कम होने के बावजूद भी क्यों खाली पड़े रहते हैं बिहार के अस्पतालों में बिस्तर
बिहार में विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुरूप अस्पतालों की संख्या नहीं होने के बावजूद भी बहुत से अस्पतालों में बिस्तर खाली होते हैं जबकि राज्य में छह से नौ अस्पताल ऐसे भी हैं जिनमें 90% बिस्तर हर समय भरे रहते हैं और कभी-कभी बरामदों में मरीजों का इलाज किया जाता है। ये सभी अस्पताल मे़डिकल कॉलेजों से जुड़े हैं।
पटना: बिहार में जिला अस्पताल न केवल डॉक्टर और दवा की कमी से जूझ रहे हैं बल्कि बुनियादी इलाज नहीं मिलने और जांच आदि का खर्च स्वयं उठाने की बाध्यता के कारण इनमें मरीज भी नदारद हैं। स्वास्थ्य सेवा से जुड़े संगठनों और सरकारों की रिपोर्टों के अनुसार, बिहार में आबादी के अनुपात में अस्पतालों की कमी तो है ही, लेकिन अस्पतालों में मरीजों के नहीं जाने से अधिकतर बिस्तर खाली ही रहते हैं।
हालांकि राज्य में छह से नौ अस्पताल ऐसे भी हैं जिनमें 90% बिस्तर हर समय भरे रहते हैं और कभी-कभी बरामदों में मरीजों का इलाज किया जाता है। ये सभी अस्पताल मे़डिकल कॉलेजों से जुड़े हैं।
मुजफ्फरपुर के मड़बन की रहने वाली सुगनी देवी अपने जिले के सबसे नामचीन अस्पताल श्री कृष्णा मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल (एसकेएमसीएच) में वार्ड के बरामदे पर अपने पति रामदेव ऋषि के पास बैठी हैं। रामदेव ऋषि अस्पताल में बेड नहीं मिलने के कारण फर्श पर बिछे बिस्तर पर कराह रहे हैं। लेकिन शहर के ही सदर अस्पताल के वार्ड में कई बेड खाली हैं।
यह पूछने पर कि वे अपने पति को सदर अस्पताल लेकर क्यों नहीं जातीं, वहां तो इन्हें बेड मिल जाएगा, सुगनी देवी कहती हैं, "वहां बढ़िया इलाज नहीं होता है, डागदरे (डॉक्टर) नहीं रहता है तो इलाज कैसे होगा। यहां कम से कम डागदर रौंड मारता (राउंड लगाता) है तो पेशेंट को देख ही लेता है।"
जांच पड़ताल करने से पता चलता है कि जिला अस्पतालों में वे ही मरीज पहुंचते हैं जिनके पास निजी अस्पतालों में या बिहार से बाहर जाने का विकल्प नहीं है। इन मरीजों में समाज के बेहद गरीब तबके के सदस्य या कारावास में बंद कैदी होते हैं।
मुजफ्फरपुर जिले की दास्ताँ
बिहार के सरकारी अस्पतालों के अपनी क्षमता से ज़्यादा भरे होने और कुछ अस्पतालों के खाली रहने के इस अजीब मामले को मुजफ्फरपुर जिले के उदाहरण से समझा जा सकता है।
राज्य में मुजफ्फरपुर जिला मुख्यालय में दो बड़े सरकारी अस्पताल हैं। पहला एसकेएमसीएच, जो कि एक मेडिकल कॉलेज वाला अस्पताल है, और दूसरा सदर अस्पताल है। एसकेएमसीएच में 907 बिस्तर हैं। लगभग सभी बिस्तर पूरे साल भरे रहते हैं। कई बार हालात ऐसे हो जाते हैं कि एक बिस्तर पर दो-दो मरीजों को मरीज भर्ती करना पड़ता है। वार्डों के साथ-साथ अस्पतालों के गलियारों में मरीज बिना बिस्तर के लेटे नजर आते हैं।
दूसरी ओर, सदर अस्पताल में मात्र 164 बिस्तर हैं, जो ज्यादातर समय पूरे साल खाली ही रहते हैं। पूरे अस्पताल में सन्नाटा नजर आता है। वार्डों में इक्का-दुक्का ही मरीज नजर आते हैं। इनमें कई कैदी और ऐसे मरीज होते हैं, जिनके पास सदर अस्पताल में आने के सिवा कोई विकल्प नहीं होता है।
एसकेएमसीएच को छोड़ दिया जाए तो मुजफ्फरपुर जिले के दूसरे सभी सरकारी अस्पतालों के 91% बेड औसतन पूरे साल (2020-21) में खाली रहे। कोरोना काल में भी जब देश के हर हिस्से में सरकारी अस्पतालों में बेड की मारा-मारी थी, बिहार में कई अस्पतालों के बेड खाली थे। 23 अप्रैल, 2021 को पटना हाईकोर्ट ने यह जानकारी दी थी कि ऑक्सीजन की कमी की वजह से राज्य के तीन बड़े अस्पतालों के एक हजार से अधिक बेड खाली हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि कोविड की वजह से मरीज सरकारी अस्पतालों में नहीं पहुंचे। लेकिन पिछले साल भी जिले के सभी अस्पतालों के 69% बेड खाली रहे थे।
