के कई क्षेत्रों में भूजल में आर्सेनिक की मात्रा 1,000 पीपीबी (पार्ट्स पर बिलियन) से अधिक पाई गई है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा निर्धारित 10 पीपीबी की सुरक्षित सीमा से 100 गुना अधिक है।"
डॉ. चंदर ने चेतावनी दी है कि बलिया, गाजीपुर, गोरखपुर, फैजाबाद और देवरिया जैसे जिलों में सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट गहराता जा रहा है। वह कहते हैं, "आर्सेनिक प्रदूषित पानी के लंबे समय तक उपयोग से त्वचा संबंधी रोग और कैंसर, फेफड़े और मूत्राशय का कैंसर, हृदय और रक्त संचार प्रणाली से जुड़ी समस्याएं, गर्भपात और शिशु मृत्यु दर में वृद्धि, बच्चों के बौद्धिक विकास में बाधा समेत कई गंभीर बीमारियां हो सकती हैं। उत्तर प्रदेश के कई जिलों में आर्सेनिक प्रदूषण एक गंभीर समस्या बन चुका है, जिससे लाखों लोग प्रभावित हो रहे हैं। सरकार को चाहिए कि आर्सेनिक युक्त पानी के सेवन से बड़े पैमाने पर हैंडपंप और ट्यूबवेल के पानी की नियमित जांच करनी चाहिए।"
करोड़ों लोगों पर मंडरा रहा खतरा
पूर्वांचल में पानी में तेजी से घुल रहे आर्सेनिक पर पश्चिम बंगाल स्थित जादवपुर विश्वविद्यालय के पर्यावरण वैज्ञानिक डॉ तारित रॉय चौधरी ने भी गहन पड़ताल की है। डॉ चौधरी ने उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के उन सभी जिलों में आर्सेनिक की स्थिति की पड़ताल की है जो नदियों के किनारे बसे हैं। उन्होंने अपनी शोध रिपोर्ट में साफतौर पर चेताया है कि अगर प्रभावी रणनीति न अपनाई गई तो आर्सेनिक और फ्लोराइड प्रदूषण देश में गंगा-ब्रह्मपुत्र के मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकता है।
डॉ चौधरी पिछले 25 वर्षों से पश्चिम बंगाल और भारत के अन्य हिस्सों में आर्सेनिक को लेकर किये जा रहे अध्ययनों में शामिल रहे हैं। उनके अनुसार 1989 में पहली बार इस समस्या की पहचान की गई थी, जिसके बाद से इसके प्रदूषण में वृद्धि हुई है। वह कहते हैं कि भागीरथी नदी के पूर्वी और पश्चिमी तट पर स्थित पश्चिम बंगाल के नौ जिले आर्सेनिक से अत्यधिक प्रभावित हैं, जबकि उत्तरी बंगाल के पांच जिले आर्सेनिक से मामूली रूप से दूषित हैं।
जर्नल ग्राउंडवाटर फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में डॉक्टर रॉय चौधरी और उनकी टीम ने पाया कि रोजाना आर्सेनिक दूषित आहार का सेवन बच्चों के स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरे पैदा कर सकताहै। इस अध्ययन के मुताबिक आर्सेनिक विषाक्तता भविष्य में कैंसर का कारण बन सकती है। इतना ही नहीं मवेशियों और फिर उनके माध्यम से इंसानों और पर्यावरण को प्रभावित कर सकती है।
डा.चौधरी ने दूषित भूजल के निरंतर उपयोग के पीछे घनी आबादी, अज्ञानता और गरीबी को कारण माना है। ऐसे में इससे बचने के स्थाई समाधान के रूप में उन्होंने वर्षा जल संचयन और सतह के जल के उपचार जैसे वैकल्पिक तरीकों का सुझाव दिया है। उन्होंने आगे जानकारी दी कि देश के इस हिस्से में आर्सेनिक प्रदूषण विशुद्ध रूप से भूगर्भीय है। उनके अनुसार आर्सेनिक का खतरा केवल पश्चिम बंगाल तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह समस्या उत्तर प्रदेश में कानपुर-इलाहाबाद, वहीं उत्तराखंड, बिहार और झारखंड सहित कई राज्यों में है।
