नई दिल्ली: साल 2023 लैंगिक समानता के लिहाज से खासा महत्वपूर्ण साबित हुआ है। जहां एक तरफ महिलाओं के लिए संसद और राज्य विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें सुनिश्चित करने वाले ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ को पास किया गया, वहीं महिलाओं के नेतृत्व वाले विकास के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर करते हुए भारत की जी20 अध्यक्षता भी काफी सफल रही।

लेकिन सिक्के के दूसरे पहलू की तरफ देखें तो तस्वीर कुछ और ही नजर आएगी। विश्व आर्थिक मंच की 2023 की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट बताती है कि भारत 146 देशों में से 127वें पायदान पर है। हाल के बढ़ते रुझानों के बावजूद भारत की महिला श्रम बल भागीदारी दर दुनिया में सबसे कम बनी हुई है। महिलाओं के रोजगार की अनिश्चित प्रकृति, अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में उनका दबदबा, खराब कामकाजी स्थितियां और सामाजिक बीमा का न होना, वेतन में एक बड़ा अंतर, समय से वेतन न मिलना और बेहिसाब काम का बढ़ता बोझ जैसे मसलों के चलते लगातार चुनौतियां बढ़ रही हैं।

1 फरवरी को अंतरिम केंद्रीय बजट 2024-25 पेश होने जा रहा है। हम ठीक उससे पहले, लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए उन खास पहलुओं पर चर्चा कर रहे हैं, जिन पर बजट में ध्यान दिया जाना चाहिए। महिलाओं से जुड़े लक्ष्यों पर आगे बढ़ने के लिए इन मुद्दों से जुड़ी योजनाओं और पहलों के लिए कुछ बड़े एलान या आवंटन महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकते हैं।

महत्वपूर्ण वादे

जी20 घोषणा में महिलाओं के नेतृत्व वाले विकास पर जोर दिया गया था। यह संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य- 5: 'लैंगिक समानता और सभी महिलाओं और लड़कियों को सशक्त बनाना', आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण को बढ़ाने', 'लैंगिक डिजिटल विभाजन को दूर करने,'लैंगिक समावेशी जलवायु कार्रवाई को आगे बढ़ाने' और 'महिलाओं की खाद्य सुरक्षा, पोषण और कल्याण को सुरक्षित करने' पर केंद्रित था।

पिछले साल स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि उनका लक्ष्य अगले कुछ सालों में महिला स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) से जुडी 2 करोड़ महिलाओं को 'लखपति दीदी' बनाना है। सरकार ने जता दिया कि वह जी20 मंच पर महिलाओं के नेतृत्व वाले विकास पर जोर देने के भारत के प्रस्ताव के अनुरूप काम कर रही है। इस योजना में महिलाओं को कौशल प्रशिक्षण दिया जाएगा ताकि वे हर साल एक लाख से अधिक कमा सकें। इसके लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राज्यों में 15,000 एसएचजी को ड्रोन मुहैया कराने के लिए वित्तीय वर्ष 2024-25 से 2025-26 के लिए 1,261 करोड़ रुपये की मंजूरी दी है। एसएचजी की महिलाओं को ड्रोन चलाने का प्रशिक्षण दिया जाएगा।

आर्थिक सशक्तिकरण

वार्षिक आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत की महिला श्रम बल भागीदारी दर 2017-18 में 23.3% से बढ़कर 2022-23 में 37% हो गई। और इसमें सबसे बड़ा योगदान खासतौर पर, ग्रामीण महिलाओं का है। इसी अवधि के दौरान, महिलाओं की बेरोजगारी दर 5.6% से गिरकर 2.9% पर पहुंच गई।

शोध और आंकड़ों से पता चलता है कि कोविड-19 की वजह से बहुत से लोगों का रोजगार चला गया और इसका सबसे ज्यादा असर महिलाओं पर पड़ा (यहां, यहां और यहां देखें)। इंडियास्पेंड की वीमेन एट वर्क की दूसरी सीरीज में हमने उन विशेष चुनौतियों पर भी चर्चा की, जिसका सामना महिलाओं को महामारी के दौरान करना पड़ा था। इंडियास्पेंड ने जुलाई 2022 में अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि श्रम बल में महिलाओं की बढ़ती संख्या और बेरोजगारी में गिरावट इस बात का संकेत है कि महिलाओं ने खासतौर पर संकट के इस दौर में कम वेतन और कम गुणवत्ता वाली नौकरियां अपनाईं। जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर हिमांशु ने हमें बताया था कि ये स्थिति पहले के आर्थिक संकटों की तरह ही है। उदाहरण के तौर पर 1999 और 2004-05 के बीच उपजे कृषि संकट के समय, श्रमिकों की संख्या में 60 करोड़ का इजाफा हुआ था। उन्होंने कहा, "परिवारों को इस बात का अंदाजा रहता है कि उन्हें जिंदा बने रहने के लिए क्या करना है। जब उनकी आय गिरती है, तो वे महिलाओं और बुजुर्गों सहित घर के उन सभी सदस्यों को श्रम बल में धकेल देते हैं, जिन्हें काम मिल सकता है।"

आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि ग्रामीण महिलाएं महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) में काम करने लगीं हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, अगर 2017-18 और 2020-21 को छोड़ दिया जाए, तो एक दशक से 2023-24 तक, मनरेगा में महिलाओं की भागीदारी हर साल बढ़ी है। यहां तक कि 2017-18 और 2020-21 में भी, पुरुषों की तुलना में महिलाओं को मनरेगा के तहत ज्यादा दिन काम मिला था।

मनरेगा के तहत प्रत्येक ग्रामीण परिवार को साल में कम से कम 100 दिन का रोजगार उपलब्ध कराने की बात कही गई है। सरकारी आंकड़ों पर नजर घुमाएं तो पता चलता है कि योजना शुरू होने के बाद से आज तक ऐसा कभी नहीं हो पाया, कि सभी लोगों को पूरे 100 दिनों तक काम मिला हो। मार्च 2023 में हिंदू बिजनेस लाइन की रिपोर्ट बताती है कि प्रति परिवार काम के दिनों की उच्चतम औसत संख्या 2009-10 में 54 थी। वहीं 2023-24 में जिन 5.6 करोड़ परिवारों को मनरेगा के तहत काम मिला, उनमें से 22 लाख से भी कम लोगों को 100 दिन तक का काम मिल पाया था। यह संख्या एक दशक में सबसे कम है।

इंडियास्पेंड ने सरकारी आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए पाया कि, महामारी से पहले भी मनरेगा के तहत रोजगार की मांग ऊपर बनी हुई थी, लेकिन फंड की कमी थी। इसका नतीजा ये रहा कि सितंबर 2023 तक फंड खत्म हो गया और वित्त मंत्रालय ने बाद में मनरेगा के लिए अतिरिक्त 10,000 करोड़ रुपये आवंटित किए। सरकार ने दिसंबर 2023 में लोकसभा को बताया कि 29 नवंबर, 2023 तक केंद्र सरकार पर 2,020.6 करोड़ रुपये की वेतन देनदारियां और 4,939.6 करोड़ रुपये की भौतिक देनदारियां लंबित थीं।

भारत में सार्वजनिक नीतियों और सरकारी वित्त पर ध्यान केंद्रित करने वाले थिंक-टैंक ‘सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटेबिलिटी’ (सीबीजीए) ने केंद्रीय बजट डेटा का विश्लेषण किया है। उनके अनुसार, आवंटन में तेजी नहीं आई है। महामारी वर्ष के बाद से योजना के लिए दिया जाने वाला फंड लगभग आधा हो गया है।

इसकी वजह से मजदूरी के भुगतान में देरी होती है और लोगों के लिए काम के दिनों की संख्या भी कम हो जाती है। आजीविका के लिए योजना पर निर्भर ग्रामीण महिला श्रमिकों पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है। देर से भुगतान की बड़ी वजह केंद्र सरकार की ओर से फंड जारी करने में देरी और कथित भ्रष्टाचार है। इसके अलावा आधार-आधारित भुगतान प्रणालियों और उपस्थिति निगरानी एप्लिकेशन में मौजूदा खामियां भी इसके लिए जिम्मेदार हैं।

ऐसे देश में जहां 73.2% ग्रामीण महिला श्रमिक कृषि में लगी हुई हैं, वहां महिलाओं के पास सिर्फ 12.8% खेतों पर मालिकाना हक है। इंडियास्पेंड ने सितंबर 2019 की रिपोर्ट में इस बात की जानकारी दी थी। इसलिए खेती और उससे जुड़े क्षेत्रों के लिए बजट आवंटित राशि महिलाओं के जीवन और आजीविका को खासा प्रभावित करती है।

सीबीजीए में नीति विश्लेषक अंकिता अकोदिया कहती हैं, "कृषि बजट के आवंटन के हालिया पैटर्न बताते हैं कि इन दिनों ज्यादा जोर विशेष किसान-केंद्रित पहलों पर है, जबकि पारंपरिक कृषि विकास योजना (पीकेवीवाई) जैसी समुदाय-आधारित योजनाओं के महत्व की उपेक्षा की जा रही हैं। जबकि ये योजनाएं समूहों और जैव-संसाधन केंद्रों के गठन के जरिए जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए डिजाइन की गई है।" पीकेवीवाई में 30% आवंटन महिला किसानों के लिए रखा गया है। अगर और ज्यादा आर्थिक प्रोत्साहन दिया जाए तो पीकेवीवाई में महिलाओं की सामूहिक खेती का समर्थन करने की क्षमता है। इस योजना को 2022-23 में राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाई) में शामिल कर दिया गया था। कई योजनाओं को शामिल करने के बावजूद, एक छत्र योजना के रूप में आरकेवीवाई में भी 2023-24 में आवंटन में गिरावट देखी गई।

आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं के लिए वेतन कम, लेकिन काम अधिक

आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, सहायिका और मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) भारत की स्वास्थ्य देखभाल की अग्रिम पंक्ति में हैं, लेकिन उनसे अधिक काम लिया जाता है और उन्हें दिया जाने वाला वेतन काफी कम होता है। इंडियास्पेंड ने पहले भी इस मसले से जुड़ी रिपोर्ट प्रकाशित की है। सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि जुलाई 2023 तक, भारत में 13 लाख आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और 12 लाख आंगनवाड़ी सहायिकाएं थीं। आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को 3,500 रुपये से 4,500 रुपये के बीच भुगतान किया जाता है और सहायिकाओं को महज 2,250 रुपये का मानदेय मिलता है। उनके इस वेतन में 500 रुपये की प्रोत्साहन राशि के अलावा, राज्यों द्वारा भुगतान किया जाने वाला अतिरिक्त मानदेय भी शामिल है। वेतन में बढ़ोतरी, बेहतर कामकाजी परिस्थितियों, सरकारी कर्मचारियों के रूप में मान्यता और सामाजिक बीमा को लेकर आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं ने साल 2023 के आखिर में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, बिहार और महाराष्ट्र में हड़ताल की थी।

आंगनवाड़ी सेवाएं ‘सक्षम आंगनवाड़ी और पोषण 2.0’ योजना के अंतर्गत दी जाती हैं। यह एक केंद्र प्रायोजित योजना है। इस योजना में केंद्र सरकार की हिस्सेदारी 60 फीसद होती है, वहीं 40 फीसद की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होती है। सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि दिसंबर 2023 तक, तमिलनाडु और गोवा में योग्यता और अनुभव के आधार पर अतिरिक्त मानदेय का प्रावधान सबसे अधिक था, जबकि अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड में अतिरिक्त मानदेय नहीं दिया जा रहा था।

महिला सशक्तिकरण के लिए काम करने वाले जमीनी स्तर के संगठन एक्शन इंडिया में बतौर ...... काम करने वाली .......कहती हैं, "दिल्ली में आंगनवाड़ी सहायिकाओं को हर महीने लगभग 6,810 रुपये मिलते हैं। शहर में रहने के औसत खर्च को ध्यान में रखते हुए इस बढ़ाने की जरूरत है।"

लेकिन पिछले तीन सालों में ऐसी योजनाओं के लिए आवंटन में कोई बदलाव नहीं किया गया है। इसे देखते हुए फेमिनिस्ट पॉलिसी कलेक्टिव की ओर से बजट के लिए प्रमुख सिफारिशें की गई हैं, जिसमें आवंटन बढ़ाने के साथ-साथ आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को दिए जाने वाले मानदेय में बढ़ोतरी की बात कही गई है।

निर्भया फंड का अभी भी कम इस्तेमाल

भारत में लैंगिक हिंसा से निपटने के लिए कई कानून, नीतियां और कार्यक्रम बनाए गए हैं। हमने पिछले साल अपनी रिपोर्ट में बताया था कि इन योजनाओं और कानूनों को लागू करने के लिए हर साल सार्वजनिक संसाधन आवंटित किए जाते हैं, लेकिन ज्यादातर फंड का इस्तेमाल हिंसा होने के बाद ही किया जाता हैं। हमारे विश्लेषण से पता चला कि लैंगिक हिंसा से निपटने के इन उपायों के लिए भी संसाधन अपर्याप्त हैं।

2013 में महिलाओं की सुरक्षा के लिए निर्भया फंड की शुरुआत की गई थी। यह एक नॉन लेप्सेबल कॉर्पस फंड है यानि एक ऐसा फंड जो वित्तीय वर्ष के अंत में समाप्त नहीं होता है। इस राशि को तब तक आगे बढ़ाया जाता रहता है जब तक की उसका पूरा इस्तेमाल न कर लिया जाए। महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा दिसंबर 2023 में राज्यसभा में प्रस्तुत किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि वित्तीय वर्ष 2023-24 तक केवल 70% फंड का ही इस्तेमाल किया जा सका है। कहने का मतलब है कि योजना के तहत 7,212 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। योजना की शुरुआत से लेकर अब तक सिर्फ 5,119 करोड़ रुपये ही खर्च हो पाए है। मंत्रालय ने कहा कि इसके फंड के कम इस्तेमाल करने की वजह राज्यों से उपयोगिता प्रमाणपत्र नहीं मिलना हो सकता है।