दिशा निर्देशों के मुताबिक, 10 लाख की आबादी पर एक अस्पताल होना चाहिए और इसका 'बेड ऑकुपेंसी रेट' 80% होना चाहिए। बिहार की आबादी (लगभग 12 करोड़) के अनुसार प्रत्येक जिला अस्पताल में कम से कम 220 बिस्तर होने चाहिए। लेकिन नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में जिला स्तरीय सरकारी अस्पतालों में प्रति एक लाख पर केवल छह बिस्तर है।
सरकार के बिहार आर्थिक सर्वेक्षण 2020-21 के मुताबिक वर्ष 2020-21 में राज्य के सरकारी अस्पतालों के 70% बिस्तर औसतन पूरे साल खाली पड़े रहे। वर्ष 2018-19 और 2019-20 में यह आंकड़ा 45% था। नीति आयोग की जिला अस्पताल रिपोर्ट भी कहती है कि बिहार के जिला अस्पतालों में भी बिस्तरों के प्रयोग की दर 'बेड ऑकुपेंसी रेट' केवल 56.28% है। इन सदर अस्पतालों में जहां पहले से ही बिस्तर कम है, वहां भी आधे बिस्तर खाली रह जाते हैं।
इस कम 'बेड ऑकुपेंसी रेट' पर रिपोर्ट बताती है कि जब तक अस्पतालों में पर्याप्त स्टाफ नहीं होंगे, कर्मियों की ड्यूटी शिफ्टवार तरीके से ठीक से नहीं लगती होगी, सभी 14 तरह की जांच की सुविधा नहीं होगी, सपोर्ट सेवाएं नहीं होंगी और मेडिकल उपकरणों की नियमित देखभाल नहीं होगी तब तक अस्पताल के बेड खाली ही रहेंगे।
बिहार के सरकारी अस्पतालों के इस संकट पर बात करते हुए मुजफ्फरपुर के चिकित्सक डॉ. निशींद्र किंज्लिक निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम को भी जिम्मेदार ठहराते हैं। "दरअसल बिहार के सरकारी अस्पतालों में बेड भरने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है, उनमें से ज्यादातर लोग अपने नर्सिंग होम और निजी अस्पतालों के बेड भरने की जुगत में रहते हैं। यह बिहार में ही मुमकिन है कि यहां सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर सैलरी भी लेते हैं, नॉन प्रैक्टिसिंग अलाउंस भी लेते हैं और अपना क्लिनिक व नर्सिंग होम भी चलाते हैं। वे सरकारी अस्पतालों में कम और अपने क्लिनिक, नर्सिंग होम तथा निजी अस्पतालों में ज्यादा वक्त देते हैं। इनमें से कई तो खुद सरकारी अस्पतालों के मरीज से कहते हैं कि यहां सुविधा नहीं है, बाहर इलाज करवा लें। ऐसे में सहज ही समझा जा सकता है कि सरकारी अस्पतालों के बेड क्यों खाली रहते हैं," डॉ. किंज्लिक कहते हैं।
मुख्यमंत्री के दावे को नकारते ये आंकड़े
रिपोर्ट में कहा गया है कि बिहार के 36 में से सिर्फ तीन जिला अस्पतालों में तय मानक के हिसाब से डॉक्टर कार्यरत हैं और केवल छह अस्पतालों में स्टाफ नर्स हैं। इसके अलावा 19 जिला अस्पतालों में अर्ध चिकित्सा कर्मचारी हैं और आठ जिला अस्पतालों में सभी 14 तरह की जांच की सुविधा है तथा केवल एक जिला अस्पताल में पर्याप्त सहायक सेवा उपलब्ध है।
इसी कारण से राज्य के सिर्फ छह जिला अस्पताल ऐसे हैं, जहां 90% से अधिक बिस्तर भरे रहते हैं। नीति आयोग की इस रिपोर्ट के मानकों पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सवाल उठाए हैं और कहा है कि वर्ष 2005 के मुकाबले बिहार में स्वास्थ्य सुविधाएं काफी बेहतर हुई हैं।