रिसर्च से पता चला है कि, "गंगा-ब्रह्मपुत्र के मैदानी इलाकों वाले छह भारतीय राज्यों में करीब 7.04 करोड़ लोगों पर आर्सेनिक का खतरा मंडरा रहा है, जहां भूजल में आर्सेनिक की मात्रा 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से भी ज्यादा है। पता चला है कि भारत-गंगा के बाढ़ के मैदानों के निचले हिस्सों मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, भारत और बांग्लादेश को आर्सेनिक-प्रदूषण के हॉटस्पॉट के रूप में चिन्हित किया गया है।"
डा.चौधरी और उनके सहयोगियों द्वारा किए एक अन्य अध्ययन से पता चला है कि पश्चिम बंगाल में एक आर्सेनिक प्रभावित गाय या बैल के दैनिक आहार में आर्सेनिक की मात्रा सामान्य की तुलना में 4.56 गुणा ज्यादा थी। इसी तरह आर्सेनिक प्रदूषण की चपेट में आने वाली बकरियों के दैनिक आहार में सामान्य की तुलना में 3.65 गुणा अधिक आर्सेनिक था। शोध में गाय के दूध, उबले अंडों की जर्दी और सफेदी, जिगर और मांस जैसे पशु प्रोटीन में काफी मात्रा में आर्सेनिक पाया गया है। पता चला है कि फास्फोरसरीन यूनिट्स की उपस्थिति के कारण गाय के दूध में ज्यादातर आर्सेनिक, कैसिइन (83 फीसदी) में जमा होता है।
डा. चौधरी बताते हैं कि, "पहले आर्सेनिक और फ्लोराइड केवल पीने के पानी के रूप में भूजल के उपयोग से इंसानों में पहुंच रहा है। लेकिन अब ये दोनों दूषित पदार्थ पीने के पानी के साथ-साथ, खाद्य श्रृंखला के जरिए, विशेष तौर पर गर्मी के मौसम में इंसानों के शरीर में पहुंच रहे हैं। उनके अनुसार इसके लिए कृषि और मवेशियों के लिए इस दूषित भूजल का किया जा रहा उपयोग जिम्मेवार है।"
रिसर्च के मुताबिक जहां इस क्षेत्र में नियमित रूप से उपभोग किए जाने वाले खाद्य पदार्थों के हिसाब से देखें तो जहां पीने के पानी से स्वास्थ्य के लिए आर्सेनिक का जोखिम सबसे ज्यादा था। वहीं इसके बाद चावल, गाय का दूध, चिकन, अंडा और फिर मांस का नंबर आता है। वहीं शोध के मुताबिक इस क्षेत्र में बच्चों की तुलना में वयस्कों में कहीं ज्यादा जोखिम दर्ज किया गया है।
शोध रिपोर्ट के मुताबिक, खाद्य पदार्थों से गंभीर कैंसर का खतरा उतना नहीं है लेकिन इसके बावजूद पशुओं से मिलने वाले प्रोटीन को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। शोधकर्ताओं का सुझाव है कि मवेशियों के लिए तत्काल सतही जल की व्यवस्था की जानी चाहिए। वहीं आर्सेनिक के गंभीर खतरे से उबरने के लिए प्रभावित इंसानी आबादी के लिए आर्सेनिक मुक्त पेयजल और पोषक तत्वों की उचित खुराक का अनिवार्य रूप से प्रबंध किया जाना चाहिए।
उनके अनुसार चिंता की बात धान में आर्सेनिक का पाया जाना है, जोकि भारत की मुख्य खाद्यान्न फसल है। उनके मुताबिक आज हम जो कुछ खाते हैं चाहे वो चावल, दालें या सब्जियां हो वो आर्सेनिक और फ्लोराइड से दूषित हो चुकी हैं। आर्सेनिक और फ्लोराइड दोनों हमारे शरीर की आंतरिक प्रणाली को प्रभावित करते हैं।
सरकारी आंकड़ों और स्वतंत्र शोधकर्ताओं की रिपोर्ट के अनुसार, यह समस्या सरकारी दावों से कहीं अधिक भयावह है। पटना के महावीर कैंसर संस्थान (MCSRC) के शोध प्रमुख डॉ. अशोक कुमार घोष के अनुसार, " साल 1970 के दशक से भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण जलस्रोतों की रासायनिक संरचना में बदलाव आया, जिससे आर्सिनोपायराइट खनिज आयनिक रूप में परिवर्तित होकर पानी में घुलने लगा। यह वही तत्व है जो हिमालय से बहकर आने वाली नदियों में मौजूद था, लेकिन पहले पानी में नहीं घुलता था।"
