धराली, उत्तरकाशी: उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से लगभग 245 किलोमीटर की दूरी पर पिछले 5 अगस्त तक एक गांव हुआ करता था, जिसका नाम था धराली। 5 अगस्त की दोपहर धराली के 26 घर, होटल और होमस्टे गंगोत्री की तरफ से आए मलबे में बह गए और कई जिंदगियां उस मलबे में समा गईं।

माना जा रहा है कि धराली में आई आपदा का कारण बदल फटना है। धराली गांव के ऊपर एक ग्लेशियर झील थी, जो बादल फटने की वजह से टूट गई। उत्तरकाशी के दो मुख्य पर्यटक व धार्मिक स्थल धराली और हर्षिल अब मलबे के भीतर समा चुके हैं।

धराली हिंदुओं के लिए एक मुख्य जगह हुआ करती थी क्योंकि यहां पांच केदार का एक मंदिर था और यह गंगोत्री ग्लेशियर तक जाने के लिए एक अंतिम गांव हुआ करता था। इस आपदा के बाद यहां पर कुछ ही घर बचे हुए हैं और उनमें रह रहे लोगों को सरकार ने सुरक्षित स्थान पर पंहुचा दिया है। मलबे में फंसे लोगों को ढूंढ़ने की कोशिश अब भी जारी है।

गंगोत्री ग्लेशियर, हिन्दूकुश हिमालय पर्वत श्रृंखला का एक अहम हिस्सा है और स्थानीय लोगों व विशेषज्ञों की माने तो यहां पर हुए अनियोजित विकास ने इस आपदा को न्यौता दिया है।

क्यों हुआ यह हादसा ?

क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क साउथ एशिया के निदेशक संजय वशिष्ठ ने इंडियास्पेंड हिंदी से टेलीफोन पर हुई बातचीत में कहा कि यह बादल और हिमनद झील के फटने का मामला है, जिसके परिणामस्वरूप भूस्खलन हुआ और यह धराली के निवासियों के लिए जानलेवा साबित हुआ। उन्होंने कहा, "अगर सिर्फ पानी होता तो पानी नीचे बह जाता या कहीं झील बना लेता, लेकिन जो कीचड़ आया, उसने वहां की इमारतों को उखाड़ दिया। बादल फटने के कारण हिमनद झील की दीवारें बाईं और दाईं ओर से टूट गईं, इसलिए यह घटना हुई।"

भारतीय हिमालय में यह पहली आपदा नहीं है। इससे पहले केदारनाथ और चमोली में कुछ इसी तरह की घटनाएं हो चुकी है, जिनमें हजारों लोगों की मौत हुई है। एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक दशक में उत्तराखंड में प्राकृतिक या दैवीय आपदाओं में लगभग 3500 लोगों की जान गई है।

पिछले एक दशक में उत्तराखंड, लद्दाख और सिक्किम में चार बड़ी हिमनद-जनित आपदाएं दर्ज हुई हैं, जिनमें 2013 और 2021 की उत्तराखंड आपदाएं प्रमुख हैं। जबकि हिमाचल प्रदेश में अब तक ऐसा कोई मामला सामने नहीं आया है।

एक शोध अध्ययन "एशिया के ऊंचे पहाड़ों में बड़े ग्लेशियर-संबंधी भूस्खलनों की घटनाओं में वृद्धि" के अनुसार, “अध्ययन क्षेत्र की लैंडसैट छवियों में 1999 से 2018 की अवधि में कुल 127 भूस्खलनों का पता चला। ये भूस्खलन मुख्य रूप से काराकोरम पर्वत, पामीर पर्वत के पूर्वी भाग, पश्चिमी हिमालय और हिंदू कुश के दक्षिण में केंद्रित हैं।”

आईआईटी मुंबई के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख और अंतःविषय जलवायु अध्ययन कार्यक्रम के अध्यक्ष डॉ। सुबिमल घोष कहते हैं, “प्रति डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि के साथ बार‍िश भी सात से आठ प्रतिशत बढ़ जाती है और यही हम वर्तमान में देख रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के साथ बदलते मौसम की घटनाएं बढ़ रही हैं और आने वाले वर्षों में भी बढ़ती रहेंगी। हमें खुद को बेहतर तरीके से तैयार करना होगा ताकि हम वास्तव में ऐसी स्थितियों का प्रबंधन कर सकें।”

“हमारे पास पूर्व चेतावनी प्रणाली और बेहतर अनुकूलन डिजाइन होने चाहिए, जिनकी इस समय बहुत आवश्यकता है। बाढ़ के मैदानों का ज़ोनिंग करना और उन क्षेत्रों की पहचान करना बहुत महत्वपूर्ण है, जो बाढ़ के लिए अत्यधिक प्रवण हैं। यदि ज्‍यादा वर्षा की पूर्व चेतावनी है, तो अत्यधिक बाढ़ क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र से तुरंत निकासी करें। हमें चक्रवातों को संभालने के तरीके से सीखना चाहिए। हमें खतरे के स्तर के अनुसार स्थानों को सूचीबद्ध करने की आवश्यकता है और केवल इसी तरह हम लोगों को बचा सकते हैं,” वह आगे कहते हैं।

वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव में हिमालय वैश्विक औसत दर से तीन गुना अधिक गर्म हो रहा है। बढ़ते तापमान ने हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने और बर्फ के आवरण के नुकसान को तेज करके इस समस्या को और बढ़ा दिया है। यह तेजी से पिघलना ग्लेशियर झीलों को और अधिक तेजी से भर देता है, जिससे ज्‍यादा प्रवाह और नीचे की ओर बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है। इसके अतिरिक्त ग्लेशियरों का पतला होना पहाड़ी ढलानों को अस्थिर करने में योगदान देता है।

वर्ष 2024 में राज्य सभा में दिए गए एक लिखित जवाब में बताया गया कि केंद्र सरकार ने हिमनदों के पिघलने, ग्लेशियर झीलों के फैलाव और संभावित ग्लेशियर झील फटने (GLOF) के खतरे पर अध्ययन के लिए कई राष्ट्रीय संस्थानों और विश्वविद्यालयों को जोड़ा है। अध्ययनों में हिमाचल, उत्तराखंड और सिक्किम में कई मौजूदा और संभावित हिमनदीय झीलों की पहचान की गई है, जिनसे अचानक बाढ़ और भूस्खलन जैसे खतरे बढ़ सकते हैं।

भारत सरकार के अनुसार, हिमालयी ग्लेशियरों में तेज़ी से हो रहा पिघलाव एक गंभीर चिंता का विषय है और इसे कई राष्ट्रीय संस्थान व विश्वविद्यालय लगातार मॉनिटर कर रहे हैं। अध्ययनों से पता चला है कि हिंदूकुश हिमालय क्षेत्र में औसतन 14.9 मीटर प्रति वर्ष की दर से ग्लेशियर पीछे हट रहे हैं, जबकि गंगा बेसिन में यह दर 15.5 मीटर और ब्रह्मपुत्र बेसिन में 20,2 मीटर प्रति वर्ष है।

यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स के एक अध्ययन में पाया गया कि पिछले कुछ दशकों में हिमालयी ग्लेशियर, पिछले 400-700 वर्षों की तुलना में 10 गुना तेज़ी से सिकुड़े हैं, जिससे उनका लगभग 40% क्षेत्रफल घट चुका है। उत्तराखंड के भागीरथी बेसिन में स्थित डोक्रियानी ग्लेशियर 1995 से हर साल 15-20 मीटर पीछे हट रहा है, जबकि मंदाकिनी बेसिन का चोराबाड़ी ग्लेशियर 2003 से 2017 के बीच 9-11 मीटर प्रति वर्ष की दर से पिघला है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक 2013 से 2023 के बीच उत्तराखंड में हिमनदीय झीलों की संख्या में 1।9%, जबकि इनके क्षेत्रफल में 8।1% की वृद्धि दर्ज की गई, जो मुख्यतः तापमान में लगातार बढ़ोतरी का परिणाम है। अलकनंदा बेसिन में सबसे अधिक 580 और भागीरथी में 341 हिमनदीय झीलें मिली जबकि रामगंगा बेसिन में कोई झील नहीं पाई गई।

अध्ययन में पाया गया कि 1290 में से 1001 झीलें 4500 मीटर से अधिक ऊंचाई पर स्थित हैं, जिनमें से अधिकतम झीलें चमोली और उत्तरकाशी जिलों में हैं।

आईसीआईएमओडी के हिमनद-जलविज्ञानी मोहम्मद फ़ारूक़ आज़म कहते हैं कि इस घटना को लेकर विशेषज्ञों की अलग-अलग राय है।

“एक राय यह है कि वहां कई छोटी झीलें थीं और ये झीलें संतृप्त थीं। संभवतः ये फट गई होंगी और इसका व्यापक प्रभाव पड़ा होगा। जब यह रास्ते में नीचे आया, तो इसने अन्य झीलों को फटने में मदद की और अंततः सारा पदार्थ (गाद) घाटी के तल में नीचे आ गया। दूसरी राय यह है कि वहां बर्फ और चट्टानों का हिमस्खलन हुआ होगा और इस तरह की घटना हुई होगी। अभी तक मुझे नहीं लगता कि यह बादल फटना था क्योंकि भारी वर्षा नहीं हुई थी, लेकिन यह बहुत लंबे समय, मान लीजिए 24 घंटे के लिए निर्धारित थी, इसलिए इस संभावना को खारिज किया जा सकता है और मैं पहली राय से अधिक सहमत हूं।”