इंडियास्पेंड ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि निगरानी परियोजनाओं के लिए असमान वितरण पैटर्न और फंड के काफी कम इस्तेमाल की वजह से निर्भया फंड बेकार हो रहा है। उदाहरण के तौर पर अब तक मूल्यांकित कुल फंड (12,008.4 करोड़ रुपये) में से लगभग एक चौथाई आठ शहरों के एकल प्रोजेक्ट-'सेफ सिटी' प्रस्तावों के लिए मूल्यांकित किया गया है।

स्कीम डैशबोर्ड के मुताबिक, जिन 42 योजनाओं को लिए बजट का मूल्यांकन किया गया था, उनमें से 12 के लिए किसी भी तरह के फंड का इस्तेमाल नहीं किया गया है। इसमें 'बलात्कार/सामूहिक बलात्कार पीड़िताओं और गर्भवती होने वाली नाबालिग लड़कियों की न्याय तक पहुंच बनाने और उनकी देखभाल और सहायता के लिए योजना' शामिल हैं। इसके लिए 'समर्थ वित्त अधिकारी' से अप्रैल 2023 तक बजट को मंजूरी नहीं मिल पाई थी।

कम इस्तेमाल और फंड की कमी का यह दोहरा मुद्दा निर्भया फंड के अंतर्गत आने वाली योजनाओं के कार्यान्वयन को प्रभावित करता है। एक मामला वन स्टॉप सेंटर का है, जहां वेतन की अपर्याप्तता और देरी से भुगतान कर्मचारी के लिए परेशानी बनी हुई हैं। हिंसा से बचे लोगों को बेहतर सेवाएं देना एक मुश्किल चुनौती बनी हुई है। लैंगिक मामलों के बजट के विशेषज्ञ ने तर्क दिया, " निर्भया फंड का इस्तेमाल कर्मचारियों के वेतन की बजाए, महिला सुरक्षा और उससे जुड़ी योजनाओं के क्रियान्वयन पर खर्च किया जाना चाहिए।"

प्रधानमंत्री मुद्रा योजना में छोटे और सूक्ष्म उद्यमों को बिना कुछ गिरवी रखे लोन दिया जाता है। नवंबर 2023 तक, इस योजना का लाभ उठाने वालों में लगभग 69% महिलाएं थीं। महिलाओं और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लोगों के बीच उद्यमशीलता को बढ़ावा देने वाले स्टैंड अप इंडिया के लाभार्थियों में भी 84% हिस्सा महिलाओं का है। 2016 में शुरू की गई इस योजना को अब 2025 तक बढ़ा दिया गया है।

हालांकि, दोनों योजनाओं को 2022-23 (बीई) में नया आवंटन नहीं मिला, जो निकट भविष्य में उनके बंद होने की संभावना का संकेत है।

हालांकि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिलाओं के बीच जमीनी स्तर पर उद्यमशीलता को बढ़ावा देने वाली स्टैंड अप इंडिया योजना को 2025 तक बढ़ा दिया गया है, लेकिन भविष्य में इस योजना का क्या होने वाला है, यह कह पाना बेहद मुश्किल है।

दिसंबर 2023 में, पीएमएमवाई के तहत मंजूर किए गए लोन के आंकड़े बताते हैं कि यह अब तक की सबसे बड़ी संख्या रही है। अगर पिछले सालों की तुलना करें तो साल-दर-साल इनकी संख्या में 16% की बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है और यहां भी महिला उद्यमियों की संख्या काफी ज्यादा है। इस तरह के रुझानों को देखते हुए इन योजनाओं को बनाए रखने के लिए फंड की जरूरत होगी। क्योंकि ज्यादातर ग्रामीण महिलाएं छोटे व्यवसाय चलाने के लिए इन योजनाओं पर ही निर्भर हैं।

आगामी केंद्रीय बजट में प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (पीएम-किसान) योजना के तहत छोटी और सीमांत जोत वाली महिला किसानों के लिए नकद हस्तांतरण दोगुना यानी 12,000 रुपये होने की उम्मीद है।

सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटेबिलिटी (सीबीजीए) के एक विश्लेषण के मुताबिक, हालांकि 2023-24 में योजना के लिए आवंटन में कटौती की जा सकती है। लेकिन योजना में आवंटन को बढ़ाना, इस कदम को मजबूती देने के लिए जरूरी है। कृषि जनगणना 2015-16 के आंकड़े बताते हैं, भले ही 60 फीसद से ज्यादा किसान महिलाएं हैं, लेकिन जमीन पर मालिकाना हक रखने वाली महिला किसानों की संख्या महज 13.96% ही है। इसलिए इस तरह की योजना से महिला किसानों के सिर्फ छोटे से हिस्से को ही फायदा पहुंचेगा।