डॉ. अरुण कुमार, जो कई वर्षों से आर्सेनिकोसिस प्रभावित क्षेत्रों पर शोध कर रहे हैं। वह बताते हैं, "हमारी फील्ड रिसर्च में पाया गया है कि प्रभावित क्षेत्रों में कई लोग 500 पीपीबी से अधिक आर्सेनिक युक्त पानी का सेवन कर रहे हैं, जबकि सुरक्षित सीमा 10 पीपीबी है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक 10 व्यक्तियों में से 1 को कैंसर होने की संभावना बढ़ जाती है।"
केंद्र सरकार ने कुछ साल पहले संसद में स्वीकार किया है कि देश के 21 राज्यों के 150 जिलों में आर्सेनिक की समस्या व्याप्त है। उत्तर प्रदेश के 75 में से 28 जिले और बिहार के 38 में से 22 जिले इससे प्रभावित हैं। हालांकि, जमीनी रिपोर्ट्स इंगित करती हैं कि स्थिति सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक गंभीर है। वर्ल्ड वाटर क्वालिटी इंडेक्स में भारत की रैंकिंग 122 देशों में 120वीं है, और यहां का 70 फीसदी पानी प्रदूषित है।
केंद्र सरकार ने पीने के पानी की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए वर्ष 2015-16 में 150 करोड़ रुपये की धनराशि वाटर एंड सेनिटेशन मिशन को दी थी, ताकि उत्तर प्रदेश के सभी गांवों, कस्बों और शहरों के पेयजल स्रोतों की जियोग्राफिकल क्वालिटी टेस्टिंग कराई जाए और इसकी रिपोर्ट को पोर्टल पर सार्वजनिक किया जाए।
वाटर एंड सेनिटेशन मिशन, उत्तर प्रदेश ने इस कार्य के लिए दो एजेंसियों को जिम्मेदारी सौंपी, जिनमें से एक थी एडीसीसी इंफोकेड प्राइवेट लिमिटेड, नागपुर। इन एजेंसियों ने अपनी सर्वे रिपोर्ट की हार्ड कॉपी सभी जिलों के मुख्य विकास अधिकारियों को सौंपी। रिपोर्ट के अनुसार, 25 जिलों में आर्सेनिक की मात्रा मानक से अधिक पाई गई। रिपोर्ट का 60 प्रतिशत सत्यापन जिला स्तर पर किया जाना था, लेकिन अधिकांश जनपदों में यह रिपोर्ट आज भी अलमारियों में बंद पड़ी है। इस रिपोर्ट को राज्य पेयजल एवं स्वच्छता मिशन को सॉफ्ट कॉपी के माध्यम से पोर्टल पर अपलोड करना था, लेकिन वह पोर्टल अब तक तैयार नहीं हो सका।
प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस सूचना को शिकायत मानते हुए इसे मुख्यमंत्री जनसुनवाई पोर्टल पर निस्तारण के लिए भेज दिया। शिकायत को संदर्भ संख्या 6000190107115 दी गई, लेकिन तीन महीने बाद बिना समुचित जांच के इसे कानपुर नगर से निस्तारित दिखा दिया गया। केंद्र सरकार ने सर्वेक्षण शुरू होने से पहले ही निर्देश दिया था कि इसकी हार्ड और सॉफ्ट कॉपी सभी जिलों के जिला विकास अधिकारियों को दी जाए, ताकि वे अपने स्तर पर कारगर उपाय कर सकें।
रिपोर्ट के मुताबिक, अलीगढ़, आजमगढ़, बहराइच, बलिया, बाराबंकी, देवरिया, फैजाबाद, गाजीपुर, गोंडा, गोरखपुर, जौनपुर, झांसी, ज्योतिबा फुले नगर, कुशीनगर, लखीमपुर खीरी, लखनऊ, महाराजगंज, मथुरा, मिर्जापुर, पीलीभीत, संत कबीर नगर, शाहजहांपुर, सिद्धार्थनगर, सीतापुर और उन्नाव आर्सेनिक से प्रभावित हैं। बावजूद इसके, वाटर एंड सेनिटेशन मिशन ने इस गंभीर स्थिति का समुचित आकलन नहीं किया, जिससे प्रभावित बस्तियों में रहने वाले नागरिकों के स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रतिकूल प्रभावों की अनदेखी हुई। रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में 707 जगह आर्सेनिक प्रभावित हैं, जिनमें से 164 निवास स्थान ऐसे हैं जहां अब तक पाइप वाटर नहीं पहुंच पाया है। राज्य में 44 बस्तियों में दिसंबर 2020 तक पाइप लाइन से पानी पहुंचाया जाना था और हैंडपंपों को हटाया जाना था, लेकिन आर्सेनिक प्रदूषित बस्तियों में हैंडपंपों को हटाने का काम अब तक पूरा नहीं हुआ है।
नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, देश की 84 प्रतिशत आबादी को सुरक्षित पेयजल आपूर्ति नहीं मिल रही है, जबकि 90 प्रतिशत पेयजल भूमिगत स्रोतों से प्राप्त किया जाता है। रिपोर्ट के मुताबिक, देश की 84 प्रतिशत जनसंख्या को अब भी घरों में नलों के जरिए सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। 90 प्रतिशत लोग पीने का पानी हैंडपंप या सबमर्सिबल पंप से प्राप्त कर रहे हैं। अत्यधिक जल दोहन के कारण भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है, जिससे पानी में आर्सेनिक और अन्य विषैले तत्वों की मात्रा बढ़ रही है।
जीवन में घुलता आर्सेनिक
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में आर्सेनिक का सबसे ज्यादा असर गाजीपुर और बलिया में उभरकर सामने आया है। गाजीपुर जिले के करकटपुर गांव में एक दर्दनाक सच्चाई छुपी हुई है, जिसे कोई देख नहीं पा रहा। यहां के लोग, जो एक समय अपने खेतों में हंसी-खुशी काम करते थे, आज आर्सेनिक नामक जहर से अपनी ज़िन्दगी की जंग लड़ रहे हैं। 55 वर्षीय बिजेंद्री देवी की कहानी इस दर्द का एक नमूना है। उनके सीने पर लाल चकत्ते और दाने उभर आए हैं, और उनकी आंखों में अतीत की यादें तैरती हैं—जब वह तेज़ कदमों से खेतों में काम करती थीं, घर संभालती थीं और खुश रहती थीं। लेकिन अब उनके हर कदम में दर्द है और हर सांस में भारीपन। वह कहती हैं, "इलाज बहुत कराया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। मन को दिलासा दिलाने के लिए इलाज करा रही हूं, लेकिन जानते हुए भी मैं जानती हूं कि ये सब दूषित पानी की वजह से हुआ है।"
बिजेंद्री के पति 62 वर्षीय हरिलाल भी बीमारी से जूझ रहे हैं। उन्हें हर्निया की समस्या है, लेकिन इसके साथ ही आर्सेनिक का असर उनके शरीर पर साफ नजर आता है। गले के नीचे के हिस्से पर लाल चकत्ते हैं, और हथेलियों में दरारें उभर आई हैं। उनके पांच बच्चे भी इस जहर का शिकार हो चुके हैं। हरिलाल बताते हैं, "हमारे गांव के सीताराम, ऋषिकेश और रमेशसर की जिंदगी भी आर्सेनिक की वजह से खत्म हो गई। उन्हें गंभीर बीमारियाँ हुईं, और जवानी में ही उनकी मौत हो गई।"
हरिलाल की हालत देखकर यह महसूस होता है जैसे कोई अदृश्य बोझ उनके शरीर को तोड़ रहा हो। उनकी गर्दन झुकी हुई है, हाथ खुरदुरे हो गए हैं, और हड्डियाँ कमजोर हो चुकी हैं। वह कहते हैं, "दस साल पहले मैं भी एक जवान था, अखाड़े में कुश्ती लड़ता था। अब चलने में भी मुश्किल होती है। यह सब उसी पानी की वजह से हुआ है, जिसे हमने बचपन से पिया है। हमारे गांव में हर कोई किसी न किसी समस्या से जूझ रहा है।"
वहीं, 40 वर्षीय राधिका देवी की स्थिति भी गंभीर है। वह गांव में परचून की दुकान चलाती हैं और हमेशा अपने हाथों-पैरों में फुंसियां और घाव देखती रहती हैं। उनका इलाज बार-बार हुआ, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। उनका शरीर हमेशा दर्द और घावों से भरा रहता है। राधिका कहती हैं, "जब यहां शादी करके आई थी तो बिलकुल स्वस्थ थी। लेकिन धीरे-धीरे यह पानी मुझे खा गया, चुपचाप, बिना किसी हलचल के। इस पानी ने मेरे शरीर को नष्ट कर दिया है।" राधिका कहती हैं, "हमारे पास पैसा नहीं है कि हम आरओ प्लांट लगवा सकें। गांव में हर किसी को मेरी तरह की समस्या है। हैंडपंप का पानी रख दें तो माड़ जैसा हो जाता है।"