ग्लोबल वार्मिंग हो रही है और परिणामस्वरूप चरम मौसम की घटनाओं की आवृत्ति भी बढ़ गई है। ग्लोबल वार्मिंग न केवल हमारे ग्लेशियरों और बर्फ की परतों को पिघला रही है, बल्कि पर्माफ्रॉस्ट को भी पिघला रही है। पर्माफ्रॉस्ट जमी हुई मिट्टी है और इसमें पानी जमा होता है। यह पर्माफ्रॉस्ट हजारों सालों से मौजूद है और अब ग्लेशियरों की तरह पर्माफ्रॉस्ट भी पिघल रहा है और पृथ्वी को अस्थिर कर रहा है। जिससे भूमि धंस रही है और भूस्खलन हो रहा है। हमने इसे सिक्किम आपदा में देखा, जहां पर्माफ्रॉस्ट से प्रेरित भूस्खलन ने दक्षिण ल्होनक झील से ग्लेशियर झील विस्फोट बाढ़ (GLOF) को जन्म दिया," उन्होंने कहा।

"पर्माफ्रॉस्ट निश्चित रूप से हिमालयी क्षेत्र में भी अपनी भूमिका निभा रहा है क्योंकि हमारे पास आर्कटिक क्षेत्र में इसके भारी विनाश के प्रमाण हैं। हालांकि, हिमालयी क्षेत्र में इस पर अधिक चर्चा नहीं की जाती है। हो सकता है कि इस घटना में इसकी कुछ भूमिका रही हो, लेकिन हमें नहीं पता और हमें इसकी जांच करने की आवश्यकता है," उन्होंने कहा।

भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी के क्लिनिकल एसोसिएट प्रोफेसर (शोध) अंजल प्रकाश का कहना है कि धराली की स्थिति एक गर्म होते ग्रह की चेतावनी है, चाहे वह बादल फटने, ग्लेशियर झील के फटने या भूस्खलन से प्रेरित बाढ़ से उत्पन्न हुई हो। यह आपदा हिमालयी क्षेत्र में मौसम की बढ़ती अप्रत्याशितता और प्रचंडता को रेखांकित करती है। पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र की नाजुकता और अनियंत्रित विकास से जुड़ा जलवायु परिवर्तन एक बार की आपदा को बार-बार आने वाले खतरों में बदल रहा है।

“हिंदू कुश क्षेत्र में बदलती जलवायु के कारण ऐसा हुआ है। हिंदू कुश हिमालयी क्षेत्र के सभी सात देश बदलती जलवायु का प्रकोप झेल रहे हैं। दूसरा पहलू निश्चित रूप से अनियोजित विकास है, जो हम उत्तराखंड में देख रहे हैं। इस घटना के बारे में दो सिद्धांत हैं, एक बादल फटना, लेकिन मैं इस पर विश्वास नहीं करता क्योंकि ज्यादा बारिश नहीं हुई थी जिससे बादल फटे। दूसरा, जलवायु परिवर्तन के कारण हिमनद हिमस्खलन है। यह ग्लेशियर एक जलाशय में बदल गया है। हो सकता है कि जहां मलबा आया है, वहां से कुछ हजार मीटर ऊपर कोई दरार पड़ी हो। साथ ही, इन क्षेत्रों की ठीक से निगरानी नहीं की जाती है और हमें तभी पता चलता है जब ऐसा कुछ होता है,” उन्होंने कहा।

“खतरनाक निर्माण पर तत्काल प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए और भूमि उपयोग योजना को लागू किया जाना चाहिए। नदी के किनारों और बाढ़ के मैदानों में निर्माण पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। हिमालय के नाजुक क्षेत्रों में पर्यावरण का आकलन होना चाहिए।”

हालांकि उत्तराखंड के आपदा प्रबंधन सचिव विनोद कुमार सुमन ने इंडियास्पेंड से बातचीत में बताया कि फिलहाल इस घटना पर कुछ कह नहीं सकते।

“अभी कुछ भी कहना बहुत मुश्किल है। हम अभी इसे एक बादल फटने की घटना की तरह देख रहे है लेकिन जिस दिन यह आपदा आयी उस दिन सिर्फ 8mm ही बारिश हुई थी तो ऐसे में इस तरह की तबाही आना थोड़ा मुश्किल है। फिलहाल हमने वैज्ञानिकों की एक टीम को इसकी जांच करने के लिए कहा है जो मौसम सुधरने पर वह जाएगी और इसकी जांच करेगी।” सुमन ने यह भी बताया की धराली या गंगोत्री के ऊपर कोई भी ऐसा अर्ली वार्निंग सिस्टम नहीं लगा जिसकी वजह से लोगो को पहले से सरकार आगाह नहीं कर पायी।

उत्तरकाशी के मातली में बने ITBP कैंप में प्रदीप भंडारी अपने भाई को ढूंढ़ने के लिए अधिकारियों से उन्हें धराली तक हेलीकाप्टर से जाने के लिए आग्रह करते हुए। तस्वीर साभार सौरभ शर्मा

फिलहाल धराली से सेना ने 1200 से ज्यादा लोगों को सुरक्षित स्थान ले जाकर उनके पुनर्वास पर काम शुरू कर दिया है लेकिन प्रदीप भंडारी अभी भी आपने भाई को ढूंढ़ने के लिए सेना के अधिकारियों से उन्हें उनके होटल के मलबे तक ले जाने के लिए गुहार लगा रहे हैं।