हालांकि आंकड़े उनके इस दावे के उलट हैं। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) की वर्ष 2019-20 के ग्रामीण स्वास्थ्य स्थिति रिपोर्ट (रूरल हेल्थ स्टेटस रिपोर्ट) के मुताबिक राज्य में सरकारी अस्पतालों की संख्या वर्ष 2005 में 12,086 थी जबकि वर्ष 2020 में यह संख्या बढ़ने के बदले घटकर 10,871 रह गयी। मानकों के अनुसार आबादी के अनुरूप बिहार में 25,772 सरकारी अस्पताल होने चाहिए।
नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण अस्पतालों में डॉक्टर, रोग विशेषज्ञ और सर्जन न के बराबर हैं। वर्ष 2020 के आंकड़ों के अनुसार इन अस्पतालों में सिर्फ 1,745 डॉक्टर है। इनमें रोग विशेषज्ञ और प्रसूति रोग विशेषज्ञ मात्र 124 हैं। वर्ष 2019 में इन अस्पतालों में सिर्फ 30 प्रसूति रोग विशेषज्ञ थे और 31 बाल रोग विशेषज्ञ है। अगर केवल जिला स्तर के अस्पतालों की बात की जाये तो यहां 1,551 स्वीकृत पदों के बदले सिर्फ 875 डॉक्टर कार्यरत हैं। अर्ध चिकित्सा कर्मचारी के पद भी आधे से अधिक खाली हैं।
हर तीन में से दो बिस्तर शहर के अस्पतालों में
राज्य स्वास्थ्य समिति से मिली जानकारी भी सरकारी अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या घटने की है। वर्ष 2017 में राज्य के सभी सरकारी अस्पतालों में 20,338 बिस्तर थे। इनमें 5,686 चिकित्सा महाविद्यालयों में और दूसरे सरकारी अस्पतालों में 14,652 बिस्तर थे। वर्ष 2019 में इनकी संख्या घटकर 18,875 रह गयी। इनमें चिकित्सा महाविद्यालयों में 5,658 और दूसरे अस्पतालों में 13,217 बिस्तर हैं। इनमें 36 जिला स्तरीय अस्पतालों में 4,764 बिस्तर, अनुमंडल स्तरीय अस्पतालों में 1,763 बिस्तर हैं।
आकड़ों के अनुसार 12,185 बिस्तर केवल शहरी इलाकों में हैं। राज्य में हर तीन में से दो बिस्तर शहरों में है। ग्रामीण क्षेत्र में केवल एक तिहाई बिस्तर हैं। इससे साफ है कि बिहार के सरकारी अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या बढ़ने के बदले लगातार घट रही हैं।
प्रति मरीज दवा पर सरकारी खर्च सबसे कम बिहार में
बिहार में जन स्वास्थ्य के मुद्दे पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. शकील कहते हैं कि राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं के जबरदस्त अभाव के बावजूद सरकारी अस्पतालों में बिस्तर खाली रहने का कारण इलाज पर होने वाला खर्च भी है। डॉक्टर की फीस के अलावा बाकी खर्च, जैसे जांच, दवा और परिजनों के रहने-खाने का खर्च लोगों को खुद उठाना पड़ता है। उनका कहना है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य व्यय अनुमान की एक रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने वाले मरीजों का सिर्फ 17% खर्च सरकारी अस्पताल वहन करते हैं। शेष 83% खर्च मरीजों को खुद वहन करना होता है। जिला अस्पतालों में जांच प्रयोगशालायें और दवाएं उपलब्ध नहीं हैं। यह सब मरीज को बाहर से कराना पड़ता है। बिहार सरकार प्रति मरीज दवाओं पर भी केवल रुपये 14 खर्च करती है, जो देश में न्यूनतम है।
डॉ. शकील कहते हैं, इसके अलावा सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर नहीं हैं, हेल्थ वर्कर और नर्स नहीं हैं। फिर क्यों कोई मरीज वहां इलाज कराने जायेगा। उनका कहना है कि बिहार में लंबे समय से सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की उपेक्षा हो रही है। उसके स्वास्थ्य क्षेत्र के बुनियादी ढांचे और मानव संसाधन पर बहुत कम खर्च हो रहा है। जब तक यहां मानव संसाधन बढ़ाया नहीं जाएगा, डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मचारियों की स्थायी नियुक्ति नहीं होगी, स्थिति ऐसी ही रहेगी।