आर्सेनिक का यह दर्द सिर्फ बिजेंद्री और राधिका का नहीं है, बल्कि करकटपुर गांव के सैकड़ों लोग इस जहर का शिकार हो चुके हैं। कई साल पहले यहां ट्यूबवेल लगाने के लिए बोरवेल खोदी गई थी, लेकिन सरकारी अधिकारियों ने उसे ढक्कन लगाकर लापता कर दिया। फिर से बोरवेल पर उपले रखे जाने लगे। जहां ट्यूबवेल लगाने की योजना थी, वहां दलितों और मल्लाहों की बस्ती है। करकटपुर के लोगों की आँखों में अब कोई उम्मीद नहीं बची। वे जानते हैं कि कभी भी आर्सेनिक का जहर उनकी जिंदगी को पूरी तरह से तबाह कर सकता है, लेकिन उनके पास इस समस्या से लड़ने का कोई उपाय नहीं है।
ज़िंदगी के हाथों में उभरते चकत्ते
धरम्मरपुर ग्राम पंचायत से जुड़ा करकटपुर गांव पिछले कुछ महीने से ओवरहेड टैंक से जलापूर्ति होने के कारण थोड़ी राहत महसूस कर रहा है। लेकिन यह राहत कब तक बनी रहेगी, कोई नहीं जानता। 45 वर्षीय सुरेश चौधरी की पत्नी लक्ष्मीना देवी आशा कार्यकर्ता हैं। उनके चार बच्चे—पूजा, नेहा, धनंजय और मृत्युंजय—भी इस जहरीले पानी का प्रभाव झेल रहे हैं। लक्ष्मीना बताती हैं, "हमारे गांव में कुछ महीने से सरकारी नल से पानी मिल रहा है, पर जब पाइपलाइन टूट जाती है, तो फिर हैंडपंप का ही सहारा लेना पड़ता है। हमारे बच्चे अभी भी आर्सेनिकजनित चकत्तों से परेशान हैं।"
धरम्मरपुर ग्राम पंचायत के पूर्व प्रधान भीम सिंह यादव बताते हैं, "करीब 20 साल से हम इस समस्या से जूझ रहे हैं। यहां करीब 300 इंडिया मार्का हैंडपंप लगे हैं, लेकिन अधिकतर हैंडपंप आर्सेनिक युक्त पानी ही उगल रहे हैं। जब मीडिया ने यह मामला उठाया तो 20-22 हैंडपंपों की डीप बोरिंग कराई गई, लेकिन बाकी को वैसे ही छोड़ दिया गया। हमें लगता है कि सरकार इस समस्या को लेकर कतई गंभीर नहीं है। हमारी ग्राम पंचायत में केवल एक पानी की टंकी है, जो पूरे गांव के लिए नाकाफी है।"
जल, जीवन और लापरवाही की कहानी
उत्तर प्रदेश के गंगोटिक इलाकों में पेयजल की गुणवत्ता को लेकर वाराणसी स्थित इनर वॉयस फाउंडेशन ने पिछले एक दशक तक गहन अध्ययन किया। संस्था द्वारा जांचे गए 14 लाख सैंपलों से यह भयावह सच्चाई सामने आई कि विशेष रूप से पूर्वांचल के जिलों में आर्सेनिक प्रदूषण विस्फोटक स्थिति में पहुंच चुका है। यह सिर्फ आंकड़ों की बात नहीं, बल्कि हजारों जिंदगियों पर मंडराता एक अदृश्य खतरा है। इसकी अनदेखी से मासूम बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक की ज़िंदगी दांव पर लगी है।
आर्सेनिक मिटिगेशन विशेषज्ञ सौरभ सिंह के अनुसार, "इनर वॉयस फाउंडेशन ने 2014 में इस मुद्दे पर काम शुरू किया। प्रारंभिक जांच में ही वाराणसी के दक्षिणी हिस्से के जलस्रोतों में आर्सेनिक की मौजूदगी दर्ज की गई। गंगा किनारे और उससे सटे गांवों में आर्सेनिक का स्तर मानक से कई गुना अधिक पाया गया। 2015 की जांच ने भी इन नतीजों की पुष्टि की। सबसे चिंताजनक स्थिति यह रही कि वाराणसी के कई गांवों में पाइपलाइन से सप्लाई होने वाले पानी में बैक्टीरिया संक्रमण भी मिला, जिससे पेट और लीवर की बीमारियां तेजी से फैल रही हैं।"
इनर वॉयस की रिपोर्ट के मुताबिक, गाजीपुर में पेयजल योजनाओं की स्थिति बेहद दयनीय है। एक बार स्थापित होने के बाद इनकी मरम्मत पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना भी असफल होती दिख रही है। करकटपुर, धरम्मरपुर और हंसराजपुर जैसे गांवों में आर्सेनिक प्रभावित मरीज बड़ी संख्या में मिले, जिनकी त्वचा पर धब्बे उभर आए हैं और कईयों में कैंसर जैसे लक्षण दिख रहे हैं। इन गांवों के जलस्रोतों में आर्सेनिक का स्तर 500 पीपीबी से अधिक दर्ज किया गया, जबकि WHO द्वारा निर्धारित मानक केवल 10 पीपीबी है।
बलिया जिले में स्थिति और भी भयावह है। यहां के 150 से अधिक गांवों में जलस्रोतों में आर्सेनिक का स्तर बेहद ऊंचा पाया गया, जिससे बड़ी संख्या में लोग कैंसर, त्वचा रोग और अन्य गंभीर बीमारियों से पीड़ित हैं। बलिया और बिहार के भोजपुर जिले में आर्सेनिक जनित रोगों से हजारों मौतें हो चुकी हैं, लेकिन सरकारी व्यवस्थाएं अब भी उदासीन बनी हुई हैं। 2013 में इनर वॉयस फाउंडेशन ने इस संकट को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के समक्ष रखा था, जिसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रभावित परिवारों को मुआवजा देने का आदेश दिया। लेकिन यह मुआवजा बीमारी से जूझ रहे लोगों के दर्द को कम करने के लिए नाकाफी साबित हुआ।
उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के तिवारीटोला गांव में लगभग प्रत्येक घर में कोई न कोई व्यक्ति आर्सेनिक से जुड़ी बीमारियों से ग्रस्त है। 63 वर्षीय तारकेश्वर तिवारी, जो लीवर सिरोसिस के मरीज हैं, बताते हैं कि वह पिछले दो दशकों से उपचार करा रहे हैं। उनका कहना है, "हमारी मेडिकल जांच में यह प्रमाणित हुआ कि हमारे पानी में आर्सेनिक की अत्यधिक मात्रा है। इसकी वजह से गठिया, थायरॉयड और हड्डियों में दर्द जैसी समस्याएं आम हो गई हैं।"
जहरीला पानी पीने को मजबूर बच्चे
इनर वॉयस फाउंडेशन के विशेषज्ञों का कहना है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के सैकड़ों विद्यालयों में बच्चे विषाक्त पानी पीने को मजबूर हैं। गाजीपुर और चंदौली के चार-चार, बलिया के 28 और वाराणसी के नौ स्कूलों में आर्सेनिक युक्त जल की पुष्टि हुई है। यह संख्या वास्तविक रूप से कहीं अधिक हो सकती है, क्योंकि यह जांच का केवल पहला चरण था। सबसे खतरनाक बात यह है कि गर्भवती महिलाओं द्वारा आर्सेनिक युक्त जल के सेवन से यह विष भ्रूण तक पहुंच जाता है, जिससे जन्मजात विकृतियां और कैंसर का खतरा कई गुना बढ़ जाता है।
इनर वॉयस के पांच वर्षों के फील्डवर्क में यह तथ्य सामने आया कि इस बीमारी से ग्रस्त लोगों के लिए कोई समुचित इलाज उपलब्ध नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टरों को भी इस बीमारी की पर्याप्त जानकारी नहीं है। कई गांवों में इसे एड्स या टीबी समझकर गलत तरीके से इलाज किया जा रहा है, जिससे रोगियों की स्थिति और भी बिगड़ रही है।
आर्सेनिक मिटिगेशन विशेषज्ञ सौरभ सिंह बताते हैं, "पिछले एक दशक में हजारों लोगों की जिंदगियां जाने के बावजूद सरकार का रवैया उदासीन बना हुआ है। भारत सरकार और मानवाधिकार आयोग की रिपोर्टें भी इस संकट की पुष्टि कर चुकी हैं, लेकिन कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई। पूर्वी उत्तर प्रदेश में हजारों करोड़ की पेयजल परियोजनाएं चलाई जा रही हैं, लेकिन गांवों में इनका प्रभाव नगण्य है। जलशक्ति मंत्रालय की वेबसाइट पर आर्सेनिक प्रभावित जिलों की सूची देखने पर पता चलता है कि कई गंभीर रूप से प्रभावित जिले इस सूची में शामिल ही नहीं हैं।"
आर्सेनिक युक्त पानी पीने से इन गांवों में आर्सेनिकोसिस, त्वचा रोग, कैंसर और किडनी की गंभीर बीमारियां फैल रही हैं। कई लोगों की त्वचा पर काले धब्बे उभर चुके हैं, तो कुछ के शरीर के अंदर आर्सेनिक ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। नवजात शिशु जन्म से ही कमजोर पैदा हो रहे हैं। इन गांवों के लोगों के लिए हर घूंट पानी धीमे ज़हर से कम नहीं।
क्या हो सकता है समाधान?
सौरभ कहते हैं, "सबसे बड़ी विडंबना यह है कि प्रशासन को इस समस्या की जानकारी है, लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। सरकार की 'जल जीवन मिशन' जैसी योजनाएं इन गांवों तक नहीं पहुंच पाई हैं। जल शुद्धिकरण संयंत्र लगाने की कोई पहल नहीं हुई, और न ही कोई वैकल्पिक जल स्रोत उपलब्ध कराया गया। जबकि कुओं को पुनर्जीवित करने जैसी सरल और कम लागत वाली योजनाओं पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया।"
मुख्य रूप से गाजीपुर, बलिया, बनारस, मिर्जापुर, भदोही और इलाहाबाद में गंगा के नजदीक बसे गांवों के लोग हर दिन ज़हर पीने को मजबूर हैं। यदि जल्द ही सुरक्षित पेयजल की व्यवस्था नहीं की गई, तो आने वाले वर्षों में यहां की स्थिति और भी भयावह हो जाएगी। सरकार, प्रशासन और समाज को इस संकट की गंभीरता को समझना होगा। आर्सेनिक सिर्फ एक तत्व नहीं, बल्कि एक अदृश्य हत्यारा है, जो गाजीपुर, बलिया और अन्य प्रभावित जिलों में धीरे-धीरे ज़िंदगी को लील रहा है। यदि आज भी कुछ नहीं किया गया, तो कल बहुत देर हो जाएगी।
गाजीपुर जिले में आर्सेनिक का खतरा सबसे अधिक सैदपुर तहसील क्षेत्र में हैं। आर्सेनिक के खतरे को कम करने के लिए प्रशासन क्या कर रहा है, इसका जवाब देने के लिए कोई तैयार नहीं है। सैदपुर तहसील क्षेत्र के ज्वाइंट मजिस्ट्रेट रामेश्वर सुधाकर सब्बनवाड़ और करंडा की खंड विकास अधिकारी शिवेदिता सिंह से कई बार संपर्क करने की कोशिश की गई, लेकिन दोनों अफसरों ने फोन नहीं उठाया। बीडीओ निवेदिता सिंह ने व्हाट्सएप मैसेज का जवाब तक नहीं दिया। इनकी ओर से कोई जवाब आता है तो रिपोर्ट में उनका पक्ष जोड़ दिया जाएगा।
बढ़ रहा कैंसर और हृदय रोगों का खतरा
इंटरनेशनल फेडरेशन फॉर इमरजेंसी मेडिसिन की क्लिनिकल प्रैक्टिस कमेटी की अध्यक्ष, डॉ. तामोरिश कोले के अनुसार, " आर्सेनिक, जो अपने विषैले गुणों के लिए जाना जाता है, शरीर में धीरे-धीरे जमा होता है और समय के साथ हृदय सहित कई अंगों को प्रभावित करता है। आर्सेनिक ऑक्सीडेटिव तनाव, सूजन और एंडोथेलियल डिसफंक्शन को बढ़ावा देकर एथेरोस्क्लेरोसिस (धमनियों में रुकावट) को बढ़ा सकता है, जिससे हृदय रोग का खतरा बढ़ जाता है। उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में सतर्क निगरानी, सख्त विनियमन, और व्यापक सार्वजनिक स्वास्थ्य पहल की आवश्यकता है।"
एक संसदीय समिति ने भी केंद्र सरकार को आर्सेनिक और अन्य भारी धातुओं के भूजल और पेयजल में बढ़ते प्रदूषण के प्रति सचेत किया है। बिहार के नवादा संसदीय क्षेत्र के भाजपा सांसद विवेक ठाकुर की अध्यक्षता वाली इस समिति ने चेतावनी दी थी कि आर्सेनिक संदूषण प्रभावित क्षेत्रों में कैंसर, त्वचा रोग, हृदय रोग और मधुमेह जैसी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं को बढ़ावा दे रहा है। जल शोध और अनुसंधान को बढ़ावा देने की जरूरत समिति ने प्रभावित क्षेत्रों में भूजल और पेयजल से आर्सेनिक, फ्लोराइड और अन्य भारी धातुओं को हटाने के लिए व्यापक अनुसंधान की आवश्यकता पर जोर दिया।
आईआईटी खड़गपुर का नया अध्ययन आईआईटी खड़गपुर के एक नए अध्ययन में दावा किया गया है कि भारत के कुल भू-भाग के करीब 20 प्रतिशत में आर्सेनिक का स्तर जहरीला है और देश की 25 करोड़ से अधिक आबादी इस खतरे का सामना कर रही है। अध्ययन में कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित अनुमान प्रणाली का उपयोग किया गया। यह अध्ययन "साइंस ऑफ द टोटल एनवायरोन्मेंट" जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
अध्ययन के नतीजों से संकेत मिलता है कि पूरे देश में आर्सेनिक स्तर के नमूने एकत्र करने के लिए अधिक जोरशोर से प्रयास करने की आवश्यकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, आर्सेनिक एक अत्यधिक जहरीला तत्व है, जिसकी लंबे समय तक उपस्थिति कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों का कारण बन सकती है।
अध्ययन में पाया गया कि भूजल में अत्यधिक आर्सेनिक की मात्रा वाले राज्यों में पंजाब (92%), बिहार (70%), पश्चिम बंगाल (69%), असम (48%), हरियाणा (43%), उत्तर प्रदेश (28%) और गुजरात (24%) शामिल हैं। आईआईटी खड़गपुर के एसोसिएट प्रोफेसर अभिजीत मुखर्जी के अनुसार, "भारत में भूजल में आर्सेनिक की अधिकता के कारण 25 करोड़ से अधिक लोग प्रभावित हो सकते हैं।" अध्ययन दल ने सरकार के जल जीवन मिशन के तहत 27 लाख क्षेत्र मापन का उपयोग किया, जिससे स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति में सहायता मिलेगी।
क्या कर रही सरकार?
भारत सरकार ने आर्सेनिक प्रदूषण से निपटने के लिए कई कदम उठाए हैं। सतत विकास लक्ष्यों के तहत वर्ष 2030 तक सभी नागरिकों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया है। इसके अलावा, जल जीवन मिशन के अंतर्गत वर्ष 2024 तक ग्रामीण भारत के प्रत्येक घर में पाइपलाइन के माध्यम से स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल पहुंचाने की योजना बनाई गई थी। हालांकि यह योजना आर्सेनिक और फ्लोराइड प्रभावित इलाकों में शुद्ध जल पहुंचाने में कामयाब नहीं हो सकी है।
केंद्र और राज्य सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद आर्सेनिक प्रदूषण की समस्या पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है और इसके समाधान के लिए ठोस रणनीति अपनाने की जरूरत है। बनारस के एक्टिविस्ट डा.लेनिन रघुवंशी कहते हैं, "आर्सेनिक विषाक्तता से स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ते हैं। लंबे समय तक इसके संपर्क में रहने से कैंसर, त्वचा संबंधी रोग, हृदय रोग, मधुमेह और संज्ञानात्मक विकास से जुड़ी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। विशेष रूप से गर्भावस्था और बाल्यावस्था में इसके प्रभाव अधिक हानिकारक होते हैं, क्योंकि यह मस्तिष्क के विकास को प्रभावित कर सकता है और युवाओं में मृत्यु दर को बढ़ा सकता है।
डा.लेनिन यह भी कहते हैं, "आर्सेनिक विषाक्तता को चिकित्सा विज्ञान में 'आर्सेनिकोसिस' कहा जाता है, जिसमें शरीर में आर्सेनिक के लगातार जमा होने के कारण विभिन्न प्रकार की विकलांगताएं उत्पन्न हो सकती हैं और स्थिति गंभीर होने पर मृत्यु भी हो सकती है। आर्सेनिक का खाद्य शृंखला में प्रवेश एक गंभीर स्वास्थ्य संकट है, जिससे निपटने के लिए एक बहु-आयामी दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। सरकार, वैज्ञानिक समुदाय और आम जनता—सभी को मिलकर इस समस्या के समाधान के लिए प्रयास करने होंगे। आर्सेनिक प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए दीर्घकालिक रणनीति विकसित करनी होंगी, ताकि आने वाली पीढ़ियां इस विषैले तत्व के प्रभाव से सुरक्षित रह सकें।"